गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का नेतृत्व सरदार पटेल को सौंपा था। असहयोग आंदोलन को सफल बनाने के लिये सरदार पटेल ने वकालात छोड़ दी। उनके साथ उनके बड़े भाई विठ्ठल भाई पटेल भी वकालात छोड़कर पूरी तरह से असहयोग आंदोलन में कूद पड़े।
नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा पुनः असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिये जाने के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को आरम्भ करने के लिये गुजरात के बारदोली नामक स्थान को चुना तथा वल्लभभाई को उसका नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी। वल्लभभाई ने गांधीजी का आदेश मानकर आंदोलन का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। वल्लभभाई ने इस आंदोलन को व्यापक और प्रभावी रूप में चलाया।
देखते ही देखते आंदोलन चारों तरफ फैल गया। वस्तुतः नाडियाद में हुए सम्मेलन में ही वल्लभभाई ने बारदोली आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर ली थी इसलिये इस आंदोलन को बहुत तेजी से आरम्भ किया जा सका। वल्लभभाई के नेतृत्व में अहमदाबाद में एक विशाल जुलूस निकाला गया और एक आमसभा का आयोजन किया गया। इस आमसभा में उन किताबों को बेचा गया जिन पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा था। बारदोली आंदोलन के दौरान वल्लभभाई ने सत्याग्रह नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया
तथा इसे आरम्भ करने के लिये सरकार से कोई अनुमति प्राप्त नहीं की। क्योंकि वल्लभभाई जानते थे कि सरकार इस पत्रिका को निकालने की अनुमति कभी नहीं देगी। सत्याग्रह एवं असहयोग आंदोलन को सफल बनाने के लिये रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि ख्याति प्राप्त लोगों ने तथा जन साधारण ने सरकारी उपाधियाँ लौटा दीं। गांधीजी ने कैसरे-हिन्द स्वर्ण पदक तथा युद्ध पदक लौटा दिये।
वल्लभभाई पटेल, उनके भाई विट्ठलभाई, देशबंधु चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं ने वकालत छोड़ दी। सेठ जमनालाल बजाज ने उन वकीलों को जीवन निर्वाह के लिए एक लाख रुपया दिया जो वकालत छोड़कर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े थे। सरकारी स्कूलों व न्यायलायों का बहिष्कार होने लगा।
कांग्रेस के आह्वान पर काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, राष्ट्रीय कॉलेज लाहौर, जामिया मिलिया इस्लामिया दिल्ली आदि शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई। जब ड्यूक ऑफ कनॉट 1919 के सुधारों का उद्घाटन करने भारत आया तो देश-व्यापी हड़तालों से उसका स्वागत किया गया। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होलियां जलाई गईं और सार्वजनिक रूप से हजारों चरखे काते गये।
2 अक्टूबर 1921 को गांधीजी का 53वां जन्मदिन मनाया गया। उस समय गांधीजी बम्बई में थे किंतु वल्लभभाई ने अहमदाबाद में एक विशाल जुलूस का आयोजन किया जिसका समापन खानपुर नदी के तट पर आयोजित एक विशाल जनसभा में हुआ। इस जनसभा के बाद विदेशी कपड़ों की होली जलाने का आयोजन किया गया।
वल्लभभाई के आह्वान पर अहमदाबाद के लोग बड़ी भारी संख्या में विदेशी कपड़े अपने साथ लेकर आये थे। इन कपड़ों से 16-17 फुट ऊँचा ढेर बन गया। सरदार पटेल ने इस ढेर पर खड़े होकर लोगों को सम्बोधित किया तथा उसके बाद विदेशी कपड़ों में आग लगा दी। जब कपड़ों की राख ठण्डी हो गई तो उसकी नीलामी की गई जिससे 626 रुपये एकत्रित हुए। यह राशि स्वदेशी फण्ड में जमा कर दी गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता