Tuesday, April 16, 2024
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अध्याय – 57 : उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन (गरमपंथी कांग्रेस) – 2

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंतराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कई घटनाएं हुईं जिन्होंने भारत में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं को उभारा।

(1.) जापान की रूस पर विजय: लगभग डेढ़ सौ वर्षों में यूरोपवासियों की एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों में निरन्तर विजयों से एशिया में यह धारणा बन गई थी कि यूरोपवासी अजेय हैं परन्तु एशिया के एक छोटे से देश जापान ने 1905 ई. मे यूरोप के शक्तिशाली देश रूस को परास्त कर, इस धारणा को ध्वस्त कर दिया। इस घटना से भारतवासियों में यह आशा उत्पन्न हुई कि भारत भी ब्रिटिश शासन को समाप्त कर सकता है। देश के शिक्षित नवयुवक जापान की इस तीव्र प्रगति के कारणों को जानने के लिए उत्सुक हो उठे। उनके हृदय पर जापान के त्याग और देशभक्ति की भावना का गहरा प्रभाव पड़ा। 1 जुलाई 1905 को अँग्रेजी समाचार पत्र द पायनियर ने लिखा- ‘भारतीय शिक्षित वर्ग इस युद्ध को बहुत रुचि के साथ देख रहा था। ……जापानियों की विजय ने उनके उत्साह में बिजली पैदा कर दी थी।’

(2.) रूस की ड्यूमा क्रांति: 1905 ई. में रूस में ड्यूमा क्रांति हुई जिसमें जनतंत्र, राजतंत्र पर भारी पड़ रहा था। इस क्रांति में रूसी जनता की इच्छा-शक्ति के अच्छे प्रदर्शन का भारत की जनता पर भी प्रभाव पड़ा। उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी तक को कांग्रेस के 1906 ई. के अधिवेशन में कहना पड़ा- ‘रूस अपनी मुक्ति के लिये संघर्ष कर रहा है….. ये सभी निरंकुशतावाद के विरुद्ध है ….. क्या ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के स्वतंत्र नागरिक निरंकुश तंत्र की प्रजा रहना जारी रखेंगे?’

(3.) इटली की पराजय: 1896 ई. में अबीसीनिया जैसे छोटे अफ्रीकी देश ने इटली जैसे शक्तिशाली यूरोपीय राष्ट्र की सेना को परास्त करके उसके साम्राज्यवादी स्वरूप को चकनाचूर कर दिया। भारतीयों ने इस घटना को आश्चर्य के साथ देखा।

(4.) बोअर युद्ध: 1899-1902 ई. तक बोअर युद्ध हुआ। दक्षिण अफ्रीका में बोअर (डच) लोगों ने अपनी स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए अँग्रेजों से जमकर लोहा लिया और एक बार तो ब्रिटिश सेना को बुरी तरह से परास्त करके खदेड़ दिया।

(5.) विदेशों में घटित क्रांतियाँ: 1899-1900 ई. का बॉक्सर विद्रोह, 1908 ई. की युवा तुर्क क्रान्ति, 1910 ई. की मैक्सिको क्रान्ति और 1911 ई. की चीन क्रान्ति ऐसी ही प्रमुख क्रांतियां थीं जिनके कारण भारतीयों के लिये भी अँग्रेज अजेय नहीं रहे।

(6.) दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार: दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की बड़ी संख्या रहती थी जिनके साथ वहाँ की गोरी सरकार असमानता युक्त व्यवहार करती थी। गोरे अँग्रेज, काले भारतीयों को नीच जाति का मनुष्य कहते थे। उन्होंने भारतीयों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये। भारतीय, रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे और रात के नौ बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। उन दिनों बैरिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी वहाँ वकालात कर रहे थे। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरी सरकार द्वारा किये जा रहे भेदभाव के विरोध में शान्तिपूर्ण प्रतिरोध और सत्याग्रह आन्दोलन किया। गांधी के संघर्ष के फलस्वरूप भारतीयों को कुछ सुविधाएं मिल गईं। इससे भारतवासियों को भरोसा हुआ कि अनुनय-विनय की बजाय आन्दोलन और संघर्ष का तरीका अधिक उपयोगी है।

