हालांकि बाबर ने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था किंतु बाबर के प्रधानमंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा ने हुमायूँ के स्थान पर हुमायूँ के बहनोई ख्वाजा जमां को बादशाह बनाने का प्रयास किया। इस पर राजनीति की चतुर खिलाड़ी माहम बेगम ने खलीफा के प्रयासों पर पानी फेर दिया तथा मुगल सल्तनत का ताज हुमायूँ को मिल गया।
बाबर ने हुमायूँ को जो ताज सौंपा था, वह सुख और आनंद से भरा हुआ कतई नहीं था। खून की कई नदियों को पार करके बाबर ने यह ताज हासिल किया था। इस ताज को अपने सिर पर बनाए रखने के लिए हुमायूँ को भी खून की कई नदियां पार करनी थीं।
बादशाह बनते समय समय हुमायूँ 23 वर्ष का था। उसके बादशाह बनने पर राज्य में खुशियाँ मनायी गईं और दान-दक्षिणा दी गई। राज्य के मिर्जाओं, अमीरों तथा बेगों ने नए बादशाह का स्वागत किया और उसकी बादशाहत को सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब हुमायूँ बादशाह हुआ तो उसने आदेश जारी किया कि जो व्यक्ति मरहूम बादशाह के समय में जिस पद पर काम कर रहा था, उसी पद पर पहले की तरह काम करता रहे।
जिस दिन हुमायूँ का राज्यारोहण हुआ, उसी दिन मिर्जा हिंदाल काबुल से आकर नए बादशाह से मिला। मिर्जा हिंदाल तथा उसकी बहिन गुलबदन बेगम का पालन पोषण हुमायूँ की माता आकम बेगम अर्थात् माहम सुल्ताना ने किया था तथा हिंदाल बचपन से हुमायूँ के संरक्षण में रहा था। जब बाबर ने ई.1527 में हुमायूँ को बदख्शां का गवर्नर नियुक्त करके भारत से बदख्शां भेजा था, तब भी हिंदाल हुमायं के पास बदख्शां में रहा करता था हुमायूँ हिंदाल को ही बदख्शां का शासन सौंपकर आगरा आया था।
हुमायूँ के इतने उपकारों और स्नेह-प्रदर्शन के उपरांत भी हिंदाल का मन हुमायूँ के प्रति साफ नहीं था किंतु हुमायूँ उस समय इस बात को न जान सका। हुमायूँ ने बड़े प्रेम से हिंदाल का स्वागत किया तथा अपने पिता के कोष से बहुत सी वस्तुएं निकालकर मिर्जा हिंदाल को दीं ताकि मिर्जा हिंदाल यह न सोचे कि हुमायूँ ने अपने पिता की समस्त सम्पत्ति हड़प ली है। मिर्जा हिंदाल ने यह सम्पत्ति तो स्वीकार कर ली किंतु उसके मन का मैल साफ नहीं हुआ।
हुमायूँ का छोटा भाई मिर्जा कामरान अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था। बाबर ने उसे पहले कांधार का तथा बाद में मुल्तान का गवर्नर बनाया था। कामरान में सामरिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा भी बहुत थी। इसलिए इस बात की प्रबल सम्भावना थी कि कामरान हुमायूँ का प्रतिद्वन्द्वी बनकर स्वयं हिन्दुस्तान का बादशाह बनने का प्रयास करे।
हुमायूँ का एक और भाई मिर्जा अस्करी भी हुमायूँ के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करने की नीयत रखता था किंतु सरल हृदय हूमायू को अपने भाइयों के इरादों के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था। उसे पिता बाबर ने बारबार ने यह शिक्षा दी थी कि हुमायूँ हर हाल में अपने भाइयों के प्रति सद्भावना रखे। अतः हुमायूँ का हृदय उसी भावना से ओतप्रोत था।
यद्यपि हुमायूँ की ताजपोशी से पहले ही उसका बइनोई ख्वाजा जमां और सल्तनत का प्रधानमंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा हुमायूँ के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करके अपने इरादों की भनक दे चुके थे तथापि हुमायूँ ने उनसे कुछ नहीं कहा और वे दोनों ही पूर्ववत् अपने पदों पर कार्य करते रहे।
