Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 1 (अ) : मध्यकालीन भारतीय इतिहास जानने के महत्त्वपूर्ण स्रोत

(साहित्यिक स्रोत, पुरातात्विक स्रोत एवं
भारतीयों में ऐतिहासिक विवेक)

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत उस काल में रचे गये अरबी-फारसी एवं विभिन्न भाषाओं के ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में दरबारी रचनाकारों के साथ-साथ सुल्तानों, बादशाहों एवं शहजादियों द्वारा लिखी गई जीवनियाँ भी प्रमुख स्थान रखती हैं। ग्रंथों के साथ-साथ, उस काल के मुस्लिम एवं हिन्दू शासकों द्वारा जारी किये गये सिक्के, शाही फरमान, रुक्के, परवाने, रजवाड़ों में लिखी गई बहियाँ, उस काल में निर्मित भवन, भवनों पर उत्कीर्ण शिलालेख, विदेशी यात्रियों के वृत्तांत, आदि ऐसे विश्वसनीय स्रोत हैं जो उस काल के इतिहास का निर्माण करने में महत्वपूर्ण सूचनाएँ देते हैं।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोतों का अध्ययन सुगमता की दृष्टि से दो भागों में किया जाना उचित है- (1) दिल्ली सल्तनतकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत तथा (2) मंगोलकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत।

दिल्ली सल्तनतकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत

कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर इब्राहीम लोदी तक का शासन काल (ई.1206 से ई. 1526) भारतीय इतिहास में दिल्ली सल्तनत का काल कहलाता है। 320 वर्षों की अवधि के दिल्ली सल्तनतकालीन भारतीय इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत मुस्लिम लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा लिखित फारसी तथा अरबी भाषाओं के ग्रंथ हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की ऐतिहासिक रचनाओं से भी उस काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। लिखित साहित्य के साथ-साथ तत्कालीन शिलालेखों, सिक्कों तथा स्मारकों से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। मुस्लिम इतिहासकार इस देश में आक्रमणकारी बादशाहों के दरबारियों के रूप में अथवा स्वतंत्र यात्रियों के रूप में आये। उनकी रचनाओं में यात्रा-वृत्तान्त तथा आत्मकथाएँ मुख्य हैं जिनमें मुस्लिम आक्रांताओं की सफलताओं तथा भारतीय शासकों की विफलताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।

डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘मुस्लिम इतिहासकारों की, भारत में इस्लाम की प्रगति तथा दरबारी मामलों में ही विशेष रुचि थी। वे वैज्ञानिक इतिहासकार नहीं थे, उनका ध्यान शासकों के कार्यों तक ही सीमित था, साधारण जनता के जीवन में उन्हें दिलचस्पी नहीं थी।’ डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है- ‘उन्होंने इस बात की विशेष चिन्ता नहीं की कि वे अपनी सामग्री को क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप से लिखें। उन्हें यह परवाह नहीं रही कि किस आवश्यक बात को लिखा जाए और क्या नहीं तथा जो सामग्री उपलब्ध है, उसका किस रूप में और कैसे उपयोग किया जाये। यही नहीं, उन्होंने अतिशयोक्तिपूर्ण आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया। फलस्वरूप अपने ऐतिहासिक विवरण में उन्होंने कई स्थलों पर अस्पष्टता और सन्देह के बीज छोड़ दिये।’

सल्तनतकालीन इतिहासकारों को सुल्तानों तथा तत्कालीन भारतीय शासकों के शासनकाल को देखने का प्रत्यक्ष अनुभव था। उन्होंने अपनी आँखों देखी घटनाओं का वर्णन करने के साथ पूर्व के लेखकों की रचनाओं का भी उपयोग किया है तथा कई लेखकों ने सुनी हुई बातों को भी प्रमुख स्थान दिया है। अधिकांश लेखकों ने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर लिखा किंतु कुछ ऐसे मुस्लिम इतिहासकार भी हुए जिन्होंने बिना किसी पक्षपात और पूर्वाग्रह के इतिहास का लेखन किया। सल्तनतकालीन भारतीय इतिहास के निर्माण में उनकी रचनाओं का सावधानी के साथ उपयोग किया जाना चाहिये।

सल्तनतकालीन भारतीय इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ

1. तारीखे-सिन्ध: इस ग्रंथ का लेखक मीर मुहम्मद मासूम था। इस ग्रन्थ को तारीखे-मासूमी भी कहा जाता है। इसमें मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर अकबर के शासनकाल तक के सिन्ध क्षेत्र का इतिहास है। इस ग्रन्थ की रचना 1600 ई. के आसपास की गई थी।

