चन्द्रवृषभ समारोह में बड़ी संख्या में दर्शकों की उपस्थिति होने से इसका आयोजन महालय के स्थायी पाण्डाल में नहीं होता। [1] अतः पशुपति महालय परिसर में वनस्पति की सहायता से अस्थायी वितान निर्मित किया जाता है। इस समय दर्शक-पाण्डाल नर-नारियों से पूरी तरह आप्लावित हो चुका है। फिर भी नर-नारियों का प्रवाह है कि पाण्डाल में आता ही चला जा रहा है। उनमें स्पर्धा है आगे बैठने की। दूर से वे देवी रोमा का नृत्य ढंग से नहीं देख पायेंगे। इस कारण शांतिप्रिय सैंधवों में भी विवाद हो रहा है। हर कोई अपने तर्कों से यह सिद्ध करने में जुटा हुआ है कि वही क्यों आगे बैठने का अधिकारी है। वातावरण में उमस के साथ-साथ विवाद, उत्तेजना और प्रतीक्षा के कारण दर्शकों के माथे पर स्वेद बिंदु छलक आये हैं।
वार्षिक समारोह के विशाल नृत्य-आयोजन हेतु पशुपति महालय के विशाल परिसर क्षेत्र में अस्थाई नृत्य मण्डप और पाण्डालों की रचना की गयी है। दर्शकों के बैठने की व्यवस्था तीन पाण्डालों में की गयी है। अति विशिष्ट दर्शकों के लिये नृत्य मण्डप के दक्षिण पार्श्व में तथा विशिष्ट जनों के लिये वाम पार्श्व में एक-एक लघु पाण्डाल बनाया गया है। सामान्य जन के लिये नृत्य मण्डप के ठीक सामने विशाल पाण्डाल की रचना की गयी है। प्रतिवर्ष ऐसा ही किये जाने की परम्परा है। पिछले कुछ वर्षों से अंतर आया है तो केवल इतना कि नृत्य-मण्डप तथा पाण्डालों के आकार प्रतिवर्ष बढ़ते ही जा रहे हैं। इस वर्ष नृत्यांगनाओं के लिये निर्मित ‘नृत्य-मण्डप’ की रचना कूर्माकृति[2] में तथा दर्शकों के लिये निर्मित पाण्डालों की रचना मत्स्याकृतियों[3] में की गयी है। ताकि दर्शक बिना किसी व्यवधान के नृत्य का आनंद ले सकें।
मण्डप और पाण्डालों की छतें वनस्पतियों के तनों, टहनियों और पत्तियों से निर्मित की गयी हैं ताकि एक साथ उपस्थित होने वाले विशाल जनसमुदाय के शरीरों से निकलने वाली ऊष्मा के कारण पाण्डालों में गर्मी न हो जाये तथा धूप और वर्षा से भी भली भांति बचाव हो सके। जन सामान्य के पाण्डाल में भूमि पर स्वच्छ मृदा बिछाई गयी है तथा विशिष्ट जनों के पाण्डालों में प्रस्तर एवं मृदा के कतिपय ऊँचे और समतल स्तूपों का निर्माण किया गया है। उन पर गिरिपुष्पक[4] का लेप किया गया है तथा ऊपर शुभ्र कर्पास से निर्मित विष्टर [5] बिछाये गये हैं। विशिष्ट जनों की सुविधा के लिये कोमल उपाधानों [6] का भी प्रबंध किया गया है ताकि वे थकान अनुभव करने पर सहारा ले सकें।
पाण्डाल में बेचैनी बढ़ती जा रही है। अभी जाने कितना विलम्ब और है नृत्य आरंभ होने में! बालकों को इस बीच भूख लग चली है और वे माताओं से आग्रह कर रहे हैं कि उन्हें खाने को दिया जाये। चतुर मातायें भुने हुए यव, इक्षुरस में पकाये हुए शालि [7] अपने साथ लेकर आई हैं। जिन्हें पाकर शिशु संतुष्ट हो रहे हैं। काफी देर से प्रतीक्षा करते रहने के कारण कुछ-कुछ भूख बड़ों को भी लग चली है। मंदिरों में अभिषेक पूर्ण होने के बाद जिसे जो कुछ शीघ्रता में मिल सका वही उदरस्थ [8] करके वह पाण्डाल की ओर दौड़ा चला आया है, इस आशंका में कि कहीं उसे पीछे न बैठना पड़े किंतु पर्याप्त शीघ्रता करने के उपरांत भी बहुत से नागरिकों को पीछे ही बैठने के लिये विवश होना पड़ा है।
