तुगलकों के काल में दिल्ली सल्तनत अपने चरम-विस्तार को प्राप्त कर गई। तुगलक वंश के दूसरे सुल्तान अर्थात् मुहम्मद बिन तुगलक ने भी अनेक हिन्दू राजाओं का राज्य नष्ट करके अपने राज्य का विस्तार किया।
उस काल में हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में नगरकोट नामक एक प्रसिद्ध राज्य था जिस पर एक प्राचीन हिन्दू राजवंश शासन करता था। इस राजवंश को कटोच राजवंश कहा जाता था तथा यहाँ के शासक महाभारत कालीन सु-सरमन नामक एक योद्धा को अपना पूर्वज मानते थे।
किसी समय यह राज्य सतलज एवं रावी नदियों के बीच फैला हुआ था किंतु विगत लगभग डेढ़ सौ वर्षों में मुस्लिम सल्तनत का विस्तार हो जाने से यह राज्य केवल कांगड़ा की पहाड़ियों तक सीमित रह गया था।
नगरकोट में देवी वज्रेश्वरी का एक प्राचीन शक्तिपीठ था जिसमें भारत भर के हिन्दू अपार श्रद्धा रखते थे।
किसी समय महमूद गजनवी इसी शक्तिपीठ से अपार सम्पत्ति ऊंटों, हाथियों एवं घोड़ों की पीठ पर लादकर अफगानिस्तान ले गया था। अंग्रेज इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है कि नगरकोट की लूट में महमूद को इतना धन मिला था कि सारी दुनिया भारत की अपार धनराशि को देखने के लिये चल पड़ी।
गुलाम वंश के सबसे ताकतवर सुल्तान बलबन ने भी इस दुर्ग पर आक्रमण किया था किंतु वह युद्ध जीतकर भी कटोचों की स्वतंत्रता को भंग नहीं कर सका था।
नगरकोट के शक्तिपीठ से लगभग दो किलोमीटर दूर एक ऊंची पहाड़ी पर कटोचों का किला बना हुआ था जिसके तीन तरफ विशाल और गहरी नदी बहती थी। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में स्थित होने के कारण नगरकोट का दुर्ग अभेद्य समझा जाता था।
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इस क्षेत्र में न तो पैदल सिपाही जा सकते थे, न घोड़े आसानी से चल सकते थे, न ऊंट और हाथी जा सकते थे, केवल खच्चरों और टट्टुओं की सहायता से ही इस क्षेत्र में युद्ध एवं रसद सामग्री ढोई जा सकती थी।
इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को पार करके नगरकोट तक पहुंच पाना एक बेहद खर्चीला अभियान था। मुस्लिम सैनिक इस क्षेत्र में जाने से डरते थे। इसलिए सुल्तान ने सैनिकों को बहुत सारा धन देकर नगरकोट पर आक्रमण करने के लिए तैयार किया।
ई.1337 में मुहम्मद बिन तुगलक ने एक लाख सैनिकों के साथ नगरकोट के किले पर आक्रमण कर दिया कटोच राजा पृथ्वीचन्द्र ने मुस्लिम सेनाओं का बहादुरी से सामना किया किंतु एक लाख शत्रु सैनिकों के समक्ष उसकी छोटी से सेना अधिक समय तक नहीं टिक सकती। थी।
दूसरी ओर सुल्तान के एक लाख सैनिक इस बीहड़ वन में, बिना पर्याप्त रसद सामग्री के अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते थे। अतः दोनों पक्षों में संधि के प्रयास आरम्भ हुए। कहा नहीं जा सकता कि संधि की पहल किसने की!
उस काल में हुए लेखक बद्रे चाच ने इस युद्ध का वर्णन किया है जिसके अनुसार सुल्तान ने राय पृथ्वीचंद्र पर विजय प्राप्त कर ली परन्तु वह इस बात का उल्लेख नहीं करता कि यदि सुल्तान ने विजय हासिल की थी तो यह दुर्ग राजपूतों के हाथों में कैसे रहा!
निश्चित रूप से किसी सम्मानजनक संधि के तहत ही ऐसा होना संभव है। मुहम्मद बिन तुगलक के दिल्ली लौटते ही कटोचों ने वह संधि भंग कर दी और सुल्तान के सैनिकों को आसपास के क्षेत्र से मार भगाया और वे दिल्ली सल्तनत की चौकियों पर धावे मारने लगे।
यही कारण था कि मुहम्मद बिन तुगलक का इस पूरे क्षेत्र से अधिकार समाप्त हो गया।
इस प्रकार अपार धनराशि व्यय करके भी मुहम्मद बिन तुगलक को किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली। न दुर्ग हाथ आया और न नगरकोट से कोई बड़ी राशि हाथ लगी। मुहम्मद की असफलताओं के इतिहास में एक अध्याय और जुड़ गया। अगली कड़ी में देखिए- मुहम्मद बिन तुगलक ने ईरान, तिब्बत तथा चीन में स्थित राज्यों को जीतने के सपने देखे!
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