2. तारीखे हिन्द (चचनामा): जिस समय अरबों ने भारत पर पहला आक्रमण किया उस समय सिंध पर चच का पुत्र दाहिर शासन करता था। संभवतः उसी चच के नाम पर इस ग्रंथ का नाम चचनामा रखा गया। चचनामा को तारीखे-हिन्द एवं तारीखे-सिन्ध भी कहा जाता है। इसमें अरबों की सिन्ध विजय का इतिहास है। इसे मूलतः अरबी भाषा में लिखा गया। मुहम्मद अली कूफी ने इस ग्रंथ का फारसी भाषा में अनुवाद किया। इस ग्रंथ में मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से पहले तथा बाद के सिन्ध का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है।

3. तारीखे-यामिनी: इस ग्रन्थ का लेखक अबु नस्त्र मुहम्मद इब्न मुहम्मद अल-उतबी था। वह महमूद गजनवी का मंत्री था। इस ग्रंथ में सुबुक्तगीन के सम्पूर्ण शासनकाल और महमूद गजनवी के कुछ समय तक का वृत्तान्त है। ऐतिहासिक ग्रन्थ की अपेक्षा यह एक साहित्यिक कृति अधिक है। इस कारण यह ग्रन्थ अलंकारों तथा टेढ़ी-मेढ़ी शब्दावलियों से भरा पड़ा है। इसमें विस्तृत विवरण का अभाव है। तिथियाँ भी बहुत कम दी गई हैं। फिर भी, महमूद के प्रारम्भिक जीवन तथा कार्यों के सम्बन्ध में इससे प्रामाणिक जानकारी मिलती है।

4. तारीखे-मसूदी: इसका लेखक अबुल फजल मुहम्मद बिन हुसैन अल बहरी था। इसमें महमूद गजनवी तथा मसूद का इतिहास है। ग्रंथ में तत्कालीन दरबारी जीवन तथा अधिकारियों के कुचक्रों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

5. तारीखे-उल-हिन्द: इस ग्रंथ का लेखक अबूरिहान मुहम्मद बिन अहमद अलबरूनी था। वह अरबी और फारसी भाषाओं, गणित, चिकित्सा, हेतु विद्या, दर्शन एवं भारतीय धर्मशास्त्रों का जानकार था। उसका जन्म ख्वारिज्म में हुआ था। उसने भारत में रहकर हिन्दू धर्म, दर्शन तथा संस्कृत का अध्ययन किया तथा दो संस्कृत ग्रंथों का अरबी में और कुछ अरबी ग्रंथांे का फारसी में अनुवाद किया। ‘तारीखे-उल-हिन्द’ मूलतः अरबी भाषा में लिखा गया। बाद में इसका फारसी तथा अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। इस ग्रंथ में महमूद गजनवी के समय में भारत की स्थिति का वर्णन किया गया है। अलबरूनी की मृत्यु 1038-39 ई. में हुई।

6. ताज-उल-मासिर: इस ग्रंथ का लेखक सदरउद्दीन हसन निजामी था। वह मुहम्मद गौरी के साथ भारत आया। उसने अपनी पुस्तक में 1192 से 1238 ई. तक का विवरण दिया। इस ग्रंथ में मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय भारत की स्थिति, ऐबक के कार्यों तथा इल्तुतमिश के प्रारम्भिक कार्यों की अच्छी जानकारी मिलती है। अजमेर नगर की समृद्धि तथा तत्कालीन स्थिति पर भी लेखक ने अच्छा प्रकाश डाला है। इस ग्रंथ की रचना उस समय हुई जिस समय मुहम्मद गौरी भारत में मुस्लिम सत्ता की नींव रख रहा था। इसलिये इस ग्रंथ का महत्व अत्यधिक है। हसन निजामी ने अपना शेष जीवन भारत में ही बिताया।