जैसे ही सूर्य देव ने आकाश के ठीक मध्य में अपना स्थान ग्रहण किया, प्रधान पशुपति महालय के विशाल ताम्रघण्ट पर काष्ठ का प्रहार हुआ और मृदंग वादक मयाला ने मृदंग पर पहली थाप दी। उसी के साथ सहस्रों घुंघरू एक साथ झन्कृत हो उठे। ये सारे व्यापार इतनी शीघ्रता से और एक साथ हुए कि यह कहा नहीं जा सकता कि सूर्यदेव पहले मध्याकाश में अवस्थित हुए कि ताम्रघण्ट पर काष्ठ का प्रहार पहले हुआ कि मयाला ने मृदंग पर थाप पहले दी कि सहस्रों घुंघरू पहले झन्कृत हुए।
मयाला की लम्बी और पतली अंगुलियाँ विद्युत की गति से मृदंग पर आघात करती हैं। मृदंग का जादूगर है मयाला। [9] संगीत जैसे उसकी अंगुलियों में बसा है। अंगुलियों का स्पर्श हुआ नहीं कि मृदंग जैसे जीवित होकर बैठ जाती है-
थक्किट धिक्क्टि थोंक्क्टि नक्टि तथक्टि
धिद्धिक्क्टि थों थोंक्टि नंनाक्टि तत्ताथक्क्टि क्टिंक्टिं
द्धि द्ध धि कि ट क्टिक्टि। थों थों थों थों क्टि क्टि
कि कि नं नाँ नाँ क्टि क्टि क्टि। ततत्त तथक्क्टि किटक्टिक्टि।
मृदंग की ध्वनि सुनकर पाण्डाल में बैठे नर-नारियों में नवीन चेतना का संचार हुआ। रोते हुए बालक चुप हो गये। समझदार सतर्क होकर बैठ गये। विशिष्ट जनों ने अपनी नीरस चर्चाओं को बीच में ही विराम दे दिया और जन-सामान्य के पाण्डाल में स्थान को लेकर हो रहे विवाद थम गये।
विद्युत की सी चपल गति के साथ पशुपति महालय के विशाल प्रांगण में वार्षिकोत्सव का नृत्य आरंभ हुआ। [10] झांझ, मृदंग, शंख और नूपुरों की मिश्रित ध्वनियों से साम्य बैठाती हुई सैंकड़ों देवबालायें शुभ्र हंसिनियों की भांति पंक्तिबद्ध होकर महालय के विशाल आगार से निकलने लगीं। श्वेत कपर्दिकाओं एवं रजत आभूषणों से सजी देवबालायें सैंधव बालाओं की भांति नहीं अपितु देवांगनाओं अथवा गांधर्वियों की भांति शोभा पा रही हैं। उन्होंने अपनी क्षीण और रमणीय श्याम देहों पर शुभ्र कर्पास से बने दुकूल और कोमल अंगों पर उज्ज्वल रजत से निर्मित आभूषण धारण कर रखे हैं। उनके शीश पर पक्षियों के शुभ्र पंखों से निर्मित सींग सुशोभित हैं। [11]
नृत्यांगनाओं के श्वेत परिधान और विपुल वेग के कारण देखने वालों को भ्रम हुआ कि मुक्त गगन में क्रीड़ा करते हुए शुभ्र कपासी मेघ अचानक उड़ते हुए पाण्डाल में उतर आये हैं। क्षण भर को ऐसा भी आभास हुआ मानो सिंधु में क्रीड़ा करते श्वेत जल-कुक्कुटों के झुण्ड उड़ते हुए चले आ रहे हैं किंतु शीघ्र ही दर्शकों ने जान लिया कि ये न तो शुभ्र कपासी मेघ हैं और न जल-कुक्कुटों के झुण्ड, ये तो पशुपति महालय की नृत्यागंनायें हैं जिनकी प्रतीक्षा में वे घण्टों से यहाँ बैठे हैं।
