मुगल स्थापत्य का स्वर्ण काल अर्थात् शाहजहाँ कालीन स्थापत्य
शाहजहाँ का शासनकाल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्ण युग था। इस काल में स्थापत्य कला अपने चरम पर पहुँच गई। शाहजहाँ ने अनेक इमारतें बनवाईं। वह स्वयं स्थापत्य कला में निपुण था। वह अपनी इमारतांे के नक्शे स्वयं देखता था। शाहजहाँ की इमारतें श्वेत संगमरमर से निर्मित हैं। उसके समय में राजपूताने में स्थित मकराना की खानों में प्रचुर मात्रा में संगमरमर उपलब्ध था।
शाहजहाँ के समय में निर्माण कला के साधनों और सिद्धान्तों में अनेक परिवर्तन हुए। उसके काल में पत्थर काटने में निपुण कारीगरों का स्थान संगमरमर काटने और पॉलिश करने में निपुण कारीगरों ने ले लिया। आयताकार भवनों का स्थान चौकोर लहरदार सजावटपूर्ण महलों ने ले लिया। सबसे अधिक मौलिक परिवर्तन मेहराब की बनावट में हुआ। इनमें सजावट, पच्चीकारी और नजाकतपूर्ण सौन्दर्य आ गया। आगरा, लाहौर, दिल्ली आदि नगरों में पुराने महलों का नव-निर्माण हुआ और नवीन भवन बनवाये गये।
शाहजहाँ के काल की स्थापत्य शैली के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों की राय है कि इन कृतियों के कलाकार विदेशी थे और शाहजहाँ ने अकबर कालीन हिन्दू प्रभाव वाली स्थापत्य शैली को त्यागकर पुनः शुद्ध ईरानी शैली को अपनाने का प्रयास किया था। कतिपय अन्य विद्वान इसे भारतीय शैली से ही उत्पन्न बताते हैं। डॉ. बनारसी प्रसाद के अनुसार यह शैली दो संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम थी।
शाहजहाँकालीन दिल्ली की इमारतें
(1.) दिल्ली का लाल किला: शाहजहाँ ने दिल्ली के पास शाहजहाँनाबाद नामक नगर बसाया और उसमें लाल किले के नाम से एक किले का निर्माण कराया। इसकी लम्बाई 3100 फुट और चौड़ाई 1650 फुट है। किले की दीवारें ऊँची तथा कँगूरेदार हैं। इसकी पश्चिमी दीवार में मुख्य दरवाजा बनाया गया जो जन साधारण के प्रवेश के लिये था। दक्षिणी दीवार वाला दरवाजा व्यक्तिगत था तथा विशेष व्यक्तियों द्वारा ही व्यवहार में लाया जाता था।
(2.) दीवाने आम: दिल्ली के लाल किले के मध्य विशाल भाग में दीवाने आम बना हुआ है। इसका आकार चतुर्भुजी है। यह पत्थर से निर्मित 185 फुट लम्बा तथा 70 फुट चौड़ा भवन है। यहाँ बैठकर शाहजहाँ जनसाधारण की फरियाद सुनता था। इसके बाहरी भाग में 9 मेहराबें दोहरे खम्बों पर आधारित हैं। तीनों ओर का मार्ग खम्भों पर आधारित दाँतेदार डाटों से बना हुआ है। इन खम्बों की कुल संख्या 40 है। इस भवन में पीछे की दीवार में एक मेहराबदार ताख है। इस ताख में शाहजहाँ का प्रसिद्ध तख्ते ताउस रखा रहता था। इस ताख की दीवार में अत्यन्त सुन्दर शिल्पकारी की गई है। पत्थरों को काटकर जड़ने के काम में इसका कोई सानी नहीं है।
(3.) रंगमहल: दिल्ली के लाल किले में दूसरी महत्त्वपूर्ण इमारत रंगमहल है। यह शाहजहाँ का हरम था। यह भवन 153 फुट लम्बा और 69 फुट चौड़ा है। इसके मध्य में एक बड़ा कक्ष है तथा चारों कोनों में छोटे-छोटे कक्ष हैं। यह अलंकृत सेतबन्धों द्वारा 15 भागों में विभाजित है तथा रंग एवं चमक में अद्वितीय है।