7. तबकाते नासिरी: इस ग्रंथ का लेखक काजी मिनहाज-उस-सिराज अपने समय का प्रमुख विद्वान था। नासिरुद्दीन के शासन काल में वह दिल्ली का प्रमुख काजी था। उसने इस ग्रन्थ में प्राचीन काल से लेकर 1260 ई. तक का इतिहास लिखा है। इल्तुतमिश के राज्यकाल से लेकर सुल्तान नासिरुद्दीन के राज्यकाल के पन्द्रहवें वर्ष तक का विवरण उसने स्वयं अपनी जानकारी के आधार पर लिखा है। मिनहाज को निष्पक्ष लेखक नहीं कहा जा सकता। मुहम्मद गौरी तथा इल्तुतमिश के वंश के सम्बन्ध में उसका दृष्टिकोण पक्षपात पूर्ण था। वह बलबन का बड़ा प्रशंसक था। इन दोषों के उपरान्त भी दिल्ली सल्तनत के प्रारम्भिक इतिहास को जानने के लिये इस ग्रन्थ को प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मिनहाज ने घटनाओं का क्रमबद्ध वृत्तान्त दिया है और तिथियाँ तथा तथ्य सामान्यतः सत्य के निकट हैं। फरिश्ता और दूसरे लेखक भी तबकाते नासिरी को श्रेष्ठ एवं प्रामाणिक ग्रन्थ मानते हैं।

8. खजायँ-उल-फुतूह (तारीखे-अलाई): खजायँ-उल-फुतूह को तारीखे- अलाई भी कहा जाता है। इसकी रचना 1311 ई. में अमीर खुसरो ने की। अमीर खुसरो भारत के फारसी कवियों में सर्वश्रेष्ठ था। वह जलालुद्दीन खलजी से मुहम्मद बिन तुगलक तक के दिल्ली के सुल्तानों का समकालीन था। 1290 ई. से 1325 ई. तक वह राजकवि रहा। खजायँ-उल-फुतूह में अलाउद्दीन खलजी की विजयों के साथ-साथ उसके आर्थिक सुधारों और बाजार-भाव नियन्त्रण का भी उल्लेख किया गया है। खुसरो ने जलालुद्दीन खलजी की हत्या जैसी उन घटनाओं को नहीं लिखा जो उसके अलाउद्दीन के विरुद्ध थीं। खुसरो ने कहीं-कहीं पर अत्यधिक अलंकृत फारसी का प्रयोग किया है जिसके कारण ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट नहीं हो पाते। उसने कई हिन्दी शब्दों का भी प्रयोग किया है। इस ग्रन्थ में तिथि क्रम की कमी खटकती है। फिर भी, यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है। डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है- ‘खजायँ उल फुतूह’ दक्षिणी अभियानों का इतिहास है। यह तिथि एवं वृत्तान्त दोनों ही दृष्टियों से सही है। इससे हमें अलाउद्दीन के शासनकाल का उपयुक्त तिथिक्रम निश्चित करने में सहायता मिलती है। इसमें कतिपय प्रशासकीय सुधारों का भी संक्षिप्त वर्णन है। खुसरो कट्टर मुसलमान था। जिन लोगों को वह काफिर समझता था उनके विषय में विचार प्रकट करते हुए उसने अपनी धर्मान्धता का परिचय दिया।’

9. अमीर खुसरो के अन्य ग्रंथ: अमीर खुसरो ने ‘मिफताह-उल-फुतूह’, ‘तुगलकनामा’, ‘गुरात-उल-कमाल’, ‘देवलरानी’ आदि अनेक ग्रन्थों की भी रचना की। खुसरो की काव्य रचनाओं से भी कुछ ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। ‘तूहफतूह रिगार’ से बलबन के सम्बन्ध में, ‘वस्तुल हयात’ से निजामुद्दीन औलिया तथा मलिक छज्जू आदि के बारे में, ‘गुरात-उल-कमाल’ से निजामुद्दीन औलिया, कैकूबाद आदि के बारे में तथा ‘देवलरानी’ से खिज्रखाँ एवं देवलदेवी के बारे में जानकारी मिलती है।

10. तारीखे-फीरोजशाही: इस ग्रंथ का लेखक जियाउद्दीन बरनी था। वह ग्यासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक तथा फीरोज तुगलक का समकालीन था। उसका ग्रंथ तारीखे-फीरोजशाही बलबन के राज्यारोहण (ई. 1265) से आरम्भ होकर फीरोज तुगलक के शासन के छठे वर्ष (ई. 1356) में समाप्त होता है। उस समय के इतिहास की दृष्टि से यह एक प्रामाणिक ग्रंथ है। बरनी को अनेक महापुरुषों, विद्वानों और अमीर-उमरावों के सम्पर्क में आने का अवसर मिला। अलाउद्दीन के शासन को उसने अपनी आँखों से देखा। मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में उसे 17 वर्षों तक रहने का अवसर मिला। उसने यह ग्रंथ सुल्तान फीरोज तुगलक को समर्पित किया। उसके अन्तिम दिन कष्ट और दरिद्रता में बीते। बरनी ने लिखा है कि इतिहासकारों को तथ्यों को विकृत नहीं करना चािहए और इतिहास लिखते समय पक्षपात नहीं करना चाहिये परन्तु अनेक विद्वानों ने स्वयं बरनी की निष्पक्षता और ईमानदारी पर सन्देह प्रकट किया है। इलियट एवं डाउसन ने लिखा है- ‘जियाउद्दीन बरनी अन्य अनेक इतिहासकारों की भाँति अपने समकालीन शासकों के आदेश से और उनके सामने लिखा करता था, इसलिए वह ईमानदार इतिहासकार नहीं है। उसने बहुत-सी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ बिल्कुल छोड़ दीं तथा कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं को साधारण मानकर उनका अत्यल्प उल्लेख किया है। अलाउद्दीन के शासनकाल में भारत पर मंगोलों के कई आक्रमण हुए परन्तु बरनी ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने हत्या और बेईमानी से राज्य प्राप्त किया था। बरनी ने उसका भी उल्लेख नहीं किया।’ फरिश्ता ने भी बरनी पर आरोप लगाया है कि उसने इस सत्य को छिपाया।

11. फतवा-ए-जहाँदारी: फतवा-ए-जहाँदारी की रचना जियाउद्दीन बरनी ने की। इस ग्रंथ में राज्य-व्यवस्था सम्बन्धी उपदेश दिये गये हैं तथा आदर्श शासक के सम्बन्ध में बरनी के विचार लिखे गये हैं। बरनी, आदर्श मुसलमान शासकों को काफिरों के विनाश का उपदेश देता है।

12. तारीखे-फीरोजशाही: जियाउद्दीन बरनी की भांति शम्स-ए-सिराज अफीफ ने भी तारीखे फीरोजशाही नामक ग्रंथ की रचना की। अफीफ, सुल्तान फीरोजशाह तुगलक का दरबारी इतिहासकार था। उसने इस ग्रंथ की सामग्री अपने पिता और अन्य तत्कालीन शाही अधिकारियों से प्राप्त की थी। इस ग्रंथ में फीरोज तुगलक के शासनकाल की राजनीतिक घटनाओं, प्रशासकीय सुधारों तथा सुल्तान के नेक कार्यों का विस्तृत विवरण दिया गया है। यद्यपि उसका वर्णन निष्पक्ष नहीं है तथापि फीरोज तुगलक के शासनकाल की जानकारी के लिए वह एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘अफीफ में, बरनी जैसी न तो बौद्धिक उपलब्धि है और न इतिहासकार की योग्यता एवं सूझबूझ तथा दृष्टि। अफीफ एक-एक घटनाओं को तिथिक्रम से लिखने वाला सामान्य इतिहासकार है।’

13. फुतूहाते-फीरोजशाही: इस ग्रंथ का लेखक सुल्तान फीरोज तुगलक है। इस ग्रंथ में फीरोज ने अपने कार्यों, विचारों और आदेशों के सम्बन्ध में लिखा है। यह ग्रंथ फीरोज के अध्यादेशों का संग्रह मात्र है फिर भी इस ग्रंथ से तत्कालीन इतिहास को तैयार करने में महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।

14. सीरत-ए-फीरोजशाही: इस ग्रंथ के लेखक का नाम अज्ञात है। इसमें फीरोज तुगलक के गुणों का विस्तार से वर्णन है तथा उसकी धार्मिक नीति और मूर्ति-पूजा का नाश करने के प्रयासों की प्रशंसा की गई है। फीरोज द्वारा निर्मित नहरों और उसके प्रशासकीय सुधारों का भी उल्लेख किया गया है। ग्रंथ की रचना 1370 ई. में की गई। सम्भवतः सुल्तान फीरोज तुगलक के आदेशानुसार इसकी रचना की गई।