इन शुभ्र वसना सैंधव-बालाओं ने मंच का एक वलय पूर्ण किया ही था कि विद्युत की तरह लहराती हुई नृत्यांगना रोमा मंच पर अवतरित हुईं। यदि दर्शक देख पाते तो देखते- यह नृत्यांगना रोमा नहीं, हंसिनियों के बीच स्वयं सौंदर्य ही देह धर आया है। रोमा के शीश, मस्तक, कर्ण, कण्ठ, कटि, बाहु, और करतल-पृष्ठों से लेकर जंघाओं और पैरों में पीत-अयस से निर्मित विविध आभूषण सुशोभित हैं। [12] उसके सुचिक्कण वर्तुलों, पुष्ट नितम्बों और क्षीण कटि के डमरू मध्य पर भी पीत-आभूषण आवेष्टित हैं जिनकी आभा से रोमा नृत्यांगनाओं के उस विशाल गुल्म में भी यदि दिखाई देती तो सरलता से अलग से पहचानी जा सकती किंतु यह कैसा चमत्कार है कि रोमा मंच पर नृत्यरत है और दर्शक उसकी उपस्थिति को अनुभव करते हुए भी उसे देख नहीं पा रहे।
सैंकड़ों नर-नारी रोमा को न देख पाने की उत्तेजना में अपने-अपने स्थान पर खड़े हो गये हैं। वे लाख प्रयास करते हैं किंतु उन्हें रोमा दिखाई नहीं दे रही। कहाँ है रोमा ? इनमें से कौनसी है रोमा ? कैसे पहचाना जा सकता है उसे ? इनमें से तो कोई भी नृत्यांगना मातृदेवी के वेश में दिखाई नही देती ? अधिकांश नर-नारी एक दूसरे से यही प्रश्न कर रहे हैं। कोई कह रहा है एक दिव्य दीप शिखा है जो श्वेत मेघों के मध्य तड़ित के सदृश्य प्रकट होती है और क्षण भर में विलुप्त हो जाती है, वही रोमा है। कोई कह रहा है कि श्वेत परिधानों से युक्त नृत्यांगनाओं के मध्य पीत अयस से विभूषित नृत्यांगना ही रोमा है। उनमें स्पृहा है रोमा को शीघ्र से शीघ्र देख लेने की।
रोमा! जो पशुपति महालय की मुख्य नृत्यांगना है। रोमा! जो सद्यः यौवना है। रोमा! जो कला की अधिष्ठात्री है। रोमा! जो नृत्यविधा में देवलोक की बहुविश्रुत अप्सराओं और अनजाने पर्वतीय प्रदेशों में नृत्यरत गांधर्वियों से अधिक निष्णात है। रोमा! जो सौंदर्य का उमड़ता हुआ सागर है। रोमा! जो युवा हृदयों की साम्राज्ञी है। रोमा! जो सैंधव प्रदेश का गौरव है। वही रोमा किंचित्-मात्र आभूषणों को धारण कर अपने सम्पूर्ण कला वैभव के साथ नृत्य मण्डप में उपस्थित है। नितांत निर्वसना! [13] मातृदेवी के वेश में।
तत् थई। धिक थई तत् थई।
झांझ, मृदंग शंख और नूपूरों की मिश्रित ध्वनियों के तीव्र होते जाने के साथ रोमा के अंगों में जैसे नवीन स्फुरण का संचार हो रहा है। सैंधव समुदाय विस्फरित नेत्रों से देख रहा है एक तड़ित् शिखा को जो पशुपति को नमन करती हुई इधर से उधर लहरा रही है।
जैसे-जैसे नृत्य आगे बढ़ रहा है, सैंधव समाज की बेचैनी और उत्तेजना में वृद्धि हो रही है। सामान्य और विशिष्ट समाज के साथ-साथ शिल्पी प्रतनु भी निराशा के पंक में उतरता सा चला जा रहा है। क्या यही देखने की अभिलाषा में कई शत योजन की यात्रा करके प्रतनु कालीबंगा से यहाँ तक सम्मोहित सा खिंचा चला आया है ?
