Saturday, July 27, 2024
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73. अहेर

अरावली की सघन उपत्यकाओं में एक आदमी तेजी से भागा चला जा रहा था किंतु हाथ में गाय का रस्सा पकड़े हुए होने से उसकी गति तेज नहीं हो पाती थी। उसकी छोटी कटी हुई दाढ़ी तथा वेशभूषा से ज्ञात होता था कि वह कसाई है। कुछ लोग हाथों में लम्बी तलवार लेकर उसका पीछा कर रहे थे। उनकी वेशभूषा स्थानीय राजपूतों जैसी थी। कसाई, अपने पीछे आने वाले मनुष्यों के भय से ऐसे कठिन मार्ग का अनुसरण कर रहा था जिस मार्ग पर घोड़े आदि किसी सवारी पर बैठकर निकल पाना संभव नहीं था। इससे उसके कपड़े काँटों में उलझ कर तार-तार हो गये थे।

जब गाय को लेकर भागने वाला कसाई किसी तरह पकड़ में न आया तो पीछा करने वाले मनुष्य तीन दिशाओं में इस प्रकार बिखर गये जिससे कि कसाई को किसी संकरे स्थान में घेरा जा सके। काफी देर की भाग दौड़ के बाद अंततः कसाई पकड़ा गया। पीछा करने वाले आदमियों ने तलवार के एक ही वार से गाय की रस्सी काट दी। गाय रस्सी कटते ही भाग खड़ी हुई।

गाय के भाग जाने से क्रुद्ध होकर कसाई छुरा निकाल कर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर टूट पड़ा। उसका यह दुस्साहस देखकर पीछा करने वाले राजपूतों ने अपनी तलवारें उसकी छाती पर टिका दी। इससे पहले कि उनमें कुछ संवाद हो पाता। जाने कहाँ से एक खान अचानक प्रकट हुआ और राजपूतों को ललकारने लगा।

– ‘एक अकेले आदमी को इस तरह जंगल में घेरकर वध करने में तुम्हें लज्जा नहीं आती?’ खान ने दूर से चिल्लाकर कहा।

– ‘पापी का वध करने में कैसी लज्जा?’ एक राजपूत ने सचमुच ही उसका वध करने की नीयत से अपनी तलवार आकाश में घुमाई।

– ‘मैं कहता हूँ कि ठहर जा। अन्यथा अपनी जान से हाथ धोएगा।’ खान ने तलवार घुमाने वाले इंसान को चेतावनी दी। अब वह इन लोगों के काफी निकट आ गया था।

– ‘मुझे आदेश देने वाला तू कौन होता है?’ राजपूत ने अपनी तलवार खान की ओर घुमाते हुए कहा।

– ‘मैं कौन होता हूँ यह तो तुझे ज्ञात हो ही जायेगा फिलहाल तो तू मेरी तलवार का वार संभाल।’ खान ने हवा में तलवार घुमाकर राजपूत पर भरपूर वार किया। राजपूत इस अप्रत्याशित हमले के लिये तैयार नहीं था। वह कंधा पीछे करके किसी तरह बचा।

देखते ही देखते घमासान मच गया। अपनी परम्परा के मुताबिक एक राजपूत खान से दो-दो हाथ करने लगा। बाकी के तीनों राजपूत इन्हें देखने के लिये खड़े हो गये। राजपूतों को खान के साथ उलझा हुआ देखकर कसाई मौका पाकर भाग खड़ा हुआ। राजपूत कड़ियल जवान था तो खान भी उससे कम बलिष्ठ नहीं था। दोनों ही तलवार के खिलाड़ी जान पड़ते थे। थोड़ी देर बाद खान हाँफने लगा। वह भुजा पर राजपूत की तलवार का वार भी खा बैठा। वार बचाने के लिये जैसे ही खान जमीन पर झुका, राजपूत ने उसे लात मार कर जमीन पर गिरा दिया और फुर्ती से खान की छाती पर चढ़ बैठा।

