Friday, April 19, 2024
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7. गविष्टि

ऋषि पत्नी अदिति ने यज्ञ शाला में स्थापित दुंदुभि उठाकर ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा के मंगलमय हाथों में रखी। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने दुंदुभि को मस्तक से लगाते हुए इंद्र का आह्वान किया-‘ हे इन्द्र हमारे पशुओं को हमें वापस दो। हमारी दुन्दुभि हमारे संकेत पर बार-बार घोष करती है। हमारे नेता अश्वारूढ़ होकर एकत्र होते हैं। हे इन्द्र हमारे रथारूढ़ योद्धा विजयी हों।’[1]

ऋषि पर्जन्य ने दुंदुभि पर स्वस्तिक अंकित करते हुए प्रार्थना की- हे दुंदुभि! पृथ्वी और आकाश दोनों को तू अपनी ध्वनि से भर दे जिससे स्थावर और जंगम दोनों तेरे घोष को जान जायें। तू जो इन्द्र और देवों का सहचर है, हमारे शत्रुओं को दूर भगा दे।’ [2]

गविष्टि के समय आर्यों का नेतृत्व करने वाले ‘गोप’ आर्य सुरथ ने ऋषियों को आश्वस्त करते हुए दुंदुभि को नमस्कार किया और दुंदुभि का आह्वान करते हुए कहा- ‘हे दुंदुभि! तू हमारे शत्रुओं के विरुद्ध घोष कर। हमें बल दे। दुष्टों को भयभीत करते हुए शब्द कर। जिन्हें हमें दुःख पहुँचाने में ही सुख मिलता है, उन्हें भगा दे। तू इन्द्र की मुष्टि है, हमें दृढ़ कर।’ [3]

ऋषि उग्रबाहु ने ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा से दुंदुभि लेकर तुमुल शब्द उत्पन्न किया जो चारों दिशाओं में व्याप्त हो गया।

इसी के साथ गोप सुरथ और उनके आर्य वीरों ने अपने अश्वों और रथों को असुरों के प्रस्थान की दिशा में हाँक दिया। असुरों का दल गौओं को हाँकता हुआ अधिक दूर नहीं गया था कि आर्य अश्वारोहियों ने उसे जा घेरा। आर्य अतिरथ और आर्य सुनील भी असुरों के पीछे जाते हुए उन्हें मार्ग में ही मिल गये। असुरों को अनुमान था कि आर्य अश्वारोही शीघ्र ही उन्हें आ घेरेंगे। अतः वे असावधान नहीं थे। हरित तृण और निर्मल जल से सेवित गौओं को असुरों के चंगुल में छटपटाते हुए देखकर आर्यवीरों का रक्त खौल उठा किंतु अभी उचित अवसर न जानकर उन्होंने तत्काल असुरों पर आक्रमण नहीं किया।

आर्य अश्वारोहियों का दल कृष्णायस [4] कवच एवं शिरस्त्राण धारण किये हुए होने के कारण सुरक्षित था तथा लौह-खड्ग धारण किये हुए होने के कारण काष्ठ एवं प्रस्तरों के शस्त्र धारण करने वाले पदाति असुरों की तुलना में काफी बलशाली था फिर भी इस समय उनकी संख्या असुरों की अपेक्षा काफी कम थी इसलिये उन्होंने असुरों पर सीधा आक्रमण न करके उनके मार्ग को अवरूद्ध करना ही अधिक उचित समझा। वे चाहते थे कि रथों पर सवार आर्य धनुर्धरों के आ पहुँचने तक असुरों को अटकाया जाये। तब आर्यों की संख्या पर्याप्त हो जायेगी और असुर उनका सामना करने की स्थिति में नहीं रह जायेंगे।

असुरों का नायक कृष्णवर्ण की स्थूल काया का स्वामी था। निरंतर मांस भक्षण और रक्तपान करने के कारण उसका चेहरा अत्यंत विकराल जान पड़ता था जिस पर धूर्तता के भाव दूर से ही दिखाई पड़ते थे। मस्तक पर सींग धारण कर लेने के कारण वह और भी क्रूर प्रतीत होता था। आर्य सुरथ ने दूर से ही पहचान लिया था असुर नायक विरूपाक्ष को। आर्य सुरथ और असुर विरूपाक्ष पहले भी युद्ध क्षेत्र में एक-दूसरे का सत्कार कर चुके हैं।

