हम सौ साल जिएं यह वेदों का मूल मंत्र है। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है जिसमें कहा गया है- जीवेम् शरदः शतम् पश्येम् शरदः शतम्, श्रुण्याम् शरदः शतम्, प्रब्रवाम् शरदः शतम्, स्यामदीनाः शरदः शतम्। अर्थात् मैं सौ शरद ऋतुओं तक जीवित रहूँ, देखूं, सुनूं, बोलूं और आत्मनिर्भर रहूं तथा सौ वर्ष के बाद भी ऐसा ही रहूं।
हम सौ साल जिएं, क्या यह संभव है? हाँ यह संभव है। रक्त, मांस और हड्डियों से बना हमारा शरीर, प्रकृति द्वारा लगभग 120 से 140 वर्ष तक जीवित रहने के लिए बनाया गया है। संसार में वैज्ञानिकों द्वारा किसी भी आदमी की अधिकतम आयु 122 वर्ष रिपोर्ट की गई है। इससे अधिक आयु के भी हजारों दावे किए जाते हैं किंतु उनकी सत्यता को सत्यापित नहीं किया जा सका है।
120 से 140 वर्ष तक जीवित रहने के लिए बनाया गया मानव शरीर 50 साल की आयु आते-आते उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हाइपर टेंशन आदि बीमारियों से ग्रस्त होकर जीर्ण-शीर्ण होने लगता है और 80 वर्ष की आयु आते-आते हम मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में हम सौ साल जिएं, आम आदमी के लिए इसकी कल्पना करना भी बहुत कठिन है।
भारत में मनुष्य की औसत आयु 68.3 वर्ष है तथा औसत आयु के मामले में भारत का दुनिया के देशों में 123वां स्थान है। एक ओर सिंगापुर, स्विट्जरलैण्ड, मकाओ सार तथा इटली जैसे देश हैं जहाँ मनुष्य की औसत आयु 83 साल है तथा दूसरी ओर लिसोथो में 44 वर्ष, स्वाजीलैण्ड में 49 वर्ष, नाइजीरिया में 52 वर्ष तथा जाम्बिया एवं माली में आम आदमी की औसत आयु 53 साल है।
विश्व के समस्त देशों में औरतों की औसत आयु, पुरुषों की अपेक्षा 3 से 6 साल अधिक है, किसी-किसी देश में तो यह अंतर 11 साल तक है। भारत में भी औरतों की औसत आयु पुरुषों की औसत आयु से 3 साल अधिक है। तो क्या औरतों में जिंदा रहने की क्षमता आदमी से ज्यादा होती है!
आम आदमी होकर भी हम सौ साल जिएं, यह कोई असंभव बात नहीं है। क्योंकि अब वैज्ञानिक शोधों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बुढ़ापा एक बीमारी है न कि अनिवार्यता। यह बीमारी हमें अपने पुरखों से आनुवांशिक विरासत में मिलती है।
हम सौ साल जिएं, इसके लिए बुढ़ापा नामक रोग की रोकथाम की जानी आवश्यक है जो कि वर्तमान समय में अ सम्भव सी लगने वाली बात है। फिर भी बुढ़ापे को कुछ समय तक टाला जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में इस रोग के कारणों और निराकरण के उपायों की शोध बड़े पैमाने पर की जा रही है और सफलता की सम्भावना भी बनी है क्योंकि इस व्याधि की शोध के लिए लम्बे समय की आवश्यकता है। अतः वैज्ञानिकों की भी कितनी ही पीढ़ियाँ लग सकती हैं।
अमेरिका वैज्ञानिक बेरौज ने समुद्री जन्तु रोटीफर को उसके सामान्य प्रवास के जल से 10 डिग्री सेन्टीग्रेड कम ताप वाले पानी में रखा तो उसकी आयु दुगुनी हो गई। सामान्यतः उसकी आयु 18 दिन से अधिक नहीं होती किंतु सामान्य से 10 डिग्री ठण्डे पानी में उसकी औसत आयु 36 दिन हो गई।
हिमालय के योगियों तथा संन्यासियों के लम्बे जीवन का रहस्य भी सीमित आहार एवं निम्न तापमान ही है। जब इसी प्रकार की परिस्थितियां अन्य जीव-जन्तुओं को भी दी गईं तो उनकी आयु भी लम्बी हो गई। जीव-जन्तु कभी भी मनुष्य की भाँति असंयमी जीवन नहीं जीते फिर भी तापमान की गिरावट से उनकी उम्र में वृद्धि होती है।
वैज्ञानिकों द्वारा की गई एक शोध में एक विचित्र निष्कर्ष सामने आया है। इस निष्कर्ष के अनुसार जो कोशिकाएँ शरीर की रक्षात्मक पंक्ति में कार्यरत रहती हैं उन्हीं की बगावत, का परिणाम बुढ़ापा है। क्योंकि रक्षात्मक कोशिकाएँ ही सामान्य कोशिकाओं को खाने लगती हैं। हम सौ साल जिएं इसके लिए रक्षात्मक कोशिकाओं की बगावत को रोकना आवश्यक है।
रक्षात्मक कोशिकाओं की बगावत से आदमी के बाल पकने लगते हैं, झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं, नेत्रों की ज्योति मन्द पड़ जाती है, अनेकों उदर विकार पनपते हैं और दन्त क्षय तथा श्रवण शक्ति कम हो जाती है। माँस पेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। रक्त नलिकाएँ मोटी पड़ जाती हैं और यकृत एवं गुर्दे की कार्यशक्ति भी क्षीण होने लग जाती है।
रक्षात्मक कोशिकाओं की बगावत का स्पष्ट उदाहरण उन लोगों में देखा जा सकता है जो असंयमी हैं और नशा सेवन करते हैं अथवा आलसी और अकर्मण्य हैं। वे ही समय से पहले बूढ़े होते हैं और उन्हीं की इन्द्रियाँ युवावस्था में ही शिथिल पड़ जाती हैं।
भारतीय आयुर्वेद मानव जाति को विगत हजारों सलों से नियमित दिनचर्या जीने का संदेश दे रहा है ताकि हम सौ साल जिएं। आयुर्वेद के प्राचीन आचार्यों के अनुसार आहार-विहार के संयम के साथ ही नियमित भोजन में तुलसी, आँवला, विधारा, अश्वगंधा जैसी औषधियाँ एवं गाय का दूध सेवन करते रहने से रोगों के निकट आने का संकट लम्बे समय तक टाला जा सकता है।
वैदिक यज्ञ-हवन करने वाले ऋषि-मुनि भी हजारों वर्षों से मानव जाति को यह संदेश देते रहे हैं कि यज्ञ-हवन में प्रयुक्त जड़ी-बूटियों के धुएं में वह अमोघ शक्ति है जिससे जीवनी शक्ति पुष्ट होती है अर्थात् रक्षक कोशिकाएँ बगावत नहीं करने पातीं।
मन्त्र विज्ञानियों का निष्कर्ष है कि मन्त्रों की ध्वनि से शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों से ऐसा स्राव निकलता है जो कोशिकाओं के असमय क्षरण को रोक देता है और हम सौ साल जिएं, इसके लिए कोशिकाओं को पुष्ट बनाए रखता है।
अमेरिकी ‘आयु-शास्त्र-वैज्ञानिक’ डेंकला के अनुसार आयु नियन्त्रक केन्द्र, हमारे मस्तिष्क में विद्यमान हैं जो आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक सक्रिय होता है। इसकी सक्रियता सामान्य बनाए रहने के लिए आहार-विहार की नियमितता आवश्यक है।
माँस-मदिरा, अनियमित दिनचर्या, क्रोध, भय, चिन्ता आदि कारणों से यह केन्द्र अधिक सक्रिय होने लगता है। इस कारण ऐसे लोगों को असमय ही बुढ़ापा घेरने लगता है।
बुढ़ापे को लम्बे समय तक टालने और अनेक रोगों से छुटकारे के लिए नैसर्गिक जीवन पद्धति का अनुसरण किया जाना चाहिए, जिससे मस्तिष्क पर तनाव और शरीर पर दबाव न पड़े। तब शतायु हो सकने की और निरोग बने रहने की सम्भावना है।
हम सौ साल जिएं, इस उद्देश्य से सुश्रुत संहिता में मनुष्य के स्वास्थ्य की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
जिस व्यक्ति के तीनों दोष अर्थात् वात, पित्त एवं कफ समान हों, जठराग्नि सम हो अर्थात् न अधिक तीव्र हो और न अति मन्द हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएं अर्थात् रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएं भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियां अर्थात् आंख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ, मन और इन सबकी स्वामी आत्मा, भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति ही हम सौ साल जिएं के वैदिक मंत्र को साकार कर सकता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता