जब महाराज विक्रमादित्य हेमचंद्र ने देखा कि बैरामखाँ मुगल सेना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ रहा है तो उन्होंने दिल्ली से बाहर जाकर पानीपत के मैदान में बैरामखाँ से दो-दो हाथ करने का निर्णय लिया। महाराजा ने धन के लालची अफगान अमीरों को विपुल धन राशि देकर अपने वश में किया और पूरे उत्तरी भारत में दुहाई फिरवाई कि वह मुगलों को भारतवर्ष से बाहर खदेड़ने के लिये पानीपत जा रहा है। जिन राजाओं और सेनापतियों को अपनी जन्मभूमि से प्रेम हो, वे भी पानीपत पहुँचें।
महाराज विक्रमादित्य हेमचंद्र का संदेश पाकर तीस हजार राजपूत सैनिक पानीपत के मैदान में आ जुटे। अब दिल्ली की सेना केवल अफगान सैनिकों के भरोसे नहीं रह गयी। महाराज विक्रमादित्य हेमचंद्र ने अपने विश्वस्त सलाहकारों से कहा कि यदि इस सयम महाराणा सांगा जीवित होते तो भारतवर्ष को म्लेच्छों से मुक्त करवा लेना कोई बड़ी बात नहीं होती।
महाराज विक्रमादित्य हेमचंद्र को अपने तोपखाने और हस्ति सेना पर बहुत भरोसा था किंतु ये तभी कारगर थे जब वे समय से पूर्व रणक्षेत्र में पहुँचकर उचित जगह पर तैनात कर दिये जायें। इनकी गति घुड़सवारों की तरह त्वरित नहीं थी। इसलिये उन्होंने अपना तोपखाना पानीपत के लिये रवाना कर दिया और स्वयं अपने हाथियों को मक्खन खिलाते हुए पानीपत की ओर बढ़े।
जब दिल्ली की सेना गोला बारूद लेकर पानीपत की ओर जा रही थी तो अकबर के सेनापति अलीकुलीखाँ को सूचना लगी कि हेमू ने अपना तोपखाना तो पानीपत की ओर भेज दिया है और स्वयं अपने हाथियों को मक्खन खिलाता हुआ मस्ती से आ रहा है। बैरामखाँं ने अलीकुलीखाँ को इसी काम पर तैनात कर रखा था कि किसी भी तरह मौका लगते ही तोपखाने को नष्ट कर दे। अलीकुलीखाँ ने अपनी सेना को दिल्ली की सेना के मार्ग में ला अड़ाया। दिल्ली के मुट्ठी भर सैनिक इस आकस्मिक युद्ध के लिये तैयार नहीं थे। बात की बात में अलीकुलीखाँ ने दिल्ली की सेना से तोपखाना छीन लिया।
तोपखाना छीने जाने के दो सप्ताह बाद इधर से महाराज हेमचंद्र की सेना और उधर से खानका बैरामखाँ की सेना पानीपत के मैदान में आमने सामने हुई। बैरामखाँ ने अलीकुलीखाँ, सिकन्दरखाँ उजबेग और अब्दुल्ला उजबेग को मोर्चे पर भेजा और स्वयं अकबर को लेकर पानीपत से पाँच मील पीछे ही रुक गया।
तोपखाना छिन जाने के बाद महाराज हेमचंद्र ने अपना पूरा ध्यान हस्ति सैन्य पर केंद्रित किया। उन्होंने हाथियों को जिरहबख्तर पहनाये और उनकी पीठों पर बंदूकची बैठाये। सेना के दाहिनी ओर शादीखाँ कक्कड़ और बांयी ओर अपने भांजे रमैया को नियुक्त करके महाराज हेमचंद्र सेना के मध्य भाग में आ डटे।
अपने हाथी पर खड़े होकर महाराज हेमचंद्र ने पहले अपनी सेना को और फिर शत्रु सेना को देखा भाग्य की विडम्बना देखकर महाराजा का कलेजा कांप गया। उनका अपना तोपखाना शत्रु के हाथों में पड़कर उनके अपने सिपाहियों को निगलने के लिये तैयार खड़ा था। उन्हें लगा कि जिस हेमू के सामने भाग्य लक्ष्मी हाथ बांधे खड़ी रहती थी, आज उसके रूठ जाने से ही ऐसा हुआ है। उन्होंने अपने सैनिकों को धंसारा करने का आदेश दिया।
हेमू द्वारा वर्षों से संचित तोपखाना महाराज हेमचंद्र की सेना पर आग फैंकने लगा किंतु हिन्दू सिपाही मृत्यु की परवाह न करके आगे को बढ़ते ही रहे जिससे महाराज हेमचंद्र की सेना का भी वही हश्र हुआ जो खानुआ के मैदान में राणा सांगा की सेना का हुआ था। मुगल सेना ने यहाँ भी तुगलुमा का प्रयोग किया। दुर्भाग्य से हिन्दू और अफगानी सैनिक इस पद्धति से युद्ध करने में सक्षम नहीं थे। देखते ही देखते हिन्दू चारों ओर से घिर गये।