  – ‘क्यों आर्य! गौएं छुड़ा ले जाने आया है ?’ व्यंग्य किया विरूपाक्ष ने। अश्वारोही आर्यों की बहुत कम संख्या को लक्षित करके उसका हौंसला बढ़ गया प्रतीत होता था।

  – ‘नहीं असुर विरूपाक्ष! तुझे पुरोहित जानकर गौएं दान करने के उद्देश्य से आया हूँ।’ असुर की ही व्यंजना में उत्तर दिया आर्य सुरथ ने।

  – ‘क्या खूब कही तूने! आर्य सुरथ, कितना अच्छा हो यदि दुष्ट आर्य हम शक्तिशाली असुरों को अपना पुरोहित नियुक्त कर लें। तब तुझे अग्नि को प्रसन्न करने के लिये यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।’

दोनों नायकों की रोचक व्यंजनायें सुनकर असुरों का दल थम सा गया था। उनके मध्य में घिरी हुई गौएं अपने पुराने स्वामियों को देखकर शांत हो गयी थीं। उन्हें नियंत्रित करने मे अब असुरों को श्रम नहीं करना पड़ रहा था।

  – ‘असुरगण यदि दस्युकर्म त्याग दें तो आर्यजन उन्हें अपना दास घोषित कर सकते हैं विरूपाक्ष।’

  – ‘हा-हा! असुर और दास!! अग्नि पूजक आर्यों के दास!!!’ अट्टहास किया विरूपाक्ष ने।

  – ‘अग्नि तो इस सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है विरूपाक्ष। तुम्हारा भी।’

  – ‘और वरुण ? वरुण नहीं है इस सृष्टि का स्वामी ?’

  – ‘असुरों द्वारा पूज्य वरुण को इन्द्र ने देवपद प्रदान कर दिया है। अब तेरा यह उपालंभ उचित नही।’

  – ‘किंतु कब ? कब किया इन्द्र ने वरुण को देवत्व प्रदान ? जब इन्द्र ने वरुण के मित्र वृत्र का वध कर दिया ? अब इस देवपद का क्या लाभ है आर्य सुरथ ?’ क्रोध से विरूपाक्ष के नथुने फड़कने लगे।

  – ‘ इन्द्र को वृथा दोष देना उचित नहीं है विरूपाक्ष। स्वयं त्वष्टा ने वृत्र के शत्रु इन्द्र की वृद्धि के लिये यज्ञ करवाया था।’ आर्य सुरथ ने हँसकर कहा और उनके साथ समस्त आर्यवीर भी हँस पड़े।

  – ‘पाखण्डी हो तुम सब! त्वष्टा ने इन्द्र की वृद्धि के लिये नहीं, अपितु इन्द्र के शत्रु और अपने पुत्र वृत्र की वृद्धि के लिये यज्ञ करवाया था किंतु धूर्तता वश पाखण्डी ऋषियों ने उसका उच्चारण बदल कर मंत्र को दूषित कर दिया।’ [5] विरूपाक्ष आर्य सुरथ के व्यग्ंय से तिलमिला कर रह गया।

  – ‘मिथ्या प्रलाप मत कर विरूपाक्ष। जिन ऋषियों को तू बलपूर्वक उठाकर ले गया था, वे पाखण्डी क्यों कर हुए ? क्या वृत्र के लिये यह उचित था कि वह वरुण को बांध कर रखता ? ऋषिगण इस कार्य में वृत्र की सहायता कैसे कर सकते थे! त्रुटि वृत्र की थी। एक तो उसने वरुण को बांध लिया और जब इन्द्र वरुण को मुक्त करवाने के लिये आया तो वृत्र इन्द्र का भी नाश करने को तत्पर हो गया।’

  – ‘झूठ बोलता है तू। वृत्र ने वरुण को बांधा नहीं था, केवल अपने स्थान पर स्थिर कर दिया था।’

  – ‘एक ही अर्थ है इन दोनों बातों का। वरुण के स्थिर हो जाने से नदियों में जल का प्रवाह अवरूद्ध हो गया। वर्षा बंद हो गयी। समस्त प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी।’

