Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 1 (ब) : मध्यकालीन भारतीय इतिहास जानने के महत्त्वपूर्ण स्रोत

(साहित्यिक स्रोत, पुरातात्विक स्रोत एवं
भारतीयों में ऐतिहासिक विवेक)

मुगलकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत

मुगलकालीन भारतीय इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत फारसी, तुर्की और अरबी भाषा में हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की ऐतिहासिक रचनाओं से भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। पुर्तगाली, अंग्रेजी और फ्रांसीसी आदि विदेशी व्यापारियों के पत्रों तथा उनकी कम्पनियों के अभिलेखों से भी मुगलकालीन सूचनाएँ मिलती हैं। लिखित साहित्य के साथ-साथ मुगल शासकों के सिक्कों तथा स्मारकों से भी महत्त्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। लिखित साहित्य में आत्मकथाओं एवं यात्रा-वृत्तान्तों का विशेष महत्त्व है। मुगलकालीन ग्रंथों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(अ.) मंगोल बादशाहों एवं शाही परिवार के सदस्यों द्वारा लिखे गये ग्रंथ।

(ब.) मंगोल अधिकारियों एवं स्वतंत्र फारसी लेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथ।

(स.) हिन्दू लेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथ।

(द.) विदेशी यात्रियों द्वारा लिखे गये ग्र्रंथ।

(अ.) मुगल बादशाहों एवं शाही परिवार के सदस्यों द्वारा लिखे गये ग्रंथ

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1. बाबरनामा (तुजुक-ए-बाबरी): बाबर ने अपनी आत्मकथा बाबरनामा के नाम से लिखी जिसे तुजुक-ए-बाबरी भी कहा जाता है। बाबर ने मध्य एशिया एवं दक्षिण एशिया में निरंतर युद्ध अभियान किये। भाग्य से वह अच्छा लेखक भी था तथा अनुभवों से समृद्ध था। इस कारण बाबरनामा विश्व के ऐतिहासिक ग्रंथों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह ग्रन्थ चगताई-तुर्की भाषा में लिखा गया। इसका सर्वप्रथम फारसी अनुवाद शेख जैन वफाई ख्वाफी ने किया, जो बाबर का मित्र था। इस ग्रंथ का फारसी भाषा में सबसे सुन्दर अनुवाद अकबर के आदेशानुसार अब्दुर्रहीम खानखाना ने किया। फारसी से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद का कार्य बहुत से विद्वानों ने किया परन्तु विलियम अर्सकिन का अनुवाद और श्रीमती वैबरिज का अनुवाद अधिक प्रशंसनीय है। इस ग्रंथ से उस समय की राजनैतिक एवं ऐतिहासिक जानकारी के साथ-साथ एशिया के विभिन्न देशों की सांस्कृतिक जानकारी भी उपलब्ध होती है।    

हिन्दुस्तान का विवरण देते हुए बाबर लिखता है, ‘हिन्दुस्तान पहली, दूसरी और तीसरी मौसमों में स्थित है। इसका कोई भी भाग चौथी मौसम में स्थित नहीं है। यह बहुत ही अच्छा देश है। इसकी पहाड़ियाँ और नदियाँ, जंगल और मैदान, पशु और पौधे, निवासी और भाषाएँ, हवाएँ और बरसातें, सब भिन्न प्रकार की हैं।’ इसके साथ ही बाबर यह भी लिखता है कि, ‘हिन्दुस्तान के प्रदेश और नगर अत्यन्त कुरूप हैं। यह एक ऐसा देश है जहाँ बहुत कम आमोद-प्रमोद है। लोग सुन्दर नहीं हैं। इन लोगों को ख्याल नहीं है कि मित्र-मण्डली में क्या आनन्द आता है और आजादी से मिलने-जुलने में या सम्पर्क रखने में क्या सुख है। इनमें कोई प्रतिभा नहीं है। इनके दिमाग में बुद्धि नहीं है। शिष्टाचार में कोमलता नहीं है। इनमें न दया है न मित्र भाव …..। इनके पास अच्छे घोड़े नहीं हैं। न अच्छा माँस है और न अंगूर या खरबूजे या अच्छे फल हैं। यहाँ न बर्फ है, न ठण्डा पानी है। बाजारों में अच्छा खाना या रोटी नहीं मिलती। न यहाँ पर स्नानागार हैं। न विद्यालय हैं और न बत्तियाँ या मशालें हैं।…………यह बहुत बड़ा देश है। यहाँ सोना-चाँदी का बाहुल्य है। वर्षा-ऋतु में यहाँ का मौसम सुहावना हो जाता है….। हिन्दुस्तान में दूसरा आराम यह है कि यहाँ प्रत्येक व्यवसाय और धन्धे के अगणित कारीगर मिलते हैं।’

बाबरनामा में विपुल ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इससे सुल्तान इब्राहीम लोदी एवं उसके अमीरों के राज्य का भी विवरण प्राप्त होता है। बाबर ने अपने समकालीन शासकों में अफगानों के अतिरिक्त गुजरात, दक्षिण भारत, मालवा, बंगाल, विजयनगर एवं राणा सांगा के राज्यों की भी चर्चा की है। उसने तुर्कों एवं अफगानों की सैन्य-व्यवस्था का भी वर्णन किया है। बाबर जिन प्रदेशों से होकर गुजरा, जिन राज्यों से वह टकराया और जिन राज्यों के बारे में उसे जानकारी मिली, उन समस्त राज्यों एवं प्रदेशों का वर्णन किया गया है। उसने ग्वालियर, धौलपुर, सीकरी, मेवाड़़ आदि राज्यों का भी विस्तृत विवरण दिया है।