(4.) दीवाने खास: दिल्ली के लाल किले में स्थित दीवाने खास महत्त्वपूर्ण इमारत है। इसका निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार हुआ है। इसका बड़ा कमरा 90 फुट लम्बा और 67 फुट चौड़ा है। इसके बाहरी भाग में पाँच रास्ते हैं। ये पाँचों रास्ते मेहराबदार हैं तथा बराबर आकार के हैं। दूसरी ओर के रास्ते कुछ छोटे हैं। इस प्रकार यह इमारत अधिक खुली हुई है। इन रास्तों से काफी हवा आती है जिससे यहाँ ठण्डक बनी रहती हैं। इसका फर्श सफेद संगमरमर का है। इसके मेहराब स्वर्ण तथा रंग से सजे हुए हैं तथा पंक्तियों से भरे हुए से लगते हैं।
रंगमहल तथा दीवाने खास में जड़ाई, नक्काशी, पच्चीकारी तथा सजावट का काम बहुत उत्तम है। इन दोनों की बनावट एक जैसी है। इनकी मेहराबें दाँतेदार हैं। छतें बहुत ही सुन्दर हैं। इन छतों में स्वर्ण तथा जवाहरातों की सजावट की गई है। इस छत को टिकाये रखने के लिये स्तम्भों का प्रयोग नहीं किया गया है। यह छत 12 कोनों के सेतुबन्ध से सधी हुई है। प्रत्येक भाग में सुन्दर जड़ाई तथा रंग का काम हुआ है। दीवारों तथा मेहराबों पर फूलों की सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई हैं।
(5.) दिल्ली की जामा मस्जिद: शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले के पास दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद बनवाई। यह लाल पत्थर से निर्मित शाही ढंग की इमारत है। इसके तीनों विशाल दरवाजों पर बुर्ज बने हुए हैं। पूर्व का द्वार शाही परिवार के उपयोग के लिये था। उत्तर और दक्षिण के द्वारों से जन-साधारण प्रवेश करता था। इसमें नमाज पढ़ने के लिये 200 फुट लम्बा तथा 90 फुट चौड़ा स्थान है। इसके सामने 325 फुट लम्बा आयताकार सहन है जिसके बीच में हाथ-पैर धोने के लिये एक तालाब है। नमाज स्थल के बीच का बाहरी दरवाजा चौड़ा है तथा दोनों ओर पाँच-पाँच दाँतेदार मेहराबों के रास्ते हैं। इसके दोनों कोनों पर चार मंजिला लम्बी-लम्बी मीनारें हैं। इस पूरी इमारत पर सफेद संगमरमर के बने हुऐ तीन विशाल गुम्बद हैं। अन्दर लहरियेदार मेहराबनुमा दरवाजे हैं। स्थापत्य के जानकार विद्वानों के अनुसार इस स्थल से प्राचीन विष्णु मंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह किसी समय हिन्दू पूजा स्थल रहा होगा। शाहजहाँ ने उसे तोड़कर मस्जिद में बदल दिया होगा।
(1.) आगरे का लाल किला: शाहजहाँ ने आगरे के लाल किले में अकबर द्वारा निर्मित लाल पत्थरों की अनेक इमारतें तुड़वाकर, संगमरमर से पुनः निर्मित करवाईं। इनमें मुख्य हैं- दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल, खास महल, मुसम्मन बुर्ज, नगीना मस्जिद तथा मोती मस्जिद।
शाहजहाँकालीन आगरा की इमारतें
