Saturday, July 27, 2024
spot_img

56. चालीसा का गठन करके अपनी ही औलादों की कब्र खोद दी इल्तुतमिश ने!

पाठकों को स्मरण होगा कि ई.1208 में दिल्ली के पहले मुस्लिम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने गजनी के सुल्तान महमूद महमूद बिन गियासुद्दीन से प्रार्थना करके अपने लिए सुल्तान की उपाधि प्राप्त की थी किंतु मुस्लिम जगत् में केवल खलीफा को ही यह अधिकार था कि वह किसी शासक को सुल्तान की उपाधि दे। अतः दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने ई.1229 में बगदाद के खलीफा के पास प्रार्थना भिजवाई कि खलीफा इल्तुतमिश को भारत का सुल्तान स्वीकार कर ले। खलीफा ने इल्तुतमिश की प्रार्थना मान ली तथा इल्तुतमिश को सुल्तान-ए-हिन्द की उपाधि और एक खिलवत भिजवाई।

इस प्रकार इल्तुतमिश खलीफा द्वारा भारत का मान्यता प्राप्त पहला सुल्तान बना। इस उपलब्धि को इल्तुतमिश ने अपनी चांदी की मुद्रा पर अंकित करवाया जिसे वह टंक कहता था। इल्तुतमिश ने टंक के एक ओर अपना तथा दूसरी ओर खलीफा का नाम अंकित करवाया। उसने कुतुबुद्दीन द्वारा अपनाई गई उस भारतीय परम्परा को बंद कर दिया जिसके अंतर्गत सिक्कों के एक तरफ घोड़े का तथा दूसरी तरफ बैल का अंकन किया जाता था।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

इल्तुतमिश जिस शासन व्यवस्था में सुल्तान बना था, उस शासन व्यवस्था का जन्म युद्ध के मैदानों में हुआ था। उस शासन व्यवस्था में शत्रु पर आक्रमण करना, शत्रु की भूमि को जीतना, विद्रोहों को दबना तथा शत्रु के क्षेत्र से लूटे गए माल से अपनी सेना का खर्चा चलाना ही प्रमुख थे किंतु अब इल्तुतमिश कुछ भू-भागों का स्थाई रूप से स्वामी बन गया था। इसलिए यह आवश्यक हो गया था कि इस तरह की शासन व्यवस्था की जाए ताकि विद्रोह न हों तथा उन्हें दबाने में सैनिक शक्ति एवं धन व्यय न करना पड़े।

इल्तुतमिश ने अनुभव किया कि राज्याधिकारियों में पूर्ण स्वामि-भक्ति संचारित करने का सबसे बड़ा उपाय यही है कि परम्परागत एवं वंशानुगत पदों को समाप्त करके राज्य के समस्त उच्च पदों पर उन्हीं व्यक्तियों को नियुक्त किया जाये जो अपनी उन्नति के लिए पूर्णतः सुल्तान की कृपा-दृष्टि पर निर्भर हों। इस उद्देश्य से उसने चालीस तुर्की अमीरों अथवा गुलामों के दल का गठन किया। इसे चरगान अथवा तुर्कान ए चिहालगानी अर्थात् चालीस गुलामों का दल कहते थे। ये लोग अपनी राजभक्ति के लिए प्रसिद्ध थे और इनका उत्थान तथा पतन सुल्तान की इच्छा पर निर्भर रहता था। 

इल्तुतमिश ने अपने शासन को सुदृढ़़ बनाने के लिए केवल स्वामिभक्ति को ही आधार नहीं बनाया अपितु स्वामिभक्ति के साथ-साथ योग्यता को भी ध्यान में रखा। उसने विदेशी मुसलमानों के साथ-साथ भारतीय मुसलमानों को भी शासन व्यवस्था में समुचित स्थान दिया। उसने मिनहाज उस् सिराज को दिल्ली के प्रधान काजी तथा सद्रेजहाँ के पद पर और मखरुल्मुल्क इमामी को वजीर के पद पर नियुक्त किया। मिनहाज उस् सिराज इस्लामिक सिद्धांतों का विद्वान था और इमामी तीस वर्ष तक तुर्की के खलीफा का वजीर रह चुका था।

चालीसा का गठन करके इल्तुतमिश ने अपने शासन को मजबूती देने का बुद्धिमान प्रयास किया था। भारतीय शासन नीति के अनुसार यह उचित कदम ही था किंतु तुर्की राज्य कभी भी वंशानुगत नहीं होते थे। कोई भी ताकतवर तुर्क कभी भी सल्तनत पर अधिकार कर सकता था। चालीस तुर्कों का यह दल भविष्य के सुल्तानों के लिए भयानक मुसीबत बनने वाला था। इसलिए चालीसा का गठन करके इल्तुतमिश ने अपनी ही औलादों की कब्र खोद दी।

To purchase this book, please click on photo.

