Thursday, May 16, 2024
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अध्याय – 72 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 7

भारत छोड़ो आन्दोलन (1942 ई.)

भारत छोड़ो आन्दोलन के कारण

क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ किया। चूंकि यह आंदोलन अगस्त माह में आरम्भ हुआ था इसलिये इस आन्दोलन को अगस्त क्रांति भी कहा जाता है। इस आन्दोलन को आरम्भ करने के कई कारण थे-

(1.) क्रिप्स मिशन की असफलता: कांग्रेस, भारत के लिये स्वराज चाहती थी परन्तु क्रिप्स के प्रस्ताव इस दिशा में अपर्याप्त थे। विंस्टन चर्चिल द्वारा सितम्बर 1941 में स्पष्ट किया जा चुका था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री नहीं बना था। उसने यह भी कहा कि एटलाण्टिक चार्टर में दिया गया आत्मनिर्णय का अधिकार भारत में लागू नहीं होगा। अतः क्रिप्स मिशन की असफलता से भारतीयों को पक्का विश्वास हो गया कि क्रिप्स मिशन को चीन तथा अमेरिका के दबाव के कारण भारत भेजा गया था, न कि भारत की समस्या सुलझाने के लिये।

(3) बर्मा से आये भारतीय शरणार्थियों से भेदभाव: बर्मा पर जापान के आक्रमण के बाद वहाँ से बड़ी संख्या में भारतीय एवं यूरोपीय लोग शरणार्थी के रूप में भारत आये। भारत की गोरी सरकार द्वारा भारतीय शरणार्थियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया जैसे वे किसी घटिया जाति से सम्बन्धित हों। इसके विपरीत यूरोपियन शरणार्थियों को समस्त प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। इससे भारतीयों को अँग्रेजी सरकार से और अधिक वितृष्णा हो गई।

(4) पूर्वी बंगाल में आतंक का वातावरण: बर्मा के पतन के बाद, अँग्रेजों को लगा कि अब जापान भारत पर आक्रमण करेगा। उसने जापान को पूर्वी बंगाल में रोकने की तैयारी की तथा सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बहुत सी भूमि पर अधिकार कर लिया। हजारों की संख्या में स्थानीय नावें नष्ट कर दी गईं ताकि जापानी सेना उनका उपयोग न कर सके। सरकार के इस कदम से हजारों परिवारों का रोजगार नष्ट हो गया और वे भूखों मरने लगे। उनमें सरकार के प्रति क्रोध और भी प्रबल हो गया।

(5) कीमतों में वृद्धि: द्वितीय विश्व युद्ध के कारण भारत के बाजारों से बहुत सी आवश्यक वस्तुएं गायब हो गईं तथा महंगाई अपने चरम पर पहुंच गई। इस कारण भारतीयों में अँग्रेज सरकार के प्रति अविश्वास की भावना अधिक गहरा गई।

(6) अँग्रेजों की अपराजेयता का मिथक भंग: यद्यपि अँग्रेज 1842 ई. में प्रथम अफगानिस्तान युद्ध में तथा 1900 ई. में बोअर युद्ध में करारी पराजयों का सामना कर चुके थे जिनसे उनकी अपराजयेता का मिथक भंग हो चुका था किंतु फिर भी उन्हें आम भारतीय द्वारा अपराजेय जाति माना जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक वर्षों में जापान के हाथों ब्रिटेन की निरन्तर पराजय तथा सिंगापुर, मलाया, बर्मा आदि देशों पर जापान के अधिकार से भारतीयों के मन से अँग्रेजों की अपराजेयता का भय समाप्त हो गया। वे अँग्रेजों का हर तरह से सामना करने को तैयार थे।

(7.) जापनी आक्रमण का भय: गांधीजी सहित अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को लगने लगा था कि भारत पर जापान का आक्रमण होने पर अँग्रेज भारत की रक्षा नहीं कर पायेंगे। उनका यह भी विश्वास था कि यदि अँग्रेज भारत में बने रहे तो जापान भारत पर अवश्य आक्रमण करेगा परन्तु यदि अँग्रेज भारत को भारतीयों के हाथ में सौंपकर चले जाये तो संभवतः जापान भारत पर आक्रमण नहीं करे और भारत युद्ध के विनाश से बच जाये। इसीलिए गांधीजी ने अँग्रेजों को भारत से निकल जाने को कहा।

5 जुलाई 1942 को गांधीजी ने हरिजन समाचार पत्र में लिखा- ‘अँग्रेजों भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, अपितु भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़कर जाओ।’

भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकृति

14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्य समिति ने भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित कर दिया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि यदि अँग्रेज भारत से अपना नियंत्रण हटा लें तो भारतीय जनता विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करने के लिए हर प्रकार से योगदान करने को तैयार है। इस प्रस्ताव पर अन्तिम निर्णय 7 तथा 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो प्रस्ताव कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार किया गया।

इस अन्तिम प्रस्ताव में कहा गया- ‘भारत में ब्रिटिश शासन का अंत तुरन्त होना चाहिए। पराधीन भारत, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का चिह्न बना हुआ है किन्तु स्वतन्त्रता की प्राप्ति युद्ध के रूप को बदल सकती है। अतः कांग्रेस भारत से ब्रिटिश सत्ता के हट जाने की मांग दोहराती है। यह मांग न मानी जाने पर यह समिति गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसात्मक संघर्ष चलाने की अनुमति प्रदान करती है तथा भारतीयों से अपील करती है कि इसका आधार अहिंसा हो…. सरकारी दमन नीति के कारण यदि गांधीजी का नेतृत्व उपलब्ध न रहे तो प्रत्येक व्यक्ति अपना नेता स्वयं होगा।’

नेताओं की गिरफ्तारी

भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने से बहुत पहले गांधीजी ने गवर्नर जनरल को एक पत्र लिखा किंतु गवर्नर जनरल ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। गांधीजी ने अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट तथा चीन के राष्ट्रपति च्ंयाग काई शेक को भी पत्र लिखे थे जिनमें उन्होंने कहा था कि वे जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते। गांधीजी ने उनसे यह अनुरोध भी किया था कि वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए इंग्लैण्ड पर दबाव डालें। गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो, भारत में बढ़ते हुए असन्तोष से सुपरिचित था। वह आन्दोलन आरम्भ होने से पूर्व ही उसे कुचल देना चाहता था। कांग्रेस महासमिति की बैठक भारत छोड़ो प्रस्ताव स्वीकृत करने के बाद, 8 अगस्त 1942 की अर्ध-रात्रि में समाप्त हुई। 9 अगस्त को सूर्योदय होने से पूर्व ही सरकार ने गांधीजी व कांग्रेस कार्यसमिति के समस्त सदस्यों को बम्बई में गिरफ्तार करके अज्ञात स्थान पर भेज दिया। कांग्रेस को फिर से असंवैधानिक संस्था घोषित कर दिया गया। गांधीजी और सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खाँ पैलेस में नजरबंद किया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को पटना में गिरफ्तार करके वहीं नजरबन्द किया गया। कार्य समिति के अन्य सदस्य अहमद नगर के दुर्ग में नजरबन्द किये गये। नेताओं की अचानक हुई गिरफ्तारी से जनता भड़क उठी और विप्लव करने पर उतर आई। अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘राष्ट्र के नेताओं की इस गिरफ्तारी के विरुद्ध जन आक्रोश बिल्कुल उचित और स्वाभाविक था। ब्रिटिश साम्राजियों की चुनौती को उसने चुप रहकर बर्दाश्त नहीं किया। उसने रेलवे स्टेशनों पर हमले किये और रेल की पटरियां उखाड़ीं, थानों पर हमले करके उनमें आग लगाई, सड़कें काटीं और जो कुछ सरकारी था, उसे नष्ट करने की कोशिश की। जनता अपने गुस्से की आग में उन सब चीजों को नष्ट कर देना चाहती थी जिनका सम्बन्ध ब्रिटिश साम्राज्यियों से था।’

आंदोलन के दौरान हुई तोड़फोड़

भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार इस आन्दोलन के दौरान भारत में तोड़फोड़ की निम्नलिखित घटनाएं हुईं- (1.) आंशिक या पूरी तरह नष्ट किये जाने वाले रेलवे स्टेशन-250, (2.) आक्रान्त पोस्ट ऑफिस- 550, (3.) जलाये गये पोस्ट ऑफिस-  50, (4.) टेलीग्राम और टेलीफोन के तार काटे जाने की घटनाएं- 3500, (5.) जलाये गये पुलिस थाने- 70, (6.) अन्य जलाई गई सरकारी इमारतें- 1274.

जनता पर दमन की कार्यवाही

सरकार ने आंदोलनकारियों का क्रूरता से दमन किया। गिरफ्तारियां, लाठी-चार्ज और गोली-बारी सामान्य बात हो गई। नेताओं की गिरफ्तारी से जनता नेतृत्वहीन हो गयी। जेल जाने से पहले गांधीजी ने केवल इतना कहा- ‘यह मेरे जीवन का अन्तिम संघर्ष होगा।’ जेल जाने से पहले गांधीजी ने करो या मरो का नारा दिया था। जनता ने उसी को मूल मंत्र मान लिया। गांधीजी तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं ने जनता के लिये ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं छोड़ा था कि नेताओं को जेल में डाल दिये जाने के बाद जनता को क्या करना चाहिये। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के शेष नेताओं ने कांग्रेस कमेटी की ओर से एक लघु पुस्तिका प्रकाशित की जिसमें 12 सूत्री कार्यक्रम दिया गया। इस पुस्तिका में सम्पूर्ण देश में हड़ताल करने, सार्वजनिक सभाएं करने, नमक बनाने, लगान न देने आदि बातों का उल्लेख किया गया था। इस आंदोलन की अवधि में 1 अगस्त 1942 से 31 दिसम्बर 1942 तक 60,229 लोगों को बंदी बनाया गया। 18,000 लोगों को भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत नजरबन्द किया गया। 940 आदमी पुलिस या सेना की गोली से मारे गये और 1,630 लोग गोलियों से घायल हुए।

आन्दोलन का स्वरूप

कांग्रेस द्वारा 1942 के आन्दोलन की कोई तैयारी नहीं की गई थी और न ही आन्दोलन के संचालन की कोई रूपरेखा तैयार की गई थी। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसकी घोषणा करने वाले जेल चले गये थे और जनता अपनी मर्जी से इसका संचालन कर रही थी। इस आंदोलन में मुख्यतः विद्यार्थियों, निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों तथा किसानों द्वारा भाग लिया गया। श्रमिकों ने इस आन्दोलन में बहुत कम भाग लिया। भारत छोड़ो आन्दोलन के चार चरण थे जिनका क्रमिक विकास हुआ।

आंदोलन का प्रथम चरण: आन्दोलन की प्रथम अवस्था 1 अगस्त से लेकर केवल तीन-चार दिन तक चली। इस अल्पावधि में देश भर में हड़तालें, प्रदर्शन, तथा जुलूसों का आयोजन किया गया। सरकार ने शान्तिपूर्ण विधि से आन्दोलन चला रहे लोगों को कुचलने के लिए पुलिस एवं सेना का उपयोग किया। इससे लोगों में सरकार के विरुद्ध आग भड़क उठी और वे हिंसा पर उतर आये।

आंदोलन का द्वितीय चरण: आंदोलन के दूसरे चरण में जनता ने सरकारी इमारतों तथा सम्पत्तियों पर आक्रमण किये। रेलवे स्टेशन, डाकखाने और पुलिस स्टेशनों को निशाना बनाया। तोड़-फोड़, लूटमार और आगजनी भी बड़े स्तर पर हुई। बलिया जिले में आंदोलनकारियों ने सरकारी शासन समाप्त करके अस्थायी सरकार स्थापित कर दी। आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने सेना का उपयोग किया जिसने लोगों पर भारी अत्याचार किये। इस चरण में जनता ने सरकारी सम्पत्ति को तो नुक्सान पहुंचाया किंतु पुलिस अथवा सेना पर आक्रमण बहुत कम हुए।

आंदोलन का तृतीय चरण: आंदोलन का तीसरा चरण सितम्बर 1942 के मध्य से प्रारम्भ हुआ। इस चरण में जनता ने पुलिस व सेना के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर सरकारी सम्पत्ति तथा संचार तंत्र को भारी क्षति पहुंचाई तथा पुलिस एवं सेना पर भी सशस्त्र आक्रमण किये। बम्बई, संयुक्त प्रदेश और मध्य प्रान्त में कुछ स्थानों पर जनता ने बम फेंके। यह स्थिति फरवरी 1943 तक चलती रही।

आंदोलन का चतुर्थ चरण: आंदोलन का चौथा चरण बहुत ही धीमी गति से 9 मई 1944 तक चला। इस दौरान गांधीजी को रिहा कर दिया गया। लोगों ने तिलक दिवस और स्वतन्त्रता दिवस मनाये परन्तु तोड़-फोड़ और हिंसक वारदातों का दौर बन्द हो गया था।

भारत छोड़ो आंदोलन में जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली तथा उनके सहयोगियों ने उल्लेखनीय कार्य किया। किसानों और विद्यार्थियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

क्या यह कांग्रेस का आंदोलन था ?

अनेक इतिहासकारों का मत है कि 1942 ई. में कांग्रेस ने कोई आन्दोलन आरम्भ नहीं किया था। गांधीजी का तुरन्त आन्दोलन आरम्भ करने का कोई भी कार्यक्रम नहीं था। वे पहले रूजवेल्ट और च्यांगकाई शेक को पत्र लिखने वाले थे। वे सरकार को भी तीन माह का समय देने वाले थे। गांधीजी ने गृह विभाग के नाम लिखे 15 जुलाई 1943 के पत्र में इसका हवाला दिया था कि कांग्रेस ने कोई भी आन्दोलन आरम्भ नहीं किया। इसी प्रकार जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और गोविन्द बल्लभ पंत ने 21 दिसम्बर 1945 को कांग्रेस की तरफ से एक संयुक्त वक्तव्य देकर कहा- ‘केाई भी आन्दोलन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी या गांधीजी द्वारा आरम्भ नहीं किया गया था।’

गांधीजी ने 23 सितम्बर 1942 को वायसराय को लिखा था– ‘लगता है कि कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी ने लोगों को गुस्से से इतना पागल बना दिया है कि वे आत्म-निंयत्रण खो बैठे हैं। उसके लिए सरकार जिम्मेदार है, कांग्रेस नही।’

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि अगस्त 1942 में आरम्भ हुआ भारत छोड़ो आंदोलन, कांग्रेस का आन्दोलन न होकर जन-साधारण का आन्दोलन था। बाद में कांग्रेस नेताओं ने 1942 की इन्हीं घटनाओं को कांग्रेस का आन्दोलन तथा अगस्त क्रान्ति कहा।

अन्य दलों का आन्दोलन के प्रति रुख

(1.) हिन्दू महासभा की नीति: हिन्दू महासभा भारत के लिये तत्काल स्वतंत्रता चाहती थी। भारत की तरफ बढ़ रही आजाद हिन्द फौज के महानायक सुभाषचंद्र बोस, हिन्दू महासभा के प्रधान वीर सावरकर को अपना मार्गदर्शक मानते थे। इसलिये सावरकर ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे जिससे भारत में सुभाष बाबू की कठिनाइयां बढ़ें तथा सुभाष बाबू के भारत पहुंचने से पहले ही अँग्रेज, कांग्रेस को सत्ता सौंप दें। यही कारण था कि सावरकर ने ब्रिटिश सरकार की कटु आलोचना तो की किन्तु हिन्दुओं को इस आन्दोलन से दूर रहने को कहा।

(2.) मुस्लिम लीग की नीति: मुस्लिम लीग ने भी युद्ध काल में अँग्रेजों की सहायता करने की नीति अपनाई थी। अतः उसने इस आन्दोलन की तीव्र आलोचना की। कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद जिन्ना ने एक वक्तव्य देकर खेद प्रकट किया कि कांग्रेस ने सरकार के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा की है। ऐसा करते समय कांग्रेस ने सिर्फ अपना स्वार्थ देखा है, दूसरों का नहीं। जिन्ना ने मुसलमानों से अपील की कि वे इस आन्दोलन से बिल्कुल अलग रहें। 20 अगस्त 1942 को मुस्लिम लीग की कार्यसमिति ने एक लम्बा प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस की कड़ी आलोचना की। इसमें कहा गया कि यह आन्दोलन केवल ब्रिटिश शासकों को ही नहीं अपितु मुसलमानों को भी दबाकर अपनी मांगें हासिल कर लेने की कांग्रेस की चाल है। कांग्रेस का एकमात्र उद्देश्य अपने लिए सत्ता प्राप्त करना तथा हिन्दू-राज्य की स्थापना करना है। मुस्लिम लीग ने 1943 ई. के कराची अधिवेशन में भारत छोड़ो के प्रत्युतर में नया नारा दिया- बाँटो और भागो।