(2.) दीवाने आम: शाहजहाँ ने दीवाने आम का निर्माण 1628 ई. में करवाया। इसका हॉल 201 फुट लम्बा तथा 67 फुट चौड़ा है। यह तीन तरफ से खुला हुआ है। इसकी छत दुहरे खम्भों की कतार से सधी हुई है। खम्भों की संख्या 40 है। चारों तरफ एक संगमरमर की गैलेरी है। दीवारों को काट-काटकर उसमंे रंगीन पत्थर, जवाहर, स्वर्ण इत्यादि बहुमूल्य वस्तुओं को जड़ा गया है।
(3.) दीवाने खास: दीवाने खास एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। इसमें दो बड़े-बड़े कमरे हैं जिनको संगमरमर के गलियारे से जोड़ा गया है। हॉल के खम्भों और दरवाजों पर बहुत अच्छा जड़ाव, कटाव, नक्काशी तथा पच्चीकारी का काम किया गया है। सजावट का काम भी उत्तम है। इनके ऊपर फूल-पत्तियों के तरह-तरह के चित्र बने हुए हैं। पहले सोने से जड़ाई का काम हो रहा था। दीवाने खास के सामने एक बड़े आँगन में सफेद संगमरमर का विशाल चबूतरा बना हुआ है।
(4.) शीश महल: शीश महल में काँच का काम बहुत अच्छा हुआ है इसलिये इसका नाम शीश महल पड़ा। यह भवन दीवाने खास के नीचे है। इसके दरवाजों और दीवारों पर काँच तथा सोने का बहुत अच्छा काम हुआ है। दरवाजे तथा दीवारें रंगीन तथा बहुमूल्य पत्थरों से अलंकृत हैं।
(5.) खास महल: खास महल बादशाह का हरम था। यह दीवाने खास से लगा हुआ है। यह लाल पत्थर से निर्मित है। यमुना की तरफ की इसकी दो सुनहरी बुर्जियों में भाँति-भाँति के सुन्दर फूलों की सजावट है तथा बहुत बढ़िया नक्काशी की गई है। खास महल के गलियारे, कमरे तथा ऊपरी भाग सफेद संगमरमर के हैं। इनकी दीवारों पर अनेक प्रकार के सुन्दर तथा मूल्यवान पत्थरों की जड़ाई की गई है। इस महल के सामने अँगूरी बाग हैं। इस बाग के तीनों तरफ बड़े-बड़े हॉल हैं और चौथी तरफ संगमरमर का बड़ा गलियारा है। इस बाग में कई फव्वारे भी हैं।
(6.) मुसम्मन बुर्ज: मुसम्मन बुर्ज को पहले शाह बुर्ज भी कहते थे। यह सफेद संगमरमर से निर्मित चार मंजिला भवन है। इसकी चौथी मंजिल में सुन्दर नक्काशी है। इसके बीच में एक हौज बना हुआ है जिसका रूप गुलाब के फूल जैसा है। उसके सामने एक झरना भी बना हुआ है।
(7.) झरोखा दर्शन: खास महल और आठकोर मीनार के मध्य में झरोखा दर्शन है। यह सफेद संगमरमर का बना हुआ है। इसकी छतें चमकदार हैं। यहाँ से शाहजहाँ जनता को दर्शन देता था।
(8.) नगीना मस्जिद: नगीना मस्जिद शाही महिलाओं के लिये बनवाई गई थी। आकार-प्रकार मेंयह मस्जिद छोटी है परन्तु इसकी सुन्दरता में कोई कमी नहीं है। यह सफेद संगमरमर से निर्मित है। इसमें चारों ओर कमरे बने हैं तथा इसके सामने एक सुन्दर बाग है।
(9.) मोती मस्जिद: मोती मस्जिद उस काल की शिल्प कला के श्रेष्ठ सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है। यह आगरा के किले की सबसे शानदार इमारत है। यह 1654 ई. में बनकर तैयार हुई। यह एक ऊँची कुर्सी पर बनी हुई है। इस मस्जिद का आँगन सफेद रंग के बड़े आकार के चौकोर खण्डों से जड़ा हुआ है। इसमें एक फव्वारा तथा एक धूप घड़ी है। वास्तु कला के जानकारों ने इस मस्जिद की बहुत प्रशंसा की है। इस मस्जिद के चारों ओर एक सुन्दर गैलेरी और एक खम्भेदार बरामदा बनाया गया है। इसमें अनेक कमरे बने हुए हैं जिन्हें संगमरमर के जालीदार पर्दों से एक-दूसरे से अलग कर दिया गया है।
