ऋग्वेद में अयस नामक एक ही धातु का उल्लेख हुआ है। अथर्वेद में लाल-अयस तथा श्याम-अयस नामक दो धातुओं का उल्लेख है। वाजसनेयी संहिता में लौह तथा ताम्र शब्द प्राप्त होते हैं।
भारत में ताम्र-कांस्य काल के बाद लौह-काल आरम्भ हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार लौह-काल का आरम्भ उत्तर तथा दक्षिण में एक साथ नहीं हुआ। दक्षिण भारत में लोहे का प्रयोग उत्तर भारत की अपेक्षा काफी बाद में हुआ।
लोहे की खोज
विश्व में सर्वप्रथम ‘हित्ती’ नामक जाति ने लोहे का उपयोग करना आरम्भ किया जो एशिया माइनर में ई.पू.1800 से ई.पू.1200 के लगभग निवास करती थी। ई.पू.1200 के लगभग इस शक्तिशाली साम्राज्य का विघटन हुआ और उसके बाद ही भारत में लोहे का प्रयोग आरंभ हुआ।
भारत में लौह युग के जन्म-दाता
माना जाता है कि भारत में लौह-काल की शुरुआत करने वाले लोग पामीर पठार की ओर से आए थे और हिमालय से नीचे उतरकर दक्षिण-पश्चिम की ओर चलते-चलते महाराष्ट्र तक फैल गए। कुछ विद्वान इन्हीं को भारत में आने वाले प्रारम्भिक आर्य मानते हैं। उनके आने से पहले भारत में जो जातियाँ निवास कर रही थीं वे सैन्धव, द्रविड़, कोल, ब्रेचीफेलस, मुण्डा आदि आदिवासी जातियाँ थी। लौह संस्कृति को जन्म देने वाले आर्य भारत में जहाँ-जहाँ गए, अपने साथ लौह का ज्ञान ले गए जिससे सम्पूर्ण भारत में लौह संस्कृति की बस्तियां बस गईं। कालान्तर में ये आर्य, मध्य प्रदेश के वनों को पार करके बंगाल की ओर भी फैल गए।
मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन
मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने तथा उसकी सभ्यता एवं संस्कृति की उन्नति में अन्य किसी धातु से उतनी सहायता नहीं मिली जितनी लोहे से मिली है। लोहे के उपकरण कांस्य उपकरणों की अपेक्षा अधिक मजबूत सिद्ध हुए। लौह-काल में मनुष्य ने वैज्ञानिक विकास आरम्भ किया जिससे उसके जीवन में बड़े क्रान्तिकारी परिवर्तन होने लगे। प्रारंभिक लौह युगीन बस्तियों के अवशेष अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।
लौह युग का काल निर्धारण
विद्वानों की धारणा है कि उत्तर भारत में इसका प्रारम्भ ईसा से लगभग 1,000 वर्ष पूर्व हुआ होगा। ई.पू.800 में लोहे का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाने लगा। लौह उत्पादन की प्रक्रिया का ज्ञान भारत में बाहर से नहीं आया। कतिपय विद्वानों के अनुसार लौह उद्योग का प्रारम्भ, मालवा एवं बनास संस्कृतियों से हुआ। कर्नाटक के धारवार जिले से ई.पू.1000 के लोहे के अवशेष मिले हैं। लगभग इसी समय गांधार (अब पाकिस्तान में) क्षेत्र में लोहे का उपयोग होने लगा। मृतकों के साथ शवाधानों में गाढ़े गए लौह उपकरण भारी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। ऐसे औजार बलोचिस्तान में मिले हैं।
लगभग इसी काल में पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोहे का प्रयोग हुआ। खुदाई में तीर के नोंक, बरछे के फल आदि लौह-अस्त्र मिले हैं जिनका प्रयोग लगभग ई.पू.800 से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आमतौर पर होने लगा था। लोहे का उपयोग पहले, युद्ध में और बाद में कृषि में हुआ।
लोहे के साहित्यिक प्रमाण
भारत में लोहे की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए हमें साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों ही प्रमाण मिलते हैं। ऋग्वेद में अयस नामक धातु का उल्लेख हुआ है। कहा नहीं जा सकता कि अयस का आशय ताम्बे से है या लोहे से? अथर्ववेद में लौह आयस तथा श्याम-अयस नामक दो धातुओं का उल्लेख है। इनमें से लौह-अयस लोहा तथा श्याम-अयस ताम्बा अनुमानित होता है।
यूनानी साहित्य में उल्लेख मिलता है कि भारतीयों को सिकंदर के भारत आने से पहले से ही लोहे का ज्ञान था। भारत के कारीगर लोहे के उपकरण बनाने में निष्णात थे। उत्तर-वैदिक-काल के ग्रंथों में हमें इस धातु के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ई.पू. आठवीं शताब्दी में भारतीयों को लोहे का ज्ञान प्राप्त हो चुका था।
लोहे के पुरातात्विक प्रमाण
लोहे की प्राचीनता के सम्बन्ध में साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से होती है। अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, काम्पिल्य आदि स्थलों के उत्खननों में लौह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल का मानव एक विशेष प्रकार के मृद्भाण्डों का प्रयोग करता था जिन्हें चित्रित धूसर भाण्ड कहा गया है। इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण यथा तीर, भाला, खुरपी, चाकू, कटार, बसुली आदि मिलते हैं। अतरंजीखेड़ा की खुदाई से धातु शोधन करने वाली भट्टियों के अवशेष मिले हैं। इस संस्कृति का काल ई.पू.1000 माना गया है। पूर्वी भारत में सोनपुर, चिरांद आदि स्थानों पर की गई खुदाई में लोहे की बर्छियां, छैनी तथा कीलें आदि मिली हैं जिनका समय ई.पू.800 से ई.पू.700 माना गया है।
लौह कालीन प्रारंभिक बस्तियां
(1.) सिन्धु-गंगा विभाजक तथा ऊपरी गंगा घाटी क्षेत्र: चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति इस क्षेत्र की विशेषता है। अहिच्छत्र, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोह, काम्पिल्य, जखेड़ा आदि से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। चित्रित धूसर भाण्ड एक महीन चूर्ण से बने हुए हैं। ये चाक निर्मित हैं। इनमें अधिकांश प्याले और तश्तरियां हैं। मृद्भाण्डों का पृष्ठ भाग चिकना है तथा रंग धूसर से लेकर राख के रंग के बीच का है। इनके बाहरी तथा भीतरी तल काले और गहरे चॉकलेटी रंग से रंगे गए हैं।
खेती के उपकरणों में जखेड़ा में लोहे की बनी कुदाली तथा हंसिया प्राप्त हुई हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अन्य समस्त क्षेत्रों में लोहे की वस्तुएं मिली हैं। अतरंजीखेड़ा से लोहे की 135 वस्तुएं प्राप्त की गई हैं। हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा में उगाई जाने वाली फसलों के प्रमाण मिले हैं। हस्तिनापुर में केवल चावल और अजरंजीखेड़ा में गेहूँ और जौ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से प्राप्त पशुओं की हड्डियों में घोड़े की हड्डियां भी हैं।
(2.) मध्य भारत: मध्य भारत में नागदा तथा एरण इस सभ्यता के प्रमुख स्थल हैं। इस युग में इस क्षेत्र में काले भाण्ड प्रचलित थे। पुराने ताम्रपाषाण युगीन तत्त्व इस काल में भी प्रचलित रहे। इस स्तर से 112 प्रकार के सूक्ष्म पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। कुछ नए मृद्भाण्डों का भी इस युग में प्रचलन रहा। घर कच्ची ईंटों से बनते थे। ताम्बे का प्रयोग छोटी वस्तुओं के निर्माण तक सीमित था। नागदा से प्राप्त लोहे की वस्तुओं में दुधारी, छुरी, कुल्हाड़ी का खोल, चम्मच, चौड़े फलक वाली कुल्हाड़ी, अंगूठी, कील, तीर का सिरा, भाले का सिरा, चाकू, दरांती इत्यादि सम्मिलित हैं। एरण में लौहयुक्त स्तर की रेडियो कार्बन तिथियां निर्धारित की गई हैं जो ई.पू.100 से ई.पू.800 के बीच की हैं।
(3.) मध्य निम्न गंगा क्षेत्र: इस क्षेत्र के प्रमुख स्थल पाण्डु राजार ढिबि, महिषदल, चिरण्ड, सोनपुर आदि हैं। यह अवस्था पिछली ताम्र-पाषाण-कालीन अवस्था के क्रम में आती है, जिसमें काले-लाल मृद्भाण्ड देखने को मिलते हैं। लोहे का प्रयोग नई उपलब्धि है। महिषदल में लौहयुक्त स्तर पर सूक्ष्म पाषाण उपकरण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। यहाँ से धातु-मल के रूप में लोहे की स्थानीय ढलाई का प्रमाण मिलता है। महिषदल में लोहे की तिथि ई.पू.750 लगभग की है।
(4.) दक्षिण भारत: दक्षिण भारत में प्रारंभिक कृषक समुदायों की बस्तियां ई.पू.3000 में दिखाई देती हैं। यहाँ मानव के आखेट संग्रहण अर्थव्यवस्था से, खाद्योत्पादक अर्थव्यवस्था की ओर क्रमबद्ध विकास के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। यहाँ से प्राप्त साक्ष्य संकेत देते हैं कि उस काल में गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, पेनेरू तथा कावेरी नदियों के निकट मानव की बसावट हो चुकी थी। ये क्षेत्र शुष्क खेती तथा पशुचारण के लिए उपयुक्त थे।
इस युग में पत्थरों की कुल्हाड़ियों को घिसकर तथा चमकाकर तैयार किया गया था। इस युग का उद्योग, पत्थरों की कुल्हाड़ियों का उद्योग कहा जा सकता है। इन बस्तियों के लोग ज्वार-बाजरा की खेती करते थे। इन बस्तियों में सभ्यता के तीन चरण मिले हैं- प्रथम चरण (ई.पू.2500 से ई.पू.1800) में पत्थर की कुल्हाड़ियां मिलती हैं। द्वितीय चरण (ई.पू.1800 से ई.पू.1500) में ताम्र एवं कांस्य औजारों की प्राप्ति होती है। तृतीय चरण (ई.पू.1500 से ई.पू.1100) में इनका बाहुल्य दिखाई देता है तथा इसके बाद लौह निर्मित औजारों की प्राप्ति होती है।
दक्षिण भारत में नव-पाषाण-कालीन बस्तियां तथा ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियां, लौह युग के आरंभ होने तक अपना अस्तित्त्व बनाए रहीं। महाराष्ट्र में भी ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियां, लौह युग के आरंभ होने तक अपना अस्तित्त्व बनाए रहीं। ब्रह्मगिरि, पिक्लीहल, संगनाकल्लू, मास्की, हल्लूर, पोयमपल्ली आदि में भी ऐसी ही स्थिति थी।
दक्षिणी भारत में लौह युग का प्राचीनतम चरण पिक्लीहल तथा हल्लूर की खुदाई एवं ब्रह्मगिरि के शवाधानों के आधार पर निश्चित किया गया है। इन शवाधानों के गड्ढों में पहली बार लोहे की वस्तुएं, काले एवं लाल मृद्भाण्ड तथा फीके रंग के भूरे तथा लाल भाण्ड प्राप्त हुए हैं। ये मृदभाण्ड जोरवे के मृद्भाण्डों जैसे हैं। टेकवाड़ा (महाराष्ट्र) से भी ऐसे ही पाषाण प्राप्त हुए हैं। कुछ बस्तियों में पत्थरों की कुल्हाड़ियों एवं फलकों का प्रयोग, लौहकाल में भी होता रहा।
लौह युग का दक्षिण में प्रारंभ
कुछ विद्वानों की धारणा है कि भारत में लोहे का सर्वप्रथम प्रयोग दक्षिण भारत में हुआ किंतु यह धारणा सही प्रतीत नहीं होती। उत्तर भारत में मिली आर्य-बस्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि लोहे का प्रयोग दक्षिण की बजाय उत्तर भारत में पहले हुआ। विद्वानों की धारणा है कि लौह-काल के लोग पामीर पठार की ओर से आए थे और धीरे-धीरे महाराष्ट्र तक फैल गए। कालान्तर में मध्यप्रदेश के वनों को पार कर ये लोेग बंगाल की ओर चले गए।
दक्षिण में ताम्रकांस्य काल पर भ्रांति
प्रारंभिक खोजों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि दक्षिण में लौह संस्कृति का प्रारम्भ, पाषाण काल के बाद ही हो गया। दक्षिण में ताम्र-कांस्य काल नहीं आया। हमारी राय में यह कहना उचित नहीं है कि दक्षिण भारत में पाषाण काल के बाद सीधा ही लौह काल आ गया। दक्षिण भारत की कृषक बस्तियों के दूसरे चरण (ई.पू.1800 से ई.पू.1500) में ताम्र एवं कांस्य औजारों की प्राप्ति होती है। तृतीय चरण (ई.पू.1500 से ई.पू.1100) में इनका बाहुल्य दिखाई देता है तथा इसके बाद के काल में लौह निर्मित औजारों की प्राप्ति होती है। अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में ताम्र-कांस्य काल नहीं आया?