गौस उल आजम का एक शिष्य था मोईनुद्दीन, जिसका जन्म फारस में हुआ था। ई.1186 में मोइनुद्दीन को अपने गुरु का उत्तराधिकारी चुना गया। उन दिनों अफगानिस्तान में इस्लाम धर्म का प्रचार नहीं था। अतः गौस उल आजम ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि वे अफगानिस्तान में जाकर इस्लाम का प्रचार करें। सूफियों की एक बहुत बड़ी-विशेषता थी- ये जहाँ भी जाते वहाँ की संस्कृति, भाषा, खान-पान, रीति रिवाज और सामाजिक परम्पराओं को अपना लेते थे। वे शीघ्र ही पूरे अफगानिस्तान में फैल गये और वहाँ से भारत में आ गये। इनमें से मोइनुद्दीन भी एक थे। ई.1191 में मोइनुद्दीन अजमेर आये। उन्होंने फारसी या अरबी में धर्मोपदेश करने के स्थान पर ब्रजभाषा को अपनाया तथा ईश्वर की आराधना में हिन्दू तौर-तरीकों को भी जोड़ लिया। उन्होंने ब्रजभाषा में कव्वाली गाने की प्रथा आरम्भ की।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने गौर साम्राज्य की अंतिम सीमा पर स्थित अजमेर को अपना स्थाई निवास बनाया। मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रारम्भिक जीवन विषयक प्रामाणिक सूचनाओं का प्रायः अभाव है। खैरुल मजलिस जैसे ग्रंथों में भी उनसे सम्बन्धित सूचनाएं नहीं हैं। जमाली द्वारा रचित मियारुल-अरिफिन में ख्वाजा से सम्बन्धित उन आख्यानों एवं वार्ताओं का संग्रह है जो ईरान तथा भारत में लोकप्रिय थीं। इसके अनुसार उनका जन्म सीस्तान में हुआ था और उनके पिता का नाम ख्वाजा गियासुद्दीन हसन था। वे समरकन्द, बुखारा, हरवान (निशापुर के निकट), बगदाद, अस्तराबाद, हेरात, बल्ख, गजना आदि का भ्रमण तथा ज्ञानोपलब्धि करते हुए लाहौर पहुँचे। वहाँ से दिल्ली होते हुए अजमेर पहुँचे। आरंभ में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किंतु अंततः उन्हें सर्वसाधारण से आदर, श्रद्धा, प्रेम और समर्पण प्राप्त हुआ।
ख्वाजा के जीवन से सम्बन्धित मलफजातों में उनकी अलौकिक तथा आध्यात्मिक उपलब्धियों के विवरण प्राप्त होते हैं। उनसे स्पष्ट होता है कि ख्वाजा अपने जीवन काल में ही दिव्य चरित्र सम्बन्धी आख्यानों के केन्द्र बन गये थे। शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुसार अजमेर नरेश तथा उनके कर्मचारियों ने ख्वाजा के अजमेर प्रवास को स्वयं के लिये तथा राज्य के लिये अनिष्टकारी मानते हुए उन्हें कष्ट देने का प्रयास किया किंतु ख्वाजा की चमत्कारी और अलौकिक शक्ति के फलस्वरूप अंततः पृथ्वीराज चौहान (राय पिथौरा) को मुईजुद्दीन मुहम्मद के हाथों पराजित एवं अपमानित होना पड़ा।
मोइनुद्दीन चिश्ती की शिक्षाएँ
ख्वाजा की चमत्कारिक शक्तियों तथा उनके द्वारा सम्पादित लोक कल्याणकारी कार्यों के प्रभावानुसार शताब्दियों तक उनके प्रति लोगों में श्रद्धावर्द्धन होता रहा। वे संसार में गरीब नवाज के नाम से जाने जाते हैं। मोइनुद्दीन चिश्ती के अनुसार चार वस्तुएं उत्तम होती हैं- प्रथम, वह दरवेश जो अपने आप को दौलतमंद जाहिर करे। द्वितीय वह भूखा, जो अपने आप को तृप्त प्रकट करे। तृतीय वह दुखी जो अपने आप को प्रसन्न दिखाये और चतुर्थ, वह व्यक्ति जिसे शत्रु भी मित्र परिलक्षित हो।
