Monday, October 7, 2024
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48. हरम सरकार

अकबर के आगरा से दिल्ली चले आने पर आगरा में बैरामखाँ की सरकार और दिल्ली में हरम की सरकार स्थापित हो गयी। ये दोनों सरकारें एक-दूसरे को खत्म करने पर तुल गयीं। अकबर इन दोनों सरकारों के बीच में बादशाह होते हुए भी प्यादे की तरह बेबस होकर रह गया। कैसी विचित्र शतरंज थी यह? दोनों ओर की सेना में फर्जी[1]  से लेकर ढईया[2] और प्यादे[3] तक अलग-अलग थे किंतु दोनों सेनाओं का बादशाह एक ही था।

माहम अनगा के निर्देशन में शाहबुद्दीन और शमशुद्दीन दिल्ली का किला सजाकर बैठ गये। बैरामखाँ से बादशाह का मिजाज बदल जाने के समाचार थोड़े ही दिनों में चारों और फैल गये। अमीर, उमराव, सरदार, ताबेदार और भी बहुत सारे लोग बैरामखाँ को छोड़-छोड़कर दिल्ली पहुँचने लगे। सबसे पहले कयाखाँ गंग आया जो बैरामखाँ के बड़े अमीरों में से था। जो भी दिल्ली आता था उसे माहम अनगा और शाहबुद्दीन अहमदखाँ की सलाह से जागीर[4] मनसब[5] और खिताब[6]  दिये जाने लगे।[7]

जब बैरामखाँ के आदमी एक-एक करके खिसकने लगे तो बैरामखाँ की आँखें खुलीं। उसने मिरजा अबुल कासिम को ढूंढा किंतु वह आगरे में नहीं मिला। बैरामखाँ समझ गया कि खेल पक्का हुआ है। बैरामखाँ ने वक्त की नजाकत को समझकर अपने आदमी बादशाह की खिदमत में माफी मांगने के लिये भेजे। अकबर ने उनको भी अपनी ओर मिला लिया और फिर से आगरा नहीं लौटने दिया।

बैरामखाँ ने कुछ दिनों तक तो अपने आदमियों के लौट आने की प्रतीक्षा की किंतु उन्हें लौटता न देखकर बादशाह को संदेश भिजवाया कि माफी मांगने के लिये मैं स्वयं दिल्ली आ रहा हूँ। इस पर अकबर के अमीरों ने सलाह दी कि बादशाह लाहौर चले जायें और जब वह लाहौर आये तो बादशाह काबुल चले जायें।

माहम अनगा ने कहा कि बादशाह को कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। बैरामखाँ को लिख दिया जावे कि दिल्ली न आवे। यदि फिर भी वह दिल्ली आये तो उसका मार्ग रोका जाये।

माहम अनगा की सलाह पर अकबर ने बैरामखाँ के आदमियों को ही दिल्ली-आगरा के बीच का मार्ग रोकने पर तैनात किया ताकि बैरामखाँ को भली भांति अपमानित किया जा सके। इस तरह माहम अनगा ने बैरामखाँ के बादशाह तक पहुँचने के सारे रास्ते बंद कर दिये।

जब बैरामखाँ ने देखा कि बादशाह तक पहुँचने के सारे रास्ते बंद हैं तो उसने अमीरों से सलाह की। बैरामखाँ के अमीरों ने सलाह दी कि अभी बादशाह के पास अधिक आदमी नहीं हैं। बेहतर होगा कि बैरामखाँ दिल्ली पर आक्रमण कर दे और अकबर तथा माहम अनगा को बंदी बना ले।

बैरामखाँ ने हुमायूँ के स्नेह का विचार करके ऐसा करना उचित नहीं समझा। वह अब भी यही समझता रहा कि मेरे बिना अकबर का काम नहीं चल सकेगा इसलिये जैसे भी हो अकबर से मेल-मिलाप का प्रयास करना चाहिये किंतु उसका कोई रास्ता नहीं सूझता था।

 बहुत सारा आगा-पीछा सोचकर बैरामखाँ ने अपने प्रमुख अमीरों को बुलवाया और उन्हें बादशाह की सेवा में भेजकर कहलवाया कि मैं अपने सारे आदमी आपकी खिदमत में भेज रहा हूँ ताकि बदमाश लोग आपको मेरे विरुद्ध जो कुछ भी कहते रहे हैं आप उनकी बात न सुनकर मेरी निष्ठा पर विचार करें तथा मुझे मक्का जाने की इजाजत दें। बैरामखाँ ने अपनी मोहर भी अकबर को भिजवा दी।

बैरामखाँ ने यह सारा उपक्रम इस आशा में किया था कि अकबर बैरामखाँ का यह नरम रुख देखकर पसीज जायेगा और फिर से मेल-मिलाप कर लेगा किंतु बैरामखाँ नहीं जानता था कि विधाता उससे विपरीत हो गया है जिसके कारण लाख उपाय करने से भी बात बनने वाली नहीं है।

जब बैरामखाँ के सारे अमीर बैरामखाँ की मोहर और मक्का जाने की अर्जी लेकर अकबर के पास पहुंचे तो हरम सरकार ने इसे बैरामखाँ सरकार की हार और अकबर की जीत बताया तथा अकबर को सलाह दी कि उसे किसी भी तरह नरम नहीं पड़ना चाहिये। इस तरह दोनों सरकारों के बीच मेल-मिलाप का आखिरी मौका भी हाथ से निकल गया।


[1]  वजीर।

[2] घोड़ा।

[3]  सबसे छोटा मोहरा, पैदल सिपाही।

[4] जागीर में गाँव अथवा सूबे दिये जाते थे जिनसे प्रतिवर्ष निश्चित राशि राजस्व के रूप में प्राप्त होती थी।

[5] मनसब सैनिक पद था। सबसे छोटा मनसब 10 का था और सबसे बड़ा मनसब बारह हजार का था। आठ हजार तथा उससे ऊपर के मनसब केवल बादशाह और उसके पुत्र-पौत्रों के लिये आरक्षित थे। जयपुर नरेश राजा मानसिंह तथा उनके जैसे 1-2 व्यक्ति ही अधिकतम 7 हजार मनसब के पद पर नियुक्त हो पाये थे। मनसब देते समय उन्हें बादशाह की ओर से यह आदेश भी होता था कि जब भी उन्हें बुलाया जाये, वे बादशाह की सेवा में कितने घुड़सवार लेकर हाजिर होंगे। जरूरी नहीं था कि सात हजारी मनसबदार सात हजार घुड़सवार लेकर आये। यह पद की उच्चता का द्योतक था, न कि जात अथवा सवार का।

[6] उपाधियां अक्सर व्यक्ति के काम और हैसियत का द्योतक होती थीं जैसे धातृ पति को अत्तका अथवा अतगा खाँ की, अमीर के पुत्रों को मिरजा की, बादशाह को खाँ की और बादशाहों के बादशाह को खानखाना की उपाधि दी जाती थी।

[7] तबकात अकबरी में लिखा है कि बैरामखाँ के 25 नौकर पाँच हजारी मनसब को पहुँच कर नौबत और निशान के धनी हो गये थे।

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