Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 76 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 4

सुभाष चन्द्र बोस और फॉरवर्ड ब्लॉक

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का झुकाव आरम्भ से ही कांग्रेस के वामपंथी तत्त्वों के साथ रहा। वे युवा, संघर्ष-प्रिय, प्रगतिशील एवं वामपंथी गुट के प्रखर पक्षधर थे। उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर 1927 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में सर्वप्रथम सम्पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा, जो गांधी के विरोध के उपरान्त भी पारित हो गया। इस अवसर पर बोस को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में लिया गया। गांधीजी को यह पसन्द नहीं आया और नवम्बर 1928 में कलकत्ता कांग्रेस के दौरान गांधीजी ने डोमिनियन स्टेट्स (औपनिवेशिक दर्जा) से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित करवाया। अगले ही वर्ष लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में अधिक-से-अधिक वामपंथी तत्त्वों को संगठनात्मक दायित्वों से हटा दिया गया जिनमें सुभाषचन्द्र बोस भी थे। इस प्रकार, कांग्रेस में गांधी और सुभाषचन्द्र बोस के बीच अन्तर्विरोध बढ़ने लगा।

1934 ई. में कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व से खिन्न कांग्रेसियों ने, कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने स्वयं को इस दल से सम्बद्ध नहीं किया किंतु वे प्रकट रूप से इस पार्टी की नीतियों का समर्थन करते थे। 1938 ई. में सुभाषचंद्र बोस को हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। 1939 ई. में सुभाषचंद्र बोस पुनः कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खड़े किये गये जबकि गांधीजी तथा उनके अनुयायी सुभाषचंद्र के पक्ष में नहीं थे। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष बाबू के सामने खड़ा कर दिया। सुभाष का कहना था कि दक्षिणपंथी नेतृत्व की समझौतावादी नीति का विरोध करने के लिए मेरा चुनाव लड़ना आवश्यक है। इस प्रकार ये चुनाव गांधी और सुभाष के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गये।  चुनाव परिणाम सुभाष बाबू के पक्ष में रहा और पट्टाभि सीतारमैया हार गये। गांधीजी ने तिलमिलाकर घोषणा की कि यह मेरी हार है। संयम का पाठ पढ़ाने वाले गांधीजी इस हार में अपना संयम खो बैठे और उन्होंने कांग्रेस में बगावत खड़ी कर दी। गांधीजी के कहने पर कार्यसमिति के 15 सदस्यों ने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया। सुभाष बाबू ने कांग्रेस का विघटन रोकने का प्रयास किया परन्तु गांधीजी तथा उनके समर्थकों ने सुभाष से नाता तोड़ने का निर्णय कर लिया। सुभाष ने कांग्रेस को टूटने से बचाने के लिये अध्यक्ष पद त्याग  दिया। दक्षिणपंथियों ने तत्काल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को नया अध्यक्ष चुन लिया।

सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस के अन्दर ही एक ऐसी प्रगतिशील पार्टी की स्थापना करने का निश्चय किया जिसके झण्डे के नीचे समस्त वामपंथी तत्त्व एकत्र हो सकें। यह पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से गठित हुई। दक्षिणपंथियों ने इसकी स्थापना को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया। फॉरवर्ड ब्लॉक के तीन प्रमुख उद्देश्य थे-

(1.) भारत की आजादी के लिये तेजी से कार्य करना।

(2.) कांग्रेस पर से गांधी गुट का नेतृत्व हटाना।

(3.) दक्षिणपंथी नेताओं की समझौतावादी नीति का कड़ा विरोध करना।

सुभाषचन्द्र बोस का कहना था- ‘फॉरवर्ड ब्लॉक, श्री गांधी के व्यक्तित्व और अहिंसात्मक असहयोग के सिद्धान्त को पूरा सम्मान देती है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस के मौजूदा हाईकमान में भी अपनी निष्ठा बनाये रखे।’ इस पर कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सुभाष के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए उन्हें समस्त पदों से हटा दिया और मात्र चार-आने का सामान्य सदस्य रहने दिया। वामपंथी तत्त्वों ने भी फॉरवर्ड ब्लॉक की आलोचना की, क्योंकि वे इसकी स्थापना के पीछे सुभाष बाबू के व्यक्तिगत कारण मानते थे। वास्तविकता यह थी कि न तो गांधी के दक्षिणपंथी चेले, न जयप्रकाश नारायण के समाजवादी चेले और न रूस के पिछलग्गू वामपंथी चेले, सुभाषचंद्र बोस जैसे प्रखर नेता के नेतृत्व को उभरते हुए देखाना चाहते थे। वास्तविकता यह भी थी कि कांग्रेस के नेताओं को लगता था कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अँग्रेज भारत को आजाद कर देंगे। कांग्रेस का कोई भी धड़ा नहीं चाहता था कि आजादी की लड़ाई जीतने का श्रेय किसी भी कीमत पर कोई और ले जाये। कम से कम, सुभाष बाबू तो कतई नहीं। अतः फॉरवर्ड ब्लॉक अलग-थलग पड़ गया परन्तु सुभाष और उनके साथी डटे रहे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। अतः भारत सरकार ने फॉरवर्ड ब्लॉक को असंवैधानिक घोषित कर दिया। सुभाषचंद्र बोस तथा उनके साथियों को जेलों में डाल दिया गया। सुभाष बाबू ने जेल में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। कुछ दिनों बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। तब सरकार ने उन्हें जेल से रिहा करके उनके ही घर में नजरबन्द करके रखा। सुभाष वहाँ भी नहीं टिके और एक रात्रि में गुप्त रूप से घर से निकल गये। वे भारत छोड़कर चले गये। उन्हें हर हाल में देश को स्वतंत्र कराना था। सुभाष बाबू के भारत से चले जाने के बाद कांग्रेस के दक्षिणपंथी एवं वामपंथी नेताओं ने राहत की सांस ली तथा फॉरवर्ड ब्लॉक नेतृत्वहीन हो गया।

1946 ई. में फॉरवर्ड ब्लॉक की कार्यकारिणी की बैठक बम्बई में सम्पन्न हुई जिसमें फॉरवर्ड ब्लॉक को एक समाजवादी पार्टी बतलाया गया और वर्ग-संघर्ष की अवधारणा को इसका आधार माना गया परन्तु सुभाष द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लॉक, इस परिभाषा से मेल नहीं खाता था। सुभाष बाबू ने स्पष्ट कहा था कि फॉरवर्ड ब्लॉक, कांग्रेस के अभिन्न अंग के रूप में काम करेगा तथा कांग्रेस की संस्कृति, नीति एवं कार्यक्रमों को नहीं त्यागेगा। वह गांधी में भले ही विश्वास न रखे किंतु गांधी के अहिंसात्मक असहयोग के राजनीतिक सिद्धान्त में अटूट विश्वास रखेगा।

अन्य वामपंथी पार्टियाँ

असहयोग आन्दोलन के दौरान, अनेक अतिवादियों एवं क्रांतिकारियों ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। इनमें से अधिकांश मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित थे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन की वापसी के बाद कांग्रेस के अन्दर विभिन्न गुट उभरने लगे। कांग्रेस समाजवादी दल के अतिरिक्त अन्य विचारधारा वाले लोग या तो स्वेच्छा से कांग्रेस से अलग हो गये अथवा अलग कर दिये गये। इन लोगों ने विभिन्न वामपंथी दलों की स्थापना की। ये समस्त दल, मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर आधारित थे। यद्यपि ये दल राष्ट्रीय आन्दोलन में कोई विशेष भूमिका नहीं निभा पाये तथापि उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

भारतीय क्रांतिकारी साम्यवादी दल

सौम्येन्द्र नाथ टैगोर कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे और उन्होंने असहयोग आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी परन्तु जब गांधीजी ने आन्दोलन को अचानक स्थगित कर दिया तो उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया। वे साम्यवादी विचारधारा की तरफ मुड़ गये। 1927 ई. में सौम्येन्द्र नाथ, बंगाल मजदूर-किसान पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके थे। इसी हैसियत से वे मास्को गये तथा इण्टरनेशनल कम्युनिस्ट नेतृत्व को भारत में साम्यवादी आन्दोलन की स्थितियों से अवगत कराया। सौम्येन्द्र चाहते थे कि रूसी नेतृत्व मजदूर-किसान पार्टी को मान्यता प्रदान करे ताकि किसानों और मजदूरों में साम्यवादी आन्दोलन का अधिक प्रचार-प्रसार हो सके परन्तु सोवियत नेतृत्व उस समय औपनिवेशिक देशों में इस प्रकार की पृथक पार्टियों के निर्माण के पक्ष में नहीं था। जब भारतीय कम्युनिस्टों ने कांग्रेस में प्रवेश करने का निश्चय कर लिया तो सौम्येन्द्र टैगोर ने कम्युनिस्टों से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

आगामी कुछ वर्षों तक सौम्येन्द्र ने संयुक्त मोर्चा गठित करने वाली समस्त पार्टियों एवं गुटों के विरुद्ध संघर्ष चलाया। उनका मानना था कि साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी आन्दोलन तभी सफल होगा जब इसका नेतृत्व सही अर्थों में सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगा। वे हिंसात्मक कार्यवाहियों को अनुचित नहीं मानते थे। 1942 ई. में सौम्येन्द्र ने भारतीय क्रांतिकारी साम्यवादी दल की स्थापना की।

पार्टी ने द्वितीय विश्व युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित किया तथा भारतीयों से भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिये संघर्ष करने का आह्नान किया। अन्य वामपंथी दलों की भांति इस पार्टी ने भी क्रिप्स योजना का घोर विरोध किया परन्तु वामपंथी दलों की नीति से उलट, भारत छोड़ो आन्दोलन को पूर्ण समर्थन दिया एवं उसमें सक्रिय सहयोग दिया।

क्रांतिकारी समाजवादी दल

बारीन्द्र घोष तथा भूपेन्द्र के नेतृत्व में बंगाल के क्रांतिकारियों ने अनुशीलन समिति नामक संस्था स्थापित की थी। 1924 ई. में कुछ क्रांतिकारियों ने इस संस्था को पुनर्गठित करके हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी का गठन किया। नई संस्था का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत में ‘संयुक्त राज्य संघीय गणतंत्र’ की स्थापना करना था। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संस्था ने हर सम्भव विधि से अस्त्र-शस्त्र तथा धन जुटाना आरम्भ किया। योगेश चटर्जी इस संस्था के मुख्य कार्यकर्ता थे। बिहार, संयुक्त प्रदेश, पंजाब तथा दिल्ली में भी पार्टी के घटक सक्रिय थे परन्तु इसका संगठन काफी शिथिल रहा। 1930 ई. में चटगांव आर्मरी रेड के दौरान इस संस्था के अनेक कार्यकर्त्ता बंदी बना लिये गये और उन्हें लम्बी सजाएं दी गईं। जेल में रहते हुए वे लोग मार्क्सवादी साहित्य एवं समाजवादी विचारधारा के सम्पर्क में आये। 1937 ई. में इस संस्था के समस्त कार्यकर्त्ताओं को रिहा कर दिया गया। 1940 ई. में उन लोगों ने मिलकर क्रांतिकारी समजावादी दल की स्थापना की परंतु यह निर्णय लिया गया कि पार्टी कांग्रेस समाजवादी दल के अंदर रहते हुए कार्य करेगी। कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में क्रांतिकारी समाजवादियों ने गांधी-बोस विवाद में बोस का साथ दिया जबकि कांग्रेस समाजवादियों ने परोक्ष रूप से गांधी का समर्थन किया। इस कारण दोनों में वैमनस्य उत्पन्न हो गया और क्रांतिकारी समाजवादी दल ने कांग्रेस समाजवादी दल से सम्बन्ध तोड़ लिया। इस दल ने विश्वयुद्ध के दौरान अलग पहचान बनाये रखी और सोवियत रूस का अंधानुकरण न करके ब्रिटिश साम्राज्यवादी विरोधी रुख पर स्थिर रहा। इस दल ने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया।

भारतीय बोलशेविक पार्टी

बंगाल की लेबर पार्टी का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना तथा भारतीय सामाज को वर्ग-संघर्ष से बचाना था। यद्यपि लेबर पार्टी कम्युनिस्टों से सम्बद्ध थी तथापि कुछ मुद्दों पर वह, कम्युनिस्टों की घोर विरोधी थी। त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के दौरान लेबर पार्टी ने सुभाषचंद्र बोस का समर्थन किया। जबकि कम्युनिस्टों ने बोस को समर्थन नहीं दिया। इस बात पर लेबर पार्टी का कम्युनिस्टों से मोह भंग हो गया और 1939 ई. में एन. दत्त मजूमदार, अजीत राय, शिशिर राय आदि सदस्यों ने भारतीय लेबर पार्टी छोड़कर, भारतीय बोलशेविक पार्टी की स्थापना की। बोलशेविक पार्टी, साम्राज्यवाद विरोधी पार्टी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ में इस पार्टी ने साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन को सहयोग दिया परन्तु जब सोवियत संघ, मित्र राष्ट्रों के खेमे में आ गया तो बोलशेविक पार्टी का दृष्टिकोण बदल गया। अब उसने द्वितीय विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादियों का युद्ध न कहकर लोक युद्ध कहना आरम्भ कर दिया और जनता से अपील की कि ब्रिटिश सरकार को हर सम्भव सहायता प्रदान की जाये ताकि फासिस्ट शक्तियों को परास्त किया जा सके। जब कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया तो इस पार्टी ने आन्दोलन को तुरन्त स्थगित करने की मांग की।

इसी प्रकार, बोलशेविक-लेनिनिस्ट पार्टी और दी रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी आदि संगठन भी अस्तित्त्व में आये। इनमें से अधिकांश ने काग्रेस के अन्दर रहते हुए कार्य करना पसन्द किया। ये लोग, कांग्रेस को अपनी विचारधारा के अनुरूप ढालना चाहते थे परन्तु ऐसा नहीं हो सका।

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