महाराजा हेमचंद्र चौबीस लड़ाईयों के अनुभवी सेनापति थे जिनमें से बाईस के परिणाम उनके पक्ष में आये थे। उन्होंने तोपखाने की परवाह न करके शत्रु सैन्य में वो मार लगाई कि अलीकुलीखाँ की सेना के दांये और बांये दोनों पक्षों को तोड़ दिया। थोड़ी ही देर में विजय तराजू के एक पलड़े में लटक गयी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पलड़ा महाराज हेमचंद्र के पक्ष में झुका हुआ था। हिन्दू वीर उत्साह से भर गये और भरपूर हाथ चलाने लगे।
जब यह सूचना पानीपत से पाँच मील दूर पड़ाव कर रहे बैरामखाँ को दी गयी तो बैरामखाँ अपनी सारी बची-खुची सेना को लेकर युद्ध के मैदान में पहुँचा। जिस समय वह युद्ध क्षेत्र में कूदा, उस समय युद्ध बहुत ही नाजुक स्थिति में था। घोड़ों पर बैठकर महाराजा तक पहुँचना संभव नहीं जानकर बैरामखाँ और उसके अमीर घोड़ों से उतर पड़े तथा तलवारें निकाल कर पैदल ही महाराजा की ओर दौड़ पड़े। बैरामखाँ को युद्ध के मैदान में आया देखकर मुगलों का जोश दूना हो गया। वे तक-तक कर तीर, भाले और बंदूकें चलाने लगे।
इतिहास गवाह है कि दुर्भाग्य और पराजय ने शायद ही कभी हिन्दू जाति का पीछा छोड़ा हो। इस सर्वत्र व्यापी दुर्भाग्य के चलते न पुरुषार्थ, न विद्या और न उद्यम, कुछ भी हिन्दुओं के काम नहीं आया। यही कारण था कि सम्पूर्ण शौर्य, पराक्रम और युद्ध कौशल के रहते हुए भी न तो महाराजा दाहिर सेन सिंधु के मैदान में मुहम्मद बिन कासिम को परास्त कर सके, न महाराजा जयपाल पंजाब में महमूद गजनवी को परास्त कर सके, न महाराजा पृथ्वीराज चौहान तराइन के मैदान में मुहम्मद गौरी को परास्त कर सके और न राणा सांगा खानुआ के मैदान में बाबर को परास्त कर सके। यहाँ भी भाग्य की विडम्बना ने फिर से अपना इतिहास दोहराया।
जब मुगल सेना में अफरा-तफरी मचनी आरंभ हुई और ऐसा लगा कि महाराज हेमचंद्र को विजय श्री मिलने ही वाली है, उसी समय जाने कहाँ से एक सनसनाता हुआ तीर आया और महाराजा की आँख फोड़ता हुआ निकल गया। जाने प्रारब्ध में यही लिखा था अथवा सचमुच ही भारतवर्ष की सौभाग्य लक्ष्मी रूठ गयी थी, महाराजा हेमचंद्र की आँखों के सामने अंधेरा छा गया और वे हौदे में गिर पड़े।
महावत ने महाराज को बेहोश हुआ जानकर हाथी को पीछे की ओर मोड़ा ताकि युद्ध भूमि से बाहर निकल जाये किंतु तब तक शैतान शाहकुली मरहम की दृष्टि महाराज पर पड़ चुकी थी। उसने अपने आदमियों को साथ लेकर महाराज के हाथी को घेर लिया।
अफगान सैनिक महाराज हेमचंद्र को मरा हुआ जानकर युद्ध का मैदान छोड़कर भाग छूटे। राजपूत वीरों ने अंत तक महाराज का साथ नहीं छोड़ा और युद्ध भूमि में तिल-तिल कर कट मरे। महाराज के पाँच हजार सैनिक उसी समय मार डाले गये। डेढ़ हजार हाथी लूट में बैरामखाँ के हाथ लगे।
पानीपत के जिस मैदान में बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली में मुगलों के राज्य की नींव रखी थी, एक बार फिर बैरामखाँ ने पानीपत के उसी मैदान में महाराज हेमचंद्र को परास्त कर फिर से दिल्ली हासिल कर ली। इसी के साथ म्लेच्छों को भारत भूमि से भगाने का स्वप्न हमेशा-हमेशा के लिये भंग हो गया।