Friday, October 4, 2024
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अध्याय – 73 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 1

कांग्रेस के युवा नेताओं में गांधीजी की नीतियों के विरुद्ध निरंतर असंतोष सुलग रहा था जो हर आंदोलन के बाद बढ़ जाता था। जुलाई 1928 में प्रकाशित नेहरू रिपोर्ट में भारत के लिए डोमिनियन स्टेट्स (अधिराज्य का दर्जा) अर्थात् औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग की गई जिसे ब्रिटिश सरकार ने ठुकरा दिया।

कांग्रेस दल के प्रगतिशील तत्त्व ने, जो गांधी की नीतियों एवं हठधर्मिता से व्यापक रूप से असन्तुष्ट था और जिसने कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना में पहल की थी, उसने 1929 ई. के लाहौर अधिवेशन में गांधीजी की इच्छा के विरुद्ध, डोमिनियन स्टेट्स के स्थान पर पूर्ण स्वराज्य की मांग की। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस का युवा एवं प्रगतिशील वर्ग, गांधीजी एवं उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के हाथों से कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथों में लेने को आतुर था। इस कारण गांधीजी सहित सम्पूर्ण दक्षिणपंथी तत्त्व ने इच्छा न होने पर भी, तात्कालिक राजनीतिक वातावरण को देखते हुए, इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया ताकि कांग्रेस की कमान उनके हाथों से न खिसके। रजनी पामदत्त ने दोनों पक्षों के दृष्टिकोणों की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘दोनों गुटों में इस बात को लेकर साम्य बना रहा कि कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।’

सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रथम चरण की समाप्ति के बाद 1931 ई. में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में दोनों गुटों के मतभेद पुनः उभर कर सामने आ गये। आन्दोलन के दौरान जनसाधारण ने जिस राजनीतिक जागृति का परिचय देते हुए अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, उससे गांधी सहित समस्त दक्षिणपंथी नेता भयग्रस्त हो गये। कांग्रेस के प्रगतिशील तत्त्वों ने गांधीजी को सुझाव दिया कि वे सरकार से तब तक वार्त्ता करना स्वीकार न करें जब तक कि सरकार तीन क्रान्तिकारियों- भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की सजा को रद्द करना स्वीकार न कर ले परन्तु गांधीजी ने उनके सुझाव की अनदेखी करके वार्त्ता जारी रखी और सरकार ने तीनों क्रान्तिकारियों को फाँसी पर लटका दिया। गांधीजी ने उनके प्राण बचाने के लिए न तो अनशन-उपवास किया और न ही आन्दोलन जारी रखा। इससे वामपंथियों को गहरा आघात पहुँचा। परिणाम स्वरूप जब गांधीजी और निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष सरदार पटेल, अधिवेशन में भाग लेने कराची पहुँचे तो उन्हें जबरदस्त जन-आक्रोश का सामना करना पड़ा। खुले अधिवेशन में भी दक्षिणपंथी नेतृत्व को जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। फिर भी, कांग्रेस की एकता को स्थापित रखने तथा उसके विघटन को रोकने की दृष्टि से वामपंथियों ने इस मामले को अधिक नहीं खींचा क्योंकि इससे ब्रिटिश सरकार ही लाभ में रहती। फिर भी 1931 ई. के कराची अधिवेशन से एक बात स्पष्ट हो गई कि कांग्रेस के अंदर वामपंथियों की स्थिति कमजोर नहीं है और दक्षिणपंथी उनकी पूर्ण अवज्ञा करने की स्थिति में नहीं हैं।

