अलीकुलीखाँ और शाहकुली मरहम मूर्च्छित महाराजा हेमचंद्र को लेकर बैरामखाँ के पास आये। महाराज के शरीर में अनगिनत घाव थे जिनसे रक्त बह रहा था। नेत्र में लगे तीर से काफी मात्रा में रक्त प्रवाह हुआ था जिससे उनकी साँस की गति मद्धिम चल रही थी। कोटि-कोटि हिन्दुओं की आशाओं के सूरज दिल्लीधीश्वर महाराजा विक्रमादित्य हेमचंद्र की जो दुर्दशा इस समय थी, उसे देखकर किसी भी करुण कोमल मनुष्य का दिल दहल जाता किंतु चंगेजी वंश की खूनी ताकत महाराजा के रक्त को बहते हुए देखकर उल्लास से नाच उठी थी।
जब अकबर ने महाराज के शरीर को देखा तो उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। क्या यही वह संक्षिप्त काया थी जिसके भय से हजारों मुगल सैनिक रातों को ठीक से सोते भी नहीं थे! क्या यही वह विकराल सेनापति था जिसने बाईस विकराल युद्धों में खम ठोक कर जीत हासिल की थी! क्या यह वही अद्भुत महाराजा था जिसके पास धरती भर की सबसे बड़ी गजसेना और धरती भर का सबसे बड़ा तोपखाना था! क्या यह वही महामना धनपति राजा था जो अपने हाथियों को मक्खन खिलाया करता था! यदि यह वही था तो इस तरह निःशक्त होकर भूमि पर क्यों पड़ा था?
अकबर को आगरा का वह चित्रकार याद हो आया जिसने एक दिन ऐसे आदमी का चित्र बनाया था जिसके समस्त अंग अलग थे। उस चित्र को देखते ही भरे दरबार में अकबर के मुँह से निकल पड़ा था कि काश यह चित्र हेमू का होता और उसकी बात सुनकर समूचा मुगल दरबार सहम गया था। क्या उस कुत्सा[1] के सत्य होने की घड़ी आ गयी थी!
– ‘बादशाह सलामत आपका इकबाल युगों तक बुलंद रहे इसके लिये जरूरी है कि आप अपनी तलवार से इस फसादी[2] काफिर[3] की गर्दन उड़ा दें।’ बैरामखाँ ने अकबर से अनुरोध किया।
बैरामखाँ की बात सुनकर अकबर अपने विचारों से बाहर निकला। खानका का अनुरोध सुनकर उसका हाथ तलवार पर गया किंतु अगले ही क्षण उसने तलवार की मूठ से अपना हाथ हटा लिया।
अकबर को तलवार की मूठ से हाथ हटाते हुए देखकर अमीरों के मुँह आश्चर्य से खुले रह गये। क्या हुआ? बादशाह ने तलवार क्यों नहीं निकाली?
– ‘बादशाह सलामत! काफिरों को मारकर गजा[4] का सवाब[5] हासिल करें। ताकि हम सब आपको मुबारकबाद दे सकें।’ बैरामखाँ ने फिर से अपना अनुरोध दोहराया।
– ‘नहीं! यह नहीं हो सकता।’ अकबर बुदबुदाया।
– ‘क्या नहीं हो सकता हुजूर?’
– ‘हम मरते हुए आदमी पर तलवार नहीं चलायेंगे।’
– ‘मरे हुए आदमी पर शस्त्र चलाना अनुचित है किंतु यह शत्रु अभी जीवित है। शत्रु को मारने में ही भलाई है। काफिर को मारने से आपको गाजी की उपाधि हासिल होगी।’ बैरामखाँ ने फिर से अनुरोध किया।
– ‘हमारे मारने के लिये और भी काफिर काफी हैं। जब यह होश में आ जाये तब इसे मार दिया जाये।’ अकबर ने प्रतिवाद किया।
– ‘आप ठीक कहते हैं। यह आपके द्वारा मारे जाने के योग्य नहीं है। आप अपनी तेग इसकी गर्दन पर टिका कर छोड़ दें। यह मरा हुआ मान लिया जायेगा।’ बैरामखाँ ने अकबर को सहमत नहीं होते हुए देखकर बेचैनी से कहा।
अकबर ने म्यान में से तलवार निकालकर महाराज हेमचंद्र की गर्दन पर टिका दी। ठीक उसी क्षण बैरामखाँ ने अपनी तलवार से महाराज हेमचंद्र की गर्दन उनके धड़ से अलग कर दी। भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट महाराज हेमचंद्र का कटा हुआ मस्तक एक ओर को लुढ़क गया जिसे देखकर विश्वास नहीं होता था कि इसी मस्तक पर एक दिन देशवासियों ने चंवर ढुलते और चंदन चर्चित अभिषेक होते देखे थे।
बैरामखाँ ने अपने प्रबलतम शत्रु महाराज हेमचंद्र का सिर काबुल भेज दिया जहाँ उसे चौराहे पर लटका दिया गया ताकि शत्रु समझ लें कि बैरामखाँ का विरोध करने वालों का क्या हश्र होता है। महाराज हेमचंद्र का धड़ दिल्ली ले जाया गया और वहाँ उसे सूली पर लटकाया गया। इस अवसर पर बैरामखाँ ने पानीपत के मैदान से पकडे़ गये डेढ़ हजार हाथी अकबर को भेंट किये।
[1] बुरी इच्छा
[2] उत्पात मचाने वाला, झगड़ालू।
[3] इस्लाम में विधर्मी को काफिर कहा जाता है।
[4] विधर्मी को मारना गजा कहा जाता है।
[5] पुण्य