उग्रवादियों की कार्यशैली
उग्रवादी गुट का प्रादुर्भाव, उदारवादी नेताओं की कार्यशैली के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। अतः स्वाभाविक था कि उग्रवादी नेताओं की कार्यशैली उदारवादियों से बिल्कुल भिन्न थी। उग्रवादियों की कार्यशैली में निम्नलिखित मुख्य तत्व सम्मिलित थे-
(1.) आवेदन-निवेदन की नीति में अविश्वास: उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त भारत की कल्पना नहीं करते थे इसलिये वे सरकार से सहयोग एवं अनुनय का मार्ग अपनाने पर जोर देते थे जबकि उग्रवादी नेता आवेदन-निवेदन और याचना की नीति में विश्वास नहीं करते थे। वे भारतीयों द्वारा अँग्रेजी साम्राज्य से सहयोग करने की नीति को भी उचित नहीं समझते थे।
(2.) राष्ट्रव्यापी आंदोलन की आवश्यकता में विश्वास: उग्रवादी नेता भारतीयों के लिये स्वराज्य चाहते थे तथा स्वराज्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की आवश्यकता अनुभव करते थे। वे जन साधारण में राष्ट्र-प्रेम एवं बलिदान की अटूट भावना विकसित करना चाहते थे जिससे घबराकर गोरी सरकार भारत से चली जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते थे।
(3.) जन साधारण को संगठित करने हेतु धार्मिक समारोहों का प्रयोग: इस काल में भारत का सम्पन्न वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग एवं मध्यम वर्ग पश्चिमी शिक्षा एवं जीवन शैली के आकर्षण में फंसे हुए थे। इन लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए उनके समक्ष भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता को स्थापित करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से तिलक ने महाराष्ट्र में जन साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की। अरविन्द घोष ने बंगाल में एक माह तक चलने वाली काली पूजा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने पंजाब में आर्य समाज आन्दोलन को सशक्त बनाने का काम किया। इस प्रकार इन उग्रवादी नेताओं ने इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक चेतना उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बना दिया।
(4.) द्विराष्ट्र के सिद्धांत का विकास: राष्ट्रवादी नेताओं ने जनसाधरण को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने एवं उनमें एकता की भावना उत्पन्न करने के लिये व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों को आरम्भ किया था किंतु अँग्रेजों ने इन समारोहों की आड़ में मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध उकसाया तथा कट्टर मुस्लिम नेताओं को पृथकतावादी आन्दोलन आरम्भ करने हेतु प्रोत्साहित किया। सरकार द्वारा उग्र राष्ट्रवाद को मुस्लिम-विरोधी बताकर उसे असफल करने के प्रयास किये गये। इस कारण भारत में द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का विकास हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार भारत में एक राष्ट्र नहीं होकर दो राष्ट्र बसते हैं- पहला हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। इस विचार से प्रभावित होकर अनेक मुसलमानों ने स्वयं को राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर कर लिया तथा 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना की।
(5.) राष्ट्रवादी शिक्षा के विकास की आवश्यकता: उग्रवादी नेता भारत में ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति स्थापित करना चाहते थे जो देशभक्त नागरिक तैयार कर सके। उनका मानना था कि अँग्रेजी शिक्षा पद्धति से मानसिक गुलाम तैयार किये जा रहे हैं। यदि भारतीय नौजवानों में स्वतंत्र चिंतन की योग्यता उत्पन्न हो जाये तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतः गति प्राप्त हो जायेगी। इस विचार से प्रेरित होकर उग्रवादी नेताओं ने देश भर में थियोसॉफिकल स्कूल और कॉलेज, डी. ए. वी. स्कूल, हिन्दू कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि स्थापित कियेे। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीयता के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पर अँग्रेजों ने मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपनी अलग शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिये उकासाया जिनमें उन धर्मों, मतों एवं पंथों की धार्मिक शिक्षा दी जाने लगी।
उग्र राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषताएँ
भारत एक समष्टिवादी देश है जिसमें परम्परा से ही प्राणी मात्र के प्रति दया एवं शरण देने का भाव रहा है। इस कारण भारतीय लोग सनातन रूप से सांस्कृतिक उच्चता, परस्पर सहयोग और शांति के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे न कि राजनीतिक सीमाओं पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धांत में। भारत में राष्ट्रवाद का विचार यूरोप से आया जहाँ छोटे-छोटे देश अपने राष्ट्र के गौरव की वृद्धि के लिये सैंकड़ों सालों से एक-दूसरे से संघर्ष कर रहे थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। उग्र राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार से थीं-
(1.) उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक नेता, उन्नीसवीं सदी में भारत में चले अनेकानेक धर्मिक एवं समाजिक सुधार आन्दोलनों से प्रभावित थे।
(2.) उग्र राष्ट्रवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा एवं जीवन शैली को भारत के लिये विनाशकारी मानते थे। वे भारतीयों के लिये भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को ही श्रेष्ठ मानते थे।
(3.) उग्र राष्ट्रवादियों का उद्देश्य स्वराज्य की प्राप्ति था न कि ब्रिटिश सरकार की अनुकम्पा प्राप्त करके नागरिक अधिकारों में वृद्धि करवाना।
(4.) उग्र राष्ट्रवादी नेता देशवासियों में राष्ट्रीयता का विकास चाहते थे। वे युवाओं में स्वतंत्र चिंतन एवं उच्च चारित्रिक गुणों का विकास करके ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाहते थे जो अपने देश की आजादी के लिये संघर्ष कर सके।
(5.) उग्र राष्ट्रवादियों को अँग्रेजों की न्यायप्रियता एवं परोपकारिता के दावों में विश्वास नहीं था।
(6.) उग्रवादी देशहित, आत्मनिर्भरता एवं ईश्वर में विश्वास करते थे।
(7.) उग्रवादियों का विश्वास था कि भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हित एक दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए भारत को ब्रिटेन से आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ने आवश्यक हैं।
उदारवाद तथा उग्र राष्ट्रवाद में अन्तर
उदारवाद कांग्रेस के आरम्भिक काल का दौर था और उग्र राष्ट्रवाद उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न भारत की स्वाभाविक चेतना का प्राकट्य। इस कारण इन दोनों विचारधाराओं में पर्याप्त अंतर थे। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि इन दोनों विचार धाराओं के उद्देश्यों में जितना अधिक अंतर था उतना ही अधिक अंतर उनके साधनों में भी था। इस अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1.) राजनीतिक उद्देश्यों में अंतर: उदारवादियों एवं उग्रवादियों के राजनीतिक उद्देश्यों में बहुत बड़ा अंतर था। उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही उत्तरदायी सरकार की कल्पना करते थे। वे अँग्रेजों के रहने में ही भारत का कल्याण समझते थे। एक बार लॉर्ड हार्डिंग ने गोखले से कहा- ‘तुम्हें कैसा लगेगा यदि तुम्हें मैं यह कहूँ कि एक माह में ही समस्त ब्रिटिश अधिकारी और सेना भारत छोड़ देंगे।’
इस पर गोखले का उत्तर था- ‘मैं इस समाचार को सुनकर प्रसन्नता अनुभव करूंगा किन्तु इससे पूर्व कि आप लोग अदन तक पहुँचेगें, हम आपको वापस आने के लिये तार कर देंगे।’
उदारवादियों से ठीक उलट, उग्रवादियों ने देश के लिये स्वराज की मांग की। तिलक का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके अँग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए। इससे भारतीयों को अपार प्रसन्नता होगी। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि विदेशी सुशासन कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह स्वशासन से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।
(2.) राजनीतिक आंदोलन के तरीके में अंतर: उदारवादी नेता, संवैधानिक उपायों, अनुनयों, विनम्र प्रार्थनाओं, स्मृति पत्रों, ज्ञापनों, अधिवेशन में परित प्रस्तावों तथा भाषणों के माध्यम से भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों में वृद्धि चाहते थे। वे अपनी सुविधा भोगी जिंदगी में व्यवधान उत्पन्न करके जेल जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये साम्राज्यवादियों के देश इंग्लैण्ड में जाकर भी अभियान चलाया तथा सरकार से सहयोग करने का मार्ग अपनाया। इसके विपरीत उग्र राष्ट्रवादी नेता, अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिये उग्र राष्ट्रीय आंदोलन एवं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करते थे। वे सड़कों पर लाठियां खाने एवं जेल जाने के लिये तैयार थे। विदेशी शासन से सहयोग का विचार उन्हें तनिक भी मान्य नहीं था। वे स्वराज्य को अपना अधिकार मानकर उसे स्वयं प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से सहानुभूति, भीख एवं उदारता की अपेक्षा नहीं थी।
विपिनचन्द्र पाल का कहना था- ‘कोई किसी को स्वराज्य नहीं दे सकता। यदि आज अँग्रेज उन्हें स्वराज्य देना चाहें तो वह ऐसे स्वराज्य को ठुकरा देंगे क्योंकि मैं जिस वस्तु को उपार्जित नहीं कर सकता; उसे स्वीकार करने का भी पात्र नहीं हूँ।’
तिलक का कहना था कि- ‘राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ना पड़ेगा…… अँग्रेजों के साथ सहयोग करना और भिक्षा तथा उपहार, वरदानों के रूप में अधिकार प्राप्त करना नितान्त भ्रामक है।’
लाला लाजपतराय ने 1905 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में कहा था- ‘एक अँग्रेज को भिखारी से बड़ी घृणा और विरक्ति होती है। मेरे विचार में भिखारी है ही इस योग्य कि उससे घृणा की जाये। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि अब हम अँग्रेजों को दिखा दें कि हम भिक्षुक नहीं हैं। हमारा आदर्श भीख मांगना नहीं, वरन् आत्म-निर्भरता है।’
(3.) भारतीय संस्कृति से लगाव में अंतर: उदारवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा एवं जीवन शैली से प्रभावित थे। वे अँग्रेजों की न्यायप्रियता एवं परोपकारिता में विश्वास करते थे। इस कारण वे भारत के पश्चिमीकरण के समर्थक थे। गोपालकृष्ण गोखले का विचार था कि भारतीय परम्पराएं भारत के धर्मनिरपेक्ष तथा प्रजातान्त्रिक आधुनिक राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक हैं। जबकि उग्रवादी नेता, भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में विश्वास करते थे और हिन्दू राष्ट्रवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उग्रवादियों का राष्ट्रवाद भारत के गौरवपूर्ण प्राचीन महत्त्व पर आधारित था। तिलक तथा अन्य उग्रवादी नेताओं ने हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान का प्रचार किया। तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव तथा गणपति पूजा को पुनर्जीवित किया तथा विपिनचन्द्र पाल ने कलकत्ता में विराट स्तर पर काली पूजा की परम्परा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने आर्य समाज की गतिविधियों को बल प्रदान किया। गणपति पूजा के उत्सव में हिन्दुओं के साथ-साथ शिया और सुन्नी भी भाग लेते थे।
(4.) स्वदेशी आन्दोलन सम्बन्धी नीति में अंतर: कांग्रेस के मंच से 1891 ई. में विदेशी वस्तुओं की जगह स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का नारा दिया गया था परन्तु इस दिशा में कभी गम्भीर प्रयास नहीं किया गया था। उदारवादी नेतृत्व में स्वदेशी का विचार भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने तक ही सीमित था जबकि उग्रवादी नेतृत्व ने बंग-भंग आन्दोलन के दौरान स्वदेशी अपनाने के नारे को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध शक्तिशाली हथियार बना लिया। उग्रवादी नेतृत्व ने स्वदेशी के विचार को प्रत्येक भारतीय वस्तु के साथ गहन अनुराग का स्वरूप प्रदान किया।
(5.) विदेशी विचारों एवं वस्तुओं के बॉयकाट सम्बन्धी नीति में अंतर: उदारवादी नेता विदेशी वस्तुओं एवं विचारों के बहिष्कार के घोर-विरोधी थे। उनका मानना था कि ऐसा करना अव्यावहारिक है तथा जनता की सेवा के लिए उपलब्ध सुनहरे अवसरों का परित्याग है। जबकि उग्रवादी नेता, विदेशी वस्तुओं के साथ-साथ विदेशी विचारों के बहिष्कार के भी समर्थक थे। उनकी दृष्टि में बहिष्कार का अर्थ केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं था अपितु विदेशी शासन से असहयोग, सरकारी नौकरियों तथा उपाधियों का बहिष्कार तथा विदेशी सामान खरीदने-बेचने वालों का बहिष्कार भी सम्मिलित था।
(6.) शिक्षा सम्बन्धी विचारों में अंतर: ब्रिटिश शासन ने भारत की शिक्षा नीति पर पूर्ण रूपेण शिकंजा कस रखा था। इस पर भी उदारवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा को भारतीयों के लिए अच्छा मानते थे। बंग-भंग आन्दोलन आरम्भ होने पर सरकार द्वारा सरकारी शिक्षा विभाग का उपयोग, छात्रों और शिक्षकों को बॉयकाट तथा स्वदेशी आन्दोलन से दूर रखने के लिए किया गया। शिक्षा के सम्बन्ध में उग्रवादी नेताओं के विचार, उदारवादी नेताओं की नीति से बिल्कुल विपरीत थे। उग्रवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा चाहते थे तथा शिक्षा नीति पर विदेशी शासकों का अंकुश नहीं चाहते थे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर ब्रिटिश नियंत्रण के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का कहना था- ‘भारत में विदेशियों द्वारा शिक्षा का नियन्त्रण और निर्देशन सबसे ज्यादा अस्वाभाविक घटना है……… देश की आवश्यकताओं को पूरा करना ही भारत में राष्ट्रीय शिक्षा का उद्देश्य और लक्ष्य है।’
महाराष्ट्र में तिलक और पंजाब में लाजपतराय आदि नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार कार्य को आगे बढ़ाया ताकि नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो सके।
(7.) ब्रिटिश न्यायप्रियता में आस्था सम्बन्धी अंतर: उदारवादी नेता ब्रिटिश शासन के प्रशंसक थे। उनका ब्रिटिश प्रजातन्त्र में असीम विश्वास था। उदारवादियों के लिये अँग्रेजी शासन उनके लिए अभिशाप न होकर वरदान स्वरूप था। उनका यह भी मानना था कि एक दिन ब्रिटिश सरकार भारतीयों को भी भारत में वही अधिकार दे देगी जो इंग्लैण्ड में अँग्रेज जनता को प्राप्त थे। उग्रवादी नेता ब्रिटिश शासन के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि भारतीयों को स्वतन्त्रता पाने के लिए केवल अपने-आप पर ही भरोसा करना होगा। अँग्रेज अपनी इच्छा से भारत का शासन भारतीयों को नहीं सौपेंगे। इसके लिए संघर्ष करना होगा। उग्रवादी नेता भारत में अँग्रेजी शासन को अभिशाप मानते थे।
(8.) नेताओं की पृष्ठभूमि में अंतर: उदारवादियों का नेतृत्व शिक्षित और उच्च वर्ग के लोगों के हाथों में था जबकि उग्रवादी विचारधारा का नेतृत्व मध्यम वर्गीय और सामान्य पृष्ठभूमि से आये व्यक्तियों के हाथ में था। उदारवादी पक्ष भारतीय संस्कारों के ज्यादा अनुकूल नहीं था जबकि उग्रवादी पक्ष भारतीय आवश्यकताओं के अधिक अनुकूल था।
(9.) ब्रिटिश नेताओं के समर्थन में अंतर: उदारवादियों को अनेक प्रतिष्ठित उदारवादी अँग्रेजों तथा ब्रिटिश सांसदों का समर्थन एवं सहयोग मिला परन्तु उग्रवादियों को ब्रिटिश नेताओं एवं जनमत से समर्थन अथवा सहयोग नहीं मिला। उदारवादियों को बढ़ावा देने के लिये भारत की गोरी सरकार ने उग्रवादियों को कुचलने की नीति अपनाई। उदारवादी नेताओं ने उग्रवादी नेताओं के बचाव के लिये कुछ नहीं किया।
उदारवाद तथा उग्र राष्ट्रवाद में समानताएँ
यद्यपि उग्र राष्ट्रवाद, उदारवाद की प्रतिक्रया में उत्पन्न हुआ था तथापि वे एक दूसरे के पूरक थे। उदारवादियों ने, कांग्रेस के रूप में उग्रवादियों के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार की तथा उग्रवाद ने उसी कांग्रेस का उपयोग अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने में किया। दोनों ही सच्चे देशभक्त और देशप्रेमी थे। उदारवादी आलोचना, भाषण और प्रार्थना-पत्रों से सरकार को प्रभावित करना चाहते थे जबकि उग्रवादी सक्रिय आन्दोलन का मार्ग अपनाने के पक्ष में थे।
रामनाथ सुमन ने लिखा है- ‘जब हम नरम व गरम दोनों दलों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं तो मालूम पड़ता है कि हमारी राष्ट्रीयता के विकास में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों हमारी राजनीति के स्वाभाविक उपकरण हैं। वस्तुतः वे एक ही आन्दोलन के दो पक्ष हैं। एक ही दीपक के दो परिणाम हैं। पहला प्रकाश का द्योतक है; दूसरा गर्मी का। पहला बुद्धि-पक्ष है; दूसरा भाव-पक्ष है। पहला जहाँ कुछ सुविधाएं प्राप्त करना चाहता था, वहाँ दूसरे का उद्देश्य राष्ट्र में मानसिक परिवर्तन करना था।’
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि उदारवादियों एवं उग्रवादियों, दोनों का लक्ष्य एक सीमा तक ही एक जैसा था। दोनों ही पक्ष राष्ट्रीय शक्तियों को मजबूत बनाना चाहते थे। दोनों ही पक्षों के नेता राष्ट्रहित की भावना से प्रेरित होने के कारण उच्चकोटि के देश-भक्त थे। दोनों ही पक्ष भारत की सर्वांगीण प्रगति चाहते थे किंतु इन दोनों के मार्ग तथा लक्ष्यों का अंतिम पड़ाव बिंदु अलग थे। उदारवादी नेता ब्रिटिश सरकार से सहयोग एवं समझौता करके, वैधानिक उपायों से राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के समर्थक थे। उनका उद्देश्य स्वराज प्राप्त करना नहीं था। वे अँग्रेजों की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन चाहते थे जबकि तिलक आदि उग्रवादी नेताओं को राजनीतिक भिक्षावृत्ति पसन्द नहीं थी और वे अँग्रेजों द्वारा प्रदत्त सुराज के स्थान पर स्वयं द्वारा निर्मित स्वराज चाहते थे और इसकी प्राप्ति के लिए संघर्ष करने के समर्थक थे।
उग्रवादी आन्दोलन का मूल्यांकन
उग्रवादियों की सफलताएँ
उग्रवादी आन्दोलन का प्रमुख क्षेत्र बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब था परन्तु इसका प्रभाव सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में व्याप्त था। उग्रवादी अथवा गरम दल नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन में नये युग का सूत्रपात किया। उन्होंने उदारवादियों की समझौतावादी राजनीति और ब्रिटिश न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में विश्वास की नीति का परित्याग करके संघर्ष की नीति को अपनाया। उन्होंने भारतीय नवयुवकों में नवीन उत्साह का संचार किया तथा उनको आत्म-निर्भरता, आत्म-विश्वास और आत्म-बलिदान की शिक्षा दी। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन में बदलने का प्रयास किया। इस कारण भारत के श्रमिक, किसान, शिक्षित बेरोजगार नवयुवक, असन्तुष्ट निम्न मध्यम वर्ग, कम वेतन पाने वाले बुद्धिजीवी तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोग इस आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। उग्रवादियों ने ही इस बात को जोर देकर कहा कि राजनीतिक आजादी ही राष्ट्र का जीवन है।
उग्रवादियों की विफलताएँ
उग्र राष्ट्रवादी नेताओं की सफलताएं बहुत बड़ी थीं किंतु उन्हें कुछ असफलताओं का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ असफलताएँ इस प्रकार से हैं-
(1.) उग्रवादियों ने भारतीय जन साधारण को आंदोलन का सही मार्ग तो दिखा दिया परन्तु वे जनता के उत्साह को संगठित आन्दोलन का रूप नहीं दे पाये।
(2.) 1907-1916 ई. की अवधि में, उदारवादियों का मनोबल गिरा हुआ था किंतु फिर भी उग्रवादी नेता न तो कांग्रेस पर कब्जा कर पाये और न ही उसके स्थान पर कोई नया लोकप्रिय दल बनाकर अपने संगठन का कौशल दिखा पाए।
(4.) उदारवादियों के विफल होते ही, ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत के साथ उग्रवादियों की गतिविधियों को कुचलना आरम्भ कर दिया। 1908 ई. में समाचार पत्रों का मुंह बन्द करने के लिए समाचार पत्र विधेयक लागू किया गया, आतंकवादी अभियोगों से निपटने के लिए दंडविधि संशोधन अधिनियम (1908) लागू किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबंधित करने के लिए राजद्रोह सम्मेलन अधिनियम-1911 लागू किया गया। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय तथा अन्य उग्रवादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया जिससे उग्रवादियों को भारी धक्का लगा। रिहाई के बाद इनमें से बहुत से नेताओं का मनोबल टूट गया।
(4.) 1916 ई. में तिलक, लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस की एकता फिर से स्थापित करने में सफल रहे और एनीबीसेंट के साथ मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाते रहे। जब 1919 ई. में मोहनदास गांधी ने असहयोग सम्बन्धी प्रस्ताव रखा तो तिलक और एनीबीसेंट ने कांग्रेस छोड़ दी।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उग्रवादी अथवा राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेताओं ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी किंतु उग्रवादी नेताओं के विरुद्ध उदारवादी नेताओं के अड़ियल रुख तथा उग्रवादी नेताओं का अंग्रेजी सरकार द्वारा किये गये दमन के कारण उग्रवादी नेता अधिक सफलताएँ अर्जित नहीं कर पाये।