पराजय सी अनुभव करता है वह अपने मन में। अपने समस्त तर्क उसे वायु में विलीन होते दिखाई देते हैं। क्या-क्या कहता रहा है वह कला से कल्पना और साक्षात् के सम्बन्ध के विषय में! यह कल्पना अथवा श्रद्धा का विषय नहीं है कि रोमा नृत्यमण्डप में नृत्यलीन है किंतु यह कैसा साक्षात है ? क्या इस साक्षात् के आधार पर प्रतनु अपनी शिल्पकला को चरम तक पहुँचाने में सफल हो सकेगा ? क्या इस साक्षात् का उत्कीर्णन वह अपने शिल्प में कर सकेगा ?
व्यक्ति सदैव यही सोचता आया है कि सत्य वही है जिसे वह अपने तर्कों से सिद्ध कर सकता है, जिसे वह दूसरों से मनवा सकता है। इसके विपरीत जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं जब सत्य उन समस्त तर्कों और मान्यताओं से आगे निकलकर खड़ा हो जाता है जिन्हें अपनी मेधा पर गर्व करने वाला, अपने तार्किक होने का दंभ रखने वाला व्यक्ति, अपने जैसे ही दूसरे व्यक्तियों को चमत्कृत करने के उद्देश्य से गढ़ता है। तभी उसे ज्ञात होता है कि अपने अनुकूल होने वाला तर्क ही सदैव सत्य के रूप में परिभाषित नहीं होता। जिस प्रकार कला ना-ना विधि प्रकट होकर भी अप्रकट ही रहती है वैसे ही सत्य भी बार-बार प्रकट होकर भी अप्रकट ही रहता है। ठीक ऐसे ही एक नवीन उद्घाटित सत्य से परिचय हो रहा है आज शिल्पी प्रतनु का। नृत्यांगना चक्षुओं के सामने नृत्यलीन है किंतु साक्षात नहीं होती।
अचानक दर्शकों के पाण्डाल में शोर उठा जिसे सुनकर प्रतनु अपने मन में से निकल कर बाहर आया। सहस्रों दृष्टियों को जैसे किसी माया से एक साथ बांध दिया गया हो। उन मायाबिद्ध दृष्टियों का अनुसरण करती हुई प्रतनु की दृष्टि भी नृत्य मण्डप तक पहुँची। प्रतनु के नेत्र खुले के खुले ही रह गये। उसने देखा- मयाला की अंगुलियाँ सम पर पहुँच कर विश्राम पा चुकी हैं और नृत्यांगना रोमा नत मस्तक हो सबका अभिवादन कर रही है। जहाँ सैंधव-समुदाय को संतोष की श्वांस लेनी चाहिये थी वहीं आकर सैंधव समुदाय श्वांस लेना भूला। सौंदर्य के सहस्रों समुद्र अपने एक-एक अंग में लिये खड़ी नृत्यांगना रोमा अभिवादन की मुद्रा में थी। उसके सुकोमल, सुचिक्कण, मनोहारी और रमणीय अंगों पर स्वेद धारायें फूट पड़ी थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो रोमा के अंगों के स्पर्श की अभिलाषा में ‘वरुण’ स्वेद के रूप में प्रकट हुआ है।
पशुपति को समर्पित इस अद्भुत नृत्यमयी स्तुति के पश्चात् रोमा और उसकी सखियों ने पारंपरिक चन्द्रवृषभ [14] नृत्य आरंभ किया। भूदेवी को गर्भवती बनाने वाले चन्द्रवृषभ की भूमिका में स्वयं किलात उपस्थित हुआ। अपने शीश पर बंधे दीर्घाकाय पशु-शृंग तथा पीठ पर बंधे सुकोमल कर्पास के ऊँचे कूबड़ को हिलाता हुआ वह अद्भुत तीव्रता से पद संचालन कर रहा था।
