भारत में 1835 ई. तक चाय बागान श्रमिक अस्तित्व में आ चुके थे फिर भी यह माना जा सकता है कि भारत में औद्योगिक मजदूरों का वर्ग 1850-55 ई. की अवधि में उस समय अस्तित्व में आया, जब देश में पहली कपड़ा मिल खुली, पहली चटकल खुली, पहली रेल चली तथा खानों से बड़ी मात्रा में कोयला निकालना आरम्भ हुआ। जैसे-जैसे मजदूरों की संख्या बढ़ी, उन्हें संगठित होने की आवश्यकता अनुभव हुई और देश में मजदूर संगठनों की स्थापना हुई तथा उनके उदय के साथ ही भारत में मजदूर आंदोलन भी उठ खड़े हुए। रजनी पामदत्त के अनुसार- ‘भारत में मजूदर आन्दोलन की शुरुआत लगभग 50 साल पहले हुई किन्तु संगठित आन्दोलन के रूप में उसका इतिहास, प्रथम विश्व युद्ध के बाद आरम्भ होता है।’
भारत में औद्योगिक क्रांति
1850-59 ई. का दशक, भारत में औद्योगिक क्रांति का प्रारम्भिक काल था। इस अवधि में भारत में रेल आई तथा बंगाल, बम्बई एवं अन्य राज्यों में कोयला खनन, जूट और सूती कपड़ा निर्माण के बड़े उद्योग आरम्भ हुए। भारत में इन उद्योगों का आरम्भ, पूँजीवादी इंग्लैण्ड को लाभ पहुँचाने के लिये किया गया था। इंग्लैण्ड की मिलांे को कच्चे माल की आवश्यकता थी। भारत में कच्चा माल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था किंतु कच्चे माल वाले क्षेत्रों को आपस में जोड़ना आवश्यक था ताकि कच्चे माल के विशाल भण्डारों को मैदानों से बंदरगाहों तक सरलता से ले जाया जा सके। इस कारण भारत में कच्चा माल ढोने के लिये रेलों का और रेलों को चलाने के लिये कोयला-खनन उद्योग का तेजी से विकास हुआ। भारत के औद्योगिक विकास के प्रथम चरण में जो उद्योग अस्तित्त्व में आये उनकी स्थापना यूरोपीय उद्योगपतियों ने की क्योंकि भारतीय वैश्य, सदियों से व्यापारी और साहूकार के रूप में काम कर रहे थे। वे इतने बड़े पूँजीपति नहीं थे जो उद्योगों में पूंजी निवेश कर सकें परन्तु धीरे-धीरे भारतीय वैश्य भी उद्योगों की स्थापना के लिये आगे आये। इन्हीं उद्योगों के साथ श्रमिक शक्ति का उदय हुआ। लगभग 50-60 वर्षों तक भारत में औद्योगिकीकरण रेलवे, कोयला-खनन, जूट तथा कपड़ा उद्योग तक सीमित रहा।
औद्योगिक मजदूरों की संख्या में वृद्धि
19वीं सदी के अन्त तक कुछ प्रमुख क्षेत्रों- रेलवे, कोयला खनन, जूट तथा कपड़ा आदि का औद्योगिकीकरण हो चुका था। उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि होती जा रही थी। उस समय के भारतीय मजदूर वर्ग की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि सम्पत्ति-विहीन, सर्वहारा श्रमजीवियों की संख्या अत्यधिक थी जबकि आधुनिक ढंग के उद्योगों में काम करने वाले औद्योगिक मजदूरों की संख्या अत्यल्प थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1884 ई. में भारत में 815 कारखाने थे जिनमें 3,49,810 मजूदर काम करते थे। 1902 ई. में 1533 कारखानों में 5,41,634 मजदूर और 1914 ई. में 2,936 कारखानों में 9,50,973 मजदूर कार्यरत थे। फैक्ट्री एक्ट के अंतर्गत वे कारखाने आते थे जिनमें भाप या विद्युत शक्ति से मशीनें चलती थीं और बीस या अधिक मजदूर काम करते थे। कुछ सूबों में दस या दस से अधिक मजदूरों से काम लेने वाले कारखाने भी फैक्ट्री एक्ट के अन्तर्गत आ जाते थे। इस से कम संख्या में नियोजित श्रमिकों वाले कारखानों के मजदूर औद्योगिक मजदूर नहीं माने जाते थे। जिन उद्योगों में भाप या विद्युत शक्ति का प्रयोग नहीं होता था जैसे कि सिगरेट बनाने के कुछ कारखानों में पचास से भी अधिक मजदूर काम करते थे, औद्योगिक मजदूरों में सम्मिलित नहीं किये जाते थे।
भारत में औद्योगिक श्रमिक वर्ग का उदय एक तरह की सामाजिक क्रांति थी। इस वर्ग का जन्म ग्रामीण बेरोजगारों और ग्रामीण निर्धनों से हुआ था। ये वे लोग थे जो औपनिवेशिक विस्तार के दबाव एवं नवीन सामाजिक प्रणाली के कारण गांवों में बेरोजगार हो जाने के कारण, अपने गांव छोड़कर रोजगार की खोज में निकटवर्ती शहरों में चले आये थे परन्तु वहाँ भी रोजगार के सीमित अवसर उपलब्ध थे। श्रमिकों की उपलब्धता आवश्यकता से अधिक होने के कारण उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक पर रखा जाता था। पूँजीपतियों ने इन ग्रामीण मजदूरों का जी-भरकर शोषण किया।
मजदूर वर्ग की दुर्दशा
नये उद्योगों के खुलने के साथ-साथ मजदूरों की संख्या बढ़ती चली गई परन्तु प्रथम विश्व युद्ध के पहले उसके काम, काम की अवधि, वेतन, रहने के घर आदि की हालत बहुत दयनीय थी। पुरुष एवं महिला श्रमिकों से प्रातः 5 बजे से लेकर रात्रि 10 बजे तक काम लिया जाता था। 6-7 साल के लड़के-लड़कियों से भी 13-14 घंटे काम लिया जाता था। इतनी कड़ी और लम्बी मेहनत के कारण अधिकतर मजदूर कम आयु में ही बीमार होकर मर जाते थे अथवा काम करने की क्षमता से हाथ धो बैठते थे। उनका उपचार नहीं करवाया जाता था तथा उनके स्थान पर तुरन्त नये मजदूर भर्ती कर लिये जाते थे। मजदूरों को कितना वेतन मिलता था, इसका सही विवरण नहीं मिलता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1892 ई. में पुरुषों को 12 रुपये, औरतों को 9 रुपये तथा बच्चों को 6 रुपये मासिक मजदूरी मिलती थी। ये आंकड़े सही नहीं माने जा सकते। वास्तविक पारिश्रमिक इससे काफी कम था। इस पर भी, प्रतिदिन काम नहीं मिल पाता था। पारिश्रमिक तय करने के बाद भी, काम को खराब बताकर, या कम बताकर या अन्य बहाने बनाकर पारिश्रमिक काट लिया जाता था।
1928 ई. में ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रतिनिधि मण्डल ने भारत के कारखानों का दौरा किया तथा भारत के मजदूरों की हालत के बारे में कहा- ‘सारी-जांच पड़ताल से यही पता चलता है कि भारत के अधिकतर मजदूरों को एक शिलिंग रोज से ज्यादा नहीं मिलता।’ प्रतिनिधि मण्डल ने मजदूरों के निवास स्थानों के बारे में लिखा- ‘हम लोग जहाँ भी ठहरे, वहाँ मजदूर-बस्तियों को देखने अवश्य गये और यदि हम उनको न देखते, तो हमें कभी यह विश्वास नहीं होता कि दुनिया के पर्दे पर इतनी गन्दे स्थान भी हैं।’ बीमारी, बेकारी, वृद्धावस्था और मृत्यु के समय मजदूरों की सहायता करने का कोई प्रबन्ध नहीं था।
1931 ई. की जनगणना रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के सबसे बड़े औद्योगिक केन्द्र बम्बई में मजदूर जिस तरह के घरों में रहते हैं, वह किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक की बात है। 1938 ई. में भारतीय मजदूरों के प्रतिनिधि एस. वी. परूलेकर ने जेनेवा में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के समक्ष प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा- ‘भारत में अधिकतर मजदूरों को जितनी मजदूरी मिलती हैं, उससे वे जिन्दगी की मामूली से मामूली जरूरतों को भी पूरा नहीं कर सकते।’
मजदूर वर्ग के असन्तोष के प्रारम्भिक संकेत
औद्योगिक मजदूर वर्ग लम्बे समय तक शोषण को चुपचाप सहन करता रहा, फिर उनका असन्तोष हड़ताल और प्रदर्शन के रूप में अभिव्यक्त होने लगा। मालिकों द्वारा किये जा रहे शोषण, सरकार और पुलिस के अत्याचार तथा अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के विरुद्ध मजूदरों ने अपना असन्तोष असंगठित रूप में व्यक्त करना आरम्भ किया। मजदूर वर्ग के असन्तोष का पहला प्रभावी संकेत 1877 ई. में देखने को मिला जब मजदूरी की दर के प्रश्न को लेकर नागपुर की एम्प्रेस मिल के मजदूरों ने हड़ताल की। इसके बाद 1882 से 1890 ई. की अवधि में मद्रास प्रेसीडेंसी तथा बम्बई प्रेसीडेंसी में 25 हड़तालें हुईं। ये समस्त हड़तालें संयोगवश ही हुई थीं जो जुर्माने तथा वेतन में कटौती जैसी शिकायतों को लेकर थीं। ये किसी सुव्यवस्थित योजना का परिणाम नहीं थीं। अभी मजदूर संगठित नहीं हो पाये थे फिर भी, उन्होंने हड़ताल रूपी हथियार का प्रयोग करना सीख लिया था। मिल मालिकों ने मजदूरों की हड़तालों को रोकने के लिए कई कड़े नियम लागू किये।
श्रमिक संघों का उदय
भारत में श्रमिक संघों का उदय कब और किन परिस्थितियों में एवं किन व्यक्तियों के माध्यम से हुआ यह विवादास्पद प्रश्न है। अयोध्यासिंह के अनुसार सबसे पहले बंगाल के ब्रह्म समाजी नेता शशिपद बनर्जी ने नवम्बर 1866 में कलकत्ता के उत्तरी किनारे पर स्थित बरा नगर में मजदूरों की एक सभा की तथा उनकी भलाई के लिए सुरापान निवारणी समिति और आशा बैंक की स्थापना की। 1870 ई. में उन्होंने मजदूरों को संगठित करने के लिए श्रमजीवी समिति की स्थापना की। 1872 ई. में उन्होंने भारत श्रमजीवी नामक मासिक पत्र निकाला। बनर्जी का कार्यक्षेत्र मजदूरों की तकलीफें सुनने तथा मजदूरों और मालिकों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने तक सीमित था।
परम्परागत रूप से माना जाता है कि भारत में मजदूर आन्दोलन का इतिहास 1884 ई. में बम्बई में मजदूरों की एक सभा से आरम्भ हुआ जिसे एन. एम. लोखंडी नामक स्थानीय सम्पादक ने आहूत किया था। इस प्रकार, भारत में श्रमिक संघों का उदय एक गैर-श्रमिक व्यक्ति की पहल पर हुआ। लोखंडी ने मजदूरों की मांगों का एक आवेदन-पत्र तैयार किया, जो बम्बई के मजदूरों की तरफ से फैक्ट्री कमीशन को दिया जाने वाला था। इस आवेदन पत्र में मांग की गयी कि काम के घंटों पर पाबन्दी लगायी जाये, सप्ताह में एक दिन का अवकाश मिले, दोपहर में खाने-पीने की छुट्टी दी जाये और दुर्घटनाग्रस्त मजदूरों को मुआवजा मिले। इस आवेदन-पत्र पर लगभग 5 हजार मजदूरों ने हस्ताक्षर किये। लोखंडी स्वयं को बम्बई मिल मजदूर एसोसिएशन का सभापति बताते थे। यद्यपि इस संघ का विधिवत् गठन नहीं हुआ था, तथापि इसका उल्लेख प्रथम मजदूर संगठन के रूप में किया जाता है।