कांग्रेस समाजवादी दल

कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व से असंतुष्ट कुछ कांग्रेसियों ने सर्वप्रथम 1931 ई. में उत्तरी बिहार में समाजवादी विचारधारा पर आधारित समाजवादी संघों की स्थापना की। 1932-33 ई. के दौरान सरकार ने अनेक कांग्रेसी नेताओं को नासिक केन्द्रीय जेल में बन्द कर रखा था। उनमें वामपंथी कांग्रेसी नेता जयप्रकाश नारायण मुख्य थे। उन्होंने अपने साथियों के विचार-विमर्श के बाद एक अखिल भारतीय समाजवादी दल का प्रारूप तैयार किया। इस प्रारूप को अन्य साथियों के पास भेजा गया। प्रारूप को काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई और इसे अमल में लाने के लिए कांग्रेस के अन्दर ही समाजवादी दल की स्थापना का निश्चय किया गया।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘कांग्रेस महासमिति के सदस्य सम्पूर्णानन्द ने एक समाजवादी कार्यक्रम तैयार किया और 3 अप्रैल 1934 को जालपा देवी, बनारस सिटी से कांग्रेस के अन्दर के समाजवादी मित्रों के पास एक पत्र लिखकर भेजा गया। पत्र के अन्त में उन्होंने लिखा कि कांग्रेस महासमिति की बैठक पटना में 18-19 मई को हो रही है। मैं आशा करता हूँ कि वहाँ पार्टी बनाने के लिए मिलना संभव होगा।

17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में कांग्रेस के समाजवादी नेताओं की बैठक हुई जिसमें जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, एम. आर. मसानी, डॉ. राममनोहर लोहिया, पुरुषोत्तम त्रिकमदास, यूसुफ मेहराने, गंगाशरणसिंह कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि नेताओं ने भाग लिया। इस बैठक में एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का निश्चय किया गया और संगठन के कार्यक्रम एवं विधान तैयार करने के लिए एक समिति गठित की गई। अक्टूबर 1934 में बम्बई में अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया। जयप्रकाश नारायण को संगठन-सचिव और बम्बई अधिवेशन का महासचिव चुना गया।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना

21 अक्टूबर 1934 को बम्बई में कांग्रेस समाजवादियों का अखिल भारतीय सम्मेलन आरम्भ हुआ। इस सम्मेलन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का विधान और कार्यक्रम पारित किया गया। उसकी कार्यकारिणी चुनी गई और उसके केन्द्रीय मुखपत्र कांग्रेस सोशलिस्ट के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। विधान एवं कार्यक्रम में यह स्पष्ट कर दिया गया कि यह पार्टी कोई जनसंगठन नहीं बनायेगी अपितु कांग्रेस के भीतर रहकर ही काम करेगी। इस पार्टी की सदस्यता केवल कांग्रेसियों को ही प्रदान की जायेगी। इस अधिवेशन के बाद पार्टी को ई. एम. एस. नंबूदरीपाद, रजनी मुखर्जी, खेडगिकर, शेट्टी, तारकुंडे आदि अनेक नेताओं का सक्रिय सहयोग एवं समर्थन मिला परन्तु समाजवादी विचारों के लिए विख्यात जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस इस पार्टी से दूर रहे। गांधीजी के अन्यतम विश्वासपात्र होने के कारण नेहरू ने इस गांधी-विरोधी पार्टी से दूर रहना ही उचित समझा तो गांधी-विरोधी सुभाष ने इस पार्टी को समर्थन न देकर, इसे जीवित रखने के लिए, स्वयं को इससे दूर रखा। गांधीजी को इस पार्टी की स्थापना से प्रसन्नता नहीं हुई।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘1922 में राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ विश्वासघात का परिणाम स्वराज पार्टी का जन्म था और 1934 के विश्वासघात का परिणाम था कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म। स्वराज पार्टी को जन्म देने वाले दक्षिणपंथी थे किन्तु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को जन्म देने वाले वामपंथी थे।’

कांग्रेस समाजवादी दल का लक्ष्य

कांग्रेस समाजवादी दल ने 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई में आयोजित प्रथम अधिवेशन में पार्टी का लक्ष्य, भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति और समाजवादी समाज की स्थापना करना घोषित किया गया। कांग्रेस समाजवादी दल ने भारत के लिये संविधान निर्मात्री परिषद् के गठन की भी मांग की। दल के नेताओं का मानना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता के लिए मजदूरों एवं किसानों का सहयोग प्राप्त किया जाना आवश्यक है। कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व भी चाहता था कि मजदूर और किसान कांग्रेसी नेतृत्व के अन्तर्गत राष्ट्रीय संघर्ष में भाग लें। जयप्रकाश नारायण के समाजवादी धड़े और गांधीजी के दक्षिणपंथी धड़े के विचारों में मौलिक अंतर यह था समाजवादी धड़ा मजदूरों एवं किसानों की समस्याओं को प्रमुख मानकर उनके समाधान के माध्यम से देश की आजादी की ओर बढ़ना चाहता था जबकि कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व मजदूरों एवं किसानों की शक्ति का अपने हित में प्रयोग तो करना चाहता था परन्तु उनकी समस्याओं का समाधान करने में उतनी रुचि नहीं रखता था।

