Monday, November 4, 2024
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कुंवर भीमसिंह

कुंवर भीमसिंह मेवाड़ पर आक्रमण करने वाले मुगल सैनिकों के लिए साक्षात् काल बन गया। उसने मेवाड़ से लेकर गुजरात तक के क्षेत्र में मुगलों की चौकियां नष्ट कर दीं तथा सैंकड़ों मुगल सैनिकों को मार डाला।

ईस्वी 1680 के मध्य में जब औरंगजेब उदयपुर और चित्तौड़ में कई सौ मंदिरों को गिराकर अजमेर लौट गया तब महाराणा राजसिंह अरावली के दुर्गम पहाड़ों से निकलकर नाई गांव में आया। औरंगजेब ने अपने शहजादे अकबर को एक सेना के साथ चित्तौड़ में नियुक्त कर दिया था किंतु उदयपुर में वह किसी मुगल अधिकारी को नियुक्त करने का साहस नहीं कर सका। इसलिए उदयपुर नगर इस समय नितांत निर्जन पड़ा था।

महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब द्वारा मेवाड़ क्षेत्र में तोड़े गए मंदिरों का बदला लेने के लिए औरंगजेब द्वारा शासित क्षेत्र की मस्जिदों को तोड़ने का निर्णय किया। महाराणा ने औरंगजेब द्वारा मेवाड़ में तोड़े गए मंदिरों के पुनर्निर्माण के लिए औरंगजेब के कोषागारों से रुपया लूटने की योजना बनाई।

इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महाराणा राजसिंह ने अपने कुंवर भीमसिंह को गुजरात की तरफ भेजा। कुंवर भीमसिंह ने सबसे पहले ईडर पर आक्रमण किया तथा वहाँ के शाही थानों का रुपया लूट कर ईडर को लगभग नष्ट कर दिया।

इसके बाद भीमसिंह गुजरात के वड़नगर कस्बे में पहुंचा। वहाँ के मुगल अधिकारियों से कुंवर भीमसिंह ने 40 हजार रुपए छीन लिए। इसके बाद भीमसिंह ने अहमदनगर पहुंचकर वहाँ से दो लाख रुपए वसूल किए। बॉम्बे गजेटियर तथा राजप्रशस्ति के अनुसार कुंवर भीमसिंह ने गुजरात में एक बड़ी मस्जिद गिरवाई तथा गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित 300 अन्य मस्जिदें गिरा दीं।

महाराणा का मंत्री दयालदास मेवाड़ी सेना के साथ मालवा की तरफ भेजा गया। इस प्रदेश पर भी इन दिनों मुगलों का शासन था। दयालदास ने अनेक मुगल थानेदारों को मार डाला तथा अनेक थानों से पेशकश एवं दण्ड वसूल किया।

मंत्री दयालदास ने मालवा के कई स्थानों पर मुगल थानों को उजाड़कर मेवाड़ी थाने स्थापित कर दिए। इनमें से बहुत से क्षेत्र महाराणा कुंभा एवं महाराणा सांगा के समय मेवाड़ के अधीन हुआ करते थे। मंत्री दयालदास ने भी मालवा क्षेत्र में बहुत सी मस्जिदें गिराकर मेवाड़ में तोड़े गए मंदिरों का बदला लिया।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

महाराणा के मंत्री दयालदास को मालवा के मुगल थानों से इतना अधिक सोना प्राप्त हुआ कि वह इस सोने को ऊंटों पर लदवाकर उदयपुर ले आया। मेवाड़ी सेनाएं जगह-जगह धावे मारकर मुगलों के थाने उठा रही थीं किंतु इस काल के मुगलिया लेखकों ने बड़ी बेशर्मी के साथ अपनी जीत के दावे और मेवाड़ी सेना की पराजय के किस्से लिखे हैं जो न केवल तथ्यों के तार्किक विश्लेषण के आधार पर अपितु तत्कालीन अन्य स्रोतों के आधार पर गलत सिद्ध हो जाते हैं।