एक अनुश्रुति के अनुसार एक बार एक दरवेश ने ख्वाजा से एक अच्छे संत (फकीर) के गुणों पर प्रकाश डालने के लिये विनय की। ख्वाजा का मत था कि शरिया के अनुसार पूर्ण विरक्त व्यक्ति अल्लाह के निर्देशों का पालन करता है और उसके द्वारा निषिद्ध कार्य नहीं करता। तरीका एक सच्चे दरवेश के लिये नौ करणीय कार्यों का विवरण देता है। जब ख्वाजा से इन नौ शर्तों की व्याख्या करने की प्रार्थन की तो उन्होंने अपने शिष्य हमीदुद्दीन नागौरी को इनकी व्याख्या करने और सभी के ज्ञान के लिये इन्हें लिपिबद्ध करने की आज्ञा दी। शेख हमीदुद्दीन ने सन्यासी जीवन के लिये आवश्यक नौ शर्तों का वर्णन इस प्रकार किया है-
1. किसी को धन नहीं कमाना चाहिये।
2. किसी को किसी से धन उधार नहीं लेना चाहिये।
3. सात दिन बीतने पर भी यदि किसी ने कुछ नहीं खाया है तो भी इसे न तो किसी को बताना चाहिये और न किसी से कोई सहायता लेनी चाहिये।
4. यदि किसी के पास प्रभूत मात्रा में भोजन, वस्त्र, रुपये या खाद्यान्न हो तो उसे दूसरे दिन तक भी नहीं रखना चाहिये।
5. किसी को बुरी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि किसी ने कष्ट दिया हो तो उसे (कष्ट पाने वाले को) अल्लाह से प्रार्थना करनी चाहिये कि उसके शत्रु को सन्मार्ग दिखाये।
6. यदि कोई अच्छा कार्य करता है तो यह समझना चाहिये कि यह उसके पीर की कृपा है अथवा यह काई दैवी कृपा है।
7. यदि कोई बुरे काम करता है तो उसे उसके लिये स्वयं को दोषी मानना चाहिये और उसे अल्लाह का खौफ होना चाहिये। भविष्य में बुराई से बचना चाहिये। अल्लाह से खौफ करते हुए उसे बुरे कामों की पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिये।
8. इन शर्तों को पूरा करने के बाद दिन में नियमित उपवास रखना चाहिये और रात में अल्लाह की इबादत करनी चाहिये।
9. व्यक्ति को मौन रहना चाहिये ओर जब तक आवश्यक न हो, नहीं बोलना चाहिये। शरिया निरन्तर बोलना और पूर्णतः मौन रहना, अनुचित बताता है। उसे केवल अल्लाह को खुश करने वाले वचन बोलने चाहिये।
मोइनुद्दीन चिश्ती की अन्य शिक्षाएँ
1. दुनिया में दो बातों से बढ़कर कोई बात नहीं है- पहली विद्वानों की संगति तथा दूसरी बड़ों का सम्मान।
2. जीवन में सबसे अनमोल क्षण वे हैं जब मनुष्य इच्छाओं पर काबू पा लेता है।
3. ज्ञान वह है जो सूर्य की तरह उभरे और सारा संसार उसके प्रकाश से रोशन हो जाये।
4. सदाचारी लोगों की संगति सदाचार से अच्छी है तथा दुराचारी लोगों की संगति दुराचार से बुरी है।
5. मित्र की मित्रता में समस्त संसार का त्याग कर दिया जाये, तब भी कम है।
6. ज्ञानी हृदय सत्य का घर होता है।
7. भक्ति और तपस्या में सबसे बड़ा काम विनम्रता है।
8. ईश्वर का कृपापात्र वहीं मनुष्य होता है जिसके दिल में दरिया जैसी दानशीलता, सूर्य जैसी दयालुता और जमीन जैसी खातिरदारी हो।
9. सूफी का हृदय ईश्वर प्रेम की जलती हुई आग की भट्टी की तरह है। इसमें जो भी अन्य विचार आते हैं, वे जल कर राख हो जाते हैं क्योंकि प्रेम की आग के समान बलवान कोई अन्य आग नहीं है।
10. गरीब और बेसहारा लोगों की सेवा करना, भूखे को खाना खिलाना और बीमार तथा पीड़ित लोगों की मदद करने के समान कोई अन्य पूजा नहीं है।
11. ज्ञानी ईश्वर स्मरण के अतिरिक्त और कोई बात जिह्वा से नहीं निकालते।
12. नदियों का बहता पानी शोर करता है किंतु जब समुद्र में मिल जाता है तो शांत हो जाता है। इस तरह जब प्रेमी प्रियतम से मिल जाता है, तब वार्तालाप नहीं रहता है।
13. ज्ञानी वह है जब सुबह को उठे तो उसे रात के बारे में कुछ स्मरण नहीं रहे।