वाद्यों के साथ लय बैठाते हुए, अत्यंत लाघव के साथ उठते रोमा के पद, अनुपम लालित्य के साथ हंस-ग्रीवा के सदृश्य लहरातीं उसकी भुजायें और विविध मेखलाओं तथा नूपुरों से निकलती सुमधुर ध्वनियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो आज सैंधवों के इतिहास में कला के नवीन पृष्ठ रचे जा रहे हों। जिन्हें पढ़कर शताब्दियों-सहस्राब्दियों तक गौरवान्वित होते रहेंगे सैंधव वंशज।
उल्लास से नृत्यलीन मातृदेवी के गर्भाधान का दृश्य पूरे कौशल के साथ दर्शाया गया। चंद्र वृषभ ने अनुनय-विनय से मातृदेवी को प्रसन्न करना चाहा किंतु मातृदेवी ने उसका अनुरोध अस्वीकार कर दिया। चंद्रवृषभ ने मातृदेवी को ना-ना प्रकार के प्रलोभन दिये किंतु मातृदेवी ने उनकी ओर देखा तक नहीं। चंद्रवृषभ कुपित हुआ और मातृदेवी पर आघात करने दौड़ा किंतु मातृदेवी भयभीत नहीं हुई। अंत में चंद्रवृषभ अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हुआ और पशुपति के रूप में दिखाई दिया। मातृदेवी अपना समस्त गर्व त्यागकर पशुपति के सम्मुख विनीत हुई। पशुपति ने सृष्टि की रचना हेतु मातृदेवी को गर्भधारण होने का आदेश दिया जिसे मातृदेवी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पशुपति पुनः चंद्रवृषभ के स्वरूप में उपस्थित हुए। दोनों दिव्य शक्तियों ने अनन्त काल तक ना-ना प्रकार से रमण किया। अन्ततः मातृदेवी गर्भवती हुईं। कोटि-कोटि नदी-पर्वत, वनस्पति, पशु-पक्षी, सर्प-मत्स्य, मृग-सिंह, नर-नारी प्रकट हुए। मातृदेवी धन्य हो उठी।
सहस्रों नर नारियों के साथ प्रतनु की कामना भी पूरी हुई। हाँ! यही अभिलाषा लेकर तो आया था वह, सैंकड़ों योजन की यात्रा का कष्ट उठाकर। कला और सौंदर्य के इसी मिश्रण के दर्शन करना चाहता था वह। जिसे अपने शिल्प में उतार सके, एक-एक भाव भंगिमा के साथ।
चकित और सम्भ्रमित है सम्पूर्ण सैंधव समाज। रोमा की माता अलोला भी वर्षों तक इस उत्सव के अवसर पर नृत्य करती रही है और वही रोमा की नृत्य गुरु भी रही है किंतु स्वयं अलोला में यह बात कहाँ थी जो कला की इस अद्भुत अधिष्ठात्री में है।
[1] मोहेन-जो-दड़ो में विशाल स्नानागार के निकट 80 फुट लम्बा और 80 फुट चौड़ा एक भवन प्राप्त हुआ है। इस भवन की छत 20 स्तंभों के ऊपर टिकी थी। फर्श पर अनेक स्थानों पर चौकियां पड़ी थीं। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस भवन का उपयोग धर्म-चर्चा करने, हाट लगाने अथवा अन्य समारोह आदि सार्वजनिक कार्य के लिये किया जाता होगा।