कई लेखकों ने तो बादशाह की चाटुकारिता करने के लिए बड़े हास्यास्पद किस्से गढ़े हैं जिनमें से एक यह भी है कि जब बादशाह मेवाड़ से वापस अजमेर चला गया तो कुंवर भीमसिंह डर के मारे मेवाड़ छोड़कर गुजरात की तरफ भाग गया।

यह कैसा भय था कि राजकुमार तब डरा जब औरंगजेब मेवाड़ से चला गया! यह कैसा भय था कि भयभीत राजकुमार अपना राज्य छोड़कर औरंगजेब के राज्य की तरफ भागा! यह कैसा भय था कि भयभीत राजकुमार ने औरंगजेब के राज्य में 301 मस्जिदें तोड़ीं तथा स्थान-स्थान पर मुगलों के खजाने लूट लिए!

इस प्रकार मेवाड़ी सरदार तथा राजकुमार मुगलों के थाने और खजाने लूटते जा रहे और तत्कालीन मुगलिया इतिहासकार अपनी पुस्तकों में झूठ दर्ज करते जा रहे थे।

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उन दिनों ये खजाने वस्तुतः प्रत्येक थाने पर हुआ करते थे जिन्हें आज की भाषा में गवर्नमेंट ट्रेजरी या राजकीय कोषागार कहा जाता है। इन खजानों मे स्थानीय किसानों एवं व्यापारियों आदि से वसूले गए कर एवं चुंगी की राशि रहती थी जो स्थानीय मुगल कर्मचारियों के वेतन आदि का भुगतान करने के बाद शेष बची राशि प्रांतीय सूबेदार से होती हुई दिल्ली एवं आगरा के कोषागारों में पहुंचाई जाती थी।

महाराणा राजसिंह द्वारा बदनोर के ठिकाणेदार सांवलदास राठौड़ को बदनोर के निकट ठहरी हुई मुगल सेना पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। इस मुगल सेना में 12 हजार सिपाही थे।

वीर सांवलदास की सेना ने रात के समय मुगल शिविर पर कई ओर से एक साथ आक्रमण किया। इसका परिणाम यह हुआ कि मुगल सेनापति रुहिल्ला खाँ रात में ही बदनौर छोड़कर अजमेर भाग गया। राठौड़ों ने उसके डेरे लूट लिए।

महाराणा के आदेश से ठाकुर केसरी सिंह ने चित्तौड़ में ठहरी हुई मुगल सेना पर आक्रमण किया तथा मुगलों के 18 हाथी, 2 घोड़े और कई ऊंट छीनकर ले आया। महाराणा के कुंवर गजसिंह ने बेगूं में ठहरी हुई मुगल सेना पर हमला बोला और बेगूं को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसमें वे मस्जिदें भी शामिल थीं जो मुगलों द्वारा बनाई गई थीं।

महाराणा राजसिंह के कुंअर जयसिंह ने बहुत से मेवाड़ी सरदारों के साथ चित्तौड़ में तैनात शहजादे अकबर पर रात के समय हमला बोला। इस हमले में मुगलों के एक हजार सिपाही और तीन हाथी मारे गए। अकबर भी रातों-रात चित्तौड़ छोड़कर भाग गया तथा राजपूतों ने मुगलों के 50 शाही घोड़े, शाही निशान तथा शाही नक्कारा आदि छीन लिए और तंबू तोड़ डाले।

इन हमलों से घबरा कर औरंगजेब ने महाराणा से सुलह-संधि की बात चलाई किंतु दुर्भाग्यवश 22 अक्टूबर 1680 को किसी ने महाराणा राजसिंह को धोखे से जहर मिश्रित भोजन खिला दिया जिससे महाराणा की मृत्यु हो गई। महाराणा का निधन भारत-भूमि के लिए बहुत बड़ी क्षति थी।

महाराणा राजसिंह मुगलों के विरुद्ध जीवन भर लड़ता रहा। उसने औरंगजेब के विरुद्ध कई बड़ी कार्यवाहियां की थीं। जब औरंगजेब ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती से विवाह करना चाहा तो महाराणा राजसिंह ने चारुमती के प्राणों और धर्म की रक्षा करने के लिए उससे विवाह किया।

जब औरंगजेब ने ब्रज भूमि के मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया तो महाराणा राजसिंह ने ब्रज भूमि से लाए गए श्रीनाथजी के विग्रह को मेवाड़ राज्य में प्रतिष्ठित करवाया तथा महाराणा ने स्वयं सीहोड़ गांव तक आकर भगवान श्रीनाथजी की अगवानी की।

श्रीनाथजी का यह विग्रह भारत भर के हिन्दुओं के लिए विशेष महत्व रखता है। भगवान की प्रतिमा अथवा मूर्ति को विग्रह कहा जाता है। इस विग्रह को महाप्रभु वल्लभाचार्य ने आगरा के शासक सिकन्दर लोदी के समय में गिरिराज पर्वत से खोजा था तथा भक्त-कुल-शिरोमणि सूरदास को इस विग्रह की सेवा में नियुक्त किया था। भक्तराज सूरदास जब तक जीवित रहे, वे नित्य-प्रतिदिन इस प्रतिमा के समक्ष कीर्तन एवं नृत्य करते रहे। सूरदास के हजारों पदों को सबसे पहले भगवान की इसी प्रतिमा ने सुना था।

ई.1679 में जब औरंगजेब ने भारत में जजिया कर लगाया था, तब महाराणा राजसिंह ने छत्रपति शिवाजी की तरह औरंगजेब को पत्र लिखकर धिक्कारा था। जब औरंगजेब ने जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह की सुन्नत करके उसे मुसलमान बनाने का षड़यंत्र रचा तो महाराणा राजसिंह ने ही राजकुमार अजीतसिंह को संरक्षण दिया था।

इन सब कारणों से महाराणा राजसिंह औरंगजेब की आंखों में उसी तरह खटकता था जिस तरह बुंदेलखण्ड का वीर राजा छत्रसाल, जोधपुर का महाराजा जसवंतसिंह तथा मराठों का राजा छत्रपति शिवाजी खटकता था। औरंगजेब, शस्त्र और सेना के बल पर राजसिंह को नहीं जीत सकता था किंतु हिन्दुओं के दुर्भाग्य ने महाराणा राजसिंह को अकस्मात् मृत्यु के हाथों में सौंप दिया था।

अब औरंगजेब मेवाड़ की तरफ से निश्चिंत होकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति मराठों के विरुद्ध लगा सकता था। दुर्दैव से मराठों के राजा छत्रपति शिवाजी भी 4 अप्रेल 1680 को चिरनिद्रा में सो चुके थे।

आगे बढ़ने से पहले हम कुछ प्रमुख हिन्दू राजाओं की हत्याओं का उल्लेख करना चाहेंगे। इन हत्याओं ने भारतीय इतिहास की विजय-धारा को अवरुद्ध करके उसे पराभव के मुख में धकेल दिया था। इनमें से पहली हत्या थी सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जिसे ई.1192 में उसके ही सेनापतियों एवं हिन्दू राजाओं ने मुहमम्द गौरी के साथ षड़यंत्र करके मार डाला था।

दूसरी हत्या थी महाराणा कुंभा की जिसे उसके ही पुत्र ऊदा ने ई.1468 में राज्य के लोभ में षड़यंत्र करके मार डाला था। तीसरी बड़ी हत्या थी महाराणा सांगा की जिसकी हत्या ई.1528 में उसके अपने सरदारों ने की थी क्योंकि वह खानवा के युद्ध के बाद बाबर से लड़ाई जारी रखना चाहता था।

चौथी बड़ी हत्या थी महाराणा राजसिंह की। जिन दिनों राजसिंह मुगलों के विरुद्ध बड़ी कार्यवाही करने में संलग्न था, उसी दौरान महाराणा को भोजन में विष मिलाकर दे दिया। माना जाता है कि यह हत्या महाराणा राजसिंह के ही किसी सामंत ने करवाई थी, क्योंकि महारणा राजसिंह औरंगजेब से युद्ध जारी रखना चाहता था और कुछ सामंत इस युद्ध को बंद कर देना चाहते थे।

इन हत्याओं के क्रम में पांचवी हत्या छत्रपति शिवाजी की बताई जाती है। हालांकि उनकी हत्या हुई या बीमारी से मृत्यु इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। इसकी विवेचना हम फिर कभी करेंगे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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