बाबरनामा से बाबर के व्यक्तित्व के बारे में भी जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में बाबर ने अपने परिवार और अपने विरोधियों का अद्भुत चित्रण किया है। वह एक अच्छा मित्र भी था। उसने बाबरनामा में लिखा है कि अपने एक घनिष्ठ मित्र की मृत्यु होने पर उसने दस दिन तक आँसू बहाये। यद्यपि वह कट्टर मुसलमान था, तथापि मदिरापान करता था। उसने अपनी आत्मकथा में मदिरापान एवं साहित्यिक गोष्ठियों का सुन्दर वर्णन किया है। बाबरनामा से बाबर के चरित्र का दूसरा पहलू भी दिखाई देता है। बाबर अपने शत्रुओं के प्रति बड़ा निर्दयी था। वह अपने शत्रुओं की खाल खिंचवाता, आँखे फुड़वाता और उनके कटे हुए सिरों की मीनारें बनवाता था। बाबर ने अपने निर्दयी कृत्यों का वर्णन भी बड़े गर्व के साथ किया है। युद्धों के वर्णन से उसकी उच्चकोटि की साहित्यिक क्षमता का पता चलता है। पानीपत और खानवा के युद्धों का वर्णन अत्यन्त प्रभावशाली एवं रोमांचकारी है।

तात्कालिक इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ होते हुए भी बाबरनामा में अनेक दोष हैं। इस ग्रंथ में उस समय की नागरिक शासन-प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार का वर्णन नहीं हैं। जबकि अब्बास खाँ की ‘तारीखे शेरशाही’ में इसका विवरण दिया गया है। युद्धों के वर्णन में भी बाबर का दृष्टिकोण पक्षपातपूर्ण है। पानीपत के युद्ध में उसने अपनी सेना की संख्या कम तथा इब्राहीम लोदी की सेना की संख्या अतिरंजित करके बताई है, जो अविश्वसनीय है। इब्राहीम लोदी अफगान सरदारों की गद्दारी के कारण पराजित हुआ था, किंतु बाबर ने इस तथ्य का उल्लेख तक नहीं किया। इसी प्रकार, राणा सांगा द्वारा बाबर को निमन्त्रित करना मनगढ़न्त प्रतीत होता है। खानवा के युद्ध के समय सलहदी तंवर द्वारा किया गया विश्वासघात भी बाबर की विजय में सहायक सिद्ध हुआ था, किन्तु बाबर इस सम्बन्ध में भी मौन है।

इस ग्रन्थ में लम्बे-लम्बे समयान्तराल छोड़ दिये गये हैं जिनमें किसी घटना का उल्लेख नहीं किया- (1) 14 फरवरी, 1483 से जून, 1494 ई. तक, (2) 1503 ई. से 1504 ई. तक, (3) 1508 ई. से 1519 ई. तक, (4) 25 जनवरी 1520 से 16 नवम्बर 1525 ई. तक, (5) 3 अप्रैल 1528 से 17 सितम्बर 1528 तक और इसके बाद के दिनों का तो बहुत ही कम विवरण है। उपरोक्त कमजोरियों के उपरांत भी बाबरनामा की अधिकांश घटनाएँ विश्वसनीय हैं। इसलिए इस ग्रंथ के ऐतिहासिक महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। डेनीसन रास ने लिखा है- ‘बाबर के आत्मचरित्र की गणना विश्व के युगयुगीन साहित्य में एक आकर्षक एवं रोमांचकारी रचनाओं में करनी चाहिए।’ श्रीमती बेवरीज ने इस ग्रन्थ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उन्होंने लिखा है- ‘उसकी आत्मकथा उन अमूल्य रचनाओं में हैं जो समस्त युगों के लिए उपयोगी है और उसकी तुलना सेण्ट आगस्टाइन, रूसो, गिबन और न्यूटन के आत्मचरित्रों से की जानी चाहिये। एशिया में तो वह अपना एकमात्र उदाहरण है।’

2. तारीखे-रशीदी: इस ग्रन्थ का लेखक बाबर का चचेरा भाई मिर्जा हैदर था। उसने कामरान और हुमायूँ के अधीन महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया तथा हुमायूँ के अधीन अनेक युद्धों में सक्रिय भाग लिया था। बाबरनामा के अनेक पृष्ठ नष्ट हो गये हैं और उनमें कई अन्तराल भी हैं। उन वर्षों की घटनाओं के लिये तारीखे-रशीदी ही एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ है। मिर्जा हैदर ने बाबर के पूर्वजों एवं बाबर से सम्बन्धित अन्य घटनाओं का भी उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है- (1) पहले भाग में मुगलिस्तान एवं काश्गर के मंगोल शासकों- तुगलुक एवं तिमूर से अर्ब्दुरशीद के समय तक का इतिहास लिखा गया है। (2) दूसरे भाग में उन घटनाओं का विवरण दिया गया है जो मिर्जा हैदर के जीवन काल (1541 ई.) तक घटित हुईं। शैबानी खाँ के हाथों पराजित होने के बाद बाबर ने लिखा है कि, ‘इस समय मेरी बहिन खानजादा बेगम शैबाक खान के हाथों में पड़ गई।’ बाबर ने अपनी कमजोरी छिपाने का प्रयास किया। जबकि मिर्जा ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि बाबर ने अपने प्राणों की रक्षा हेतु अपनी बहिन खानजादा बेगम का विवाह शैबानी खाँ के साथ कर दिया।’ हुमायूँ के कन्नौज युद्ध और उसके भाइयों के सम्बन्ध के इतिहास और कश्मीर तथा तिब्बत के वृत्तान्त ने इस ग्रन्थ की उपयोगिता को और भी बढ़ा दिया है। उसने अन्य घटनाओं जैसे कामरान द्वारा कन्धार पर अधिकार, हुमायूँ का पलायन तथा लाहौर में सब भाइयों का एकत्र होना और कामरान द्वारा विरोध, मिर्जा हैदर द्वारा कश्मीर विजय आदि का भी वर्णन किया गया है।

3. हुमायूँनामा: इस ग्रन्थ की रचनाकार हुमायूँ की बहिन गुलबदन बेगम थी। उसने अकबर के अनुरोध पर उसने इस ग्रन्थ की रचना की। गुलबदन ने अपनी स्मरण शक्ति के आधार पर बाबर और हुमायूँ के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन किया। वह अपने पिता तथा भाई की कमजोरियों के बारे में नहीं लिख सकती थी। इस कारण उसका वर्णन न तो त्रुटि रहित है और न ही निष्पक्ष। फिर भी बाबर के सम्बन्ध में उसने जो कुछ लिखा है, वह काफी महत्त्वपूर्ण है। हुमायूँ से सम्बन्धित घटनाओं की वह प्रत्यक्षदर्शी थी। रिजवी ने लिखा है कि स्त्री होने के नाते गुलबदन बेगम ने युद्धों का संक्षिप्त विवरण ही दिया है परन्तु उसने मंगोल हरम के जीवन तथा हुमायूँ के पलायन का रोचक विवरण दिया है। कुछ मामलों में गुलबदन ने हुमायूँ की कमजोरियों पर पर्दा डालने का प्रयास किया है तथा मालदेव के बारे में पक्षपात किया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ है।

4. तुजुक-ए-जहाँगीरी (जहाँगीरनामा): यह जहाँगीर की आत्मकथा है जिसकी अनेक प्रतिलिपियाँ विभिन्न नामों से भिन्न-भिन्न स्थानों पर मिलती हैं। इस कारण इस ग्रन्थ को जहाँगीर के संस्मरण, वाकियाते-जहाँगीरी, इकबालनामा, जहाँगीरनामा तथा तुजुक-ए-जहाँगीरी आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। बृजरत्न दास का मत है कि समग्र रूप से इन सब ग्रंथों का नाम ‘जहाँगीरनामा’ होना चाहिए। विद्वानों के अनुसार जहाँगीर के शासन के प्रारम्भिक बारह वर्षों के संस्मरण जहाँगीर ने स्वयं लिखे। उसके बाद अठारहवें वर्ष तक का विवरण मोतमिद खाँ की सहायता से लिखा और बाद का विवरण मोतमिद खाँ ने अन्य साधनों के आधार पर लिखा। इस ग्रन्थ में जहाँगीर के अभियानों का विस्तृत विवरण है। अभियानों के लिए की गई तैयारियों, मुख्य सेनापतियों और अन्य उच्चाधिकारियों की नियुक्तियों, सेनाओं का पलायन, अभियानों की घटनाओं एवं कठिनाइयों तथा शत्रु पक्ष की गतिविधियों का विवरण दिया गया है। जहाँगीर के शासनकाल में उठने वाले विद्रोहों तथा उनके दमन का विवरण भी दिया गया है। इस ग्रन्थ में दरबार में मनाये जाने वाले उत्सवों, भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य, पेड़-पौधों, फलों, सब्जियों, पशु-पक्षियों, आखेट, नगरों एवं दुर्गों, हिन्दुस्तान की अनेक प्रजातियों के खान-पान, रहन-सहन, आदतों आदि का भी रोचक वर्णन किया गया है। जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में शहजादा खुसरो, परवेज तथा शहरयार आदि के विवादों का उल्लेख किया है। साथ ही नूरजहाँ की बुद्धिमता की काफी प्रशंसा की है। डॉ. बेनीप्रसाद सक्सेना के अनुसार यह ग्रन्थ साहित्य और इतिहास दोनों दृष्टियों से मूल्यवान है। वे इसे अकबरनामा से भी अधिक आकर्षक मानते हैं परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार जहाँगीर ने अनेक स्थलों पर स्वयं को अकबर से श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास किया है। ऐसे स्थानों पर वह कभी-कभी उपहास का पात्र बन जाता है। जहाँगीर ने कई स्थानों पर मदिरापान तथा दूसरों पर गये अत्याचारों को स्वीकारा है किन्तु फिर भी उसने बहुत-से निजी दोषों पर प्रकाश नहीं डाला है। इन दोषों के उपरान्त भी यह ग्रन्थ जहाँगीर के काल की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को जानने का महत्त्वपूर्ण एवं विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज है।

(ब.) मुगल अधिकारियों एवं स्वतंत्र फारसी लेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथ

1. तजकिरतुल वाकेआत: हुमायूँ के निजी सेवक जौहर आफताबची ने अकबर के शासनकाल में अपनी स्मृतियों के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की। डॉ. कानूनगो, हुमायूँ के शासनकाल के लिए इस ग्रन्थ को, गुलबदन के हुमायूँनामा से भी अधिक प्रामाणिक मानते हैं। इलियट और डाउसन ने भी लिखा है- ‘जौहर द्वारा दिए गए ये संस्मरण सच्चाई और ईमानदारी के साथ लिखे हुए प्रतीत होते हैं परन्तु इन्हें  हुमायूँ की मृत्यु के तीस वर्ष बाद लिखना आरम्भ किया गया था। इसलिए यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इसमें ग्रंथ में जिन घटनाओं का वर्णन है वे तद्वत और पूर्णतः सही हैं।’ इस ग्रन्थ में हुमायूँ के राज्यारोहण से लेकर ईरान से उसकी वापसी तथा राज्य-प्राप्ति तक का विस्तृत विवरण दिया गया है।

2. कानूने हुमायूँनी: इस ग्रन्थ का लेखक गयासुद्दीन मुहम्मद ख्वान्दमीर, बाबर और हुमायूँँ के दरबार का प्रतिष्ठित अमीर था। उसने हुमायूँ के आदेश से इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें हुमायूँ के अधिनियमों, आविष्कारों और भवनों के निर्माण का वर्णन है। तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झाँकी भी उपलब्ध है।

3. तारीखे-शेरशाही: इसका लेखक अब्बास खाँ सरवानी, अकबर की सेवा में था। उसने अकबर के आदेश से इस ग्रन्थ की रचना की। अफगानों के सम्बन्ध में जितने भी ग्रन्थ लिखे गये उनमें ‘तारीखे शेरशाही’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें शेरशाह और इस्लामशाह के समय का विस्तृत विवरण दिया गया है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि लेखक ने घटनाओं की तिथियां नहीं दी हैं। इसलिये इसके घटनाक्रम को समझने के लिये अन्य ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है। इस ग्रंथ में एक ही जैसे शब्दों का बाहुल्य है जिससे थकान उत्पन्न होती है। इन कमियों के उपरान्त भी सरवानी के इस ग्रन्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

