डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (7)
जिस समय से (ई.1858 से) भारत पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शासन हुआ और हिन्दू जाति को कुछ सोचने-समझने की छूट मिली, हिन्दू जाति ने एक नई अंगड़ाई लेनी आरम्भ की। इस काल के हिन्दू युवकों में एक ऐसी नई क्रांति ने जन्म लिया जिसे वैचारिक क्रांति कहा जा सकता है। इस क्रांति की धार और मार सन् सत्तावन की सशस्त्र क्रांति से भी अधिक गहरी और तीखी थी।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आरम्भ हुई इस वैचारिक क्रांति का नेतृत्व महर्षि दयानंद सरस्वती (ई.1824-1883), भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र (ई.1850-1885), बालगंगाधर तिलक (ई.1856-1920), बिपिनचंद्र पाल (ई.1858-1932), महामना मदन मोहन मालवीय (ई.1861-1946), स्वामी विवेकानंद (ई.1863-1902), लाला लाजपतराय (ई.1865-1928), अरबिंदो घोष (ई.1872-1950) आदि प्रखर हिन्दू युवकों ने किया। इन युवकों ने भारतीयों के विचारों को नई गति दी तथा उन्हें अपनी दुर्दशा पर सोचने के लिए प्रेरित किया।
इस काल में रेलों का संचालन आरम्भ होने एवं टेलिफोन लाइनें आरम्भ होने से भारत के लोगों को दूरस्थ प्रांतों के लोगों से मिलने एवं बातचीत करने के अधिक अवसर मिलने लगे थे। इसके साथ ही समाचार पत्रों के माध्यम से विश्व भर में चल रही राजनीतिक घटनाओं एवं उनके परिणामों के समाचार मिलने लगे थे। उन्हें यह भी पता लगने लगा था कि अंग्रेज जाति अजेय नहीं है, विश्व में अनेक मोर्चों पर उनकी सेनाओं को हराया जाता रहा है।
इन सब कारणों से हिन्दू जाति को भी अपनी दुर्दशा पर नए सिरे से विचार करने तथा विदेशी राज से मुक्ति हेतु मार्ग ढूंढने के लिए सोचने का अवसर मिला। ब्रिटिश राज में कुछ हिन्दू नवयुवकों में इतना वैचारिक बल आ गया कि अब वे पत्र-पत्रिकाओं में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लेख एवं कविताएं आदि लिखकर अपनी आवाज उठाने लगे थे।
हिन्दी साहित्य में इस काल का नेतृत्व बनारस के नवयुवक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने किया। उन्होंने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए ‘कवि वचन सुधा’ एवं ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ नामक दो पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ किया। एक लेखक ने लिखा है कि हरिश्चंद्र के युग में लगभग प्रत्येक लेखक किसी न किसी पत्र या पत्रिका का सम्पादन या प्रकाशन करता था।
यद्यपि भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने केवल 34 वर्ष की आयु पाई तथापि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दू जाति को झिंझोड़कर नींद से उठा दिया। उन्होंने ‘भारत दुर्दशा’ शीर्षक से एक छोटा सा नाटक लिखकर हिन्दू जाति की दुर्दशा पर बड़ा शोक व्यक्त किया। इस नाटक में हिन्दुओं के अतीत के गौरव की चमकदार स्मृति को बड़े प्रभावशाली ढंग से लिखा गया था और उसके वर्तमान को आँसुओं से भरा हुआ बताते हुए हिन्दू जाति को फिर से स्वर्णिम भविष्य के पथ पर अग्रसर होने की भव्य प्रेरणा दी गई थी। इस नाटक में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने अंग्रेजी राज में भारतवासियों की दुर्दशा पर शोक व्यक्त करते हुए लिखा-
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो।।
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
जहँ भए शाक्य हरिचंद नहुष ययाती।
जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती।।
जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।
तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती।।
अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी।।
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।
छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी।।
भए अंध पंगु सब दीन हीन बिलखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी।।
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री।।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
जब यह नाटक हिन्दी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ तो इस नाटक की गूंज भारत के शिक्षित वर्ग में सुनाई देने लगी। उन्हीं दिनों में कुछ अन्य लेखकों ने भी ऐसे ही उत्तेजक विचार प्रस्तुत किए जिनसे देश के युवाओं में नवीन उत्साह का संचरण हुआ।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता