Monday, October 7, 2024
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अध्याय – 6 – सैन्धव सभ्यता, धर्म एवं समाज (ताम्रकांस्य कालीन सभ्यता एवं संस्कृति) (द)

शिक्षा

सैन्धववासी लिखना-पढ़ना जानते थे अतः अनुमान है कि उन्होंने शिक्षा देने का एक निश्चित तरीका विकसित कर लिया होगा। खुदाई में लकड़ी की कुछ तख्तियाँ मिली हैं। इन तख्तियों पर लकड़ी की कलमों से लिखा जाता था। खुदाई में बड़ी संख्या में प्राप्त खिलौने के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि बच्चों को प्रत्यक्ष ज्ञान उपलब्ध कराने में खिलौनों का प्रयोग किया जाता होगा। माप-तौल के निश्चित साधनों की उपस्थिति से अनुमान होता है कि बच्चों को अंकगणित की शिक्षा दी जाती थी।

खुदाई में प्राप्त बाटों की दशमलव ईकाइयों के आधार पर यह अनुमान भी है कि सैन्धववासी दशमलव पद्धति से परिचित थे। भवन और नगर निगम की निश्चित योजना से स्पष्ट है कि विद्यार्थयों को ज्यामिति के उच्च सिद्धान्तों की शिक्षा दी जाती थी। विद्वानों का माना है कि सैन्धववासियों को ज्योतिष के सिद्धान्तों की भी जानकारी रही होगी। घरों से गंदे पानी की निकासी की सुदृढ़ व्यवस्था से पता चलता है कि सैन्धववासी सार्वजिनक सफाई के प्रति सतर्क थे। वे रोगों से बचने का उपाय जानते थे और उन्हें चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान भी था। अतः बच्चों को अंकगणित, ज्यामिति, संगीत, नृत्य, चित्रकला, स्वच्छता एवं चिकित्सा आदि विषय पढ़ाए जाते होंगे।

लिपि

सैन्धव स्थलों से प्राप्त बर्तनों, मुद्राओं एवं ताम्रपत्रों पर अनेक प्रकार के लेख उत्कीर्ण हैं। ये लेख एक या दो पंक्तियों में हैं। इसलिए आधुनिक भाषा-विज्ञानी, इन लेखों को पढ़ने में सफल नहीं हो सके हैं। फिर भी सैन्धव लिपि में प्रयुक्त होने वाले कुछ संकेतों का पता लगा लिया गया है। हण्टर का मत है कि ये लेख चित्रलिपि में हैं। अतः सैन्धव-लिपि को चित्रात्मक लिपि मानना चाहिए। लिपि का प्रत्येक चित्र किसी विशेष शब्द अथवा वस्तु को प्रकट करता है।

विद्वानों ने अब तक 396 चिह्नों की सूची बनाई है। विद्वानों का माना है कि यह लिपि पहली पंक्ति में दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती थी और दूसरी पंक्ति बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती थी। इस प्रकार की लिखावट को ‘बॉस्ट्रोफेडोन’ (Boustrofedon) कहते हैं। पहचाने गए संकेतकों के आधार पर कहा जा सकता है कि सिंधु लिपि, अपनी समकालीन सुमेरिया और मिस्र की लिपियों की तुलना में अधिक उन्नत और परिष्कृत थी।

सैन्धव कलाएँ

सैन्धव स्थलों से प्राप्त दैनिक उपयोग की सामग्री एवं भवनावशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि सैंधव संस्कृति में विभिन्न कलाओं का विकास हो चुका था तथा कलाओं की दृष्टि से यह एक उन्नत संस्कृति थी। सैन्धववासी न केवल सुंदर नगरों की रचना करने में सफल हुए थे अपितु भवन निर्माण पद्धति से भी उन लोगों की कलाप्रियता की जानकारी मिलती है। वे मिट्टी एवं कांसे के बर्तन और मिट्टी, कांसे और पत्थरों से अनेक प्रकार की मूर्तियाँ बनाने में निष्णात थे। हड़प्पा से प्राप्त एक नर्तकी त्रिभ्ंगी मुद्रा में नृत्य करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ती है। यहाँ से प्राप्त दो पाषाण-प्रतिमाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।

इनमें से एक लाल पत्थर की खण्डित मानव-मूर्ति है जिसका सिर टूटा हुआ है किंतु धड़ सुरक्षित अवस्था में है। दूसरी प्रतिमा काले पत्थर से निर्मित एक नर्तक की है जिसने नृत्य-मुद्रा में अपना बायां पैर ऊपर उठा रखा है। एक अन्य खण्डित प्रतिमा किसी पुजारी या योगी की है जिसकी आँखें अधखुली हैं। पाषाण मूर्तियों में पशु-पक्षियों की अनेक मूर्तियाँ की मिली हैं। एक बैल मूर्ति उल्लेखनीय है जिसका मुख्य शरीर पत्थर से निर्मित है परन्तु सींग और कान किसी अन्य पदार्थ से बने हैं।

सैन्धव सभ्यता की मूर्तिकला के सम्बन्ध में जाँन मार्शल ने लिखा था- ‘सैन्धव धर्म और कला अद्भुत हैं और उन पर अपनी एक विशिष्ट छाप है। इस काल में हम अन्य देशों में कोई ऐसी वस्तु नहीं जानते जो शैली की दृष्टि से यहाँ बनी मूर्तियों से साम्य रखती हो …….. ये मूर्तियाँ इतनी सुन्दर हैं कि चौथी ईसा पूर्व कोई भी यूनानी कलाकार इनको अपनी कृति बताने में गौरव का अनुभव करेगा।’

सैन्धववासियों की चित्रकला की जानकारी मिट्टी के बर्तनों पर बने चित्रों से होती है। सैन्धववासी, रेखाओं और बिन्दुओं के माध्यम से बर्तनों पर हिरण, खरगोश, कौआ, बत्तख, गिलहरी, मोर, साँप, मछली आदि पशु-पक्षी और पीपल, नीम, खजूर आदि पेड़-पौधों के चित्र बनाते थे। अनेक बर्तनों पर मानव आकृतियाँ भी बनी हुई हैं। एक बर्तन पर मछुआरे का चित्र है जो बाँस पर जाल लटकाए जा रहा है और उसके पैरों के पास मछली और कछुए पड़े हैं। कुछ बर्तनों पर बने चित्र बड़े आकर्षक हैं और वास्तविक जान पड़ते हैं।

आर्थिक जीवन

सिन्धु घाटी में वर्तमान में लगभग 15 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है। इसलिए यह प्रदेश अधिक उपजाऊ नहीं है किंतु सिंधु सभ्यता के उत्खनन स्थलों को देखने से अनुमान होता है कि उस काल में यह प्रदेश अधिक उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकंदर का एक समकालीन इतिहासकार जानकारी देता है कि सिन्धु क्षेत्र उपजाऊ प्रदेश था।

इससे भी पहले के काल में सिन्धु प्रदेश में प्राकृतिक वनस्पति अधिक थी और इस कारण यहाँ वर्षा भी अधिक होती थी। इस कारण पूरे प्रदेश में घने जंगल थे जिनसे व्यापक स्तर पर जलाऊ लकड़ी प्राप्त की जाती थी। इस लकड़ी का उपयोग ईंटें पकाने, कृषि उपकरण बनाने, युद्ध के औजार बनाने तथा भवन बनाने में होता था।

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो जैसे विशाल तथा वैभवपूर्ण नगर जिस संस्कृति में विद्यमान थे वह निश्चय ही बड़ा सम्पन्न रहा होगा। चूँकि यह सभ्यता कृषि-प्रधान नहीं थी इसलिए यहाँ के निवासियों का आर्थिक जीवन प्रमुखतः व्यापार तथा उद्योग-धन्धों पर आधारित था। व्यापार तथा उद्योग उन्नत दशा में था। सिन्धु-वासियों का आर्थक जीवन औद्योगिक विशिष्टीकरण तथा स्थानीयकरण पर आधारित था। उनमें श्रम-विभाजन तथा संगठन की कल्पना की भी जा सकती है। एक प्रकार का व्यवसाय करने वाले लोग एक ही क्षेत्र में निवास करते थे। यदि इस सभ्यता को औद्योगिक सभ्यता कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हड़प्पा सभ्यता में निम्नलिखित व्यवसाय तथा उद्योग प्रचलित थे-

(1.) कृषि: सिन्धु सभ्यता के लोग सिंधु नदी में बाढ़ के उतर जाने पर नवंबर के महीने में बाढ़ के मैदानों में गेहूं और जौ बो देते थे और आगामी बाढ़ आने से पहले, अप्रेल के महिने में गेहूं और जौ की फसल काट लेते थे। इस क्षेत्र से कोई फावड़ा या फाल नहीं मिला है, परन्तु कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व अवस्था के जिन कूँडों की खोज हुई है, उनसे पता चलता है कि हड़प्पा-काल में राजस्थान के खेतों में हल जोते जाते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग सम्भवतः लकड़ी के हल का उपयोग करते थे।

इस हल को आदमी खींचते थे या बैल, इस बात का पता नहीं चलता। फसल काटने के लिए पत्थर के हँसियों का उपयोग होता होगा। गबरबंदों अथवा नालों को बांधों से घेरकर जलाशय बनाने की बिलोचिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में प्रथा रही है, परन्तु अनुमान होता है कि सिन्धु सभ्यता में नहरों से सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। हड़प्पा संस्कृति के गांव, जो प्रायः बाढ़ के मैदानों के समीप बसे होते थे, न केवल अपनी आवश्यकता के लिए अपितु नगरों में रहने वाले कारीगरों, व्यापारियों और दूसरे नागरिकों के लिए भी पर्याप्त अनाज पैदा करते थे।

सिन्धु सभ्यता के किसान गेहूँ, जौ, राई, मटर, आदि पैदा करते थे। वे दो किस्मों का गेहूँ और जौ उगाते थे। बनवाली से बढ़िया किस्म का जौ मिला है। वे तिल और सरसों भी पैदा करते थे। हड़प्पा-कालीन लोथल के लोग ई.पू.1800 में भी चावल का उपयोग करते थे। लोथल से चावल के अवशेष मिले हैं। मोहेनजोदड़ो, हड़प्पा और सम्भवतः कालीबंगा में भी विशाल धान्य कोठारों में अनाज जमा किया जाता था।

किसानों से सम्भवतः करों के रूप में यह अनाज प्राप्त किया जाता था और पारिश्रमिक के रूप में धान्य-कोठारों से श्रमिकों को वितरित होता था। यह बात हम मेसोपोटामिया के नगरों के सादृश्य के आधार पर कह सकते हैं जहाँ पारिश्रमिक का भुगतान जौ के रूप में होता था। सिन्धु सभ्यता के लोग कपास पैदा करने वाले सबसे पुराने लोगों में से थे। इसीलिए यूनानियों ने कपास को सिंडोन नाम दिया जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध शब्द से हुई है।

(2.) शिकार: सिन्धु-घाटी के लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी थे। वे मांस, मछली तथा अंडे आदि का प्रयोग करते थे। मांस प्राप्त करने के लिए वे पशुओं का शिकार करते थे। पशुओं के बाल, खाल तथा हड्डी से भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

(3.) पशुपालन: सिन्धु सभ्यता के लोग खेती करने के साथ-साथ बड़ी संख्या में पशु पालते थे। खुदाई से प्राप्त मुहरों पर पशुओं के चित्र मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, कुत्ता और सूअर उनके पालतू पशु थे। सिन्धुवासियों को बड़े कूबड़ वाला सांड विशेष रूप से पसंद था। आरम्भ से ही कुत्ते दुलारे पशु थे। बिल्ल्यिों को भी पालतू बना लिया गया था। कुत्ता और बिल्ली, दोनों के पैरों के निशान मिले हैं। बैलों और गधों का उपयोग भारवहन के लिए होता था। आश्चर्य की बात है कि खुदाई में ऊँट की हड्डियाँ नहीं मिली हैं। घोड़े के अस्तित्त्व के बारे में भी केवल तीन प्रमाण मिले हैं।

मोहेनजोदड़ो की एक ऊपरी सतह से और लोथल से एक-एक संदिग्ध लघु मूण्मूर्ति मिली है जिसे घोड़े की मूर्ति कहा जा सकता है। घोड़े के अवशेष, जो ई.पू.2000 के आसपास के हैं, गुजरात के सुरकोटड़ा नामक स्थान से मिले हैं। अनुमान होता है कि हड़प्पा-काल में ऊँट तथा घोड़े का उपयोग आम तौर पर नहीं होता था। हड़प्पा संस्कृति के लोग हाथी तथा गेंडे से भली-भांति परिचित थे।

मेसोपोटामिया के समकालीन सुमेर सभ्यता के नगरों के लोग भी प्रायः सिन्धु प्रदेश जैसे ही अनाज पैदा करते थे और उनके पालतू पशु भी प्रायः वही थे जो हड़प्पा संस्कृति वालों के थे परन्तु गुजरात में बसे हुए हड़प्पा संस्कृति के लोग चावल पैदा करते थे और पालतू हाथी भी रखते थे। मेसोपोटामिया के नगरवासियों के लिए ये दोनों बातें सम्भव नहीं थी।

(4.) शिल्प तथा व्यवसाय: हड़प्पा संस्कृति कांस्य-युग की है। हड़प्पा सभ्यता का मानव कुशल शिल्पी तथा व्यवसायी था। वह पत्थर के अनेक प्रकार के औजारों का उपयोग करता था तथा कांस्य-निर्माण से भी भली-भांति परिचित थे। धातुकर्मी तांबे के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार करते थे। चूँकि हड़प्पावासियों के लिए ये दोनों धातुएं सुलभ नहीं थीं। इसलिए हड़प्पा में कांस्य-वस्तुओं का निर्माण बड़े पैमाने पर नहीं हुआ।

तांबा राजस्थान में खेतड़ी की खानों तथा बिलोचिस्तान से मंगाया जाता होगा। टिन बड़ी कठिनाई से सम्भवतः अफगानिस्तान से प्राप्त किया जाता था। टिन की कुछ पुरानी खदानें बिहार के हजारी बाग में मिली हैं। हड़प्पा संस्कृति के स्थलों से मिले कांसे के औजारों और हथियारों में टिन का अनुपात कम है। फिर भी इस सभ्यता से बहुत सारी कांस्य वस्तुएँ मिली हैं, जिनसे स्पष्ट है कि हड़प्पा समाज के कारीगरों में कसेरों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उन्होंने मूर्तियाँ और बर्तन ही नहीं, विविध प्रकार की कुल्हाड़ियां, आरियां, छुरे और भाले आदि हथियार भी बनाए।

सैन्धव सभ्यता में कई शिल्पों का विकास हुआ। मोहेनजोदड़ो से बुने हुए सूती कपड़़े का एक टुकड़़ा मिला है और कई वस्तुओं पर कपड़़े के छापे देखने को मिले हैं। कताई के लिए तकलियों का उपयोग होता था। बुनकर सूती और ऊनी कपड़़ा बुनते थे। ईटों की विशाल ईमारतों से ज्ञात होता है कि राजगीरी एक महत्त्वपूर्ण कौशल था। इनसे राजगीरों के एक वर्ग के अस्तित्त्व की भी सूचना मिलती है। हड़प्पा संस्कृति के लोग नौकाएं बनाना जानते थे। मुहरें और मृण्मूर्तियाँ बनाना महत्त्वपूर्ण शिल्प-व्यवसाय थे।

सुनार, चांदी, सोना और कीमती पत्थरों के आभूषण बनाते थे। चांदी और सोना अफगानिस्तान से आता होगा और कीमती पत्थर दक्षिणी भारत से। हड़प्पा संस्कृति के कारीगर मणियों के निर्माण में भी निपुण थे। कुम्हार के चाक का खूब उपयोग होता था। उनके मिट्टी के बर्तनों की अपनी विशेषता थी। बर्तनों को चिकना और चमकीला बनाया जाता था। उन पर चित्रकारी की जाती थी। हाथी-दाँत की भी विभिन्न वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

(5) व्यापार: हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की खुदाइयों में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जो सिन्धु घाटी में नहीं होती थीं। अतः यह अनुमान लगाया गया है कि ये वस्तुएँ बाहर से मंगाई जाती थीं और इन लोगों का विदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। सोना, चांदी, ताम्बा आदि सिन्धु-प्रदेश में नहीं मिलता था। इन धातुओं को ये लोग अफगानिस्तान तथा ईरान से प्राप्त करते थे। यहाँ के निवासी सम्भवतः ताम्बा राजपूताना से, सीपी, शंख आदि काठियावाड़ से और देवदारु की लकड़ी हिमालय पर्वत से प्राप्त करते थे।

हड़प्पा संस्कृति का मानव धातु की मुद्राओं का उपयोग नहीं करता था। सम्भव है कि व्यापार वस्तु-विनिमय से चलता हो। निर्मित वस्तुओं और सम्भवतः अनाज के बदले में वह पड़ोसी प्रदेशों से धातुएं प्राप्त करता था और उन्हें नौकाओं तथा बैलगाड़ियों से ढोकर लाता था। अरब सागर में तट के पास उनकी नौकाएं चलती थीं। वह पहिए का उपयोग जानता था। बैलगाड़ियों के पहिए ठोस होते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग आधुनिक इक्के जैसे वाहन का उपयोग करते थे।

इन लोगों के राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के, दजला तथा फरात प्रदेश के नगरों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिन्धु सभ्यता की कुछ मुहरें मेसोपोटामिया के नगरों से मिली हैं। अनुमान होता है कि मेसोपोटामिया के नगर-निवासियों द्वारा प्रयुक्त कुछ शृंगार साधनों को हड़प्पा वासियों ने अपनाया था। लगभग ई.पू.2350 से आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मैलुह्ह के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। यह सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम था।

(6) नाप तथा तौल: खुदाई में बड़ी संख्या में बाट मिले हैं। कुछ बाट इतने बड़े हैं कि वे रस्सी से उठाये जाते होंगे और कुछ इतने छोटे हैं कि उनका प्रयोग जौहरी करते होंगे। अधिकांश बाट घनाकार हैं। लम्बाई नापने के लिए फुट होता था। मोहेनजोदड़ो की खुदाई में सीपी का बना हुआ एक फुट के बराबर माप का टुकड़ा मिला है। कांसे की बनी एक शलाका पर छोटे-छोटे निशान अंकित हैं, यह फुट प्रतीत होता है। तौलने के लिए तराजू का प्रयोग होता था।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम देखते हैं कि सैन्धव सभ्यता और संस्कृति पर धर्म, कला एवं शिक्षा का विपुल प्रभाव था। जीवन का कोई अंग शायद ही इन पक्षों से अछूता था। सैन्धव सामाज में पुरोहित, शासक, व्यापारी, श्रमिक और कृषक रहते थे जो अलग-अलग कार्य करके सामाजिक विन्यास की रचना करते थे। सैन्धव सभ्यता के लोग सुसभ्य और सांस्कृतिक थे। उनके रहन-सहन का ढंग आधुनिक हिन्दू समाज की तरह काफी उन्नत था तथा समकालीन संस्कृतियों से काफी आगे था। भारतीय आर्यों ने सैंधव संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। यही कारण है कि आज के हिन्दू-धर्म पर सैन्धव संस्कृति का व्यापक प्रभाव है। सैंधव वासियों का आर्थिक जीवन भी पर्याप्त विकसित था। ईसा से लगभग 1500 वर्ष पहले इस संस्कृति का विलोपन हो गया।

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