4. अकबरनामा: अकबर के प्रमुख दरबारी अबुल फजल ने अकबरनामा की रचना की। अबुल फजल का पिता शेख मुबारक और बड़ा भाई अबुल फैज भी उसी के समान विद्वान थे। इस विशाल ग्रन्थ को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) प्रथम भाग: प्रथम भाग को भी दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है- (अ) अकबर का जन्म, तैमूरों की वंशावली, बाबर तथा हुमायूँ के राज्य का विस्तृत विवरण और (ब) अकबर के तख्त पर बैठने से लेकर 17वें वर्ष के मध्य तक का विवरण। यह भाग 1596 ई. तक पूरा हो पाया था।

(2) द्वितीय भाग: अकबरनामा के दूसरे भाग में अकबर के शासनकाल के 17 वें वर्ष के मध्य से लेकर 46वें वर्ष तक का उल्लेख है। अबुल फजल के बाद प्रथम भाग के दोनों हिस्सों को अलग-अलग करके नकल किया जाने लगा और उन्हें अकबरनामा भाग 1 और 2 के नाम से पुकारा जाने लगा। दूसरे भाग को भाग तीन कहा जाने लगा। इस प्रकार, अकबरनामा तीन भागों में विभाजित हो गया।

अबुल फजल, अकबर का घनिष्ठ मित्र, सलाहकार तथा प्रमुख दरबारी था। वह तुर्की, अरबी, हिन्दी और संस्कृत का ज्ञाता था। वह दर्शन, साहित्य तथा इतिहास ज्ञाता था। उसकी भाषा जटिल और आडम्बरपूर्ण है। अकबरनामा के ऐतिहासिक महत्त्व पर विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। स्मिथ के अनुसार- ‘इसमें ऐतिहासिक सामग्री उबा देने वाली आलंकारिक भाषा के बोझ में दफनाई गई है और ग्रन्थकार, जो अपने नायक का एक लज्जाजनक चाटुकार है, कभी-कभी सत्य को छुपा देता है, यहाँ तक कि जानबूझ कर विकृत भी कर देता है। फिर भी अकबरनामा को अकबर के शासन के इतिहास की आधारशिला माना जाना चाहिए।’ मोरले आदि इतिहासकारों ने भी अबुल फजल की चाटुकारिता के कारण अकबरनामा की प्रामाणिकता में सन्देह व्यक्त किया है। इसके विपरीत ब्लोचमैन का मानना है कि इस प्रकार के दोषारोपण निर्मूल हैं। वस्तुतः यदि अकबरनामा के शब्दाडम्बर को दूर कर दिया जाय तो इसके

ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में कोई सन्देह नहीं रह जाता। इतिहास के साथ-साथ ‘अकबरनामा’ से समकालीन राजनीति पर भी प्रकाश पड़ता है। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण घटना के साथ, छोटी-छोटी प्रस्तावनाएँ दी गई हैं। इस ग्रन्थ से अकबर के धार्मिक विचारों और नीति का पर्याप्त ज्ञान होता है। अबुल फजल ने विभिन्न स्रोतों का अध्ययन करके इस ग्रन्थ की रचना की थी। इस कारण यह प्रामाणिक ग्रन्थ बन गया।

5. आइने-अकबरी: इस ग्रंथ की रचना भी अबुल फजल ने की। यह ग्रन्थ अकबरनामा के ही अन्तिम तथा निर्णायक अध्यायों के रूप में है, फिर भी उसमें कई नवीन एवं विशिष्ट बातें हैं जो अकबरनामा में नहीं हैं। इसे हम अकबरनामा का परिशिष्ट कह सकते हैं। इस ग्रन्थ के भी तीन भाग हैं। अकबर की शासन-प्रणाली की जानकारी की दृष्टि से यह एक मूल्यवान रचना है। इसके महत्त्व की चर्चा करते हुए डॉ. परमात्माशरण ने लिखा है- ‘उस समय की राजनीतिक संस्थाओं के सम्बन्ध में आइने-अकबरी आज भी हमारा अप्रतिम स्रोत है। आईने अकबरी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में विवरणों और आँकड़ों की खान है परन्तु उसमें प्रशासन प्रणाली के वास्तविक कार्य-संचालन पर पर्याप्त प्रकाश नही डाला गया है। न उसमें शासन के विभिन्न विभागों और शाखाओं के सम्बन्ध में पर्याप्त सूचनाएँ दी गई हैं।’ आईने अकबरी के तीसरे भाग में हिन्दू सभ्यता और हिन्दू दर्शन का वर्णन है। इसके साथ अकबर की कुछ सूक्तियाँ भी हैं और अबुल फजल के वंश का वर्णन भी जोड़ दिया गया है। संक्षेप में, आईने-अकबरी अकबर के शासन के विभिन्न अंगों का विस्तृत विवरण है।

6. मुन्तखाब-उत-तवारीख: इसका लेखक अकबर का दरबारी अब्दुल कादिर बदायूनी था। इस ग्रन्थ के तीन भाग हैं। पहले भाग में बाबर और हुमायूँ के शासनकाल का वर्णन है। दूसरे भाग में 1595 ई. तक अकबर के शासनकाल का वर्णन है। तीसरे भाग में मुसलमानों और सन्तों का विवरण दिया गया है। बदायूँनी ने अकबर के आदेश पर महाभारत (रज्मनामा) और रामायण का फारसी में अनुवाद भी किया। उसने कुछ अन्य रचनाएँ भी लिखीं। बदायूँनी कट्टर रूढ़िवादी सुन्नी मुसलमान था। वह धर्मान्धता तथा संकीर्णता से ग्रस्त था। उसे अकबर की प्रगतिशील, सहिष्णु तथा समन्वयवादी नीतियाँ पसन्द नहीं थीं। इसलिये उसने अकबर के शासन की अतिशयोक्ति पूर्ण शब्दों से निन्दा की। उसने ग्रन्थ की रचना गुप्त रूप से की। इस कारण मुन्तखाब-उत-तवारीख की जानकारी अकबर के शासनकाल में किसी को नहीं हो पाई। बदायूँनी ने इस ग्रन्थ को राजनीतिक इतिहास के रूप में लिखा है। इसमें अकबर के समय की घटनाओं, युद्धों, विद्रोहों, अकालों तथा प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया गया है। अकबर की धार्मिक नीति से सम्बन्धित प्रत्येक घटना तथा इबादतखाना में हुए वाद-विवादों का विवरण भी दिया गया है। बदायूँनी ने अकबर पर आरोप लगाया है कि वह व्यक्तिगत रूप से इस्लाम धर्म की जड़ें खोद रहा है। इस ग्रन्थ में कई तिथियाँ गलत दी गई हैं। अतः इसका घटनाक्रम दोषपूर्ण हो जाता है। इन दोषों के उपरान्त भी ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है।