इल्तुतमिश ने अनुभव किया कि भारत के पर्वतीय क्षेत्रों, गंगा-यमुना के दो-आब क्षेत्र तथा खोखरों के प्रदेश में बार-बार विद्रोह होते थे। इसलिए इल्तुतमिश ने उन प्रदेशों में विश्वसनीय तुर्क सरदारों को जागीरें देकर वहाँ तुर्कों की बस्तियाँ बसाईं।

प्रजा के झगड़ों को निबटाने के लिये इल्तुतमिश ने दिल्ली में अनेक काजी नियुक्त किए तथा सल्तनत के बड़े नगरों में ‘अमीर दादा’ नियुक्त किए। उनके कार्यों का निरीक्षण करने तथा उनके निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का भार प्रधान काजी तथा सुल्तान पर रहता था। इब्नबतूता लिखता है कि पीड़ित व्यक्ति को दिन में विशेष प्रकार के वस्त्र पहन कर अमीर दादा अथवा काजी के समक्ष उपस्थित होकर शिकायत करनी होती थी।

रात्रि काल के लिये अलग तरह की व्यवस्था थी। सुल्तान के महल के सामने संगमरमर के दो सिंह बने हुए थे जिनके गलों में घण्टियाँ लटकी रहती थीं। जब रात्रिकाल में कोई पीड़ित व्यक्ति इन घण्टियों को बजाता था तब उसकी फरियाद सुनी जाती थी तथा उसके साथ न्याय किया जाता था।

यद्यपि इल्तुतमिश के समय में साहित्य तथा कला सम्बन्धी उपलब्धियांें की जानकारी नहीं मिलती है तथापि मुस्लिम इतिहासकारों ने उसे कला-प्रेमी सुल्तान बताया है जिसने अनेक साहित्यकारों को आश्रय दिया। इल्तुतमिश ने मध्यएशिया के बहुत से सुन्नी विद्वानों, इतिहासकारों, कवियों तथा दार्शनिकों को दिल्ली में आश्रय प्रदान किया। इससे दिल्ली मुस्लिम सभ्यता तथा संस्कृति का केन्द्र बन गई। कुतुबमीनार को पूरा करवाने के अलावा उसने दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनवाईं।

इल्तुतमिश अपनी मुस्लिम प्रजा के प्रति जितना उदार था, उतना हिन्दू प्रजा के प्रति नहीं था। उसने दिल्ली को मुस्लिम संस्कृति का केन्द्र बना दिया तथा हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करके मुस्लिम इतिहासकारों से प्रशंसा प्राप्त की। उस काल में अधिकांश भारतीय मुसलमान तथा विदेशी तुर्क, सुन्नी मत को मानते थे। इस कारण सुल्तान ने सुन्नियों के साथ अपना समर्थन दिखाया। इल्तुतमिश ने सुन्नी उलेमाओं की सम्मति को इतना अधिक महत्त्व दिया कि वे शियाओं पर अत्याचार करने लगे। इससे इल्तुतमिश नेे शिया सम्प्रदाय की सहानुभूति खो दी।

मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है कि इल्तुतमिश बेसहारा दीन-दुखियों के प्रति दया एवं सहानुभूति रखता था। इस कारण सुल्तान के सम्बन्ध में अनेक कहानियाँ प्रचलित हो गईं। इल्तुतमिश दिन में पांच बार नमाज पढ़ता था, फकीरों को आश्रय देता था और रमजान के महीने में रोजा रखता था।

इल्तुतमिश की उदारता केवल सुन्नी मुसलमानों के साथ थी। हिन्दुओं की तो बात ही क्या, वह शिया मुसलमानों के साथ भी सहिष्णुता का व्यवहार नहीं कर सका। उसकी इस धार्मिक कट्टरता के कारण ही दिल्ली के इस्माइली अथवा इस्माइलिया शिया मुसलमानों ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया और इल्तुतमिश की हत्या करने का षड्यन्त्र रचा। हिन्दुओं के साथ सुल्तान का व्यवहार और भी अधिक कठोर था। इल्तुतमिश सुन्नी उलेमाओं का बड़ा आदर करता था और वे ही उसके धार्मिक अत्याचार के साधन थे।

डॉ. निजामी ने लिखा है कि इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को इक्ता शासन व्यवस्था और सुल्तान की निजी सेना के निर्माण का विचार प्रदान किया तथा मुद्रा में सुधार किया। जबकि डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि इल्तुतमिश रचनात्मक प्रतिभा सम्पन्न राजनीतिज्ञ नहीं था। उसने शासन संस्थाओं का निर्माण नहीं किया। ई.1236 में इल्तुतमिश बीमार पड़ा और उसका निधन हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source