15. फुतुह-उस-सलातीन: इस ग्रंथ का लेखक ख्वाजा अबू बक्र इसामी, मुहम्मद बिन तुगलक का समकालीन था। उसने 1349 ई. में इस ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ में सुल्तान महमूद गजनवी से लेकर सुल्तान अलाउद्दीन बहमनशाह तक के राज्यकाल का विवरण दिया गया है। इसामी ने इस ग्रंथ को काफी छानबीन के बाद लिखा है। इस कारण इस ग्रंथ को काफी महत्त्व दिया जाता है। कुछ विद्वान उस पर मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध अन्धाधुन्ध दोष लगाने का आरोप लगाते हैं परन्तु चूँकि इसामी ने सुल्तान के निष्ठुर कृत्यों को अपनी आँखों से देखा था और अन्य लोगों की भाँति उसे भी दौलताबाद जाने और यात्रा के कष्ट उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा था, सम्भवतः इसीलिए वह सुल्तान का कटु आलोचक बन गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसामी ने अपने युग की घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया दिया है। यह ग्रंथ तत्कालीन इतिहास को जानने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

16. किताब-उल-रहला (तुहूफल-उन-नुजार): किताब-उल-रहला को तुहूफल-उन-नुजार भी कहते हैं। इसका लेखक इब्नबतूता, मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में मोरक्को से भारत आया था। यह ग्रंथ उसके यात्रा संस्मरणों का संकलन है। मोरक्को के सुल्तान ने इब्नबतूता को काफी प्रोत्साहन दिया। इब्नबतूता लगभग आठ वर्ष तक भारत में रहा। उसने अपने यात्रा-वृत्तान्त में भारत की भौगोलिक स्थिति, तत्कालीन शासन-व्यवस्था, दरबार, डाक का प्रबन्ध, सुल्तान मुहम्मद के चरित्र के साथ-साथ समकालीन राजनीतिक घटनाओं का विस्तार से उल्लेख किया। धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का भी विशद् वर्णन किया। इब्नबतूता जिज्ञासु प्रवृत्ति का व्यक्ति था। वह स्पष्ट-वक्ता था और किसी बात को छिपाने में विश्वास नहीं करता था। उसने स्वयं अपनी त्रुटियों का भी स्पष्ट उल्लेख किया। उसने अपनी यात्रा का विवरण ईमानदारी से दिया परन्तु पिछली घटनाओं के सम्बन्ध में उसे अपने सूत्रों से जो जानकारी मिल सकी उसका ज्यों का त्यों उपयोग किया।

17. तारीखे-मुबारकशाही: इसका लेखक याहयाबिन अहमद अब्दुल्लाह सहरिन्दी है। इस ग्रंथ में मुहम्मद गौरी से लेकर सैय्यद वंश के तीसरे सुल्तान मुहम्मद तक के शासनकाल का विवरण है। सैय्यद वंश के इतिहास की जानकारी के लिए यही एकमात्र समकालीन ग्रंथ है। परवर्ती इतिहासकारों- निजामुद्दीन अहमद, बदायूँनी आदि ने सैय्यद वंश के इतिहास के लिए इसी ग्रंथ का सहारा लिया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘याहया एक सजग इतिहासकार है जिसकी शैली अतिरंजना और विशेषणों से मुक्त है। उसने घटनाओं का बड़ी ईमानदारी के साथ वर्णन किया है और फीरोज की मृत्यु के उपरान्त होने वाले उपद्रवों की जानकारी प्राप्त करने के लिए उसका ग्रंथ अत्यन्त प्रमाणिक है। उसने उस समय में, देश की शान्ति-भंग करने वाले विद्रोहों का विस्तार से वर्णन किया है।’

18. वाकियते-मुश्ताकी: इस ग्रंथ का लेखक शेख रिजकुल्ला मुश्ताकी (1491-1581 ई.) था। उसने वाकियते-मुश्ताफी में बहलोल लोदी से लेकर अकबर तक के शासन काल की विभिन्न घटनाओं का विवरण दिया। इस ग्रंथ में अनेक कहानियाँ हैं जिनके माध्यम से समकालीन राजनीतिक घटनाओं के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झाँकी भी मिलती है।

19. तारीखे-मुश्ताकी: इस ग्रंथ की रचना भी शेख रिजकुल्ला मुश्ताकी ने की। यह एक काव्य ग्रंथ है जिसमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत की गई है। कुछ कहानियां भी दी गई हैं।

20. तारीखे सलातीन-ए-अफगानी: इस ग्रंथ को तारीखे-शाही भी कहा जाता है। इसका लेखक अहमद यादगार था। इसमें बहलोल लोदी, सिकन्दर लोदी, इब्राहीम लोदी, शेरशाह, इस्लामशाह, फीरोजशाह, आदिलशाह, इब्राहीम सूरी और सिकन्दरशाह का इतिहास है। अर्थात् यह ग्रंथ अफगान शासकों के इतिहास की जानकारी देता है। उनके साथ-साथ इस ग्रंथ में तत्कालीन मंगोल बादशाहों- बाबर, हुमायूँ और अकबर के बारे में भी जानकारी मिलती है।

21. मखजन-ए-अफगानी: इस ग्रंथ का लेखक नियामतउल्ला था। यह ग्रंथ दिल्ली सल्तनत नष्ट हो जाने के बाद लिखा गया था। इसकी रचना 1609 ई. के आसपास जहाँगीर के शासन काल में हुई। अतः यह तत्कालीन ग्रंथों की श्रेणी में नहीं आता। इसमें दिल्ली के अफगान सुल्तानों तथा अफगानी कबीलों के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई है। इस ग्रन्थ में सुल्तान बहलोल लोदी से लेकर इब्राहीम लोदी तक के समय का वर्णन किया गया है।

22. तारीखे-दाऊदी: इस ग्रंथ का लेखक अब्दुल्ला जहाँगीर का समकालीन था। इस ग्रन्थ में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (1451 ई.) से लेकर बंगाल के सुल्तान दाऊदशाह (1517 ई.) तक के समय का वर्णन है। इसमें अलौकिक कहानियों की भरमार है। तिथियों के मामले में बड़ी भूलें की गई हैं। अफगान शासकों की खूब प्रशंसा की गई है। इस ग्रंथ की प्रति पटना के खुदाबख्श पुस्तकालय में उपलब्ध है।

सल्तनतकालीन ग्रंथों की समीक्षा

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में केवल फीरेज तुगलक ही ऐसा हुआ है जिसने स्वयं किसी ग्रंथ की रचना की। उसका लिखा ग्रंथ फुतूहाते-फीरोजशाही सुल्तान के कार्यों, विचारों और आदेशों के सम्बन्ध में है। फिर भी इससे उस काल के इतिहास के निर्माण में अत्यल्प सहायता मिलती है। यही कारण है कि दिल्ली के सुल्तानों के इतिहास की जानकारी के लिए राजकीय अधिकारियों तथा स्वतन्त्र इतिहासकारों द्वारा फारसी भाषा में लिखित साहित्य पर निर्भर रहना पड़ता है जो कि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

सल्तनतकालीन लेखकों की विशेषताएँ एवं कमजारियाँ

सल्तनतकालीन लेखकों की विशेषताएँ

सल्तनतकालीन लेखकों के पास इतिहास लेखन की पुरानी परम्परा थी। उनमें से अधिकांश लेखकों के पास इतिहास लेखन के लिये परिपक्व दृष्टि उपलब्ध थी। उनमें से अधिकांश लेखक बहुत सी घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे। उन्होंने  प्रत्यक्षदर्शियों से सुने हुए विवरण के आधार पर भी इतिहास की रचना की तथा अपने से पूर्ववर्ती लेखकों द्वारा जुटाई गई जानकारी का भी उपयोग किया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार गोथे ने लिखा है- ‘मैं एक ऐसे समय की अनुभूति करता हूँ, जब इतिहास आँखों देखी घटनाओं के आधार पर लिखा जायेगा।’ सल्तनतकालीन इतिहास इस कसौटी पर खरा उतरता है।

सल्तनतकालीन लेखकों की कमजोरियाँ

अधिकांश फारसी लेखकों ने राजकीय संरक्षण में सुल्तान को प्रसन्न करने की दृष्टि से ग्रंथ लिखे थे, फलस्वरूप ऐसे इतिहास को निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता किंतु हमारे पास सल्तनकालीन इतिहास जानने के समसामयिक स्रोत इतने कम हैं कि हमें इन ग्रंथों की सहायता लेनी ही पड़ती है। सल्तनतकालीन इतिहासकारों एवं ग्रंथकारों की भांति उस काल के विदेशी यात्री भी इस्लाम से लगाव रखने एवं काफिरों से शत्रु-भाव रखने के कारण पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थे। उन्होंने भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को समझने में भारी भूलें कीं तथा विरोधाभासी वर्णन किये। फिर भी उन्होंने भारत की समृद्धि एवं सांस्कृतिक उन्नति से चमत्कृत होकर भारतीय नगरों एवं गाँवों के रोचक चित्र प्रस्तुत किये।

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