रजनी पामदत्त उपरोक्त विचार से सहमत नहीं हैं। उन्होंने लिखा है- ‘लोखंडे (लोखंडी) का भारत के मजदूर इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु यह समझना गलत है कि भारत में मजदूर आन्दोलन लोखंडे के काम से आरम्भ हुआ है। बम्बई मिल मजदूर एसोसिएशन किसी भी अर्थ में मजदूर संगठन नहीं था। उसके न तो सदस्य थे, न कायदे-कानून थे और न ही कोई कोष था। लोखंडे मजदूरों की भलाई चाहने वाले एक परोपकारी वृत्ति के व्यक्ति थे जो मजदूरों के हित में कानून बनवाने का प्रयत्न किया करते थे। वे मजदूरों के संगठन या मजदूरों के संघर्ष का श्रीगणेश करने वाले व्यक्ति नहीं थे।’
मजदूरों के कल्याण की बात को लेकर अन्य संगठन भी बने जैसे- जी. आई. पी. रेलवे सिगनलर्स यूनियन (1896 ई.), एमल्गमेटिड सोसायटी ऑफ रेलवे सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया एण्ड बर्मा (1897 ई.), वर्किंग मेन्स इंस्टीट्यूशन कलकत्ता (1905 ई.), चटकल यूनियन बंगाल (1906 ई.), ईस्ट इंडिया रेलवे इम्प्लॉइज यूनयिन (1907 ई.), बम्बई की पोस्टल यूनियन (1907 ई.), बम्बई कामगार हितवर्धिनी सभा (1910 ई.) आदि। किसी भी यूनियन ने, यहाँ तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी, प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक मजदूरों के संघर्ष की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की।
मजदूरों में संगठन की कमी रही, फिर भी वे निष्क्रिय नहीं रहे। उस युग के मजदूर जिस तरह संघर्ष में एक-दूसरे का साथ देते थे, और उनमें प्राथमिक ढंग की जो वर्ग-चेतना उत्पन्न हो गयी थी, उसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक की हड़तालें अधिक लम्बी, बड़ी और संगठित थीं। उदाहरण के लिए 1895 ई. में बजबज जूट मिल के मजदूरों की हड़ताल के कारण मिल लगभग 45 दिन बन्द रही। हड़तालियों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दो हड़ताली गम्भीर रूप से घायल हुए। बजबज मिल के डायरेक्टरों ने 1895 ई. में अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘उन्हें इस बात का खेद है कि इस छमाही में मजदूरों ने एक हड़ताल की जिसके कारण मिल 6 हफ्ते तक बन्द पड़ी रही।’ यह अपनी तरह की पहली जोरदार हड़ताल थी।
1897 ई. में जब बम्बई की मिल मालिक एसोसएशन ने मजदूरों को वेतन पर रखने के बजाय ठेके पर रखने का निर्णय किया तो इस निर्णय के विरुद्ध 8000 बुनकरों ने हड़ताल की। 1899 ई. में जी. आई. पी. सी. रेलवे के सिगनल देने वाले मजदूरों की महत्त्वपूर्ण हड़ताल हुई। छोटी-छोटी हड़तालों का क्रम तो चलता ही रहता था। 1882 से 1890 ई. के बीच, बम्बई और मद्रास के विभिन्न कारखानों मे 25 महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं। छोटी हड़तालें और भी अधिक थीं। ये हड़तालें मजदूरों की एकता और समान उद्देश्यों के लिए संघर्ष की ज्वलन्त उदाहरण हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि 1880-1908 ई. के मध्य, मजदूर वर्ग शक्तिशाली हो चुका था।
डी. एच. बुकानना ने लिखा है- ‘1880 और 1908 के बीच विभिन्न सरकारी कमीशनों के समक्ष जितनी भी गवाहियाँ आयीं, उनमें में यह बात कही गयी कि मजदूरों की कोई वास्तविक यूनियन नहीं बनी है। फिर भी, बहुत से लोगों ने बताया कि अलग-अलग मिलों के मजदूर अक्सर आपस में एक साथ मिल जाते हैं और एक समूह के रूप में बड़ी आजादी का परिचय देते हैं।’
1892 ई. में बॉयलरों के इन्सपेक्टर ने सरकार को बताया- ‘मजदूरों में एक अजीब एका दिखायी देता है जिसकी न तो कोई लिखा-पढ़ी हुई है और न ही जिसे कोई खास नाम दिया गया है।’ बम्बई के कलक्टर ने सरकार को लिखा- ‘मुझे विश्वास है कि इसी एके के कारण मजदूरों ने बहुत दिनों से अपनी मजदूरी में कोई हेर-फेर नहीं होने दिया।’ इसी प्रकार, बम्बई प्रान्त में उद्योगों के संचालक मि. भरूचा ने कहा था- ‘मालिकों के मुकाबले में मजदूर सर्वशक्तिमान मालूम पड़ता है; और हालांकि उनकी कोई यूनियन नहीं है, मगर मालिकों के विरुद्ध एक हो जाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती।’
हड़तालों का जुझारूपन
1905 ई. के बाद मजदूरों की हड़तालों में जुझारूपन आ गया। इसका एक कारण राष्ट्रीय आन्दोलन में जुझारूपन आना था। उससे मजदूर वर्ग भी अछूता न रहा। उसमें भी राजनीतिक चेतना और नवजागरण के लक्षण दिखाई देने लगे। बंगाल के विभाजन से देश में असन्तोष व्याप्त था और बंगाल प्रबल राजनीतिक आन्दोलन का केन्द्र बना हुआ था। बंग-भंग आन्दोलन ने भी मजदूर आन्दोलनों को प्रेरणा दी।
कलकत्ता में छापाखाने की हड़ताल
1905 ई. में बंगाल में कई हड़तालें हुईं परन्तु कलकत्ता में हुई भारत सरकार के छापाखाने के कर्मचारियों की हड़ताल बहुत महत्त्वपूर्ण थी। यह हड़ताल सितम्बर 1905 में आरम्भ हुई और लगभग एक माह तक चली। हड़तालियों की मुख्य मांगें थीं- ओवरटाइम के भत्ते में वृद्धि, रविवार तथा अन्य अवकाश के दिन काम के लिए अतिरिक्त पैसा, जुर्माना बन्द और रुग्णावकाश दिये जाने की व्यवस्था। सरकार ने हड़तालियों से कुछ ही दिनों में समझौता कर लिया। हड़ताल टूटने के तुरन्त बाद 7 हड़ताली नेताओं को नौकरी से हटा कर गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार की इस कार्यवाही से मजदूर भड़क उठे और जबरदस्त हड़ताल आरम्भ हुई। राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक नेता भी हड़तालियों की सभा में भाषण देने जाने लगे तो सरकार ने घोर दमन का सहारा लिया। इस पर भी स्थिति नहीं बदली तो सरकार को झुकना पड़ा और कुछ माँगों को स्वीकार करना पड़ा। गिरफ्तार नेताओं को रिहा करना पड़ा। तब जाकर हड़ताल समाप्त हुई। यह मजदूरों की शानदार जीत थी।
ईस्ट इण्डिया रेलवे की हड़ताल
जुलाई 1906 में ईस्ट इण्डिया रेलवे के बंगाल सेक्शन में हड़ताल हुई। इस हड़ताल का मुख्य कारण यूरोपीयों और भारतीयों के वेतन में भारी अन्तर, ब्रिटिश अधिकारियों का भारतीय रेलवे कर्मचारियों के साथ दुव्यर्वहार और अच्छे आवास की मांग आदि थे। यह हड़ताल इतनी जबरदस्त रही कि इंग्लैण्ड के ब्रिटिश शासकों में भी हलचल मच गई। चूँकि हड़तालियों को राजनीतिक नेताओं ने सम्बोधित किया था, इसलिये हड़ताल को राजनीति से प्रेरित बताकर क्रूरता के साथ कुचला गया। कई पुराने रेलवे कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया। 1907 ई. में रेलवे कर्मचारियों ने पुनः हड़ताल कर दी। इस बार सारे देश में हड़ताल हुई। मई 1907 में बम्बई के रेलवे वर्कशॉप के मजदूरों ने हड़ताल की। नवम्बर 1907 में ईस्ट इण्डिया रेलवे के मजदूरों ने हड़ताल की। इस हड़ताल के कारण कल-कारखानों और जहाजों को कोयला मिलना बन्द हो गया। सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता से हड़ताल को कुचलने का प्रयास किया परन्तु सफलता नहीं मिली। यह हड़ताल बी. एन. आर. में भी फैलने लगी। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा और रेलवे मजदूरों की मांगों पर विचार करने के लिए एक बोर्ड बैठाना पड़ा। इससे ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।
महाराष्ट्र के मजदूरों की हड़ताल: देश में सबसे महत्त्वपूर्ण हड़ताल 22 जुलाई 1908 को तिलक को दिये गये 6 साल के कारावास के विरुद्ध बम्बई के मजदूरों ने की। यह मजदूरों की राजनीतिक आम हड़ताल थी जो 6 दिन तक जारी रही और मजदूरों ने बम्बई की सड़कों पर ब्रिटिश सेना से जमकर लोहा लिया। जब 13 जुलाई को अदालत में तिलक के मुकदमे की सुनवाई आरम्भ हुई तो मजदूरों ने सरकार को, तिलक को न फंसाने की चेतावनी दी तथा हड़ताल पर चले गये। 17 जुलाई को मजदूरों के आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। 18 और 19 जुलाई को लगभग 65,000 मजदूर सड़कों पर निकल आये। पुलिस ने हड़ताली मजदूरों पर गोलियाँ चलाईं। 20 जुलाई को हजारों लोग मजदूरों के समर्थन में आ जुटे। 21 और 22 जुलाई को हड़ताल ने विराट रूप धारण कर लिया। 22 जुलाई को जब तिलक को कारावास की सजा सुनाई गई तो 23 जुलाई से सर्वोच्च स्तर की हड़ताल आरम्भ हो गई। एक लाख मजदूरों और आम जनता ने मिलकर पुलिस और सेना के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। बहुत से लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हुए। 6 दिन तक चले क्रूर दमन के बाद हड़ताल को कुचल दिया गया। इस हड़ताल ने प्रमाणित कर दिया कि भारत का मजदूर वर्ग भी राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
इस समय तक भारत के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में मजदूरों की संख्या में आशातीत वृद्धि हो चुकी थी और वे सरकार तथा मिल मालिकों, दोनों से एक साथ लोहा लेने की स्थिति में आ गये थे। 1914 ई. के आंकड़ों के अनुसार उस समय भारत में 264 कपड़ा मिलें काम कर रही थीं जिनमें लगभग ढाई लाख मजदूर और कर्मचारी कार्य करते थे। जूट उद्योग की 60 मिलों में लगभग दो लाख मजदूर थे और रेलवे में 6 लाख से अधिक मजदूर तथा कर्मचारी थे। सरकारी छापाखानों, टेलीफोन तथा टेलीग्राफ, पोस्ट ऑफिस तथा अन्य उद्योगों में भी लाखों मजदूर कार्यरत थे। इतना होने पर भी उनका कोई टिकाऊ संगठन नहीं बन पाया था। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अभी मजदूरों का टिकाऊ संगठन बनाना सम्भव नहीं था। वजह यह नहीं थी कि भारत के मजदूर पिछड़े हुए थे या उनमें लड़ाकू मनोभावना की कमी थी। इसकी वजह केवल यह थी कि मजदूर हद से अधिक गरीब थे, पढ़े-लिखे नहीं थे और उनके पास साधनों का अभाव था।’
प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में जिस प्रकार की परिस्थितियां बन रही थीं और भारत पर रूसी क्रान्ति तथा उसके बाद सारी दुनिया में उठने वाली क्रान्तिकारी लहर का जो प्रभाव पड़ा था, उनके कारण भारत का मजदूर वर्ग संघर्ष करने के लिये तैयार हो गया। यहीं से भारत में आधुनिक ढंग का मजदूर आन्दोलन आरम्भ हुआ। देश की आर्थिक हालत और राजनीतिक परिस्थिति दोनों ने ही मजदूरों में नयी जागृति पैदा करने में सहायता दी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान देश में वस्तुओं की कीमतें दुगनी हो गईं किन्तु मजदूरों के वेतन में इस हिसाब से वृद्धि नहीं हुई। इस कारण उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई। इसके विपरीत मिल मालिक अंधाधुंध लाभ अर्जित कर रहे थे। समाज के मध्यम वर्ग ने अपने राजनीतिक संघर्ष एवं स्वार्थ के लिए मजदूरों का इस्तेमाल किया और एक जबरदस्त आन्दोलन चलाया गया। पहली बार, मजदूरों को सुनियोजित ढंग से अपने असन्तोष को अभिव्यक्त करने का अवसर मिला परन्तु उनका नेतृत्व मध्यम वर्ग के हाथों में चला गया। 1918 ई. के अंत में एक बड़े औद्योगिक केन्द्र में पहली बार पूरा उद्योग, हड़ताल के कारण ठप्प हो गया। यह उस वक्त हुआ जब बम्बई की सूती मिलों में हड़ताल आरम्भ हुई। 1918 ई. में हड़तालों की जो लहर आरम्भ हुई, वह 1919 ई. में समस्त देश में फैल गयी। जनवरी 1919 ई. तक लगभग समस्त मिलों के 1,25,000 मजदूर बाहर निकल आये। 1919 ई. के बसन्त में रोलट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल हुई। उसमें मजदूरों ने जिस तरह भाग लिया, उससे स्पष्ट हो गया कि मजदूर वर्ग भी अब राष्ट्रीय संघर्ष में सबसे आगे बढ़कर लड़ने लगा है। 1919 ई. के खत्म होते-होते और 1920 ई. के पूर्वार्द्ध में हड़तालों की व्यापकता और तेजी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी।
आर. के. दास ने भारत का मजदूर आन्दोलन नामक पुस्तक में लिखा है- ‘4 नवम्बर से 2 दिसम्बर 1919 तक कानपुर की ऊनी मिलों के 17,000 मजदूरों ने हड़ताल की; 7 दिसम्बर 1919 से 9 जनवरी 1920 तक जमालपुर के 16,000 रेलवे मजदूरों ने हड़ताल की; 9 से 18 जनवरी 1920 तक कलकत्ते की जूट मिलों के 35,000 मजदूरों ने काम करना बन्द रखा; 2 जनवरी से 3 फरवरी तक बम्बई में आम हड़ताल रही जिसमें 2 लाख मजदूरों ने भाग लिया, 31 जनवरी को बम्बई में ब्रिटिश इंडिया नैवीगेशन कम्पनी के 10,000 मजदूरों ने हड़ताल की; 26 फरवरी तक शोलापुर के 16,000 मिल मजदूरों ने काम बन्द रखा; 2 से 16 फरवरी तक इण्डियन मैरीन डाक (गोदी) के 20,000 मजदूरों ने हड़ताल रखी; 24 फरवरी से 29 मार्च तक टाटा के लोहे और इस्पात कारखाने के 40,000 मजदूरों ने काम बन्द रखा; 20 से 26 मार्च तक मद्रास के 17,000 मिल मजदूरों ने हड़ताल की; मई, 1920 में अहमदाबाद के 25,000 मजदूरों ने काम बन्द रखा।’
इस प्रकार 1920 ई. के पहले 6 महीने की अवधि में लगभग 200 हड़तालें हुईं जिनमें 15 लाख से अधिक मजदूरों ने भाग लिया।