7. तबकाते-अकबरी: इस ग्रन्थ का लेखक ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद था। वह विद्वान् होने के साथ-साथ पराक्रमी योद्धा भी था। उसने अकबर के विभिन्न अभियानों में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। तबकाते-अकबरी में 987-88 ई. से लेकर 1593-94 ई. तक का भारत का इतिहास उपलब्ध हैं। इसमें न केवल बाबर, हुमायूँ और अकबर का विवरण हैं अपितु देश के प्रान्तीय मुस्लिम राज्यों का वर्णन भी है। डॉ. रिजवी ने लिखा हैं कि निजामुद्दीन ने अपने ग्रन्थ की रचना के लिये अकबरनामा सहित 28 ग्रन्थों का सहारा लिया और सामग्री की काफी खोजबीन तथा जाँच-पड़ताल के बाद लिखा। निजामुद्दीन ने धार्मिक कट्टरपन तथा पक्षपात का सहारा नहीं लिया। इस दृष्टि से उसकी रचना अबुल फजल तथा बदायूँनी से अधिक निष्पक्ष कही जा सकती हैं। डॉ. आशीर्वादीलाल ने लेखक पर आरोप लगाते हुए लिखा है कि इस ग्रन्थ में निजी मत ठीक से व्यक्त नहीं किये गये हैं। स्मिथ ने लिखा है कि यह ग्रन्थ बाह्य घटनाओं का रूखा एवं नीरस वृत्तान्त है। यह अकबर की धार्मिक उच्छृंखलताओं की सर्वथा उपेक्षा कर देता है और अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का किंचित्मात्र भी उल्लेख नहीं करता। इतना होने पर भी यह ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है।

8. मआसीर-ए-जहाँगीरी: इस ग्रन्थ का लेखक कामगार खाँ था। इस ग्रंथ की काफी सामग्री ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ से ली गई है। डॉ. बेनीप्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि यद्यपि यह ग्रन्थ गम्भीर दोषों का शिकार है तथापि शाहजहाँ के विद्रोह तथा उसके राज्याभिषेक के तुरन्त पूर्व के घटनाक्रम आदि का विवरण देकर ऐसे अन्तराल को भरता है जो इस ग्रंथ के बिना रिक्त ही रह जाता।

9. बादशाहनामा (पादशाहनामा): इस ग्रंथ में शाहजहाँ के शासनकाल का इतिहास है। इस ग्रंथ की रचना तीन लेखकों ने की। प्रत्येक लेखक ने अलग-अलग वर्षों का विवरण लिखा-

(अ) मुहम्मद अमीन कजवीनीकृत बादशाहनामा: इस ग्रंथ में शाहजहाँ के जन्म से लेकर उसके शासनकाल के दसवें वर्ष तक का विवरण दिया गया है। कजवीनी शाहजहाँ का प्रथम राजकीय इतिहासकार था। शाहजहाँ ने अपने शासन के आठवें वर्ष में अपने राज्य का इतिहास लिखने का आदेश दिया। जब कजवीनी शासन के दस वर्षों का इतिहास लिख चुका तो उसे अचानक पद से हटा दिया गया। कजवीनी की भाषा शैली सरल और आकर्षक है परन्तु उसकी निष्पक्षता में संदेह है। वह अपने आश्रयदाता शाहजहाँ के प्रति पक्षपातपूर्ण है। फिर भी शाहजहाँ के शासन के प्रारम्भिक दस वर्षों की जानकारी के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।

(ब) लाहौरीकृत बादशाहनामा: इस ग्रंथ में तैमूर से लेकर शाहजहाँ के पूर्वजों का संक्षिप्त वर्णन तथा शाहजहाँ के शासनकाल के प्रारम्भ होने से लेकर उसके बीस वर्षों तक के शासन का विवरण दिया गया है। कजवीनी के पश्चात् लाहौरी को राजकीय इतिहासकार नियुक्त करके बादशाहनामा लिखने का आदेश दिया गया। वह सम्भवतः 1648 ई. तक यह कार्य करता रहा। बाद में वृद्धावस्था के कारण उसे काम बन्द करना पड़ा। लाहौरी का ग्रन्थ बहुत बड़ा है। इस ग्रंथ में राजनीतिक घटनाओं के साथ-साथ शाहजहाँ के मनसबदारों, उसके समय के प्रसिद्ध शेखों, विद्वानों, हकीमों और कवियों की नामावली भी दी गई है। इस ग्रंथ के आरम्भ में अबुल फजल की शैली की नकल देखने को मिलती है परन्तु बाद में कजवीनी की नकल देखने को मिलती है। शाहजहाँ के राज्य के लिए इसे एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।

(स) वारिसकृत बादशाहनामा: अब्दुल हमीद लाहौरी के अधूरे काम को उसके शिष्य मुहम्मद वारिस ने पूरा किया। उसने शाहजहाँ के शासन के अन्तिम दौर का इतिहास लिखा। यह इतिहास शाहजहाँ के शासनकाल के 21वें वर्ष में आरम्भ होकर 30वें वर्ष तक जारी रहता है। इस ग्रन्थ को शाहजहाँनामा भी कहते हैं।

10. शाहजहाँनामा: इस नाम से दो ग्रंथ मिलते हैं। वारिसकृत बादशानामा को भी शाहजहाँनामा कहते हैं। एक अन्य लेखक मुहम्मद ताहिर इनायतखाँ की कृति भी शाहजहाँनामा के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें 1657-1658 ई. का इतिहास दिया गया है।

