किसी भी राष्ट्रीय कला का वास्तविक मूल्यांकन करते समय हमें यह विचार नहीं करना चाहिए कि उस कला ने क्या उधार लिया है अपितु यह देखना चाहिए कि उसने क्या दिया है। इस प्रकाश में देखने पर भारतीय कला को यूरोप या एशिया में महान स्कूलों में भी महानतम स्थान पर रखना चाहिए। – ई. बी. हावेल।
आर्यों के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद (ई.पू.4000 से ई.पू.1000) में कला शब्द का प्रयोग हुआ है- ‘यथा कला, यथा शफ, मध, शृण स नियामति।’ भरतमुनि (ई.पू.400 से ई.100 के बीच किसी समय) ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में भी कला शब्द का प्रयोग किया है- ‘न तज्जानं न तच्छिल्पं न वाधि न सा कला।’ अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जिसमें कोई शिल्प नहीं, कोई विधा नहीं या जो कला न हो।
भरतमुनि द्वारा प्रयुक्त ‘कला’ का आशय ‘ललित कला’ से लगाया जाता है और ‘शिल्प’ का आशय सम्भवतः किसी उपयोगी कला से। सामान्यतः कला उन क्रियाओं को कहते हैं जिन्हें करने के लिए थोड़ी चतुराई अथवा कौशल की आवश्यकता होती है। भारतीय कला-चिंतन में मन की सात्विक प्रवृत्तियों को उजागर करने पर बल दिया गया है।
कला के उद्देश्य
‘कला’ सृजन के अनेक उद्देश्य होते हैं। कला में आत्म-चैतन्य की प्रधानता होती है। कला का विचार भौतिक स्वरूप में प्रकट होता है किन्तु उसका उद्देश्य वस्तु के भौतिक स्वरूप को दर्शाना मात्र नहीं होता अपितु उसके आन्तरिक लक्षणों को भी दर्शाना होता है जिसमें कलाकार के अन्तर्मन की प्रतिच्छाया देखी जा सकती है। ‘कला’ मनुष्य को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाती है।
भारतीय कलाकारों का मुख्य उद्देश्य स्थूल में सूक्ष्म की चेतना को जागृत करना रहा है। कला-सृजन के द्वारा मन और आत्मा का सौन्दर्य से साक्षात्कार होता है तथा आत्मा को शांति का अनुभव होता है। कला के माध्यम से रूप और सौन्दर्य का सृजन होता है। कला ‘अव्यक्त’ को ‘व्यक्त’ और ‘अमूर्त’ को मूर्त रूप प्रदान करती है।
भारतीय दृष्टिकोण से कला ‘रसानुभूति’ के लिए किया गया ‘सृजन’ है। कला मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। दार्शनिकों के अनुसार ‘कला ही जीवन है।’ वास्तव में कला जीवन जीने का ढंग है। कला के द्वारा मनुष्य जीवन को पूर्णता प्राप्त होती है। कला मनुष्य की चेतना को स्पर्श करती है।
कला की परिभाषाएँ
‘कला’ वह मानवीय क्रिया है, जिसमें मानव की प्रकृति, रूप और भाव सम्मिलित रहते हैं। पाश्चात्य चिंतन में ‘कला’ शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए होता है। कौशलविहीन या बेढंग से किये गये कार्यों को कला नहीं माना जाता। आधुनिक काल में ‘कला’ की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं जिनमें से कुछ के अनुसार ‘कला’ मानवीय भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति है।
‘कला’ कल्याण की जननी है। कल्पना की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति का नाम ही ‘कला’ है। कल्पना की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से एवम् भिन्न-भिन्न माध्यमों से हो सकती है। कला का उद्गम सौन्दर्य की प्रेरणा से हुआ है। अतः ललित का आकलन ही कला है। प्रत्येक प्रकार की कलात्मक प्रक्रिया का लक्ष्य सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है।
महाकवि कालीदास (गुप्तकालीन) ने ‘रघुवंश’ में ‘ललिते कला विधौ’ का उल्लेख इसी प्रसंग में किया है। भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार, ‘अभिराम अंकन चाहे वह वाग्विलास के क्षेत्र में हों, चाहे राग-रेखाओं में, चाहे वास्तु-शिल्प में, वह कला ही है।’ जयशंकर प्रसाद के अनुसार- ‘ईश्वर की कर्त्तव्य-शक्ति का मानव द्वारा शारीरिक तथा मानसिक कौशलपूर्ण निर्माण कला है।’
कला और विज्ञान में अंतर
कला और विज्ञान में बहुत अंतर है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल और कल्पना का। विज्ञान में प्रामाणिकता का निर्णय सूंघकर, चखकर, देखकर, नापकर, तौलकर तथा प्रयोगशाला में परख कर किया जाता है जबकि कला को प्रामाणिकता की आवश्यकता नहीं होती, उसका निर्णय मनुष्य की रसानुभूति करती है। विज्ञान की कृति हर काल, देश एवं परिस्थिति में एक जैसा परिणाम एवं प्रभाव उत्पन्न करती है जबकि ‘कला’ की रसानुभूति देश, काल एवं पात्र के अनुसार अलग-अलग हो सकती है।