शीघ्र ही अनेक मंगोल एवं चगताई अमीर मुगलिया सल्तनत में अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने के लिये अलग-अलग शहजादों के समर्थक बन जाने वाले थे और बाबर के बेटों को बादशाह हुमायूँ के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की सिद्धि करने वाले थे। इस कारण दूर-दूर तक विस्तृत, बिना किसी ठोस प्रशासनिक आधार वाली मुगल सल्तनत के शासन को संभालना कठिन हो जाने वाला था।
हुमायूँ को अपने भाइयों और अमीरों से भी अधिक खतरा मिर्जाओं से होने वाला था। मिर्जा मुगल खानदान के उन कुलीन शहजादों और उनकी औलादों को कहते थे जो राजवंश से सम्बन्धित होने के कारण स्वयं को तख्त के अधीन न समझकर तख्त की सत्ता एवं शक्ति में भागीदार समझते थे। इन मिर्जाओं को अनुशासन में लाना हुमायूँ के लिए आसान नहीं था। उसके राज्य में कुछ बड़े ही प्रभावशाली तथा शक्तिशाली मिर्जा विद्यमान थे जो तैमूर के वंशज थे। वे बाबर के तख्त के उसी प्रकार दावेदार थे जिस प्रकार बाबर के पुत्र।
इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली मुहम्मद जमाँ मिर्जा था जिसका विवाह बाबर की पुत्री मासूमा बेगम से हुआ था। पहले वह बिहार का शासक बनाया गया परन्तु बाद में उसे जौनपुर का शासक बनाया गया जो मुगल साम्राज्य की सीमा पर स्थित था। अपने प्रभाव तथा अपनी स्थिति के कारण वह कभी भी हुमायूँ के लिए संकट उत्पन्न कर सकता था।
दूसरा प्रभावशाली मिर्जा मुहम्मद सुल्तान मिर्जा था जो सुल्तान हुसैन की लड़की का पुत्र था। हुमायूँ की माता माहम बेगम की एक बहिन का विवाह इसी मुहम्मद सुल्तान मिर्जा से हुआ था। इस प्रकार मुहम्मद सुल्तान मिर्जा हुमायूँ का चाचा और मौसा दोनों लगता था और स्वयं को राज्य का प्रबल दावेदार मानता था।
मिर्जा लोग बेहद लालची और राज्य के भूखे थे तथा किसी भी संकटापन्न स्थिति में हुमायूँ के राज्य की बन्दरबांट कर सकते थे। इसलिए हुमायूँ के लिए इन मिर्जाओं से सतर्क रहना आवश्यक था।
बाबर ने बहुत कम समय में भारत का बहुत बड़ा हिस्सा जीत लिया था, इस विशाल क्षेत्र में वह किसी तरह का शासनतंत्र विकसित नहीं कर सका था। इसलिए बाबर ने अपने द्वारा विजित क्षेत्रों को विभिन्न अमीरों, मिर्जाओं एवं बेगों में बाँट दिया था जो अपने-अपने क्षेत्र में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखते थे और प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि शाही-खजाने में भेजते थे। बाबर को जब भी आवश्यकता होती थी, वह इन बेगों और मिर्जाओं को सेना लेकर आने के आदेश देता था। एक तरह से यह सामंत प्रथा का दूसरा रूप थी जो अत्यंत ढुलमुल होने के कारण हुमायूँ के लिए खतरे से खाली नहीं थी। अमीर, बेग, मिर्जा तथा अन्य अधिकारी कभी भी हुमायूँ को धोखा दे सकते थे और बादशाह तथा सल्तनत के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते थे।
अभी मुगलों के लिए भारत के युद्ध पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुए थे। हुमायूँ जिस समय तख्त पर बैठा, वह समय युद्ध-कालीन परिस्थितियों जैसा ही था। यद्यपि बाबर ने अफगानों को कई बार पराजित कर दिया था किंतु अफगान अभी भी हार मानने का तैयार नहीं थे और मुगल सल्तनत को उन्मूलित करने के लिए तत्पर थे। ऐसी स्थिति में हुमायूँ के राज्य में राजनीतिक तथा आर्थिक गड़बड़ी फैली हुई थी और शासन व्यवस्था का कहीं अता-पता नहीं था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता