Saturday, July 27, 2024
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देवनागरी लिपि युक्त हिन्दी के लिए मैमोरेण्डम

डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (6)

हिन्दी आंदोलन के पुरोधाओं में से एक बालमुकुन्द ने लिखा है कि उस काल में (उन्नीसवीं सदी के मध्य में) जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा ‘हिन्दी’ न रहकर ‘उर्दू’ बन गयी। हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी। हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी लिपि में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था।

बालमुकुंद ने लिखा है कि उस काल में शिक्षा में मुसलमानों से बहुत आगे रहने के बावजूद सरकारी नौकरियों से वंचित होने पर नागरी लिपि और हिंदी भाषा का व्यवहार करने वाले हिंदुओं में असंतोष होना बिल्कुल स्वाभाविक-सी बात थी और इसके खिलाफ सरकारी क्षेत्रों में नागरी लिपि को लागू करने की माँग भी वाजिब और लोकतांत्रिक थी।

राजा शिवप्रसाद सितारा ए हिंद

ई.1867 में ‘संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध’ में कुछ हिन्दुओं ने उर्दू के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बनाने की माँग की। ई.1868 में बाबू शिवप्रसाद ने अंग्रेजों को एक ज्ञापन दिया। बाबू शिवप्रसाद का जन्म बनारस के एक वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पूर्वजों ने बंगाल के नवाबों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता की थी। इसलिए अंग्रेज सरकार उन्हें बहुत प्रतिष्ठा एवं आदर देती थी तथा बाबू शिवप्रसाद एवं उनका परिवार अंग्रेजी शासन का भक्त माना जाता था।

लॉर्ड मेयो ने बाबू शिवप्रसाद को इम्पीरियल काउंसिल का सदस्य बनाया तथा अंग्रेजी सरकार ने उन्हें ‘राजा’ तथा ‘सितारा ए हिंद’ की उपाधियां दीं इसलिए उन्हें राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द कहा जाता था। वे अंग्रेज-भक्त व्यक्ति थे।

उनकी अंग्रेज भक्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ई.1883 में वायसराय के लॉ मेम्बर सर सी. पी. इल्बर्ट ने इल्बर्ट बिल प्रस्तुत किया। इस बिल में प्रावधान किया गया था कि यदि कोई अंग्रेज अधिकारी भारत में किसी अपराध में लिप्त पाया जाता है तो उसे भी किसी भारतीय जज के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है।

अंग्रेजों ने इस बिल का तीव्र विरोध किया। भारतीय जनता ने इस बिल का जोरदार स्वागत किया किंतु अंग्रेज-भक्त होने के कारण बाबू शिवप्रसाद ने एल्बर्ट बिल का विरोध किया और उसे भारत में लागू होने से रोकने के लिए आंदोलन चलाया।

अंग्रेज-भक्त होने पर भी बाबू शिवप्रसाद को हिन्दी भाषा से अनन्य प्रेम था। जब राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने हिन्दू लड़कों को देवनागरी की बजाय फारसी लिपि सीखते देखा तो वे देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को अंग्रेजी न्यायालयों एवं कार्यालयों की भाषा बनाने के समर्थक बन गए।

बाबू शिवप्रसाद हिन्दी और नागरी के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और सुनिश्चित रूप नहीं गढ़ा जा सका था। कहा जा सकता है कि इस काल में खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल चल रही थी।

वह खड़ी होने का प्रयास कर रही थी किंतु अपने प्रयास में सफल नहीं हो पा रही थी। एक तरफ तो भारत की अंग्रेजी सरकार भारत में अंग्रेजी भाषा के प्रसार-प्रचार का अभियान चला रही थी तो दूसरी ओर राजकीय कार्यालयों एवं न्यायालयों में फारसी लिपि एवं उर्दू भाषा में कार्य हो रहा था।

ई.1868 में राजा शिवप्रसाद ने संयुक्त प्रांत की सरकार को ‘कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर प्रोविंसेज ऑफ इंडिया’ (भारत के ऊपरी प्रांतों के न्यायालयों का चरित्र) शीर्षक से एक मेमोरेंडम (स्मृतिपत्र) दिया। इस मेमोरेंड में कहा गया कि –

जब मुसलमानों ने हिंदोस्तान पर कब्जा किया, तब उन्होंने पाया कि हिंदी इस देश की भाषा है और इसी लिपि में यहाँ के सभी कारोबार होते हैं।

उन्होंने फारसी को इस देश के लोगों पर जबर्दस्ती थोपा ……लेकिन उनकी फारसी शहरों के कुछ लोगों को, ऊपर-ऊपर के दस-एक हजार लोगों को छोड़कर, आम लोगों की जुबान कभी नहीं बन सकी। आम लोग फारसी शायद ही कभी पढ़ते थे। आजकल की फारसी में आधी अरबी मिली हुई है। सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओं के बीच सामी तत्वों को खड़ा करके उन्हें अपनी आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो आर्य हैं, क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का।

बाबू शिव प्रसाद ने मैमोरेण्डम में लिखा कि फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। इससे हमारे सभी विचार दूषित हो जाते हैं और हमारी जातीयता की भावना खत्म हो जाती है।…….पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं। कुछ लोग मुसलमानों की कृपा पाने के वास्ते अगर पूरे नहीं, तो आधे मुसलमान जरूर हो गए हैं। लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की रचनाओं का आदर करते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है। ……मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी जगह हिन्दी (देवनागरी) लिपि को लागू किया जाए।

इस प्रकार बाबू शिव प्रसाद ने अपने ज्ञापन में देवनागरी लिपि को भारत में सामान्यतः व्यवहृत होने वाली लिपि बताया तथा मध्यकाल के मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं को बलपूर्वक फारसी सिखाने का दोषी बताया। हिन्दी भाषा के उन्नयन के लिए राजा शिवप्रसाद सितारा ए हिन्द ने ‘बनारस अखबार’ नामक समाचार पत्र भी प्रकाशित किया।

मदनमोहन मालवीय एवं अनेक मूर्धन्य व्यक्ति भी हिन्दी आन्दोलन के आरम्भ के उल्लेखनीय समर्थक बन गए।

मुसलमानों का उर्दू को समर्थन

जब उत्तर भारत के हिन्दू सरकारी कार्यालयों में हिन्दी एवं देवनागरी लिपि की मांग करने ले तो इसकी प्रतिक्रिया में भारत के मुसलमान उर्दू के पक्ष में उतर आए। उन्होंने सरकारी कार्यालयों एवं न्यायालयों में उर्दू की आधिकारिक मान्यता को समर्थन दिया; सैयद अहमद खाँ फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू जबान का सबसे मुखर समर्थक बन गया।

प्रेस ने दिया भाषाई विवाद को मंच

भारत में ई.1557 में गोआ में पुर्तगालियों द्वारा देश के पहले छापाखाने (मुद्रणालय) की स्थापना की गई थी। इसके बाद देश के विभिन्न नगरों में छापाखाने लगने लगे जिनमें ईसाई मत के प्रचार हेतु पम्फलेट्स एवं बुकलेट्स छपा करती थीं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन काल के आरम्भ होते ही ई.1767 से भारत में समाचार पत्रों का प्रकाशन भी आरम्भ होने लगा था। ई.1818 आते-आते अंग्रेजी एवं बांग्ला आदि भाषाओं में कई समाचार पत्र छपने लगे थे। ई.1826 में देश का पहला हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगा। इसके बाद देश में अनेक समाचार पत्र निकलने आरम्भ हो गए।

जिस समय भारत में ई.1858 में गोरी रानी का राज हुआ, उस समय तक भारत में हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला एवं मराठी आदि अनेक भाषाओं में कई पत्र-पत्रिकाएं छपती थीं। जब हिन्दुओं ने हिन्दी भाषा एवं देवनागरी लिपि के लिए तथा मुसलमानों ने उर्दू भाषा और फारसी लिपि के लिए आंदोलन आरम्भ किए तो उत्तर भारत के विभिन्न नगरों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाएं इस विवाद के प्रमुख मंच बन गए।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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