जब हेमू को ज्ञात हुआ कि हुमायूँ की मृत्यु हो गयी है और बैरामखाँ अकबर को लेकर दिल्ली आ रहा है तो वह ग्वालिअर से अपनी सेना लेकर आगरा पर चढ़ दौड़ा। आगरा का सूबेदार इस्कन्दरखा उजबेग हेमू का नाम सुनकर बिना लड़े ही आगरा छोड़कर दिल्ली की ओर भाग गया। उसकी सेना में इतनी भगदड़ मची कि तीन हजार मुगल सिपाही आपस में ही कुचल कर मर गये। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और शाही सम्पत्ति लूट ली।
आगरा के हाथ में आते ही हेमू दिल्ली की ओर बढ़ा। दिल्ली का सूबेदार तार्दीबेगखाँ अपनी सेना लेकर कुतुबमीनार से आठ किलोमीटर दूर पूर्व में स्थित तुगलकाबाद आ गया। हेमू ने उसमें जबरदस्त मार लगायी। तार्दीबेगखाँ और इस्कन्दरखा उजबेग परास्त होकर सरहिन्द की ओर भागे। संभल का शासक अलीकुलीखाँ हेमू का नाम सुनकर भगोड़ों के साथ हो लिया।
हेमू ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसका धूर्त स्वामी आदिलशाह अपनी बेशुमार औरतों के साथ चुनार के दुर्ग में रंगरलियां मनाता रहा। हेमू को उसके पतित चरित्र से घृणा हो गयी थी जिससे हेमू ने अपने आप को मन ही मन स्वतंत्र कर लिया था। उपरी तौर पर दिखावे के लिये वह उसे बादशाह कहता रहा। आगरा और दिल्ली अधिकार में आ जाने के बाद हेमू ने अदली को कोई सूचना नहीं भेजी और स्वयं ही अपने बल बूते पर भारत भूमि को म्लेच्छों से मुक्त करवा कर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना के स्वप्न संजोने लगा।
दिल्ली हाथ में आ जाने के बाद हेमू ग्वालियर से लेकर सतलज नदी तक के सम्पूर्ण क्षेत्र का स्वामी हो गया। अपनी विशाल गजसेना के साथ उसने दिल्ली में प्रवेश किया। उसने दिल्ली के दुर्ग को गंगाजल से धुलवाकर पवित्र किया और एक दिन शुभ मूहूर्त निकलवाकर विक्रमादित्य हेमचंद्र के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर विधिवत् आरूढ़ हुआ।
सदियों से बेरहम तुर्कों के क्रूर शासन के अधीन अपने दुर्भाग्य पर आठ-आठ आँसू बहाती हुई हिन्दू जनता को महाराज विक्रमादित्य हेमचन्द्र के सिंहासनारूढ़ होने पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। उन्होंने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा दिन भी आयेगा जब दिल्ली पर पुनः हिन्दू राजा का शासन होगा। घर-घर शंख, घड़ियाल और नगाड़े बजने लगे। हजारों की संख्या में हिन्दू जनता दूर-दूर से चलकर दिल्ली पहुँचने लगी। दिल्ली की गलियां, चौक, यमुनाजी का तट और समस्त जन स्थल इन नागरिकों से परिपूर्ण हो गये। महाराजा विक्रमादित्य हेमचंद्र की जय-जय कार से पूरी दिल्ली गूंजने लगी।
सुहागिन स्त्रियों के झुण्ड के झुण्ड मंगल गीत गाते हुए मंदिरों की तरफ जाते हुए दिखाई देने लगे। सैंकड़ों साल से सुनसान पड़े मंदिरों में फिर से दीपक जलने लगे और आरतियाँ होने लगीं। मंदिरों के शिखरों पर केसरिया ध्वजायें लहराने लगीं। घर-घर वेदपाठ होने लगे तथा द्वार-द्वार पर गौ माता की पूजा आरंभ हो गयी। चावल के आटे से चौक पूरे गये और केले के पत्तों से तोरण सजाये गये। घरों के आंगन यज्ञों की वेदी से उठने वाले सुवासित धूम्र से आप्लावित हो गये।