कला और प्रकृति में अंतर
‘कला’ का कार्य ‘प्रकृति’ के कार्य से भिन्न है। कला का अर्थ है- रचना करना अर्थात् उसमें कृत्रिमता है जबकि प्रकृति में कृत्रिमता नहीं होती। कला उस प्रत्येक कार्य में है जो मनुष्य करता है जबकि प्रकृति स्वतः-स्फूर्त रचना है। कला को प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त होती है। कला को कौशल की आवश्यकता होती है जबकि प्रकृति को किसी कौशल की आवश्यकता नहीं होती। कला में कल्पना होती है जबकि प्रकृति कल्पना से भी विचित्र होती है।
कला के प्रकार
वात्स्यायन के ग्रंथ कामसूत्र, उशनस् के ग्रंथ शुक्रनीति, जैन ग्रंथ प्रबंधकोश, कलाविलास तथा ललितविस्तर आदि ग्रंथों में कला एवं उसके प्रकारों की चर्चा हुई है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 दी गई है। प्रबंधकोश आदि कुछ ग्रंथों में 72 कलाओं की सूची मिलती है। ललितविस्तर में 86 कलाओं के नाम गिनाये गये हैं।
प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ कलाविलास में सर्वाधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष सम्बन्धी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं सम्बन्धी, 10 भेषज सम्बन्धी, 16 कायस्थ सम्बन्धी कलाओं तथा 100 सार-कलाओं की चर्चा की गई है। सबसे अधिक प्रामाणिक सूची कामसूत्र की है।
कलाओं का वर्गीकरण
भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में कलाओं का वर्गीकरण ‘गौण’ एवं ‘मुख्य’ कलाओं के रूप में किया गया है। यही कलाएं आगे चलकर ‘कारू’ और ‘चारू’ कलाएँ कहलाईं जिन्हें ‘आश्रित’ और ‘स्वतंत्र’ कलाएं भी कहा जा सकता है। विद्वानों ने काव्य, संगीत, चित्र-शिल्प, नृत्य-नाट्य और वास्तु आदि में तादात्म्य स्थापित करते हुए, इन्हें कला में सम्मिलित किया है।
ये सभी ललित कलाएँ स्वतंत्र रूप में पहचानी जाती हैं। आधुनिक काल में कला को मानविकी विषय के अन्तर्गत रखा जाता है जिसमें इतिहास, साहित्य, दर्शन और भाषा-विज्ञान आदि भी आते हैं। पाश्चात्य संस्कृति में कला के दो भेद किये गए हैं-
(1.) उपयोगी कलाएँ ¼Practice Arts½ तथा
(2.) ललित कलाएँ ¼Fine Arts½।
परम्परागत रूप से लोकप्रिय कलाओं के मुख्य प्रकार इस प्रकार हैं-
(1.) स्थापत्य कला (Architecture),
(2.) मूर्त्तिकला (Sculpture),
(3.) चित्रकला (Painting),
(4.) संगीत (Music),
(5.) काव्य (Poetry),
(6.) नृत्य (Dance),
(7.) रंगमंच (Theater and Cinema)
आधुनिक काल में फोटोग्राफी, चलचित्रण, विज्ञापन और कॉमिक्स के साथ-साथ अन्य विषय भी कला के प्रकारों में जुड़ गये हैं। आधुनिक काल की कलाओं को निम्नलिखित प्रकार से श्रेणीकृत कर सकते हैं-
(1.) साहित्य- काव्य, उपन्यास, लघुकथा, महाकाव्य आदि;
(2.) निष्पादन कलाएँ (Performing arts)- संगीत, नृत्य, रंगमंच;
(3.) पाक कला (Culinary arts)- बेकिंग, चॉकलेटरिंग, मदिरा बना;
(4.) मीडिया कला- फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, विज्ञापन;
(5.) दृष्य कलाएँ- ड्राइंग, चित्रकला, मूर्त्तिकला आदि।
कुछ कलाओं में दृश्य और निष्पादन दोनों के तत्त्व मिश्रित होते हैं, जैसे फिल्म।
भारतीय कला के प्राचीनतम साक्ष्य
भारतीय कला के प्राचीनतम साक्ष्य सैन्धव सभ्यता (ई.पू.3500 से ई.पू.1500 के बीच) की खुदाई में उपलब्ध सामग्री से प्राप्त हुए हैं। सैंधव सभ्यता में नगर-निर्माण कला, भवन निर्माण कला, कूप निर्माण कला, मूर्तिकला, नृत्य कला, संगीत कला, धातुकला, वस्त्र निर्माण कला, मिट्टी के बर्तन निर्माण कला, मुद्रा निर्माण कला आदि विविध कलाओं के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
इस सभ्यता से मंदिर निर्माण कला के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। सैंधव सभ्यता के बाद विविध कलाओं के साक्ष्य मौर्य काल (ई.पू.322 से ई.पू.184) में मिलते हैं तथा इसके बाद भारतीय कलाओं के साक्ष्य निरंतर मिलते हैं।