नगरकोट अभियान के बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने खुरासान विजय की योजना बनाई। उसके दरबार में उन दिनों कुछ खुरासानी अमीर भी रहते थे जिन्होंने सुल्तान को खुरासान की दयनीय राजनीतिक स्थिति की जानकारी दी तथा उसे खुरासान पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
खुरासान फारस के शाह के अधीन एक पहाड़ी राज्य था। उन दिनों फारस में अबू सईद नामक अल्पवयस्क एवं दुराचारी शाह शासन कर रहा था। उसके अमीर एवं वजीर उससे असन्तुष्ट थे तथा उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा करते थे।
शाह अबू सईद का संरक्षक अमीर चौगन, फारस के शाह को हटाकर उसका राज्य छीनने का प्रयास कर रहा था। इसलिए अबू सईद ने चौगन की हत्या करवा दी और चौगन के पुत्र अपने पिता की हत्या का बदला लेने का अवसर ढूँढने लगे।
उन दिनों खुरासान प्रान्त में भी गड़बड़ी फैली हुई थी और वहाँ का शासक भी फारस के शाह से अपना पीछा छुड़ाना चाहता था। उसने अपने अमीरों के माध्यम से मुहम्मद बिन तुगलक से कहलवाया कि वह खुरासान पर दिल्ली की सेना का अधिकार करवा देगा।
इन परिस्थितियों में मुहम्मद बिन तुगलक के लिए खुरासान विजय की योजना बनाना स्वाभाविक ही था। मुहम्मद बिन तुगलक ने इस अभियान के लिए एक लाख नए सैनिकों की भर्ती की तथा उन्हें एक वर्ष का अग्रिम वेतन दिया।
जब ईरान के शाह को मुहम्मद बिन तुगलक की तैयारियों के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने मिस्र के शासक से मैत्री कर ली ताकि दिल्ली की सेनाओं का आक्रमण होने पर मिस्र से सैन्य सहायता मंगवाई जा सके। दिल्ली के मुल्ला-मौलवियों ने भी शोर मचाना शुरु कर दिया था कि सुल्तान को काफिरों के देश जीतने चाहिए, उसे अपने ही सहधर्मियों से युद्ध करके सैनिक शक्ति व्यर्थ नहीं करनी चाहिए।
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मुहम्मद बिन तुगलक को भी अब तक समझ में आ चुका था कि हिन्दूकुश पर्वत के उस पार सेना तथा रसद भेजना आसान काम नहीं था।
इसलिए सुल्तान ने खुरासान विजय की योजना को त्याग दिया और अपना ध्यान हिमाचल से लेकर तिब्बत एवं चीन की तरफ के क्षेत्रों में स्थित हिन्दू राज्यों पर केन्द्रित किया।
अब मुहम्मद बिन तुगलक ने भारत एवं चीन के बीच स्थित कराजल को अपने नए लक्ष्य के रूप में चुना। कराजल को करांचल तथा कूमेचिल भी कहा जाता था तथा अब कुमायूं-गढ़वाल के नाम से जाना जाता है। उस समय चंद्रवंशी राजा त्रिलोकचंद कराजल का शासक था।
मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन उलेमा जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि सुल्तान ने कराजल के पर्वतीय प्रदेश पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई ताकि वह खुरासान पर सरलता से विजय प्राप्त कर सके परन्तु कराजल खुरासान के मार्ग में नहीं पड़ता, अतः बरनी का मत अमान्य है।
मुस्लिम लेखक हजीउद्दबीर का कहना है चूंकि कराजल की स्त्रियाँ अपने रूप तथा गुणों के लिए प्रसिद्ध थीं, इसलिये मुहम्मद बिन तुगलक उनसे विवाह करके उन्हें अपने रनिवास में लाना चाहता था।
हजीउद्दबीर का मत भी अमान्य है क्योंकि मुहम्मद बिन तुगलक का निजी आचरण बड़ा पवित्र था। विदेशी लेखक इब्नबतूता का कहना है कि चीन ने इन हिंदू राज्यों में घुसपैठ की थी इसलिए सुल्तान ने खुसरो मलिक को सीमावर्ती हिंदू राज्यों पर अधिकार करने के लिए भेजा। ताकि चीन की ओर से होने वाली विदेशी घुसपैठ को रोका जा सके।
मुगल कालीन इतिहासकार फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने चीन के धन को लूटने के लिए यह योजना बनाई। यह मत भी आधुनिक इतिहासकारों द्वारा अमान्य कर दिया गया है।
ई.1338 में खुसरो मलिक की सेना ने पर्वत की तलहटी में स्थित जिद्या नामक नगर पर आक्रमण किया तथा उसे जलाकर राख कर दिया।
राजा त्रिलोकचंद की मुट्ठी भर सेना, एक लाख मुस्लिम सैनिकों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं थी। इसलिए वह गहन पर्वतीय क्षेत्र में छिपकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगी।
जिद्या पर मुहम्मद बिन तुगलक की पताका फहराने लगी। शाही सेना की जीत की सूचना मिलने पर पर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने मुस्लिम सेना को पुनः दिल्ली लौटने का आदेश भिजवाया परन्तु खुसरो मलिक ने सुल्तान का आदेश नहीं माना और तिब्बत की ओर बढ़ गया।
करांजल पहुंचने से पहले ही अमीर खुसरो की सेना को भारी बरसात ने घेर लिया। पहाड़ी नालों और झरनों ने आगे बढ़ने और पीछे लौटने के सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिए।
कुछ ही दिनों में मुस्लिम सेना की रसद सामग्री भी समाप्त हो गई तथा अधिक वर्षा के कारण, दिल्ली से आ रही रसद मार्ग में ही रुक गई।
अब राजा त्रिलोकचंद की सेना ने मोर्चा संभाला और पहाड़ों से निकलकर खुसरो मलिक की सेना पर आक्रमण करने लगी। स्थानीय लोगों ने भी अपने राजा का साथ दिया। उन्होंने शाही सेना पर ईंटों तथा पत्थरों की बरसात कर दी।
शाही सैनिक पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ थे। उन्हें पर्वतीय क्षेत्रों में युद्घ करने का कोई अनुभव भी नही था। इस कारण उनकी स्थिति पिंजरे में बंद चूहे जैसी हो गई।
देखते ही देखते मुस्लिम सैनिकों के शव पहाड़ों पर गिरने लगे और कुछ ही समय में एक लाख कब्रें खुले आसमान के नीचे बन गयीं।
बरनी का कथन है कि एक लाख की विशाल शाही सेना में से मात्र दस लोग ही बचकर दिल्ली पहुंचे। जबकि इब्नबतूता ने बचे हुए सैनिकों की संख्या मात्र तीन बताई है।
कुछ इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक की इस योजना की भी बड़ी आलोचना की है और उसे पागल कहा है परन्तु इसमें पागलपन की कोई बात नहीं थी।
ऐसे पर्वतीय प्रदेश में धन तथा जन की क्षति होना स्वाभाविक था। आगे चलकर मुगलों ने भी ऐसे बड़े अभियान किए। अंग्रेजों को भी नेपाल विजय करने में बड़ी क्षति उठानी पड़ी थी।
अगली कड़ी में देखिए- सुल्तान ने अपने चचेरे भाई के टुकड़े करके चावल में पकवाए!