14. दरवेश वह है जो किसी को निराश नहीं जाने दे। यदिभूखा है तो खाना खिलाये, नंगा है तो अच्छा कपड़ा पहनाये। उसका हाल पूछ कर उससे सहानुभूति जताये।
15. गलत और नाजायज काम से स्वयं को दूर रखो।
16. मरने की ख्वाहिश मत करो किंतु मृत्यु को स्मरण रखो और मरने के लिये हर समय तैयार रहो।
17. जब बोलो सच बोलो तथा अपना वचन सदैव पूरा करो।
ख्वाजा की रहस्यवादी विचारधारा के अनुसार व्यक्ति की सबसे बड़ी इबादत अनाथों की मदद है। जो लोग ईश्वर की उपासना करना चाहते हैं, उनमें सागर की गम्भीरता, धूप जैसी दयालुता और पृथ्वी जैसी विनम्रता होनी चाहिये।
प्राणी मात्र से प्रेम
हिन्दू उन दिनों मुसलमानों की कट्टरता और हिंसक प्रवृत्ति से परेशान थे तथा उनके प्रति भारी घृणा रखते थे। जब हिन्दुओं ने सूफियों को इस प्रकार ईश्वर की आराधना करते देखा तो वे बड़े प्रभावित हुए। हिन्दू धर्म और दर्शन का मूल बिन्दु प्रेम है। जब उसी प्रेम के दर्शन उन्हें सूफियों के कलाम में हुए तो उन्होंने अपने हदय की ग्रन्थि को खोल फैंका और वे मोइनुद्दीन में आस्था रखने लगे। मोइनुद्दीन सरल हदय के स्वामी थे। वे प्राणी मात्र से प्रेम करने वाले और लोगों का उपकार चाहने वाले थे। इस कारण उन्होंने मुसलमानों से भी अधिक हिन्दुओं का दिल जीता।
मोइनुद्दीन चिश्ती का निधन
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन की कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती। कुछ स्रोतों में उनका निधन ई.1227 में हुआ तथा कुछ अन्य स्रोत उनके निधन की तिथि ई.1235-36 के आसपास मानते हैं। कुछ विद्वान उनके निधन की तिथि 16 मार्च 1236 बताते हैं। उनके अनुसार 97 वर्ष की आयु में ख्वाजा जन्नतनशीन हुए।
ख्वाजा लोकगीतों में
ख्वाजा की मृत्यु के बाद लोकगीतों में उनकी दयालुता के किस्से गाये जाने लगे। लोक गीतों के कारण ख्वाजा की प्रसिद्धि अजमेर से दिल्ली और आगरा आदि क्षेत्रों में फैल गई।
मोइनुद्दीन चिश्ती का परिवार
ख्वाजा के बड़े पुत्र फखरुद्दीन ने अपने रहने के लिये माण्डल नामक कस्बे को चुना। फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसे अजमेर के निकट सरवाड़ में दफनाया गया। मोइनुद्दीन के अन्य दो पुत्रों ख्वाजा अबुसईद एवं हिस्मुद्दीन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। ख्वाजा मोइनुद्दीन की पुत्री बीबी हाफिज जमाल अजमेर में ही रही। ख्वाजा अजमेरी का पोता हिस्मुद्दीन सांभर में रहने लगा। ख्वाजा मोइनुद्दीन का खादिम ए खास मौलाना सयैद फखर्रूद्दीन अहमद गारदेजी जिसे मौलाना अहमद भी कहा जाता है, वह ख्वाजा मोइनुद्दीन की मजार का मुख्य संरक्षक बन गया। उसके वंशज खुद्दाम अथवा मुजविरन कहलाये। इन वंशजों ने इस मजार के चारों ओर अपनी झौंपड़ियां बनाईं।
यह कहा जा सकता है कि सूफी परम्पराओं से हटकर, अजमेर में ख्वाजा अजमेरी के वंशजों ने तथा नागौर में सूफी हमीदुद्दीन के उत्तराधिकारियों ने शासकीय अधिकारियों से मेलजोल बढ़ाया। जिस तरह हमीदुद्दीन के वंशज गुजरात, दिल्ली एवं देश के अन्य भागों में जाकर बस गये, उसी तरह शेख मोइनुद्दीन चिश्ती के वंशज भी देश के अन्य भागों में जाकर बस गये। उनमें से कुछ मेहदवी हो गये। इससे देश भर में चिश्तिया सम्प्रदाय के सूफियों का मत फैल गया। उनके कारण ही अजमेर की दरगाह देश के विभिन्न भागों में प्रसिद्ध पा गई।