Friday, May 17, 2024
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45. हुमायूँ ने अपना राज्य अपने स्वार्थी भाइयों में बांट दिया!

 बाबर ने पश्चिम में आमू नदी से लेकर पूर्व में बिहार और बंगाल तक के क्षेत्रों को अपने अधीन किया था। दक्षिण में मालवा तथा राजपूताना के राज्य उसके साम्राज्य की सीमा पर स्थित थे। इस साम्राज्य को कुछ समय के लिये तो संभाला जा सकता था परन्तु दीर्घकालीन शासन के लिये नवीन शासन व्यवस्थायें करनी आवश्यक थीं।

तुर्कों तथा मंगोलों की प्राचीन परंपराओं के अनुसार बाबर की मृत्यु के उपरान्त उसका साम्राज्य उसके पुत्रों में विभक्त हो जाना चाहिए था। बाबर ने इसके लिए एक योजना भी बनाई थी जिसके तहत उसने हुमायूँ को बदख्शां का, कामरान को काबुल का तथा अस्करी को मुल्तान का गवर्नर बनाया था। जबकि मिर्जा हिंदाल सबसे छोटा होने के कारण अपने सबसे बड़े भाई हुमायूँ के सरंक्षण में बदख्शां में रखा गया था। संभवतः बाबर को लगता था कि इस प्रकार अपने पुत्रों की नियुक्ति एक दूसरे से दूर के क्षेत्रों में कर देने से बाबर की मृत्यु के बाद उसके राज्य का बंटवारा बड़ी आसानी से हो जाएगा।

बाबर चाहता था कि हुमायूँ समरकंद पर अधिकार कर ले और ट्रांसऑक्सिाना पर राज्य करे। हिंदाल बदख्शां का शासक बन जाए। अफगानिस्तान के क्षेत्र कामरान के पास रह जाएं और अस्करी मुल्तान एवं पंजाब का शासक बन जाए किंतु हुमायूँ के अचानक ही बदख्शां छोड़कर आगरा आ जाने के कारण बाबर की वह योजना विफल हो गई थी। इसलिए बाबर ने हुमायूँ को संभल का गवर्नर बना दिया और हिंदाल बदख्शां का गवर्नर बन गया। कामरान पूर्वत् काबुल में और अस्करी मुल्तान में रखा गया।

अब बाबर मर चुका था और हुमायूँ समूची सल्तनत का बादशाह बनाया जा चुका था। यह निश्चित था कि यदि हुमायूँ तुर्कों एवं मंगोलों की पुरानी परम्पराओं की उपेक्षा करके समस्त सल्तनत अपने अधिकार में रखने का प्रयत्न करता तो उसके भाई उसके विरुद्ध विद्रोह कर देते और अमीर लोग उसके अलग-अलग भाई के साथ होकर उनका समर्थन करते। अतः हुमायूँ ने अपने पिता की विशाल सल्तनत अपने भाइयों में बांट दी।

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हुमायूँ ने कामरान को काबुल, कांधार तथा बदख्शाँ का, अस्करी को सम्भल का तथा मिर्जा हिन्दाल को मेवात का राज्य दे दिया। सल्तनत का शेष भाग हुमायूँ ने अपने पास रखा। इस प्रकार हुमायूँ ने अपने पिता के साम्राज्य को अपने भाइयों में बाँट दिया परन्तु सिद्धान्ततः वह अपने पिता के तख्त का उत्तराधिकारी बना रहा और उसकी प्रभुत्व-शक्ति इन चारों राज्यों पर अविभक्त बनी रही।

हुमायूँ को लगता था कि इस व्यवस्था से उसके भाई संतुष्ट हो जाएंगे किंतु उसका कोई भी भाई इस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। हुमायूँ की सल्तनत के लिए यह नाजुक दौर था। इस कारण उसे अपने भाइयों एवं सल्तनत के समस्त तत्वों की सहायता की आवश्यकता थी जिनमें तुर्की अमीर, तुर्को-मंगोल मिर्जा एवं मुगल बेग शामिल थे।

बाबर ने अपनी सेना का गठन युद्धकालीन आवश्यकताओं के आधार पर किया था। अब इस सेना के कंधों पर न केवल सल्तनत के शासन को सुचारू रूप से संचालित करने की जिम्मेदारी थी अपितु सल्तनत के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले विद्रोहों एवं बाहरी आक्रमणों से भी सल्तनत की रक्षा करने की आवश्यकता थी किंतु मुगल सेनाएं इन जिम्मेदारियों का वहन करने के लिए प्रशिक्षित नहीं थीं।

मुगल सेना में बड़ी संख्या में मंगोल, उजबेग, तुर्क, चगताई, फारसी, अफगानी तथा भारतीय मुसलमान भर्ती हो चुके थे। प्रत्येक सेना अपने कबीले के नेता की अध्यक्षता में युद्ध करती थी। विभिन्न कबीलों से सम्बन्ध रखने वाली इन सेनाओं में ईर्ष्या-द्वेष व्याप्त था। इस सेना को युद्धों में तो व्यस्त रखा जा सकता था किंतु शांतिकाल में इस सेना को नियंत्रण में रख पाना बहुत कठिन था। कई बार सैनिक टुकड़ियां परस्पर संघर्ष करने लगती थीं। यह स्थिति हुमायूँ के राज्य के लिये अत्यंत घातक थी।

बाबर तथा हुमायूँ ने कई बार अफगानों को हाराया था परन्तु भारत में सवा तीन सौ साल से शासन कर रही अफगान-शक्ति से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं था। बाबर के भय से अफगान छिन्न-भिन्न हो गये थे और उनका नैतिक बल समाप्त प्रायः था परन्तु उनमें से कई अफगान अब भी मुगलों का आधिपत्य स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्हें लगता था कि मुगलों को नष्ट करके दिल्ली सल्तनत को एक बार फिर से जीवित किया जा सकता है। इसलिए बिहार की तरफ के अफगानों ने सिकंदर लोदी के पुत्र महमूद लोदी को अपना सुल्तान घोषित कर दिया और उसके झण्डे के नीचे संगठित होने लगे। बिबन, बयाजीद, मारूफ, फार्मूली आदि शक्तिशाली अफगान-योद्धाओं ने महमूद लोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। वे किसी भी कीमत पर अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः स्थापित करना चाहते थे और बंगाल तथा गुजरात के सुल्तानों से मिलकर मुगलों को भारत से मार-भगाने की योजनाएँ बना रहे थे।

हुमायूँ भी इस बात को जानता था कि अफगान कभी भी बंगाल तथा गुजरात के शासकों से हाथ मिला सकते थे। हुमायूँ को जितना बड़ा खतरा बिहार तथा बंगाल के अफगानों से था उससे कहीं अधिक बड़ा खतरा गुजरात के शासक बहादुरशाह से था। बहादुरशाह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी नवयुवक था। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए उसके पास साधन भी थे। उसका राज्य सम्पन्न था और उसने एक तोपखाना भी तैयार कर लिया था। उसे अत्यंत योग्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त थीं जिसके कारण उसके पड़ौसी राज्य उसकी शक्ति से आतंकित रहते थे।

महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद राजपूताना, मालवा तथा दक्षिण भारत के राज्यों में बहादुरशाह का विरोध करने की क्षमता नहीं बची थी। ऐसे शक्तिशाली अफगान शासक की ओर अन्य अफगान सरदारों का आकृष्ट हो जाना स्वाभाविक ही था। फतेह खाँ, कुतुब खाँ, आलम खाँ आदि कई अफगान सरदार, गुजरात चले गये। बहादुरशाह ने उनका स्वागत किया और उन्हें जागीरों तथा पदों से पुरस्कृत किया। इस प्रकार गुजरात का सुल्तान बहादुरशाह हुमायूँ का बड़ा प्रतिद्वन्द्वी बन गया। उत्तर भारत में उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था और उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। इसलिये हुमायूँ को उससे भी सतर्क रहना आवश्यक था।

यद्यपि बाबर ने खानवा में राणा सांगा को बुरी तरह परास्त किया था जिसका राजपूत संघ पर घातक प्रभाव पड़ा था परन्तु राणा सांगा का पुत्र रत्नसिंह पुनः अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था। अन्य राजपूत-राज्य भी स्वयं को संगठित करने तथा अपनी शक्ति बढ़़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। वे मुगलों को घृणा से देखते थे तथा उन्हें भारत से बाहर निकालने के लिये अफगानों से गठबन्धन कर सकते थे। इसलिए हुमायूँ को राजपूतों की ओर से भी पूरा खतरा था।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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