(10.) आगरा की जामा मस्जिद: इसका निर्माण 1648 ई. में हुआ था। इसकी लम्बाई 130 फुट तथा चौड़ाई 100 फुट है। वास्तुकला की दृष्टि से यह दिल्ली की जामा मस्जिद से निम्न स्तर की है। मीनारों के अभाव के कारण यह कम प्रभावशाली दिखाई पड़ती है। इसके गुम्बद भी कम आकर्षक हैं। इसकी मेहराबें सामने की ओर चौड़ा स्थान छोड़कर बनाई गई हैं। यही इसकी विशेषता कही जा सकती है।
(11.) आगरा का ताजमहल: आगरा का ताजमहल वस्तुतः एक मकबरा है जिसे शाहजहाँ ने अपनी प्रिय बेगम मुमताज के प्रति अपने प्रेम की चिरस्थाई स्मृति के प्रतीक के रूप में बनवाया। इमारत की पूरी योजना आयताकार है तथा यह एक चारदीवारी से घिरा हुआ है जिसके चारों कोनों पर चार चौड़े-चौड़े मेहराबदार मण्डप हैं। अहाते के भीतर एक वर्गाकार बाग है जिसके उत्तरी सिरे पर ऊँची कुर्सी पर सफेद संगमरमरी मकबरा स्थित है। मुख्य चबूतरे के चारों कोनों पर एक-एक तिमंजिली मीनार ऊपरी छतरी सहित बनाई गई है। सम्पूर्ण ताजमहल शैली, बनावट और कारीगरी में भारतीय है। सम्पूर्ण इमारत शुद्ध संगमरमर से निर्मित है। इसकी अत्यन्त सुन्दर खुदाई और जड़ाई भारतीय शिल्पकारों की स्थापत्य दक्षता का प्रमाण है। ताजमहल को देखने से लगता है कि पत्थर के शिल्पकार की छैनी का स्थान अब संगमरमर पर पॉलिश करने वालों के बारीक औजारों ने ले लिया था। मेहराबों की बनावट में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देता है। लगभग समस्त मेहराबें पत्तियोंदार या नोंकदार हैं।
ताजमहल के निर्माता कौन थे ?
इतिहासकार स्मिथ के अनुसार ताजमहल का निर्माण यूरोपियन तथा एशियाई कलाकारों ने किया। फादर मैनरिफ का कथन है कि ताजमहल का निर्माता वेनिस का निवासी जेरोम बोरनियो था परन्तु सर जॉन मार्शल और हेवेल इस मत को नहीं मानते। पर्सी ब्राउन के अनुसार इसका निर्माण तो प्रायः मुसलमान कलाकारों द्वारा हुआ था परन्तु इसकी चित्रकारी हिन्दू कलाकारों द्वारा हुई थी। पच्चीकारी का कठिन काम कन्नौज के हिन्दू कलाकारों को सौंपा गया था। अनेक विद्वानों के अनुसार ताजमहल का मुख्य शिल्पकार एक तुर्क या ईरानी उस्ताद इशा था जिसे बड़ी संख्या में हिन्दू कारीगरों का सहयोग प्राप्त था। ताजमहल की सजावट की प्रेरणा एतमादुद्दौला के मकबरे से ली गई प्रतीत होती है।
मुगल स्थापत्य की सर्वश्रेष्ठ इमारत
आगरा का ताजमहल न केवल शाजहाँ की इमारतों में ही सर्वश्रेष्ठ है अपितु मुगल स्थापत्य कला का भी सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हेवेल ने लिखा है- ‘यह भारतीय स्त्री जाति का देवतुल्य स्मारक है। सुन्दर बाग और अनेक फव्वारों के मध्य स्थित ताजमहल एक काव्यमय रोमाण्टिक सौन्दर्य का सृजन करता है। वस्तुतः ताजमहल दाम्पत्य प्रेम का प्रतीक और कला-प्रेमियों का मक्का बन गया है।’ डॉ. बनारसी प्रसाद का कहना है- ‘चाहे ऐतिहासिक साहित्य का पूर्ण पु´ज नष्ट हो जाये और केवल यह भवन ही शाहजहाँ के शासनकाल की कहानी कहने को बाकी रह जाये तो इसमें संदेह नहीं, तब भी शाहजहाँ का शासनकाल सबसे अधिक शानदार कहा जायेगा।’
शाहजहाँकालीन अन्य इमारतें
शाहजहाँ ने आगरा और दिल्ली के अतिरिक्त लाहौर, काबुल, अजमेर, कन्धार, अहमदाबाद और कशमीर में भी श्वेत संगमरमर की अनेक इमारतें बनवाई थीं। उसने लाहौर के किले में पुरानी इमारतों को गिरवाकार किले के पश्चिमी भाग में चालीस खम्भे का दीवाने आम, मुसम्मन बुर्ज, शीश महल, नौलक्खा और ख्वाबगाह आदि इमारतें बनवाईं। ये समस्त इमारतें काफी सुन्दर हैं। शाहजहाँ ने इतनी अधिक इमारतें बनवाईं कि उसे निर्माताओं का शाहजादा कहा जाता है।
पतनोन्मुख मुगल स्थापत्य कला
शाहजहाँ की मृत्यु के बाद मुगल स्थापत्य कला का पतन आरम्भ हो गया। औरंगजेब को किसी भी प्रकार की कला में कोई रुचि नहीं थी। अतः उसने बहुत कम इमारतें बनवाईं, वे भी बहुत ही साधारण थीं।
रबिया-उद्-दौरानी का मकबरा: औरंगजेब ने औरंगाबाद के पास अपनी बेगम रबिया-उद्-दौरानी का मकबरा बनवाया जिसमें ताजमहल की नकल करने का असफल प्रयास किया गया। यह एक मामूली ढंग की इमारत है और उसकी सजी हुई मेहराबों में और अन्य सजावट में कोई विशेषता नहीं है।
दिल्ली की लाल किला मस्जिद: औरंगजेब ने दिल्ली के लाल किले में एक मस्जिद बनवाई, जो उसकी सादगी का परिचय देती है।
लाहौर की बादशाही मस्जिद: औरंगजेब ने अपने शासन काल में लाहौर में भी एक मस्जिद बनवाई जिसे बादशाही मस्जिद कहा जाता है।
औरंगजेब के बाद की मुगल स्थापत्य कला
औरंगजेब के काल में मुगल स्थापत्य कला पत्नोन्मुख हो गई। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरकालीन मुगल बादशाहों के समय में वास्तुकला का लगभग पूर्णतः पतन हो गया। अठारहवीं सदी में कोई उल्लेखनीय इमारत नहीं बनी। डॉ. आशीर्वादलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो इमारतें बनीं, वे मुगलकालीन शिल्पकला के डिजाइन का खोखलापन और दीवालियापन ही प्रकट करती हैं।’
मुगल कालीन चित्रकला
मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही चित्रकला में नवजीवन आ गया। मुगल बादशाह चित्रकला के महान् प्रेमी थे। हेरात में बहजाद नामक चित्रकार ने चित्रकला की एक नई शैली आरम्भ की जो चीनी कला का प्रान्तीय रूप था और इस पर भारतीय, बौद्ध, ईरानी, बैक्ट्रियाई और मंगोलियन तत्त्वों का प्रभाव था। इसे बहजाद कला कहा जाता था। फारस के तैमूरवंशी राजाओं ने इसे राजकीय सहायता दी।
बाबर के काल में चित्रकला
बाबर जब हेरात में आया, तब उसे इस प्रकार की बहजाद कला की चित्रकला से परिचय प्राप्त हुआ। बाबर इस कला को भारत में ले आया। बाबर ने अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ इस कला शैली में चित्रित करवाईं।
हुमायूँ के काल में चित्रकला