(3.) साम्यवादी दल की नीति: साम्यवादी दल की नीति रूस के कार्यकलापों से प्रभावित होती थी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ था तो उन्होंने युद्ध को साम्राज्यवादियों का युद्ध कहा किन्तु जब रूस पर जर्मनी का आक्रमण हुआ और रूस, मित्र राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा हो गया तो साम्यवादियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जनता का युद्ध कहना आरम्भ कर दिया और भारतीय जनता से अँग्रेजों की सहायता करने को कहा। अतः उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन की निन्दा की।

(4.) उदारवादियों की नीति: उदारवादी नेता वैसे भी अँग्रेजों की सहानुभूति चाहते थे, न कि स्वराज। दंगा-फसाद और आंदोलन उनकी प्रवृत्ति से मेल नहीं खाते थे। इसलिये उदारवादियों के नेता सर तेजबहादुर सप्रू ने कांग्रेस के प्रस्ताव को अनीतिपूर्ण और असामयिक बताया।

(5.) एंग्लो-इंडियन्स की नीति: एंग्लो-इण्डियन लोगों के प्रवक्ता एन्थोनी ने आन्दोलन का विरोध करते हुए कहा कि अँग्रेजों से अपना पुराना बदला चुकाने के लिए, भारत को धुरी राष्ट्रों के हाथों बेचना ठीक नहीं हेागा।

(6.) अन्य पक्षों की नीति: दलितों के नेता डॉ. भीमराव अम्बेडकर, भारतीय ईसाईयों तथा अकाली दल ने भी कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। इस प्रकार कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य किसी दल ने इस आन्दोलन का समर्थन नहीं किया।

आन्देालन का महत्त्व और परिणाम

भारत छोड़ो आन्दोलन एक व्यापक प्रभाव डालने वाला सिद्ध हुआ। 1857 की सशस्त्र क्रांति के बाद भारत में इतनी व्यापक क्रांति नहीं हुई। इसका कार्यक्षेत्र लगभग सम्पूर्ण भारत था। इसका स्वरूप राजनीतिक दल का आंदोलन न होकर जनता का स्वतः स्फूर्त आंदोलन हो गया था। इस कारण अँग्रेज, भारत में अप्रासंगिक हो गये लगते थे। शासक और जनता दोनों ही एक दूसरे को नष्ट करने पर तुले हुए थे। इस आन्दोलन में हजारों व्यक्तियों ने अदम्य साहस व सहनशीलता का परिचय दिया। लोगों ने करो या मरो की नीति अपनाई और सैकड़ों लोगों ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया। अँग्रेजों ने देश में हिंसा भड़काने की सारी जिम्मेदारी गांधीजी पर डाल दी। गांधीजी ने इसका विरोध करने के लिए 10 फरवरी 1943 से 21 दिन का उपवास आरम्भ किया। 13 दिन बाद उनकी हालत खराब होने पर भी सरकार ने उन्हें छोड़ने से मना कर दिया। गांधीजी किसी तरह बच गये किन्तु 22 फरवरी 1944 को उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा का जेल में ही देहान्त हो गया। अन्त में जब लॉर्ड वेवेल भारत का नया गवर्नर जनरल बना, तब 6 मई 1944 को गांधीजी को रिहा किया गया।

इस आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस और सेना ने 538 बार गोलियां चलाईं। सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों को जेलों में ठूँस दिया गया। यद्यपि यह आन्दोलन स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य में विफल रहा परन्तु इससे लोगों में सरकार से संघर्ष करने की शक्ति उत्पन्न हुई। इसने भारतीय स्वतन्त्रता के लिये पृष्ठभूमि तैयार की। इस आन्दोलन से अँग्रेजों को यह भलीभांति विदित हो गया कि अब भारतीय, उनका राज्य नहीं चाहते। इस आन्दोलन के फलस्वरूप अँग्रेज और मुस्लिम लीग एक-दूसरे के काफी निकट आ गये क्योंकि दोनों कांग्रेस के विरोधी थे। जिस समय जापान भारत पर आक्रमण करने को तैयार खड़ा था, उस समय अँग्रेजों के लिये जिन्ना की सहायता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी।