जब से महाराज हेमचंद्र दिल्ली के राजा हुए तब से दिल्ली में हर रात दीवाली मनायी जाने लगी। यमुना का तट देश भर के तीर्थ-यात्रियों से पट गया। दूर-दूर से आने वाले हजारों श्रद्धालु रात्रि में इकट्ठे होकर यमुनाजी की आरती उतारते। महाराजा हेमचंद्र भी नित्य ही हाथी पर सवार होकर यमुनाजी के दर्शनों के लिये जाते। सैंकड़ों वेदपाठी ब्राह्मण कंधे पर जनेऊ और गले में पीताम्बर डाले हुए महाराजा के पीछे-पीछे चलते। महाराजा हेमचंद्र अकाल के इस कठिन समय में भी याचकों, ब्राह्मणों और बटुकों को अपने हाथों से भोजन करवाते और उन्हें धन-धान्य तथा वस्त्र प्रदान करते।
वस्तुतः हिन्दू जनता का यह उत्साह पूरे तीन सौ पैंसठ साल बाद प्रकट हुआ था। ई. 1193 में तराइन के दूसरे युद्ध में मुहम्मद गौरी ने जब दिल्लीधीश्वर पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर दिल्ली पर अधिकार किया था तब से ही हिन्दू अपने ही देश भारत वर्ष में गुलामों से बदतर जीवन यापन कर रहे थे। पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके मुहम्मद गौरी ने भारतवर्ष की अपार सम्पत्ति को हड़प लिया। जिससे देश की जनता एक साथ ही व्यापक स्तर पर निर्धन हो गयी। मुहम्मद गौरी के गुलामों और सैनिकों ने पूरे देश में भय और आतंक का वातावरण बना दिया। हिन्दू राजाओं का मनोबल टूट गया। हजारों-लाखों ब्राह्मण मौत के घाट उतार दिये गये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया गया। मंदिर एवं पाठशालायें ध्वस्त करके मस्जिदों में परिवर्तित कर दी गयीं। दिल्ली का विष्णुमंदिर जामा मस्जिद में बदल दिया गया। धार, वाराणसी उज्जैन, मथुरा, अजयमेरू, जाल्हुर की संस्कृत पाठशालायें ध्वस्त करके रातों रात मस्जिदें खड़ी कर दी गयीं। अयोध्या, नगरकोट और हरिद्वार जैसे तीर्थ जला कर राख कर दिये गये। हिन्दू धर्म का ऐसा पराभव देखकर जैन साधु उत्तरी भारत छोड़कर नेपाल, श्रीलंका तथा तिब्बत आदि देशों को भाग गये। पूरे देश में हाहाकार मच गया। बौद्ध धर्म तो हूणों के हाथों पहले ही पराभव को प्राप्त हो चुका था।
अब जब महाराजा विक्रमादित्य हेमचंद्र दिल्ली के अधीश्वर हुए तो देशवासियों का उत्साह विशाल झरने की भांति फूट पड़ा। महाराज हेमचंद्र के अफगान व तुर्क सैनिक हिन्दू जनता के इस उत्साह को आश्चर्य और कौतूहल से देखते थे।
ऐसा नहीं था कि जन-सामान्य देश में चारों तरफ रक्तपात और लूटमार करती हुई सिकंदर सूर, इब्राहिमखाँ, इस्लामशाह, आदिलशाह और बैरामखाँ की सेनाओं को भूल गया था। जनता पूरी तरह आशंकित और भयभीत थी कि कहीं महाराजा विक्रमादित्य हेमचंद्र चार दिन की चांदनी सिद्ध न हों! वस्तुतः यह भय और आशंका ही जन सामान्य के बड़ी संख्या में उमड़ पड़ने का कारण था। जनता चाहती थी कि जब तक महाराजा विक्रमादित्य हेमचंद्र दिल्ली के तख्त पर हैं तब तक ही सही कुछ धर्म-कर्म और पुण्य लाभ अर्जित कर लिया जाये।