– ‘समस्त प्रजा से तेरा क्या आशय ? यह असुरों का आपसी विवाद था। देवों को इसमें कूदने की क्या आवश्यता थी ? सत्य तो यह है कि इंद्र को असुरों के पुर तोड़कर पुरंदर की उपाधि धारण करने की कामना थी ताकि कोई अन्य देव इंद्रपद प्राप्त करने के लिये उससे स्पर्धा न कर सके।’

  – ‘कैसे हो गया यह असुरों का आपसी विवाद ? यदि अग्नि से उत्पन्न वरुण असुरों का मित्र हो गया तो क्या वह किसी अन्य प्राणी के लिये उपलब्ध नहीं रहेगा ?’

  – ‘वरुण तुम्हारा दास नहीं है।’

  – ‘हाँ। असुर वरुण आर्यों का दास नहीं है। अब वह आर्यों द्वारा पूज्य देव है।’

दोनों नायकों का वार्तालाप व्यंजना को त्यागकर युद्ध आरंभ की घोषणा तक पहुँचा ही था कि रथाति आर्यों का दल आ पहुँचा। उनके तीक्ष्ण शरों ने देखते ही देखते असुरों का संहार आरंभ कर दिया। असुर प्रस्तर और अस्थियों से निर्मित भोथरे अस्त्र-शस्त्रों से आर्यों का सामना करने की स्थिति में नहीं थे। उनकी विजय तो उसी स्थिति में हो सकती थी जब शत्रु या तो असावधान हो या फिर बहुत ही कम संख्या में। असुरों के काले शरीरों से रक्त की धारायें छूटने लगीं और वे तेजी से घटने लगे। अनेक असुर प्राण लेकर भाग छूटे। गोप सुरथ बड़ी देर तक सघन वन प्रांतर में विरूपाक्ष को ढूंढते रहे किंतु वह गौओं तथा वृक्षों की ओट लेकर भाग जाने में सफल रहा।

गौओं को अपने संरक्षण में लेकर आर्य योद्धाओं ने अपने अस्त्र-शस्त्र परुष्णि के पावन जल में प्रक्षालित किये और स्वयं भी स्नान आदि से निवृत्त होकर गौओं तथा अश्वों को हरित तृण एवं निर्मल जल से संतुष्ट किया। जब आर्य वीर गौओं को लेकर अपने ‘जन’ पहुँचे तब तक सूर्यदेव ने अपना रथ पश्चिम दिशा में काफी दूर तक हाँक दिया था।


[1] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है-

आमूरज प्रत्यावर्तयेमाः केतुमद्दुन्दुभिर्वा वदीति।

समश्सपर्णाश्चरन्ति नो नरोऽस्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु। 6.47.31

[2] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है-

उप श्वासय पृथिवीमुत द्यां पुरूत्रा ते मनुतां विष्ठितं जगत्।

स दुन्दुभे सजूरिन्द्रेण देवैर्दूराद्दवीयो अप सेध शत्रून्।। 6. 47.29

[3] ऋग्वेद में यह ऋचा इस प्रकार से आई है-

आ क्रन्दय बलमोजो न आ धा निः ष्टनिहि दुरिता बाधमानः।

अप प्रोथ दुन्दुभे दुच्छुना इत इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीळयस्व।। 6.47.30

[4] लौह।

[5] त्वष्टा ने अपने पुत्र वृत्र की वृद्धि के लिये एक यज्ञ करवाया। इसमें मंत्रपाठ ‘इन्द्रशत्रुर्व। र्धस्व’ किया जाना था। अर्थात् इन्द्र के शत्रु (वृत्र) की वृद्धि हो। इसमें इन्द्रशत्रुपद के अन्त में उदात्त स्वर हैं, ऋत्विजों ने इसके आदि में उदात्त रखकर इसका पाठ इस प्रकार किया- ‘इन्द्र।शत्रुर्वर्धस्व’। जिससे इसका अर्थ हो गया- ‘शत्रु इन्द्र की वृद्धि हो।’ पाणिनीय शिक्षा में एक श्लोक में इस आख्यायिका का उल्लेख मिलता है, जिसमें कहा गया है कि मंत्र के दूषित उच्चारण से उत्पन्न अर्थ यजमान का नाश कर देता है- ‘दुष्टो मन्त्रः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।।

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