बंग-भंग आन्दोलन

बंगाल एक विशाल प्रान्त था। इसमें बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा छोटा नागपुर तक विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। इतने बड़े प्रांत का शासन सुचारू रूप से  सम्भाला जाना कठिन था। इस कारण बंागल के विभाजन पर 1892 ई. से विचार चल रहा था। लॉर्ड कर्जन ने 18 जुलाई 1905 को बंगाल के विभाजन की घोषणा की तथा पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल नामक दो प्रांत बनाये। पहले टुकड़े में बंगाल का पूर्वी भाग और आसाम का क्षेत्र रखा गया। इस प्रांत के लिये पृथक् लेफिटनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जिसकी राजधानी ढाका रखी गई। पश्चिमी बंगाल में बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र रखे गये। इसकी राजधानी कलकत्ता में रही। बंगाल को विभाजित करने का वास्तविक उद्देश्य बंगाल की एकजुट राजनीतिक शक्ति को भंग करना था। अँग्रेजों ने बंग-भंग के माध्यम से पूर्वी बंगाल के रूप में एक ऐसा प्रान्त बना दिया जिसमें मुसलमानों की प्रधानता थी। अँग्रेजों को आशा थी कि नया प्रांत, हिन्दू बहुल पश्चिमी प्रांत के विरुद्ध आवाज बुलंद करता रहेगा। सैयद अहमद खाँ तथा उनके आदमियों ने इस कार्य में अँग्रेजों का साथ दिया ताकि उनकी राजनीति चमक जाये।

बंगाल-विभाजन के विरुद्ध पूरे देश में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा हो गया। बंगाल-विभाजन का प्रस्ताव सामने आते ही कलकत्ता में महाराजा जतीन्द्रमोहन ठाकुर की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई जिसमें सरकार से बंगाल विभाजन के सम्बन्ध में कुछ संशोधन करने की मांग की गई। कर्जन ने किसी भी प्रकार का संशोधन करने से मना कर दिया। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट जनसभा हुई जिसमें बड़े-बड़े नेता तथा विभिन्न जिलों के प्रतिनिधि मण्डल उपस्थिति थे। इसके बाद पूरे बंगाल में बंग-भंग के विरोध में जनसभाएँ हुईं। इन सभाओं में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम स्वीकार किया गया।

16 अक्टूबर 1905 को कर्जन ने बंग-भंग की घोषणा को कार्यान्वित कर दिया। बंगाली जनता ने इस दिन को शोक-दिवस के रूप में मनाया। प्रातःकाल से ही कलकत्ता सहित विभिन्न नगरों की सड़कें वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठीं। मनुष्यों के समूह नदी के किनारे एकत्रित होकर एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधने लगे। गायन मण्डलियों ने वीर रस से ओत-प्रोत गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जागृत की। उस दिन पूरे बंगाल में हड़ताल रही। स्थान-स्थान पर आयोजित जन-सभाओं में बंगालियों ने प्रण लिया कि हम एक जाति की हैसियत से, अपने प्रांत के बँटवारे से पैदा हुए बुरे प्रभावों को दूर करने और अपनी जाति की एकता बनाये रखने के लिए शक्ति-भर सब-कुछ करेंगें।

कलकत्ता में एक फेडरेशन हॉल का शिलान्यास किया गया जिसमें समस्त जिलों की मूर्तियों को रखा गया। पृथक् किये गये जिलों की मूर्तियों को पुनः एक होने तक के लिये ढक दिया गया। अनेक स्थानों पर हड़ताल के साथ-साथ उपवासों के भी आयेाजन किये गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बुनकर उद्योग की सहायता से राष्ट्रीय निधि की स्थापना की। विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए व्यापक अभियान आरम्भ किया गया। प्रान्त के कोने-कोने में तथा प्रान्त के बाहर भी बंग-भंग के विरोध में जनसभाएं आयोजित की गईं। पूरा बंगाल वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठा। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और अधिक उग्र बना दिया। वन्देमातरम् के गीत पर नियन्त्रण व आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी से आन्दोलन ने अत्यधिक उग्र रूप धारण कर लिया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल ने समूचे बंगाल का दौरा करके जनता से अपील की कि वे बंग-भंग विरोधी अभियान को सफल बनायें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व इस समय भी उदारवादियों के हाथों में था किंतु कांग्रेस ने बंग-भंग की कटु आलोचना की। नवयुवकों और विद्यार्थियांे ने इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लिया।