हुमायूँ भी चित्रकला प्रेमी था। उसे निर्वासन काल में फारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से परिचय प्राप्त हुआ। इनमें से एक हेरात का प्रसिद्ध चित्रकार बहजाद का शिष्य मीर सैय्यद अली था और दूसरा ख्वाजा अब्दुस समद था। हुमायूँ इन दोनों को अपने साथ भारत ले आया और हुमायूँ तथा अकबर ने इन कलाकारों से चित्रकला का ज्ञान प्राप्त किया। इस काल में अधिकांशतः सूती वस्त्रों पर चित्र बनाये जाते थे। इन चित्रों में ईरानी भारतीय तथा यूरोपीयन शैलियों का सम्मिश्रण पाया जाता है किन्तु ईरानी शैली की प्रधानता होने के कारण इसे ईरानी कलम कहा गया। इस शैली को मुगल काल की प्रारम्भिक चित्रकला शैली कहा जा सकता है।
अकबर के काल में चित्रकला
अकबर के उदारवादी दृष्टिकोण के कारण अकबर के शासनकाल में चित्रकला की नई शैली विकसित हुई जो ईरानी और भारतीय शैली के सर्वोत्तम तत्त्वों का सम्मिश्रण थी। इस नवीन शैली में विदेशी तत्त्व भारतीय शैली में इस तरह घुलमिल गये कि दोनों के पृथक् अस्तित्त्व का पत लगा पाना असम्भव हो गया और वह बिल्कुल भारतीय हो गई।
जहाँगीर के काल में चित्रकला
जहाँगीर का शासनकाल भारतीय चित्रकला का चरमोत्कर्ष काल था। जहाँगीर स्वयं अच्छा चित्रकार था। उसके दरबार में कई प्रसिद्ध चित्रकार रहते थे। इस काल की चित्रकला में भी कई प्रयोग हुए। जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही मुगल चित्रकला का विकास रुक गया।
राजपूत चित्रकला
सातवीं एवं आठवीं शताब्दी के लगभग राजपूताना में अजन्ता चित्रकला की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी किन्तु अरबों के आक्रमण के कारण पश्चिमी क्षेत्र के कलाकार गुजरात से राजपूताना की ओर आ गये जिन्होंने स्थानीय शैली को आत्मसात करके एक नई शैली को जन्म दिया। चूँकि इस नई शैली की चित्रकला से बड़ी संख्या में जैन ग्रंथों को चित्रित किया गया था, अतः इसे जैन शैली कहा गया। इस शैली का विकास गुजरात से आये कलाकारों ने किया था इसलिये इसे गुजरात शैली भी कहा जाने लगा। धीरे-धीरे गुजरात और राजपूताना शैली में कोई भेद नहीं रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी में इस पर मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देने लगा। ज्यों-ज्यों राजपूत शासकों ने मुगल बादशाह अकबर से राजनैतिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और उनका मुगल दरबार में आना-जाना होता रहा, राजपूत चित्रकला पर मुगल प्रभाव अधिकाधिक बढ़ता गया, जिससे राजपूत शैली की पूर्व प्रधानता समाप्त हो गई।
मुगल कालीन मूर्तिकला
मुसलमानों के भारत आने से पहले भारत में मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी किन्तु मुस्लिम आक्रान्ता मूर्तियों को तोड़ना इस्लाम की सेवा एवं अपना कर्त्तव्य मानते थे। अतः उन्होंने भारतीय मूर्तिकला पर घातक प्रहार किया। बाबर और हुमायॅूँ भी कट्टर मुसलमान थे और मूर्ति बनाना पाप समझते थे तथा मूर्तियों एवं मन्दिरों को ध्वस्त करना एक पवित्र कार्य समझते थे। अकबर ने अपने उदार दृष्टिकोण के कारण मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर ने भी कुछ मूर्तियाँ बनवाईं किन्तु शाहजहाँ और औरंगजेब ने इसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, जिससे मूर्तिकला पतनोन्मुख हो गई।
