महर्षि विश्वामित्र के मंत्र से शुनःशेप बलि चढ़ने से बच गया! अंबरीष ने वरुण से प्रार्थना की कि वह शुनःशेप की बलि न ले किंतु वरुण अपने हठ पर दृढ़ रहा। महर्षि विश्वामित्र ने उसे बलि चढ़ने से बचा लिया ?
शुनःशेप का आख्यान ऋग्वेद, ऐतरेय ब्राह्मण, वाल्मीकि रामायण, ब्रह्मपुराण तथा महाभारत आदि ग्रंथों में कुछ अंतर के साथ प्राप्त होता है। इस आख्यान के अनुसार जब देवताओं को सोम मिलना बंद हो गया तब समस्त देवता क्षीण हो गये।
इस समय धरती पर सतयुग चल रहा था और ईक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न अंबरीष नामक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा राज्य करता था। उसे पुराणों में ईक्ष्वाकु अंबरीष भी कहा गया है। उसके कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने कठोर तपस्या करके देवताओं को प्रसन्न किया किंतु सोम न मिलने के कारण निर्बल हो चुके देवता राजा अम्बरीष को पुत्र नहीं दे सके। इस पर महर्षि वशिष्ठ ने अंबरीष को सलाह दी कि वह पुत्र प्राप्ति के लिये वरुण की उपासना करे।
अंबरीष के आह्वान पर वरुण प्रकट हुआ। राजा अंबरीष ने वरुण से प्रार्थना की कि कि वह अंबरीष को एक पुत्र प्रदान करे। इस पर वरुण ने राजा अंबरीष को पुत्र प्राप्ति के लिए एक अनुष्ठान करने की सलाह दी किंतु वरुण ने राजा के समक्ष यह शर्त भी रखी कि जब राजा को पुत्र प्राप्त हो जाए तो राजा अपने उस पुत्र को बलिभाग के रूप में वरुण को सौंप दे। पुत्र का मुँह देखने के लोभ में राजा अंबरीष ने वरुण की यह शर्त स्वीकार कर ली।
दर्शकों की सुविधा के लिए यह बता देना समीचीन होगा कि वैदिक ग्रंथों में वरुण को मूलतः असुर के रूप में दर्शाया गया है किंतु बाद में वह देवताओं का मित्र बनकर स्वयं भी देवता बन गया था।
जब वरुण को ज्ञात हुआ कि राजा अंबरीष की रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया है तो वह पहले से तय शर्त के अनुसार बलिभाग लेने के लिये राजा के समक्ष उपस्थित हुआ।
अंबरीष ने वरुण से प्रार्थना की कि वह अंबरीष के पुत्र की बलि न ले किंतु वरुण अपने हठ पर दृढ़ रहा। उसने बार-बार अंबरीष से बलिभाग की मांग की किंतु राजा अंबरीष किसी न किसी उपाय से वरुण को बार-बार टालता रहा।
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जब अंबरीष का पुत्र रोहित सोलह वर्ष का हो गया तब वरुण ने एक बार फिर अंबरीष के समक्ष प्रकट होकर बलिभाग मांगा किंतु राजा ने अपना पुत्र वरुण को सौंपने से मना कर दिया । इस पर राजा अंबरीष और वरुण में झगड़ा हो गया। राजकुमार रोहित ने वरुण को अपने पिता अंबरीष से झगड़ा करते हुए सुन लिया। रोहित ने अपने पिता से कहा कि वह एक यज्ञ करना चाहता है जिसमें वरुण को यज्ञ-पशु बनाकर विष्णु को बलिभाग देगा। इस पर तो वरुण और भी क्रुद्ध हो गया।
वरुण के कोप से बचने के लिये राजा अंबरीष ने राजकुमार रोहित को गहन वन प्रांतर में छिपा दिया। वहाँ रोहित की भेंट ऋषि अजीगर्त तथा उसके परिवार से हुई। ऋषि परिवार को आश्चर्य हुआ कि किस कारण से अल्पवयस् आर्य राजकुमार वन प्रांतर में आ छिपा है। रोहित ने आद्योपरांत समस्त विवरण ऋषि परिवार को सुनाया जिसे सुनकर ऋषि परिवार को रोहित पर दया आई और उन्होंने रोहित के स्थान पर अपना एक पुत्र वरुण को देने का निश्चय किया।
ऋषि अजीगर्त के तीन पुत्र थे- शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलांगूल। ऋषि परिवार में इस बात पर विचार-विमर्श हुआ कि कौनसा पुत्र वरुण को दिया जाए। ऋषि पत्नी ने कहा कि छोटा पुत्र मुझे प्राणों से प्रिय है, ऋषि बोले कि बड़ा पुत्र मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। मंझला पुत्र शुनःशेप रोहित की ही वयस् का था। उसने अपने पिता अजीगर्त से अनुरोध किया कि मैं राजपुत्र रोहित के स्थान पर यज्ञबलि बनकर वरुण को संतुष्ट करूंगा! अपने पुत्र का यह आग्रह सुनकर ऋषि अजीगर्त ने राजकुमार रोहित के प्राणों की रक्षा के लिये अपने पुत्र शुनःशेप को यज्ञ-पशु बनने की अनुमति दे दी।