– ‘अब बोल क्या कहता है?’ राजपूत ने तलवार की नोक खान की छाती में चुभाते हुए पूछा।

खान चुपचाप जमीन पर पड़ा रहा। उसकी भुजा और छाती में इतनी जोर का दर्द हो रहा था कि उससे बोलते नहीं बन पड़ रहा था।

– ‘सरदार इस खान का क्या किया जाये?’ खान की छाती पर बैठै युवक ने अपने प्रौढ़ साथी की तरफ देखकर पूछा।

– ‘इसीसे पूछ। क्यों बीच में पड़ा था यह?’

– ‘तुम चार आदमी मिलकर एक आदमी को मार रहे थे इसी से मैं बीच में पड़ा।

– ‘किस अधिकार से?’

– ‘तलवार के अधिकार से।’

– ‘तू क्या राव उदयसिंह[1]  है, जो तू सिरोही राज्य में तलवार का अधिकारी हो गया।’

– ‘तेरा राव उदयसिंह मेरा मातहत है।’

– ‘तो तू दिल्लीधीश्वर है?’ प्रौढ़ राजपूत ने व्यंग्य पूर्वक कहा।

– ‘मैं दिल्लीधीश्वर अकबर का सेनापति खानखाना अब्दुर्रहीम हूँ।’

– ‘कौन अब्दुर्रहीम? क्या खानखाना बैरामखाँ का बेटा?’

– ‘हाँ वही।’

– ‘सच कहता है?’

– ‘हाँ।’

– ‘क्या तू वही अब्दुर्रहीम है जिसने मुगल राज्य में आदमी को गुलाम बनाने और चिड़ियों के मारने पर रोक लगवाई है?’ दूसरे राजपूत ने पूछा।

– ‘हाँ।’

– ‘इतना बडा़ सेनापति, बिल्कुल अकेला? और इस अवस्था में?’ प्रौढ़ सरदार ने खान की छाती पर बैठे युवक को खड़े होने का संकेत करते हुए कहा।

– ‘मैं यहाँ शिकार खेलने के लिये आया था। अपने साथियों से अलग होकर जंगल में भटक गया। खानखाना अपने कपड़े झाड़ते हुए उठ बैठा। उसकी भुजा में अब भी भयानक दर्द हो रहा था।

– ‘बिना यह जाने कि गलती किस की है, बिना यह जाने कि वह कसाई कौन था, बिना यह जाने कि हम कौन हैं, तू बिना अपना परिचय दिये अचानक तलवार लेकर टूट पड़ा?’

– ‘हमें किसी पर टूट पड़ने के लिये किसी से अनुमति नहीं लेनी होती। हम अपनी इच्छा के मालिक स्वयं हैं।’

– ‘हम चाहें तो तेरी गर्दन इसी समय काट दें किंतु तूने म्लेच्छों के राज्य में आदमियों को गुलाम बनाने पर रोक लगवाई है और तूने निरीह पक्षियों को मारने पर भी पाबंदी लगवाई है। तू नेक दिल इंसान है इसलिये हम तेरी जान नहीं लेते।’

– ‘मेरी जान लेना इतना आसान नहीं है सरदार। चाहे तो अपने मन की कर के देख ले।’

– ‘नहीं। हम तेरी जान नहीं लेंगे। इस डर से नहीं कि हमें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी अपितु इसलिये कि हम तेरी इज्जत करते हैं। हमने तेरे बारे में कई किस्से सुन रखे हैं। जा तू अपनी राह को चला जा और हमें अपनी राह जाने दे।’

– ‘ऐसे कैसे जायेगा सरदार? अभी तो तूने ही हमारा सत्कार किया है, हमारा सत्कार भी तो देख।’