11. आलमगीरनामा: इस ग्रन्थ का लेखक मुहम्मद काजिम बादशाहनामा के लेखक कजवीनी का पुत्र था। इस ग्रन्थ की रचना 1688 ई. में हुई। उसकी स्तुतिपूर्ण शैली औरंगजेब को बहुत पसंद आई और उसे बादशाह से सम्बन्धित असाधारण घटनाओं तथा विजय-अभियानों को ग्रन्थ रूप में लिपिबद्ध करने का आदेश दिया गया। इस ग्रन्थ की रचना के लिए औरंगजेब ने लेखक को समस्त प्रकार के साधन उपलब्ध कराये। मुहम्मद काजिम ने इस ग्रन्थ में औरंगजेब (आलमगीर) के शासन के प्रथम दस वर्षों का इतिहास लिखा है। उसने अपने आश्रयदाता की खूब प्रशंसा की और उसके भाग्यहीन भाइयों की कटु निन्दा करते हुए उनके लिए निम्न एवं अपशब्दों का प्रयोग किया। उसने दाराशिकोह के लिए वेशिकोह (अप्रतिष्ठित) और शुजा के लिए नाथुजा (कायर) शब्दों का प्रयोग किया। जब यह ग्रन्थ औरंगजेब को भेंट किया गया तो उसे पसन्द नहीं आया और उसने आगे का वृत्तान्त नहीं लिखने का आदेश दिया। एकपक्षीय रचना होने के कारण इसे प्रामाणिक इतिहास नहीं माना जाता।

12. मआसिर-ए-आलमगीरी: इस ग्रन्थ का लेखक मुहम्मद साफी मुस्तइद्द खाँ, मंगोल साम्राज्य के वजीर इनायतुल्लाखाँ का मुंशी था। इस ग्रंथ में औरंगजेब के शासन का इतिहास है। इस ग्रन्थ की रचना किसी के आदेश से न होकर स्वप्रेरणा से हुई। 1710 ई. में ग्रन्थ की रचना पूरी हो गई। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं। साथ में एक परिशिष्ट भी है। पहला भाग काजिम के आलमगीरनामा का संक्षिप्तिकरण मात्र है। दूसरे भाग में औरंगजेब के शासन के अन्तिम 40 वर्षों तथा उसकी मृत्यु का हाल दिया गया है। परिशिष्ट में बादशाह से सम्बन्धित कहानियों तथा शाही परिवार का पूरा वृत्तान्त दिया गया है। मुआसिर-ए-आलमगीरी के ऐतिहासिक मूल्यांकन के सम्बन्ध में विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार यह घटनाओं एवं तथ्यों का खजाना है तो अन्य विद्वानों के अनुसार लेखक ने अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं को छोड़ दिया है। उसने अपने ग्रन्थ में अनेक ऐसी तुच्छ घटनाओं का उल्लेख किया जिनको इतिहास में कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए। फिर भी, औरंगजेब के दक्षिण प्रवास के समय की घटनाओं को जानने के लिए यह ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है।

13. मुन्तखब-उल-लुबाब (तारीखे-खाफीखाँ): इस ग्रन्थ का लेखक मोहम्मद हाशिम खाफी खाँ था। औरंगजेब ने अपने समय का इतिहास लिखने पर पाबन्दी लगा दी थी परन्तु खाफी खाँ ने गुप्त रूप से इस ग्रन्थ की रचना की। यह एक विशाल ग्रन्थ है जो 1519 ई. में बाबर के आक्रमण से आरम्भ होकर मुहम्मदशाह के शासन के 14वें साल के इतिहास के साथ पूरा होता है। ग्रन्थ का महत्व 1605 ई. से 1733 ई. तक की घटनाओं, विशेषतः औरंगजेब के शासनकाल के आरम्भ (1658 ई.) से लेकर 1733 ई. के लिए अधिक है। लेखक ने मंगोल बादशाहों के राज्य में कई पदों पर कार्य किया। अनेक अमीरों के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध थे। इसलिये उसकी सामग्री का क्षेत्र बहुत विशाल था। विभिन्न सूत्रों से प्राप्त विवरणों को अच्छी प्रकार से जाँच-पड़ताल करने के बाद उसे जो सत्य लगा, उसने लिखा। इस ग्रंथ में सैनिक अभियानों और शाही उपलब्धियों का विस्तृत विवरण है। वह स्वयं एक दक्ष राजस्व अधिकारी था और उसने अपने समय की राजस्व व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर व्यापक प्रकाश डाला। उसने मनसबदारी व्यवस्था के पुनर्निर्माण के सम्बन्ध में किये गये प्रयासों, मंगोल दरबार की दलबन्दी, सैय्यदों और निजामुल्मुल्क की प्रतिद्विन्द्विता आदि घटनाओं का उल्लेख किया है। उसने औरंगजेब की धार्मिक नीति का समर्थन और छत्रपति शिवाजी की निन्दा की है। उसने मंगोल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया का भी उल्लेख किया है। उसके ग्रन्थ से तत्कालीन साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है। उसने भारत में व्यापार के लिए बसने वाले यूरोपियन लोगों की गतिविधियों का विवरण विस्तार से दिया है। इस ग्रन्थ का इतिहास में बड़ा सम्मान एवं महत्त्व है।

14. इबरतनामा: इस ग्रन्थ का लेखक मुहम्मद कासिम था। इस ग्रंथ में औरंगजेब की मृत्यु से लेकर कुतुबुलमुल्क सैय्यद अब्दुल्ला की मृत्यु तक का इतिहास है। औरंगजेब की मृत्यु के बाद होने वाले उत्तराधिकार संघर्षों की जानकारी के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इस ग्रन्थ से तत्कालीन अस्थिर राजनीतिक स्थिति तथा मंगोल अमीरों की दलबन्दी के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