लॉर्ड कर्जन और उनके सहयोगियों ने मुसलमानों को इस आन्दोलन से अलग रखने के प्रयास किये किंतु अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन, अब्दुल हलीम गजनवी, यूसुफ खान बहादुर, मुहम्मद इस्माइल चौधरी आदि नेताओं के नेतृत्व में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में भाग लिया। मुसलमान नेताओं ने विशाल सभा का आयोजन करके प्रस्ताव पारित किया कि देश की उन्नति के लिए जो काम हिन्दू करेंगे, मुसलमान उसका समर्थन करेंगे, मुसलमान हिन्दुओं का साथ बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में ही नहीं अपितु दूसरे मामलों में भी देंगे, और विदेशी माल के बॉयकाट और देशी माल के इस्तेमाल का समर्थन करेंगे। इस पर अँग्रेज अधिकारियों ने उन अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को दंगे करने के लिये भड़काया जो अपने लिये एक मुस्लिम-बहुल प्रांत चाहते थे।

सरकार की दमन नीति

बंग-भंग विरोधी आंदोलन के फूट पड़ते ही सरकार ने सार्वजनिक सभाओें पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अध्यापकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने छात्रों को इस आन्दोलन से दूर रखें। मैमनसिंह जिले में दो लड़कों पर केवल इसलिए जुर्माना किया गया कि वे वन्देमातरम् गा रहे थे। सरकार ने निजी शिक्षण संस्थाओं को धमकी दी कि जिस स्कूल के अधिकारी अपने छात्रों एवं अध्यापकों को इस आन्दोलन से अलग नहीं रखेंगे उनकी मान्यता समाप्त करके सरकारी सहायता बंद कर दी जायेगी। इन स्कूलों के प्रबंधकों ने बहुत से छात्रों और शिक्षकों को स्कूलों से हटा दिया। सरकार ने बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को बन्दी बनाकर उन्हें अमानवीय सजाएं दीं। गोरी सरकार का भयावह चेहरा उस समय खुलकर सामने आया जब सरकार ने मुसलमानों को हिन्दुओं पर आक्रमण करने तथा उन पर भीषण अत्याचार करने के लिये उकसाया। एक स्थान पर तो मुसलमानों ने ढोल-बजा-बजा कर घोषणा करवाई कि सरकार ने उन्हें, हिन्दुओं को लूटने एवं हिन्दू-विधवाओं के साथ विवाह करने की अनुमति दे दी है। बंगाल के गवर्नर वैमफील्ड फुलर ने लोगों को भड़काने के लिये यह बयान दिया- ‘…… मेरी हिन्दू और मुस्लिम पत्नियों में, मुस्लिम पत्नी मेरी ज्यादा चहेती है।’

बंगाल में घटी इन घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए उन दिनों के प्रसिद्ध समाचार पत्र मार्डन रिव्यू ने लिखा था- ‘आन्दोलन-काल की घटनाएं समस्त सम्बन्धित पक्षों के लिए निन्दनीय हैं…….हिन्दुओं के लिए उनकी भीरूता के लिए, क्योंकि उन्होंने मन्दिरों के अपवित्रीकरण, मूर्तियों के खण्डन तथा स्त्रियों के अपहरण के विरुद्ध बल-प्रयोग नहीं किया, स्थानीय मुस्लिम जनता के लिए नीच व्यक्तियों के बाहुल्य के कारण और अँग्रेजी सरकार के लिए इस कारण कि उसके शासन में इस प्रकार की घटनाएँ बिना रोक-टोक के बहुत दिनों तक होती रहीं।’

आन्दोलन का महत्त्व और प्रभाव

बंग-भंग आन्दोलन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। वन्देमातरम् के नारे ने सदियों से सोई जनता को जागृत कर दिया। इस कारण राष्ट्रीय एकता की जो प्रबल भावना जागृत हुई उसने स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा को दृढ़ बना दिया। अब कांग्रेस का अपने उदारवादी नेताओं से मोह भंग हो गया। स्वयं गोखले को कहना पड़ा- ‘नवयुवक यह पूछने लगे हैं कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।’

इस प्रकार बंग-भंग की घटना ने भारतीय राजनीति में उग्रवाद को बढ़ावा दिया। इन घटनाओं ने उग्रवादी नेताओं की लोकप्रियता में भी वृद्धि की। जब ब्रिटिश सरकार ने उग्रवादी नेताओं का दमन करना आरम्भ किया तो जनसाधारण और अधिक उद्वेलित हो उठा। उन्हीं दिनों कुछ युवकों ने रक्त-रंजित क्राति का मार्ग अपना लिया।

इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण परिणाम विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग तथा राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया जाना था। आगे चलकर गांधीजी ने स्वदेशी को राष्ट्रीय आन्दोलन में एक प्रमुख अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। बंग-भंग आंदोलन के दौरान लॉर्ड कर्जन ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी, जो उत्तरोतर गहरी होती गई और देश में साम्प्रदायिकता की भयानक समस्या उत्पन्न हो गई। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान अनेक स्थानों पर दंगे हुए तथा हिन्दुओं के साथ घोर अन्याय किया गया। यह आन्दोलन दिसम्बर 1911 तक चलता रहा। 1911 ई. में बंग-भंग को निरस्त करके अँग्रेज सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करवाया। उसी वर्ष ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाई गई। यह भारतीयों की बड़ी जीत थी।

उदारवादियों और उग्रवादियों के अलग-अलग रास्ते

बंगाल विभाजन के बाद कांग्रेस में, उदारवादियों और उग्रवादियों का अंतर्विरोध और अधिक गहरा हो गया। 1905 ई. में बनारस में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता गोपाल कृष्णा गोखले ने की। इस समय बंगाल में विदेशी वस्तुओं का बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन जोरों पर था। सरकार का दमनचक्र भी पूरे जोरों पर था। इस कारण कांग्रेस के बहुत से सदस्य सरकार से अत्यधिक कुपित थे तथा बनारस सम्मेलन में हंगामा होने की आंशका थी। इस हंगामे से बचने की रणनीति तैयार करने के लिये उदारवादी नेताओं ने, मुख्य अधिवेशन से पहले, अलग से एक बैठक की।

बनारस के मुख्य अधिवेशन में उदारवादियों और उग्रवादियों की पहली टकराहट, प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर हुई। उदारवादी नेता, प्रिंस के हार्दिक स्वागत का प्रस्ताव पारित कराना चाहते थे किंतु तिलक और लाजपतराय इस प्रस्ताव के विरोध में थे। अंत में तिलक एवं लाजपतराय ने इस शर्त पर विरोध को त्याग दिया कि अधिवेशन के कार्यवाही विवरण में, प्रिंस के स्वागत का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ नहीं लिखा जायेगा। इसके बाद उग्रवादियों द्वारा अधिवेशन में, सरकार द्वारा बंगाल के आन्दोलन को कुचलने के लिये किये जा रहे प्रयासों की निन्दा का प्रस्ताव लाया गया। इस प्रस्ताव पर दोनों गुटों के बीच विरोध और मुखर हो गया।