– ‘बड़े आदमियों का सत्कार न ही मिले तो अच्छा। फिर कभी मौका लगा तो तेरा सत्कार भी देखेंगे।’

जैसे ही सरदार अपने आदमियों को लेकर वहाँ से चलने को हुआ, खानखाना के साथी उसे ढूंढते हुए वहीं आ पहुँचे। खानखाना ने अपने आदमियों को संकेत किया। चारों राजपूत उसी समय बंदी बना लिये गये।

बच्चे पिता के इस तरह अलग हो जाने से डर गये थे। माहबानू भी खानखाना के अचानक बिछड़ जाने से चिंतित थी किंतु अब उसके सुरक्षित मिल जाने से उसकी साँस में साँस आई।

जब राजपूतों को खानखाना के डेरे पर लाया गया तो खानखाना ने उन राजपूतों से कहा- ‘यदि अपनी गुस्ताखी के लिये क्षमा मांग लो तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा।

राजपूतों ने कहा- ‘गाय की रक्षा करना हमारा धर्म है। यदि खानखाना चाहे तो हमारी गर्दन काट ले किंतु हम क्षमा नहीं मांगेंगे।’

राजपूतों की दृढ़ता देखकर खानखाना ने उन्हें स्वतंत्र कर दिया।

रहीम अब सामान्य सिपाही न रहा था, अब वह बादशाहों का बादशाह अर्थात् खानखाना था। उसके भाग्य का सितारा बुलंदी पर था। विशाल मुगलिया सल्तनत का खानखाना हो जाने से उसका इकबाल लगभग पूरे उत्तरी भारत पर कायम हो गया था। हिन्दुस्थान ही नहीं अफगानिस्तान, ईरान, तूरान, ख्वारिज्म और फरगाना तक उसकी तूती बोलने लगी थी। वह जीवन का बहुत बड़ा इम्तिहान उत्तीर्ण करके इस दर्जे तक पहुँचा था। अब उसके जीवन में कठिनाईयाँ कम और उत्सव के अवसर अधिक थे।

जब वह दिल्ली दरबार में बादशाह का धन्यवाद ज्ञापित करके फिर से अहमदाबाद जा रहा था तो मार्ग में उसके अमीरों ने उसके लिये शिकार का आयोजन किया। संयोगवश वह अपने आदमियों से अलग होकर एक पेड़ के नीचे बैठा सुस्ता रहा था, उसी दौरान यह घटना हो गयी।

कहने को तो यह घटना छोटी ही थी किंतु प्राणों पर आये खतरे के हिसाब से यह उतनी ही बड़ी थी जितनी कि मुजफ्फरखाँ के सात हजार सैनिकों के सामने अपने तीन सौ घुड़सवार और सौ हाथी झौंक कर जीवन का जुआ खेल जाने की थी।

इस घटना ने रहीम को बहुत सी बातें सोचने पर मजबूर कर दिया। उसकी समझ में अच्छी तरह से आ गया कि आदमी भले ही हर स्थान पर नहीं पहुँचे किंतु उसकी खुशबू या बदबू स्वतः ही दूर-दूर तक फैल जाती है। मौका पड़ने पर आदमी की तलवार भले ही उसके प्राण न बचा सके किंतु उसकी खुशबू उसे अपरिचितों और जंगलों में भी उसके प्राण बचा ले जाती है। रहीम के अंतस का एक कौना रह-रह कर यह भी सोचता था कि कौन जाने किस निरीह कबूतर या चिड़िया की दुआ उसके काम आई हो! जाने किस बेकस गुलाम की दुआ ऐन वक्त पर उसके आड़े आ गयी हो!


[1] यह सिरोही राज्य का तत्कालीन राजा था। इस घटना के विवरण के साथ स्थान का उल्लेख किसी भी तत्कालीन ग्रंथ में नहीं मिलता किंतु ऐसा अनुमान होता है कि यह घटना सिरोही राज्य में घटित हुई होगी।

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