ऋषि-पुत्र शुनःशेप ने वरुण का आह्वान किया तथा उससे प्रार्थना की कि वह रोहित के स्थान पर मेरी बलि ले क्योंकि रोहित अपने पिता का एक ही पुत्र है जबकि मेरे दो भाई और भी हैं। बलिभाग न मिलने से क्षीण हो चुके वरुण ने शुनःशेप का अनुरोध स्वीकार कर लिया।
राजकुमार रोहित ऋषि-पुत्र शुनःशेप को लेकर अपने पिता अंबरीष के पास आया और कहने लगा कि ऋषिकुमार शुनःशेप मेरे स्थान पर यज्ञ-पशु बनने को तैयार है किंतु राजा अंबरीष ने ऋषिकुमार शुनःशेप का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तथा कहा कि यह अन्याय है। इससे कहीं अधिक श्रेयस्कर तो यह है कि मैं अपने ही पुत्र की बलि देकर वरुण को संतुष्ट करूं।
इस पर ऋत्विज विश्वामित्र, जमदाग्नि, वसिष्ठ तथा अयास्य ने राजा अंबरीष को समझाया कि वह चिंतित न हो, अग्नि की कृपा से कोई न कोई हल निकल आएगा और बिना नरबलि के ही यज्ञ संपन्न होगा। अतः यज्ञ आरंभ किया जाये। राजा ने यज्ञ करने की अनुमति दे दी। इक्ष्वाकुओं के पुरोहित वसिष्ठ यज्ञ के ‘होता’ बने। विश्वामित्र, जमदाग्नि और अयास्य आदि ऋत्विज मंत्रोच्चार के साथ आहुतियाँ देने लगे।
इक्ष्वाकु अंबरीष ने शुनःशेप के बदले, सौ गौएं ऋषि अजीगर्त को अर्पित कीं। शुनःशेप को बलियूप से बांध दिया गया। यज्ञ की अग्नि को बढ़ते हुए देखकर लाल वस्त्रों से बंधा शुनःशेप कातर हो उठा और अपने प्राण बचाने की गुहार लगाने लगा किंतु बलिभाग के लिए आतुर वरुण को शुनःशेप पर करुणा नहीं आई।
जब अग्नि की प्रबल लपटों के बीच ‘अभिषेचनीय एकाह सोमयाग’ में नर-पशु का आलंभन करने का समय आया तो कोई भी ऋषि अपने हाथों से शुनःशेप की बलि देने को तैयार नहीं हुआ। इस पर राजकुमार रोहित के कल्याणार्थ ऋषि अजीगर्त स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्र का आलंभन अर्थात् बलि करने के लिये खड़े हुए। आत्मग्लानि से भरे राजा अंबरीष ने ऋषि अजीगर्त को सौ गौएं और प्रदान कीं। जन्मदाता पिता को ही पुत्र की मृत्यु का आह्वान करते देख शुनःशेप चीत्कार करने लगा।
शुनःशेप को चीत्कार करते हुए देखकर विश्वामित्र ने अपने पुत्र मधुच्छंदा को आज्ञा दी कि शुनःशेप के स्थान पर वह यज्ञ-पशु बन जाये। मधुच्छंदा ने यज्ञ-पशु बनने से मना दिया दिया इस पर विश्वामित्र ने अपने अन्य पुत्रों का आह्वान किया किंतु कोई भी ऋषि-पुत्र अपने प्राण देने पर सहमत नहीं हुआ। इस पर क्रुद्ध विश्वामित्र ने अपने पुत्रों को श्राप दिया है कि वे भी वसिष्ठ के पुत्रों की तरह चाण्डाल बनकर एक सहस्र वर्ष तक पृथ्वी पर कुत्तों का मांस खाएं।
विश्वामित्र, वसिष्ठ, जमदाग्नि तथा अयास्य आदि समस्त ऋत्विज करुणा से विगलित होकर प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण तथा इंद्र से शुनःशेप के प्राणों की रक्षा करने के लिये प्रार्थना करने लगे। ऋषि विश्वामित्र के आदेश से स्वयं शुनःशेप भी प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण, विश्वदेव, उषा, इंद्र तथा अश्विनीकुमारों की बार-बार स्तुति करने लगा।
शुनःशेप के आह्वान पर अग्नि आदि नौ देव एक साथ प्रकट हुए। अग्नि ने शुनःशेप को ओज प्रदान किया। इन्द्र ने शुनःशेप को हिरण्यमय रथ दिया। इस प्रकार समस्त देवों ने शुनःशेप को कुछ न कुछ दिव्य गुण एवं वस्तुएं प्रदान कीं। समस्त देवों को शुनःशेप पर द्रवित हुआ देखकर वरुण का आसुरि भाव भी नष्ट हो गया। उसने शुनःशेप को दीर्घायु होने का वरदान देकर उसे बलि-यूप से मुक्त कर दिया।