[2] कछुए की आकृति।
[3] मछलियों की आकृतियाँ।
[4] बिटुमिन अथवा डामर। मोहेन-जोदड़ो के स्नानागार के तल में बिटुमिन का लेप लगा हुआ है।
[5] बिस्तर।
[6] तकियों।
[7] गन्ने का रस में पके हुए चावल
[8] पेट में डालकर
[9] मोहेन-जो-दड़ो की खुदाई में बांसुरी, तन्त्रीयुक्त वीणा तथा चमड़े से बनने बाले कई तरह के वाद्ययंत्र प्राप्त हुए हैं।
[10] हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा में समारोह का दृश्य है। मनुष्यों के झुण्ड के बीच में एक मनुष्य ढोल बजा रहा है। दूसरी मुद्रा में एक स्त्री ढोल को अपनी बगल में दबाये है। एक अन्य मुद्रा में एक मनुष्य ढोल बजा रहा है तथा उसके सम्मुख कुछ अन्य मनुष्य नृत्य कर रहे हैं। कहीं कहीं वीणा के चित्र भी मिले हैं।
[11] मोहेन-जो-दड़ो से मिली एक मूर्ति में मातृदेवी के सिर पर बत्तख बैठी हुई दिखाई गयी है। चहुन्दड़ो से प्राप्त कुछ मूर्तियों में स्त्रियों के सिर पर सींग दिखाये गये हैं जिन्हें वे अपने हाथ से पकड़े हुए हैं।
[12] विभिन्न स्थलों की खुदाई में प्राप्त सोने, चांदी, पीतल, ताम्बा आदि धातुओं के आभूषणों, गुरियों, मुद्राओं, खिलौनों और बर्तनों को देखने से प्रकट होता है कि सैन्धव स्वर्णकारों ने अपने काम में काफी निपुणता प्राप्त कर ली थी। मोहेन-जो-दड़ो में पीतल की बनी हुई नर्तकियाँ मिली हैं। वे हाथ में कड़े और गले में हँसुली पहने हुए हैं। सोने और चांदी का प्रयोग बहुधा आभूषण बनाने में हुआ है। कंठाहार, कड़े, भुजबंद, अंगूठियां, तथा माला में पिरोने की गुरियां मिली हैं।
[13] मोहेन-जोदड़ो से एक नर्तकी की मूर्ति मिली है। वह नग्न रूप में नृत्य कर रही है। नर्तकी के सिर का जूट दाहिने कन्धे पर लटका हुआ है। मूर्ति के हाथ और पैर आनुपातिक रूप से बड़े हैं। बायाँ पैर सामने की ओर झुका हुआ है और दाहिना हाथ दाहिनी कमर पर रखा हुआ है। बायाँ हाथ लटका हुआ है जिसमें कन्धे से कलाई तक चूडि़यों से आभूषित है। दाहिने हाथ में केवल दो चूडि़याँ कोहुनी से कुछ ऊपर हैं और दो चूडि़याँ कलाई पर हैं। पैर कुछ आगे की ओर बढ़े हुए हैं जिससे स्पष्ट होता है कि वह पैर से ताल दे रही है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह एक देवदासी की मूर्ति है।
[14] जिस-जिस क्षेत्र से अस्थि, हस्तिदंत, मिट्टी तथा पत्थर से निर्मित मातृदेवी की नग्न मूर्तियाँ मिली हैं, उस क्षेत्र से लम्बे घुमावदार सींगों से युक्त एक वृषभ सिर भी मिलता है। माना जाता है कि यह चन्द्र वृषभ का सिर है, जो भूदेवी को गर्भवती बनाता है तथा मरकर भी पुनर्जीवित हो उठता है।