कांग्रेस समाजवादी दल का कार्यक्रम

1936 ई. में जयप्रकाश नारायण ने समाजवाद ही क्यों ? शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने कांग्रेस समाजवादी दल के उद्देश्यों तथा समाजवादी कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस पुस्तक के अनुसार कांग्रेस समाजवादी दल के प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार थे-

(1.) देश की सत्ता का हस्तान्तरण समाज के उत्पादक वर्गों के हाथ में हो।

(2.) राज्य द्वारा देश के आर्थिक जीवन, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के समस्त साधनों का क्रमिक राष्ट्रीयकरण हो।

(3.) विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो।

(4.) राष्ट्रीयकरण के बाहर वाले आर्थिक जीवन को चलाने के लिए सहकारिता समितियों का संगठन हो।

(5.) जागीरदारों, जमींदारों तथा अन्य समस्त शोषक वर्गोें का, बिना किसी मुआवजे के उन्मूलन हो।

(6.) किसानों के बीच भूमि का पुनर्वितरण हो।

(7.) किसानों में सहयोगी एवं सामूहिक खेती को प्रोत्साहन हो। 

कम्युनिस्टों को आमंत्रण

1935 ई. में भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा स्थापित करने की दृष्टि से कांग्रेस समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्टों के बीच एक समझौता हुआ। उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी को असंवैधानिक घोषित किया जा चुका था, फिर भी उसके कार्यकर्ता सक्रिय रूप से जन आन्दोलनों से जुड़े हुए थे। जयप्रकाश नारायण ने वामपंथी विचार से जुड़े लोगों को कांग्रेस समाजवादी दल में प्रवेश का निमंत्रण दिया। हजारांे की संख्या में कम्युनिस्टों ने समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। कुछ ही समय में उन्होंने कांग्रेस समाजवादी पार्टी में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। संयुक्त मोर्चे ने ब्रिटिश सरकार को चिन्ता में डाल दिया।

कांग्रेस समाजवादी दल के प्रति कांग्रेसी नेतृत्व का रुख

कांग्रेसी नेतृत्व ने उस समय के राजनीतिक वातावरण से विवश होकर, कांग्रेस के अन्तर्गत कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना को मान्यता प्रदान की थी। प्रारम्भ में कांग्रेस समाजवादी दल ने भी केवल कांग्रेसी सदस्यों को ही पार्टी का सदस्य बनाना निश्चित किया था परन्तु कांग्रेस समाजवादी दल ने कुछ समय बाद ही सदस्यता सम्बन्धी धारा में संशोधन करके वामपंथियों एवं अन्य दलों के सदस्यों के लिए भी द्वार खोल दिया गया। इससे कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व, समाजवादियों से नाराज हो गया क्योंकि अन्य दलांे से आये अधिकांश सदस्य कांग्रेस की नीतियों के विरोधी थे। इसलिए कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व ने, विशेषकर गांधीजी ने समाजवादी दल की नीतियों और कार्यक्रमों का विरोध किया। इस सम्बन्ध में दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-

(1.) कांग्रेस समाजवादी पार्टी; जागीरों, जमींदारों तथा अन्य समस्त शोषक वर्गों का, बिना किसी मुआवजे के उन्मूलन करने की मांग कर रही थी एवं इसकी पूर्ति के लिए कार्यक्रम तैयार करने में जुटी हुई थी। गांधीजी ने समाजवादियों की इस नीति का विरोध किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने गांधीजी की नीति का समर्थन किया।

(2.) कांग्रेस समाजवादियों ने कांग्रेस महासमिति के गठन के बारे में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की चुनाव-पद्धति अपनाने तथा सदस्यों की संख्या बढ़ाने की मांग की। प्रत्युत्तर में कांग्रेस ने अपने बम्बई अधिवेशन में कांग्रेस प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या दो हजार कर दी और कांग्रेस कमेटी के सदस्यों की संख्या आधी कर दी। तर्क यह दिया गया कि इससे संगठन और अधिक सुदृढ़ होगा। इस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष को कार्यसमिति के सदस्यों को मनोनीत करने का भी अधिकार दिया गया। स्पष्ट है कि गांधीजी कांग्र्र्र्रेस में समाजवादियों के बढ़ते हुए प्रभाव से प्रसन्न नहीं थे और कांग्रेस के प्रस्तावों के माध्यम से समाजवादियों को प्रभावहीन बनाना चाहते थे। समाजवादी दल के एक प्रवक्ता ने भी स्वीकार किया था कि इन प्रस्तावों का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस में समाजवादियों के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करना है।

कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धियाँ

भारतीय इतिहास में कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धियों की चर्चा बहुत कम होती है। उस पर निम्नलिखित आरोप लगते रहे हैं-

(1.) कांग्रेस समाजवादी दल, 1934 से 1947 ई. तक कांग्रेस के अन्तर्गत रहा। इतनी अल्प अवधि में किसी राजनीतिक दल से विशिष्ट उपलब्धियों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

(2.) कांग्रेस समाजवादी दल ने समाजवादी दल होते हुए भी, समाजवाद के वैज्ञानिक पक्ष को अंगीकार नहीं किया।

(3.) इस दल के सदस्य अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं में विश्वास रखते थे जिनका प्रतिनिधित्व वे दल के मंचों पर निरन्तर किया करते थे। इस प्रकार, विभिन्न राजनीतिक विचारों से ग्रस्त समाजवादी दल, भिन्न विचारों की ऐसी खिचड़ी बन गया जिससे किसी परिणाम की आशा करना व्यर्थ था।

उपरोक्त तथ्यों के सत्य होते हुए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस समाजवादी दल की कोई उपलब्धियां नहीं थी। इस दल की महत्वपूर्ण उपलब्धियां इस प्रकार से गिनाई जा सकती हैं-

(1.) लेनिनवादी विचारधारा को कांग्रेस पर हावी होने से रोकना: दल के संस्थापक सदस्यों ने भारत में समाजवाद लाने के लिए लेनिनवाद को अनावश्यक समझा और आर्थिक पृष्ठभूमि को बराबर सामने रखा। इस कारण वामपंथी तत्व कांग्रेस पर हावी नहीं हो सका।

(2.) अन्य दलों के प्रहारों से कांग्रेस को सुरक्षा कवच प्रदान करना: कांग्रेस के भीतर बने रहने और कांग्रेस के समस्त लोकप्रिय सिद्धान्तों को स्वीकार करते रहने का एक ही अर्थ था कि कांग्रेस को मजबूत बनाया जाये तथा अन्य राजनीतिक दलों के प्रहारों से उसकी सुरक्षा की जाये। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि कांग्रेस के प्रभाव को बनाये रखने के लिये कांग्रेस समाजवादी दल ने अन्य राजनीतिक दलों के प्रहार से कांग्रेस को सुरक्षा-कवच प्रदान किया। यह कांग्रेस समाजवादी दल की बड़ी उपलब्धि थी। आचार्य नरेन्द्रदेव का यह कथन कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धि को स्पष्ट रूप से उजागर करता है- ‘कांग्रेस समाजवादी दल का उद्देश्य कांग्रेस को नवजीवन देना था ताकि वह भावी समाजवादी समाज का लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो सके।’

