एक जमाना था जब रेवाड़ी की सड़कों पर एक धूसर बनिया नमक बेचा करता था। उसका नाम था हेमचंद्र लेकिन वह अपने आप को हेमू ही कहता था। वह बातों का बड़ा खिलाड़ी था। देखते ही देखते वह किसी को भी अपने पक्ष में कर लेता था। धीरे-धीरे वह राजकीय कर्मचारियों से घुल मिल गया और मौका पाकर बाजार में तोल करने वाले कर्मचारी के पद पर नियुक्त हो गया। यहाँ से उसने प्रगति के नये अध्याय लिखने आरंभ किये। एक दिन शेरशाह सूरी के दूसरे नम्बर के बेटे जलालखाँ की नजर उस पर पड़ी। वह हेमू के वाक् चातुर्य से बड़ा प्रभावित हुआ और उसे अपने साथ महल में ले गया। हेमू ने उसे ऐसी-ऐसी बातें बताईं जो जलालखाँ ने पहले कभी नहीं सुनी थीं। जलालखाँ ने हेमू को अपना गुप्तचर बना लिया ताकि वह जन सामान्य के बीच घटित होने वाली घटनाओं की सच्ची खबर जलालखाँ को देता रहे। हेमू ने अपने काम से जलालखाँ को प्रसन्न कर लिया और धीरे-धीरे जलालखाँ की नाक का बाल बन गया।
जब जलालखाँ इस्लामशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा तो उसने हेमू को महत्वपूर्ण पद प्रदान किये। हेमू में सामान्य प्रशासन और सामरिक प्रबंधन की उच्च क्षमतायें थीं। एक दिन वह प्रधानमंत्री बन गया। जब आठ साल शासन करके इस्लामशाह गंदी बीमारियों के कारण मर गया तो इस्लामशाह का 12 वर्षीय बेटा फीरोजशाह दिल्ली का शासक हुआ। फीरोजशाह के मामा मुबारिजखाँ ने अपने भांजे फीरोजशाह की हत्या कर दी और खुद आदिलशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। हेमू पैनी नजरों से दिल्ली में घटने वाली घटनाओं को देख रहा था।
आदिलशाह विलासी प्रवृत्ति का था और शासन के नीरस काम करना उसके वश की बात नहीं थी। उसे एक ऐसे विश्वसनीय और योग्य आदमी की तलाश थी जो उसके लिये दिल्ली से लेकर बंगाल तक फैले विशाल साम्राज्य पर नियंत्रण रख सके। उसने हेमू को बुलाकर पूछा कि वह किसके प्रति वफादार है? अपने पुराने स्वामियों इस्लामशाह और फीरोज शाह के प्रति या फिर आदिलशाह के प्रति?
हेमू था तो साधारण मिट्टी से बना हुआ, पतला-दुबला और कमजोर कद काठी का आदमी किंतु ईश्वर ने उसके मन और मस्तिष्क में साहस और निर्भीकता जैसे गुण मुक्त हस्त से रखे थे। उसने कहा- ‘जब तक मेरे पुराने स्वामी जीवित थे, तब तक मेरी वफादारी उनके साथ थी और यदि वे आज भी जीवित होते तो मैं उनके प्रति ही वफादार रहता किंतु अब चूंकि वे दुनिया में नहीं रहे इसलिये मैं आपके अधीन काम करने को तैयार हूँ।’
आदिलशाह शुरू से ही हेमू का प्रशंसक था। वह जानता था कि यदि हेमू जैसे समर्पित और योग्य व्यक्ति की सेवायें मिल जायें तो आदिलशाह न केवल शत्रुओं से अपने राज्य को बचाये रख सकेगा अपितु राज-काज हेमू पर छोड़कर स्वयं आसानी से अपने राग-रंग में डूबा रह सकेगा। उसने हेमू को अपना प्रधानमंत्री बनाया। कुछ दिनों बाद सेना का भार भी उस पर छोड़ दिया। मामूली आदमी होते हुए भी हेमू उच्च कोटि का सेनानायक सिद्ध हुआ। उसने अपने मालिक आदिलशाह के लिये चौबीस लड़ाईयाँ लड़ीं जिनमें से बाईस लड़ाईयाँ जीतीं।
हेमू न केवल वीर, साहसी, उद्यमी और बुद्धिमान व्यक्ति था अपितु भाग्यलक्ष्मी उसके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती थी। उसने ऐसा तोपखाना खड़ा किया जिसकी बराबरी उस समय पूरी धरती पर किसी और बादशाह अथवा राजा का तोपखाना नहीं कर सकता था। उसके पास हाथियों की 3 फौजें थीं जिनका उपयोग वह तीस हजार सैनिकों के साथ करता था। हेमू के पास जितने हाथी थे उतने उस समय दुनिया में और किसी के पास नहीं थे। तैमूर लंग को हिन्दुस्थान में कत्ले आम मचाकर भी केवल 120 हाथी ही मिल पाये थे।
यह एक भाग्य की ही बात थी कि आदिलशाह जैसे धूर्त, मक्कार और धोखेबाज हत्यारे को हेमू जैसे उच्च सेनानायक की सेवायें प्राप्त हुई। शीघ्र ही हेमू की धाक शत्रुओं पर जम गयी। जब हुमायूँ भारत छोड़कर ईरान भागा था तब उसने हेमू का नाम तक नहीं सुना था किंतु जब उसने पुनः दिल्ली की ओर मुँह किया तो समूचा उत्तरी भारत हेमू के नाम से गुंजायमान था। उसके द्वारा जीती गयीं बाईस लड़ाईयों के किस्से सुन-सुन कर हुमायूँ और उसके तमाम सिपहसालार हेमू के नाम से कांपते थे। अकबर को तो सपने में भी हेमू ही दिखाई देता था।
एक बार हुमायूँ के दरबार में रहने वाले चित्रकार ने एक ऐसा चित्र बनाया जिसमें एक आदमी के सारे अंग अलग-अलग दिखाये गये थे। जब अकबर ने उस चित्र को देखा तो भरे दरबार में कहा कि काश यह चित्र हेमू का होता! अकबर की बात सुनकर हुमायूँ के अमीरों के मुँह सूख गये। वे जानते थे कि एक न एक दिन उन्हें हेमू की तलवार का सामना करना ही है।