भारतीयों को विश्वास था कि प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेज सरकार, भारतीयों द्वारा लम्बे समय से की जा रही होमरूल की मांग को स्वीकार करके भारतीयों को राहत देगी किंतु अंग्रेज सरकार ने होमरूल की मांग को अस्वीकार कर दिया तथा ई.1919 में रोलट कमेटी के गठन की घोषणा की। इससे कांग्रेस की बड़ी किरकिरी हुई तथा अंग्रेजों का घिनौना साम्रज्यवादी चेहरा एक बार फिर उजागर हो गया।
रौलट कमेटी ने दो एक्ट लागू करने की सिफारिश की- पहले एक्ट में यह प्रावधान था कि कुछ विशेष मामलों में भारतीयों को अपील का अधिकार न दिया जाये तथा उन मुकदमों की सुनवाई विशेष अदालतों में एकांत में हो। इस एक्ट में यह भी प्रावधान था कि किसी भी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर बंदी बना लिया जाये। कमेटी द्वारा सुझाये गये दूसरे एक्ट में यह प्रावधान था कि यदि किसी व्यक्ति के पास आपत्तिजनक दस्तावेज बरामद हों तो उसे दो साल का कारावास दिया जाये।
इसमें यह भी प्रावधान था कि यदि किसी व्यक्ति पर संदेह हो कि वह आपराधिक वारदात कर सकता है तो उससे जमानत मांगी जाये। स्पष्ट था कि रौलट कमेटी ने भारतीयों के नागरिक अधिकारों का निर्लज्ज हनन करने की सिफारिश की थी। इस कारण पूरे भारत में उत्तेजना फैल गई।
रौलट एक्ट के विरोध में गुजरात में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। अहमदाबाद में उग्र भीड़ ने पुलिस स्टेशन, तारघर एवं अन्य सरकारी भवनों में आग लगा दी और स्थान-स्थान पर उग्र प्रदर्शन करके इस काले कानून का विरोध किया। 13 अप्रेल 1919 को पंजाब प्रांत के अमृतसर में बैसाखी वाले दिन एक आम सभा का आयोजन किया गया। जनरल डायर ने निहत्थे एवं निर्दोष लोगों की सभा पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं जिससे 379 लोगों की मृत्यु हो गई तथा 1137 व्यक्ति घायल हो गये।
कांग्रेस ने जनरल डायर के कुकृत्य की जांच की मांग की। कांग्रेस को अपेक्षा थी कि रौलट एक्ट के विरोध में गांधीजी कुछ करेंगे किंतु गांधीजी बीमार थे इसलिये वे कुछ निर्णय नहीं ले सके और दिसम्बर 1919 तक कुछ नहीं किया जा सका। दिसम्बर 1919 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्र्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि रोलट एक्ट तथा जलियावालां नरसंहार के विरोध में सत्याग्रह और नागरिक अवज्ञा का आंदोलन चलाया जाये।
प्रस्ताव पारित होने के बाद पुनः एक साल तक कुछ नहीं किया गया। दिसम्बर 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता विजय राघवाचार्य ने की। इस अधिवेशन में पुनः सत्याग्रह आंदोलन वाला प्रस्ताव दोहराया गया। कांग्रेस, गांधीजी के कहने से प्रस्ताव तो पारित कर रही थी
किंतु गांधीजी स्वयं उसका नेतृत्व करने में स्वयं को सक्षम नहीं पा रहे थे। इसलिये गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन को गुजरात से प्रारम्भ करने का निर्णय लिया ताकि वल्लभभाई पटेल उसका नेतृत्व कर सकें।