इस आन्दोलन का विदेशों पर भी प्रभाव पड़ा। 25 जुलाई 1942 को च्यांग काई शेक ने रूजवेल्ट को लिखा- ‘अँग्रेजों के लिये सबसे श्रेष्ठ नीति यह है कि वे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दें।’

रूजवेल्ट ने भी च्ंयाग काई शेक के विचार का समर्थन करते हुए चर्चिल को पत्र लिखा। इस पर चर्चिल ने धमकी दी कि यदि चीन भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहा तो अँग्रेज, चीन के साथ अपनी सन्धि तोड़ देंगे। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किये जा रहे अनीतिपूर्ण बर्ताव के कारण अमेरिका और इंग्लैण्ड में जन-साधारण भी भारत की आजादी के पक्ष में हो गया।

असहयोग आन्दोलन की असफलता के कारण

असहयोग आंदोलन भी पूर्ववर्ती समस्त आंदोलनों की तरह असफल रहा। इस असफलता के तीन मुख्य कारण थे-

(1.) नेतृत्व, संगठन और योजना का अभाव: इस आन्दोलन में नेतृत्व, संगठन और योजना का नितांत अभाव था। आन्दोलन से पूर्व किसी भी तरह की रणनीति तैयार नहीं की गई। ऐसा लगता था जैसे कांग्रेस के नेता इस आंदोलन का नेतृत्व करने को तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अहिंसा के पथ पर चलते हुए वह सब कुछ नहीं कर सकते थे जो इस आंदोलन के दौरान नेतृत्व-विहीन जनता ने कर दिखाया। इसलिये वे आंदोलन में संभावित हिंसा के आरोप से बचने के लिये आसानी से गिरफ्तार हो गये। उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिये भूमिगत होने का रास्ता नहीं अपनाया। गांधीजी की यह धारणा सर्वथा गलत सिद्ध हुई कि आन्दोलन की चेतावनी देने पर, सरकार उनसे बातचीत करेगी तथा सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं करेगी। जिस प्रकार नेतृत्व के अभाव में 1857 की क्रांति विफल हो गई थी उसी प्रकार नेतृत्व के ही अभाव में अगस्त क्रांति भी विफल हो गई।

(2.) भारतीय कर्मचारियों की आंदोलन से दूरी: आन्दोलन के दौरान भारतीय सरकारी कर्मचारी, सेना, पुलिस और देशी राज्य, अँग्रेजों के प्रति वफादार बने रहे। अतः सरकार का काम-काज बिना किसी व्यवधान के चलता रहा। सरकार के वफादार सेवकों ने आन्दोलनकारियों पर भीषण अत्याचार किये। वफादार सरकारी तंत्र, आन्दोलनकारियों का सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध हुआ।

(3.) आन्दोलनकारियों के पास साधनों का अभाव: सरकार के पास जितनी शक्ति और साधन थे, उतने आन्दोलनकारियों के पास नहीं थे। आन्दोलनकारियों के पास पुलिस, सेना, गुप्तचर विभाग, कोष, अस्त्र-शस्त्र कुछ भी नहीं था और न एक-दूसरे को सूचना पहुँचाने के साधन थे। जबकि सरकार के पास साधनों की कोई कमी नहीं थी। इस कारण सरकार ने सरलता से आंदोलन को कुचल दिया। यद्यपि यह आन्दोलन अँग्रेजों को भारत से बाहर निकालने में असफल रहा किन्तु भारतीय जनता के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1945 ई. में सरदार पटेल ने इस आंदोलन के सम्बन्ध में कहा- ‘भारत में ब्रिटिश राज के इतिहास में ऐसा विप्लव कभी नहीं हुआ, जैसा पिछले तीन वर्षों में हुआ। लोगों ने जो प्रतिक्रिया की, हमें उस पर गर्व है।’

सरदार पटेल के उक्त कथन से स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में यह, आंदोलन मात्र नहीं था अपतिु विप्लव अर्थात् क्रांति था।

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