दोनों गुटों के बीच अंतर्द्वन्द्व का तीसरा बिंदु स्वदेशी आंदोलन था। उग्रवादी नेता विदेशी बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन को सारे देश में फैलाना चाहते थे, जबकि उदारवादी नेता, इसे बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। उदारवादी नेता पं. मदनमोहन मालवीय ने खुले अधिवेशन में जोर देकर कहा कि मैं बॉयकाट के पक्ष में नहीं हूँ। इस पर उग्रवादी भी भड़क गये। अंत में लाला लाजपतराय ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाने का सुझाव दिया। इस प्रकार यह अधिवेशन बिना किसी और बड़ी घटना के सम्पन्न हो गया।

अगला अधिवेशन 1906 ई. में कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन के कुछ महीने पहले से ही उग्रवादियों के गुट ने लोकमान्य तिलक अथवा लाला लाजपतराय को अध्यक्ष बनाने की मुहिम आरम्भ कर दी किन्तु उदारवादियों ने उग्रवादियों को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से दूर रखने के लिए बड़ी तिकड़मबाजी की। स्वागत समिति के अध्यक्ष भूपेन्द्रनाथ बसु ने, स्वागत समिति की राय लिए बिना ही दादाभाई नौरोजी को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनने के लिये लिख भेजा। इस प्रकार 81 वर्षीय नौरोजी को कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बना दिया गया। उग्रवादियों ने नौरोजी का विरोध करना उचित नहीं समझा। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में निम्नलिखित बिन्दुओं पर जोर दिया-

(1.) आन्दोलन करते रहना समीचीन है।

(2.) ब्रिटिश सरकार आन्दोलन को बर्दाश्त करने की मानसिकता नहीं रखती है; किंतु निरन्तर आन्दोलन करते रहने से अन्ततोगत्वा ब्रिटिश सरकार झुक जायेगी।

(3.) आन्दोलन लोकतान्त्रिक, वैधानिक तथा उपद्रवों से दूर रहने वाले हों।

इस अधिवेशन में बहुत से प्रस्ताव पास किये गये जिनमें से निम्नलिखित प्रस्ताव उग्रवादियों की नीतियों के अनुकूल रहे-

(1.) जब तक बंग-विभाजन समाप्त नहीं किया जाता है, तब तक आन्दोलन अनवरत चलता रहे। दोनों बंगाल मिलकर पुनः एक हों।

(2.) ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार जारी रहे।

(3.) सरकार की दमन नीति की घोर भर्त्सना की गई।

दादाभाई नौरोजी के व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस का यह अधिवेशन टूटने से बच गया परन्तु इस अधिवेशन का परिणाम सुखद नहीं हुआ, क्योंकि दोनों दल, इस अधिवेशन में पारित प्रस्तावों की अपने अनुकूल व्याख्या करते रहे।

सूरत की फूट

यद्यपि कलकत्ता अधिवेशन में उग्रवादी अपने कुछ प्रस्तावों को पारित करवाने में सफल रहे परन्तु उदारवादी नेता उन प्रस्तावों को कार्यान्वित करने को तैयार नहीं थे। अतः दोनों गुटों में कांग्रेस के आगामी अधिवेशन पर कब्जा करने की स्पर्धा आरम्भ हो गई। उदारवादी नेता हर कीमत पर कांग्रेस पर अपना कब्जा बनाए रखने पर तुले थे और उग्रवादी नेता, उदारवादियों को हटाकर कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने को आतुर थे। 1906 ई. के कलकत्ता अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया था कि कांग्रेस का अगला अधिवेशन 1907 ई. में नागपुर हो। 22 सितम्बर 1907 को कांग्रेस की स्वागत समिति की बैठक में दोनों पक्षों के बीच इतना झगड़ा हुआ कि उदारवादियों ने कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर के स्थान पर सूरत में करने का निर्णय लिया। सूरत में उदारवादी नेताओं का प्रभाव अधिक था।