(स.) हिन्दू लेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथ

1. नुश्खा-ए-दिलकुशा: इस ग्रंथ का लेखक भीमसेन था। उसने फारसी भाषा में औरंगजेब के राज्यकाल का इतिहास लिखा। उसने कई मंगोल सेनानायकों, महाराजा जसवन्तसिंह तथा दलपतराव बुल्देला के अधीन काम किया। उसने दक्षिण के युद्धों तथा औरंगजेब के बाद लड़े गये उत्तराधिकार युद्ध को अपनी आँखों से देखा। भीमसेन नेे औरंगजेब के शासनकाल की घटनाओं, परिस्थितियों, उनके वास्तविक कारणों एवं परिणामों का उल्लेख किया है। सर यदुनाथ सरकार ने इस ग्रन्थ को अद्वितीय तथा बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी देने वाला बताया है। भीमसेन ने यह ग्रन्थ किसी बादशाह की कृपा प्राप्त करने के लिए नहीं लिखा था, अतः उसने घटनाओं को छिपाने अथवा छोड़ देने का लोभ नहीं किया और निष्पक्ष रूप से लिखा। राजनीतिक घटनाओं और युद्धों के साथ-साथ उसने खाद्य-वस्तुओं की कीमतें, सड़क मार्गों की वास्तविक स्थिति, उच्चवर्ग के लोगों का सामाजिक जीवन, आमोद-प्रमोद आदि के बारे में भी सविस्तार लिखा है। उसने शिवाजी की गतिविधियों तथा उनकी संगठन प्रतिभा का भी वर्णन किया है। इस प्रकार यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है।

2. फुतूहाते आलमगीरी: इस ग्रंथ का लेखक पाटन निवासी ईश्वरदास नागर था। उसने औरंगजेब के शासन काल के प्रारम्भ से लेकर 34वें वर्ष तक का इतिहास लिखा। इस ग्रंथ में राजपूतों के सम्बन्ध में दिया गया विवरण अधिक महत्त्वपूर्ण है।

3. खुलासत-उल-तवारीख: इस ग्रन्थ का लेखक पटियाला निवासी सुजानराय खत्री था। इस ग्रन्थ में महाभारतकाल से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक का विवरण है। सुजानराय ने अपने ग्रन्थ की रचना के लिए लगभग 27 पूर्ववर्ती ग्रन्थों की सहायता ली। यह भारत का सामान्य इतिहास है फिर भी, मध्यकालीन भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है।

4. तजकिरात-उस-सलातीन चगता: इसका लेखक कामवर खाँ मूलतः हिन्दू था। बाद में वह मुसलमान बन गया। 1723 ई. में उसने यह ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया। इस ग्रंथ के पहले भाग में चंगेज खाँ से लेकर जहाँगीर के शासनकाल तक की घटनाओं का उल्लेख है। दूसरे भाग में शाहजहाँ से लेकर 1724 ई. तक की घटनाओं का उल्लेख है। यद्यपि इस ग्रन्थ में बहुत-सी कमियाँ हैं, तथापि यह ग्रन्थ 18वीं सदी के आरम्भिक वर्षों के इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए बहुत उपयोगी है।

(द.) विदेशी यात्रियों द्वारा लिखे गये ग्रंथ

1.  ट्रेवल्स इन दी मंगोल एम्पायर: इस ग्रंथ का लेखक फेंक्वीएस बर्नियर शाहजहाँ के समय भारत आया था। वह फ्रांस का रहने वाला था। उसका जन्म 1630 ई. में हुआ था। उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र तथा अन्य विभिन्न विषयों पर उसका पूर्ण अधिकार था। भारत की यात्रा पर आने के पूर्व वह कई यूरोपीय देशों तथा फिलिस्तीन, सीरिया और मिò आदि का भ्रमण कर चुका था। 1658 ई. में वह भारत आया और लगभग 12 वर्ष तक भारत में रहा। इस अवधि में उसने भारत के अनेक भागों को देखा। 1669 ई. में वह स्वदेश पहुँच गया और एक वर्ष बाद उसने अपने यात्रा-वृत्तान्त को एक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जो ट्रेवल्स इन दी मंगोल एम्पायर कहलाया। बर्नियर ने शाहजहाँ की मृत्यु, दारा के गुणों, दुःखों और यातनाओं का, शुजा की दयनीय स्थिति, मंगोलशाही हरम, मंगोल प्रान्तपतियों के अत्याचारों, जहाँआरा का चरित्र-चित्रण, मंगोलों की सामरिक व्यवस्था, दिल्ली, आगरा, कश्मीर आदि नगरों का वर्णन किया है। बर्नियर ने तत्कालीन भारत की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का भी वर्णन किया है। बर्नियर ने अधिकांश सूचनाएँ विभिन्न सूत्रों से प्राप्त की। उसकी सूचनाओं के सूत्र कितने सही तथा निष्पक्ष थे, यह विवाद का विषय है। उसने जहाँआरा के चरित्र और शाहजहाँ के साथ औरंगजेब के विनम्र व्यवहार जैसी कई मिथ्या बातें लिखी हैं।

2. स्टोरिया डी मोगोर (मोगेल इण्डिया): इस ग्रन्थ का लेखक निकोलोआ मनूची था। उसका जन्म इटली के वेनिस नगर में 1637 ई. में हुआ था। चौदह वर्ष की अल्पायु में ही वह विश्व भ्रमण के लिए निकल पड़ा। 1650 ई. में वह सूरत होता हुआ दिल्ली पहुँचा। वह तुर्की और फारसी भाषाओं का ज्ञाता था। उसने लम्बे समय तक भारत में प्रवास किया। मनूची ने दारा की तरफ से उत्तराधिकार युद्ध में भाग लिया। जब दारा सिन्ध की ओर पलायन कर गया तो वह भी उसके साथ गया था। मनूची वहाँ से वापस दिल्ली होते हुए कश्मीर आया और वहाँ से बिहार तथा बंगाल के भ्रमण पर गया। कुछ समय के लिए उसने दिल्ली तथा आगरा में चिकित्सक का कार्य भी किया। उसने मिर्जा राजा जयसिंह के द्वारा छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध किये गये अभियान में भाग लिया। वहाँ से वह गोआ होता हुआ लाहौर पहुँचा जहाँ उसने सात वर्ष बिताये। कुछ समय के लिए उसने शाहआलम की सेवा में भी काम किया। उसके अन्तिम वर्ष मद्रास में बीते। 1717 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

मनूची ने अपने ग्रन्थ की रचना सम्भवतः 1699 से 1705 ई. के मध्य की। ग्रन्थ का प्रारम्भिक भाग इटालियन भाषा में लिखा। कुछ पृष्ठ पुर्तगाली भाषा में लिखे और शेष भाग फ्रांसीसी भाषा में लिखा। यह एक विशाल ग्रन्थ है। प्रथम बीस अध्यायों में उसकी वेनिस से दिल्ली तक की यात्रा का वृत्तान्त है। दूसरे भाग में तैमूर से शाहजहाँ तक का संक्षिप्त इतिहास है। तीसरे भाग में मंगोल दरबार, उनकी शासन-व्यवस्था, राजस्व-व्यवस्था, हिन्दू राज्यों की शासन-व्यवस्था, हिन्दुओं के धार्मिक विश्वासों तथा पर्व-समारोहों, सड़कों एवं यात्रियों की सुरक्षा इत्यादि का उल्लेख है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में उसने जगह-जगह अपने संस्मरण लिखे हैं।

मनूची ने जिन सूत्रों के आधार पर इतिहास पर लिखा है, वे ज्यादा सही नहीं लगते क्योंकि उसकी तिथियाँ सहीं नहीं हैं। तैमूर से शाहजहाँ तक की वंशावली में भी अनेक त्रुटियाँ हैं। क्रमबद्धता की भी कमी है। उसने सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करते हुए शाहजहाँ के व्यक्तिगत चरित्र पर कई लांछन लगाये जो सही नहीं हैं। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता तथा उसके दक्षिणी अभियानों, अमीरों एवं अपने सम्बन्धियों के साथ उसके व्यवहार का उल्लेख सत्य के निकट है। भारत के विभिन्न नगरों तथा शाही महल की गतिविधियों का भी रोचक वर्णन है। उसने राजस्व सम्बन्धी जो आंकड़े दिये हैं तथा विदेशी व्यापार से होने वाली आय का जो विस्तृत विवरण दिया है, वह काफी महत्त्वपूर्ण है। उसने तत्कालीन भारत के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला है परन्तु इस सम्बन्ध में उसका विवरण ज्यादा सही नहीं है। उसने लिखा है कि हिन्दू लोग अस्वच्छ हैं। वस्तुतः वह हिन्दुओं की प्रथाओं को ठीक से समझ नहीं पाया। इन कमियों के उपरान्त भी शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल की जानकारी के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।

उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त संस्कृत तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी अनेक ऐतिहासिक रचनाएँ उपलब्ध हैं। लिखित साहित्य के अतिरिक्त शिलालेखों, सिक्कों तथा स्मारकों से भी मंगोलकालीन शासन के इतिहास की जानकारी मिलती है।

मुगलकालीन लिखित स्रोतों की समीक्षा

मुगल बादशाहों के इतिहास की जानकारी के लिए स्वयं मुगल बादशाहों, शाही परिवार के सदस्यों तथा राजकीय अधिकारियों के साथ-साथ स्वतंत्र इतिहासकारों द्वारा फारसी भाषा में लिखित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मंगोल शासकों द्वारा लिखित आत्मकथाएँ तथा अन्य लेखकों द्वारा लिखित उनकी जीवनियाँ भी उस काल के इतिहास को जानने का प्रमुख स्रोत हैं। ये स्रोत अधिकांशतः उन लोगों के माध्यम से प्राप्त हुए हैं जो या तो स्वयं घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे अथवा उन्होेंने प्रत्यक्षदर्शियों से सुनकर अपनी रचनाएँ लिखी थीं।

मुगलकालीन फारसी लेखकों की कमजोरियाँ

मुगलकालीन फारसी लेखकों के विवरण को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(1.) अधिकांश लेखकों ने राज्याश्रय के अन्तर्गत अथवा सुल्तान या सुल्तान को प्रसन्न करने की दृष्टि से ग्रंथ लिखे। अतः वे अपने शासक के पक्ष को ही प्रतिपदित करते रहे और उसके दोषों को उजागर करने का साहस नहीं कर सके।

(2.) फारसी लेखक अपनी संकीर्ण तथा धार्मिक कट्टरता से ऊपर नही उठ सके। परिणामस्वरूप वे एक इतिहासकार की निष्पक्षता को भुला बैठे।

(3. फारसी लेखकों ने घटनाओं की तिथियाँ बहुत कम दी हैं। कई लेखकों ने गलत तिथियों लिखी हैं। इस कारण इतिहास का निर्माण करने में कठिनाई उत्पन्न हो जाती है।

(4.) फारसी लेखकों ने शासकीय वर्ग एवं अमीर वर्ग के रहन-सहन, खान-पान, आमोद-प्रमोद पर ही अधिक ध्यान दिया। उनकी रचनाओं में सर्वसाधारण की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डाला गया।

(5.) अधिकांश लेखकों ने घटनाओं के कारणों और सन्दर्भों में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास नहीं किया।

विदेशी लेखकों की कमजोरियाँ

विदेशी लेखकों के विवरण भी अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। इसके कई कारण हैं-

(1.) विदेशी लेखक यात्री के रूप में इस देश में आये थे इस कारण वे बहुसंख्य हिन्दू जनता तथा अल्पसंख्य मुस्लिम शासकों की सोच के अंतर को ढंग से नहीं समझ सके।

(2.) विदेशी लेखकों ने भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को समझने में भारी भूल की।

(3. विदेशी लेखक पश्चिम की श्रेष्ठता के पूर्वाग्रह से पीड़ित थे।

(4.) विदेशी लेखकों को भारत के मूल इतिहास की जानकारी नहीं होने के कारण उन्होंने राजनीतिक घटनाओं का विवरण लिखने में अनेक त्रुटियाँ कीं।

(5.) विदेशी लेखक अपने वर्णन को चटपटा बनाने के लिये घटनाओं, नगरों तथा गाँवों का रोचक चित्र तो प्रस्तुत करते हैं किंतु उनकी पृष्ठभूमि को समझाने में असफल रहते हैं।

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