(3.) युवा संस्थाओं एवं किसानों को कांग्रेस के प्रभाव में लाना: सविनय अवज्ञा आन्दोलन की विफलता के बाद से ही देश का किसान, मजदूर एवं युवा वर्ग, गांधीजी के नेतृत्व पर कम विश्वास करता था। इससे देश में कांग्रेस का प्रभाव कम होता जा रहा था। कांग्रेस समाजवादी दल के प्रयासों से किसान एवं युवा वर्ग पर कांग्रेस का आंशिक नेतृत्व पुनः स्थापित हो गया। मजदूर वर्ग के मामले में विशेष सफलता नहीं मिली, क्योंकि मजदूर संगठनों पर कम्युनिस्ट हावी थे। फिर भी, किसानों एवं युवाओं को कांग्रेसी नेतृत्व में लाना, कांग्रेस समाजवादी दल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। समाजवादियों के प्रभाव के कारण ही कांग्रेस ने 1936 ई. के लखनऊ अधिवेशन में नवयुवकों, मजदूरों और किसानों को विशेष महत्त्व दिया तथा निश्चय किया गया कि कांग्रेस कार्यसमिति, देश के किसानों की स्थिति सुधारने के लिए काम करेगी।

कांग्रेस समाजवादी दल का विघटन

कांग्रेस समाजवादी दल के अधिकांश सदस्य भिन्न-भिन्न राजनीतिक विचार धाराओं से प्रभावित थे। वे इस दल को अपने-अपने अनुसार भिन्न दिशाओं में ले जाना चाहते थे। इनमें से कुछ लोग मार्क्सवादी-समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे तो कुछ फैबियनवादी विचारधारा से। कुछ नेता उदारवादी-समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। इस कारण इस पार्टी के संगठक तत्त्वों में गम्भीर राजनीतिक मतभेद थे। कम्युनिस्ट सदस्य, पार्टी में रहते हुए अपने स्वतन्त्र अस्तित्त्व को बनाये रखना चाहते थे और पार्टी का उपयोग कम्युनिज्म के प्रचार के लिए करना चाहते थे। जयप्रकाश नारायण यद्यपि मार्क्स के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे किंतु वे पार्टी को लेनिन तथा स्टालिन द्वारा निर्देशित साम्यवाद से दूर रखना चाहते थे। वे मूलतः कम्युनिस्ट विरोधी थे। कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ही उन्होंने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की थी।

कांग्रेस समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को जानकारी मिली कि कम्युनिस्ट नेता, कांग्रेस समाजवादी दल के भीतर तोड़-फोड़ करके सदस्यों को अपनी ओर करने का गुप्त षड़यन्त्र कर रहे हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता मीनू मसानी ने कांग्रेस समाजवादी पार्टी के विरुद्ध कम्युनिस्ट षड़यन्त्र शीर्षक से एक दस्तावेज प्रकाशित करवाया। यद्यपि कम्युनिस्टों के प्रति तत्काल कार्यवाही नहीं की गई परन्तु संयुक्त मोर्चे में दरार अवश्य पड़ गई और कम्युनिस्टों के प्रति समाजवादियों का मोह भंग हो गया।

1937 ई. में समजावादी नेताओं द्वारा निर्णय लिया गया कि भविष्य में कम्युनिस्टों को कांग्रेस समाजवादी दल का सदस्य नहीं बनाया जायेगा किंतु वर्तमान सदस्यों को पार्टी में बने रहने दिया जायेगा। इस निर्णय से कम्युनिस्ट नाराज हो गये। 1940 ई. में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने कम्युनिस्टों को पार्टी से निष्कासित करने का निर्णय लिया। इसके बाद पुराने कम्युनिस्ट सदस्यों ने समाजवादी पार्टी से सम्बन्ध तोड़ लिये। मीनू मसानी, अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन आदि कई नेता कांग्रेस समाजवादी दल से अलग हो गये। ये नेता अच्छी तरह समझ गये थे कि वे कांग्रेस के भीतर बने रहकर कांग्रेस की नीतियों का जोरदार विरोध नहीं कर सकते थे। इस कारण कांग्रेस समाजवादी दल का विघटन हो गया।

1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली आदि के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस के कार्यक्रम को पूरा समर्थन दिया जबकि भारतीय कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति विरोधी रवैया अपनाया। कांग्रेस समाजवादी दल ने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर भारतीय जनता का हृदय जीत लिया।

1947 ई. में भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् कांग्रेस समाजवादी दल का प्रभाव क्षीण होने लगा। इससे क्षुब्ध होकर कांग्रेस समाजवादी दल ने स्वयं को कांग्रेस से पृथक् कर लिया।

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