कांग्रेस का सूरत अधिवेशन, कांग्रेस के दोनों गुटों के शक्ति परीक्षण का स्थल बन गया। 27 दिसम्बर 1907 को उदारवादियों ने अध्यक्ष पद के लिए रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित किया किन्तु उग्रवादियों ने लाला लाजपतराय का नाम प्रस्तावित करने का निश्चय किया। उस समय कांग्रेस में उदारवादियों का बहुमत था तथा लालाजी का जीतना कठिन था। इस कारण लालाजी ने इस पद के लिए अनिच्छा प्रकट की। इस पर उग्रवादियों ने बारीसाल के अश्विनी कुमार दत्त का नाम प्रस्तुत किया। अध्यक्ष पद के लिए रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित और समर्थित होते ही, तिलक ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के पास दो बार अपना नाम भेजा तथा आग्रह किया कि मुझे बोलने दिया जाये किंतु स्वागत समिति के अध्यक्ष ने तिलक को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इसी बीच रासबिहारी घोष को अध्यक्ष घोषित कर दिया गया।

तिलक, उदारवारियों की इस घपलेबाजी से तिलमिला गये। उन्होंने स्वयं-सेवकों को धकेल कर माइक अपने हाथ में ले लिया और भाषण देने लगे। तिलक की इस कार्यवाही से अधिवेशन में हंगामा मच गया। गरम दल वाले कह रहे थे कि उन्हें सुना जाये और नरम दल वाले चीख रहे थे कि तिलक बैठ जाएं। तिलक कहते रहे कि उन्हें अपनी बात कहने का पूरा-पूरा अधिकार है, इसलिये उन्हें सुना जाये। जब तिलक नहीं माने तो बहुत से उदारवादी नेता एकजुट होकर तिलक पर टूट पड़े और उन्हें पकड़ कर, माइक से दूर खींचने लगे। तभी एक नोकदार मराठा जूता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के गाल पर लगा और फिर उछल कर फीरोजशाह मेहता पर जा गिरा। इसके बाद चारों तरफ जूते चलने लगे। अधिवेशन में उपस्थित लोग, एक दूसरे को कुर्सियों और लाठियों से मारने लगे। गाली-गलौच और घूसेबाजी का तो कोई अंत ही नहीं था। बहुत से लोगों के शरीर से रक्त बहने लगा। इस पर पुलिस ने अधिवेशन स्थल पर प्रवेश किया। पुलिस के सामने कठिनाई यह थी कि उदारवादी और उग्रवादी गुटों के नेताओं को अलग करना कठिन था। इसलिये पुलिस ने सब लोगों को हॉल से बाहर निकाल दिया। इसके साथ ही कांग्रेस का अधिवेशन स्थगित कर दिया गया।

अधिवेशन के स्थगित होने के बाद अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष, बी. सी. चटर्जी तथा लाला हरिकिशन लाल आदि नेताओं ने कांग्रेस की एकता को बनाये रखने के प्रयास किये। तिलक इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हो गये किंतु उन्होंने शर्त रखी कि उन्हें अपनी बात कहने का पूरा अवसर दिया जाये। उदारवादी नेताओं ने समझौता करने से मना कर दिया तथा अधिवेशन स्थगित होने के अगले ही दिन उन्होंने अपना पृथक सम्मेलन करने के लिये एक नोटिस जारी कर दिया।

उदारवादियों द्वारा आयोजित पृथक् अधिवेशन में कांग्रेस के 1600 में से 900 सदस्यों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में एक समिति का गठन किया गया जिसे कांग्रेस का संविधान बनाने का कार्य दिया गया। इस प्रकार उदारवादी कांग्रेसी, गोखले के नेतृत्व में तथा उग्रवादी कांग्रेसी, महात्मा तिलक के नेतृत्व में अलग हो गये। उदारवादी गुट स्वयं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहने लगा जबकि उग्रवादी गुट स्वयं को राष्ट्रीय पार्टी कहने लगा। उदारवादियों ने पहले की ही तरह भारत की गोरी सरकार से सहयोग, समझौते और याचना का मार्ग अपनाया जबकि राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार से संघर्ष करने तथा उग्र आंदोलन करने का मार्ग पकड़ लिया। इस समय ब्रिटेन में लिबरल पार्टी की सरकार थी। इस सरकार से उदारवादी नेताओं को बहुत आशाएं थीं।

श्रीमती एनीबीसेन्ट को कहना पड़ा- ‘सूरत की फूट कांग्रेस के इतिहास में सर्वाधिक दुखःपूर्ण घटना है।’

सूरत फूट के कारण

सूरत में कांग्रेस की फूट के लिये तीन बड़े कारण जिम्मेदार थे-

(1.) उदारवादी नेताओं का अहंकार: उदारवादी नेता आरम्भ से ही बड़े अहंकारी थे। एक तरफ वे अँग्रेजों से प्रार्थना कर रहे थे तथा दूसरी तरफ कांग्रेस को राष्ट्रवादियों के हाथों में जाने से रोकने के लिये तिकड़मबाजी का सहारा ले रहे थे। वे कांग्रेस के भीतर की बदलती हुई परिस्थितियों को भी समझने में असफल रहे।

(2.) उग्रवादियों की राष्ट्रवादी नीतियां: उग्रवादियों की राष्ट्रवादी नीतियां उन्हें सरकार से उग्र संघर्ष के लिये प्रेरित कर रही थीं और अब वे उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की राजनीति पर चलने को तैयार नहीं थे।

(3.) ब्रिटिश शासन की चालबाजियां: ब्रिटिश शासन पर्दे के पीछे काम कर रहा था। वह उदारवादी गुट की पीठ थपथपा कर उसे फूट के लिये उकसाता रहा ताकि कांग्रेस अपनी ऊर्जा सरकार से संघर्ष करने में व्यय करने के स्थान पर परस्पर संघर्ष में व्यय करे।

सूरत की फूट के परिणाम

कांग्रेस की इस फूट से गोरी सरकार बड़ी प्रसन्न हुई। लॉर्ड मिण्टो ने लिखा है- ‘सूरत में कांग्रेस का पतन अँग्रेजों की बड़ी जीत थी।’ सरकार ने कांग्रेस की इस फूट का लाभ उठाने के लिये उग्रवादी नेताओं के विरुद्ध नये सिरे से दमनचक्र आरम्भ कर दिया। उसने उग्रवादी नेताओं की चतुष्टयी अर्थात् लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल, बालगंगाधर तिलक तथा अरविन्द घोष को जेल में ठूंसने का निर्णय लिया।

(1.) अरविन्द घोष की गिरफ्तारी: 1907 ई. में अलीपुर बम काण्ड के सम्बन्ध में श्री अरविन्द को उनके भाई वारीन्द्र घोष सहित बंदी बना लिया। बाद में वारीन्द्र घोष को आजीवन कारावास दिया गया।

(2.) लाला लाजपतराय की गिरफ्तारी: लाला लाजपतराय ने कांग्रेस अधिवेशन से लौटकर, पंजाब के लैंड एलीयनेशन तथा कोलोनाइजेशन कानूनों के विरुद्ध किसानों का जनमत तैयार किया। उनकी प्रेरणा से पंजाब के किसानों ने व्यापक प्रदर्शन किये जिससे अँग्रेजी शासन हिल गया। सरकार ने लाला लाजपतराय को भारत के बादशाह के प्रदेशों में अशांति मचाने के आरोप में बन्दी बनाकर बर्मा के माण्डले दुर्ग भेज दिया। उन पर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया।

(3.) विपिनचंद्र पाल की गिरफ्तारी: 1907 ई. में अलीपुर बम काण्ड के सम्बन्ध में श्री अरविन्द की गिरफ्तारी हुई तो विपिनचन्द्र पाल को साक्ष्य के लिए बुलाया गया परन्तु पाल ने जाने से इन्कार कर दिया। इस पर उन्हें अदालत की मानहानि के आरोप में 6 माह का कारावास दिया गया। बाद में पाल राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चले गये और 1908 से 1911 ई. तक वहीं रहे।

(4.) बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी: अब सरकार तिलक को कारावास में ठूंसने का अवसर ढूँढने लगी। तिलक के समाचार पत्र केसरी में मुजफ्फरपुर बम्ब-काण्ड पर कुछ अग्रलेख प्रकाशित हुए थे जिनमें यह तर्क दिया गया था कि यदि स्वतन्त्रता के इच्छुकों से खुली सशस्त्र क्रान्ति सम्भव नहीं हो तो पराधीन जाति के सामने इसके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं बचता है कि बम आदि का प्रयोग करे। इन्हीं अग्रलेखों के आधार पर तिलक को बंदी बनाया गया। उनकी जमानत स्वीकार नहीं की गई और न उनको अपने बचाव में कुछ कहने का अवसर दिया गया। जज की सहायता के लिए एक जूरी बनाई बई जिसमें सात यूरोपियन और दो पारसी थे। तिलक ने अपने मुकदमे की स्वयं तैयारी की। उन्होंने अपने ऊपर लगाये गये अभियोगों का 21 घण्टे 10 मिनट तक तर्कसंगत भाषण द्वारा खण्डन किया परन्तु उनकी एक भी बात नहीं मानी गई और उन्हें 6 वर्ष का कारावास एवं एक हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।

(5.) देश में क्रांतिकारी आंदोलन का आरम्भ: तिलक को बंदी बनाये जाने के बाद भारत भर में उग्र आंदोलन एवं प्रदर्शन आरम्भ हो गये। अनेक स्थानों पर जन-साधारण ने पुलिस का सामना किया जिनमें 15 व्यक्ति मारे गये और 40 घायल हुए। जनता को इस आंदोलन से दूर करने के लिये सरकार ने दो नये कानून बनाये-

(अ.) एक्स्पलोजिव सब्सटैंसेज एक्ट: इस कानून के द्वारा विस्फोटक पदार्थों के लेन-देन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

(ब.) इन्साइटमेंट टू ऑफेन्सेज एक्ट: इस कानून के द्वारा सरकार ने राजद्रोह की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगा दी।

भारतीय जनता पर इन दोनों कानूनों का असर नहीं हुआ। पूरे देश में आंदोलन जोर पकड़ने लगा। अब सरकार किसी भी संस्था पर सन्देह होने से ही उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती थी। सरकार ने इस कानून का भरपूर दुरुपयोग किया। ढाका की अनुशीलन समिति, मैमनसिंह की सुहृद समिति, बारीसाल की स्वदेश बाँधव समिति आदि अनेक संस्थाएँ शान्ति पूर्वक एवं अंहिसात्मक विधि से कार्य कर रही थीं किंतु इन्हें असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। सरकार की इस दमनकारी नीति से देश के नवयुवकों का खून खौल उठा और उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग पकड़ा। उन्होंने सरकार से बदला लेने के लिए गुप्त रूप से बम बनाने आरम्भ कर दिये।

मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट 1909: ब्रिटिश सरकार ने एक तरफ तो उग्रवादियों को जेल में ठूंसने का मार्ग अपनाया तो दूसरी ओर उदारवादियों को सन्तुष्ट करने के लिए उनकी कुछ मांगें मान लीं। 1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधार इसी नीति के परिणाम थे। इन सुधारों के द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को स्थान दिया गया; प्रान्तों के गवर्नरों की कार्यकारिणी में भारतीयों की संख्या बढ़ाई गई; विधान सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। उन्हें बजट तथा अन्य विषयों पर बहस करने और प्रस्ताव रखने के अधिकार दिये गये। सरकार ने मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व दिया। नरम पंथी नेताओं ने इन सुधारों का स्वागत किया। गोखले की धारणा थी कि सरकार का यह कदम निःसन्देह उदार एवं उचित है। वे अनुरोध कर रहे थे कि जनता उनको स्वीकार करे और सरकार का अभिनन्दन करे। उग्रवादियों का कहना था कि ये सुधार भारतीयों को मूर्ख बनाने के लिए किये गए थे। कांग्रेस के 1910 ई. के इलाहाबाद अधिवेशन में उदारवादी नेताओं द्वारा भी मार्ले-मिण्टो सुधार की कड़ी आलोचना की गई तथा उसे हिन्दुओं एवं मुसलमानों में फूट डालने वाला एवं साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने वाला बताया गया।

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