Saturday, July 27, 2024
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विभाजित भारत का पहला नक्शा मुहम्मद इकबाल ने बनाया

मोहम्मद इक़बाल को अल्लामा इकबाल भी कहा जाता है। उसका जन्म 9 नवम्बर 1877 को पंजाब के सियालकोट जिले में (अब पाकिस्तान) में हुआ था। इकबाल के पूर्वज काश्मीरी शैव मत को मानने वाले ब्राह्मण थे। यह परिवार शोपियां से कुलगाम जाने वाली सड़क पर स्थित स्प्रैण नामक गांव में रहता था इसलिए इन्हें ‘सप्रू’ कहा जाता था।

इकबाल के परबाबा का नाम बीरबल, दादा का नाम कन्हैयालाल एवं पिता का नाम रतनलाल सप्रू था। शैव-ब्राह्मण होने के उपरांत भी रतनलाल एक अशिक्षित दर्जी था। गांव में उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी इसलिए रतनलाल स्प्रैण छोड़कर श्रीनगर चला गया। वहाँ उसने काश्मीर के अफगान सूबेदार के यहाँ नौकरी कर ली।

वह अपने सूबेदार के लिए कर की उगाही किया करता था। एक बार उसने कर की रकम में बहुत बड़ी हेराफेरी की। अफगान सूबेदार ने उसे पकड़ लिया और उसके सामने दो विकल्प रखे, या तो वह मुसमलान बन जाए या सूली पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाए। रतनलाल मुसलमान बन गया।

उसने अपना नाम ‘शेख़ नूर मोहम्मद’ रख लिया और काश्मीर से भाग कर स्यालकोट चला गया। वहाँ उसने ‘इमाम बीबी’ नामक एक मुस्लिम लड़की से विवाह कर लिया। इसी दाम्पत्य से इकबाल का जन्म हुआ। इमाम बीबी विनम्र तथा सहयोगी स्वभाव की महिला थी। उसने अपने पुत्र इक़बाल को पढ़ने के लिए ब्रिटेन भेज दिया।

इकबाल कुछ समय तक इंग्लैण्ड में पढ़ता रहा और उसके बाद ब्रिटेन से जर्मनी चला गया। जर्मनी में भी इकबाल ने कुछ समय तक अध्ययन किया। इकबाल ने भारत लौटकर तीन विवाह किये। उसका पहला विवाह करीम बीबी के साथ हुआ था जो एक गुजराती चिकित्सक ख़ान बहादुर अता मोहम्मद ख़ान की पुत्री थी। इससे इक़बाल को पुत्री मिराज बेगम और पुत्र आफ़ताब इक़बाल की प्राप्ति हुई।

इसके बाद इक़बाल ने दूसरा विवाह सरदार बेगम के साथ किया जिससे इकबाल को पुत्र जाविद इक़बाल की प्राप्ति हुई। दिसम्बर 1914 में इक़बाल ने तीसरा विवाह मुख्तार बेगम के साथ किया। इकबाल काश्मीर में हिन्दू राजा के राज्य का विरोध करने लगा। उसने काश्मीर के मुसलमानों को महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध भड़काया। चूंकि काश्मीरी पण्डित महाराजा हरिसिंह के समर्थक थे इसलिए इकबाल काश्मीरी पण्डितों का भी दुश्मन बन गया और उनके विरुद्ध जहर उगलने लगा।

मोहम्मद इक़बाल कट्टर मजहबी विचारों का व्यक्ति था। उसका मानना था कि इस्लाम रूहानी आज़ादी की जद्दोजहद के जज्बे का अलमबरदार है और सभी प्रकार के मजहबी अनुभवों का निचोड़ है। वह कर्मवीरता का एक जीवन्त सिद्धान्त है, जो जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाता है। इस्लाम ही एकमात्र धर्म है, जो सच्चे जीवन मूल्यों का निर्माण कर सकता है और अनवरत संघर्ष के द्वारा प्रकृति के ऊपर मनुष्य को विजयी बना सकता है।

इकबाल ने एक गीत- ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’ भी लिखा जो मुसलमानों का कौमी तराना बन गया। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ नामक गीत लिखकर उसने बड़ी लोकप्रियता अर्जित की। कुछ लोगों का मानना था कि यह द्विअर्थी गीत था जिसमें ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’ का अर्थ यह था कि मुसलमान आपस में बैर नहीं करें। ‘हम बुलबुलें हैं इसकी’ का गूढ़ अर्थ यह था कि समय आने पर बुलबुलें दाना चुगकर उड़ जाएंगी। अपने गीतों से प्रसिद्धि पाकर वह राजनीति में घुस आया था।

इकबाल की कविताओं एवं लेखों ने भारत के मुसलमानों में यह भावना भर दी कि, भारत में उनकी भूमिका हिन्दुओं से पृथक है। ई1922 में उसे सम्राट जॉर्ज पंचम द्वारा ज्ञदपहीज ठंबीमसवत बनाया गया। इक़बाल ने ही सबसे पहले ई.1930 में भारत के सिंध एवं पंजाब आदि प्रांतों के भीतर काश्मीर को मिलाकर एक नया मुस्लिम राज्य बनाने का विचार रखा।

इक़बाल के विचारों से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे ‘सर’ की उपाधि दी। ईरान में उसकी कविताएं इकबाल लाहौरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। ई.1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग का वार्षिक सम्मेलन आयोजित हुआ।

सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में डा. इकबाल ने मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान के आधार पर भारत में एक ‘अलग मुस्लिम राष्ट्र’ या फेडरेशन की स्थापना की वकालात की। इकबाल ने कहा- ‘मैं पंजाब, काश्मीर, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को एक अलग राष्ट्र में एकीकृत होते हुए देखना चाहता हूँ। ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन हो या ब्रिटिश साम्राज्य से अलग एक एकीकृत उत्तर-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राष्ट्र- मुझे मुसलमानों, खासकर उत्तर-पश्चिमी भारत के मुसलमानों की अंतिम नियति प्रतीत होती है।’

यह विभाजित भारत का पहला नक्शा था। उस समय तक पाकिस्तान शब्द का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिये इसे ‘मुस्लिम-भारत’ कहा गया। इस संकल्पना में बंगाल सम्मिलित नहीं था। मुहम्मद इकबाल ने लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया। इकबाल की मृत्यु 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में हुई। उसे पाकिस्तान का राष्ट्रकवि घोषित किया गया।

अब पाकिस्तान में उसे कवि के रूप में कम जाना जाता है, पीर के रूप में ज्यादा पूजा जाता है। जर्मन में इकबाल के नाम पर एक गली का नामकरण किया गया है। पाकिस्तान में उसकी कब्र पर रोज उसी प्रकार भीड़ होती है जिस प्रकार भारत में सूफी संतों की मजारों पर होती है।

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