आभूषण कला
मुगल शासकों की बेगमें तथा शहजादियाँ, यहाँ तक कि स्वयं मुगल बादशाह एवं शहजादे कलात्मक आभूषणों के शौकीन थे। इस कारण मुगल काल में आभूषण कला को बड़ा प्रोत्साहन मिला तथा कई प्रकार के नये आभूषणों का भी निर्माण होने लगा। राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण भी मुगल शासकों ने स्वर्णकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। स्वर्णकार और जौहरी सदैव अपने काम में लगे रहते थे। शाहजहाँ ने सोने का रत्नजड़ित तख्ते-ताऊस बनवाया जिसे 1739 ई. में नादिरशाह ईरान ले गया।
अन्य ललित कलाएँ
संगीत कला
मुगलों के काल में संगीत कला की बहुत उन्नति हुई। बाबर स्वयं गायन में निष्णात था। उसने गायन कला की एक पुस्तक भी लिखी। हुमायूँ भी संगीत प्रेमी था। अकबर भारतीय शास्त्रीय संगीत का बड़ा प्रेमी था। तानसेन उस युग का महान् संगीतज्ञ था। अकबर के काल में हिन्दू और मुस्लिम संगीत पद्धतियों का समवन्य हुआ जिससे ठुमरी, गजल, कव्वाली आदि अनेक पद्धतियों का सृजन हुआ।
मुगलकालीन साहित्य
मुगलों के आने से पहले एवं मुगलों के काल में भी शाही दरबार की भाषा फारसी थी। राज्याधिकारियों को अनिवार्य रूप से फारसी पढ़नी पड़ती थी। मुगल काल में फारसी साहित्य को और बढ़ावा मिला। अधिकांश मुगल बादशाह विद्या प्रेमी थे।
तुर्की एवं फारसी साहित्य
बाबर तुर्की और फारसी का अच्छा कवि और लेखक था। उसने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी अपनी मातृभाषा तुर्की में लिखी थी। उसके उत्तराधिकारियों के काल में तुजुक-ए-बाबरी का फारसी में अनुवाद हुआ। इस ग्रन्थ से फारसी की नई काव्य शैली विकसित हुई जिसे मुबायान कहते हैं। हुमायूँ भी तुर्की और फारसी के अलावा, दर्शन, ज्योतिषी और गणित का ज्ञाता था। उसके दरबार में ख्वादामीर और बयाजित जैसे इतिहासकार रहते थे। उसकी बहिन गुलबदन बेगम ने अकबर के शासनकाल में हुमायूँनामा की रचना की। अकबर तथा उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी फारसी साहित्य का विपुल सृजन हुआ। मुगल काल में फारसी के मौलिक ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ अनुवाद विभाग की भी स्थापना हुई जिसमें संस्कृत, अरबी, तुर्की और ग्रीक भाषाओं के अनेक सुप्रसिद्ध ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद हुआ।
संस्कृत साहित्य
बाबर तथा हुमायूँ ने संस्कृत साहित्य के संरक्षण में रुचि नहीं दिखाई। फिर भी उनके शासन काल में भारतीय विद्वानों द्वारा निजी रूप से संस्कृत साहित्य का सृजन किया गया। अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने संस्कृत के विद्वानों को राजकीय संरक्षण देकर संस्कृत साहित्य को कुछ प्रोत्साहन दिया किन्तु औरंगजेब के काल में संस्कृत विद्वानों का मुगल दरबार में फिर से सम्मान बन्द हो गया।
हिन्दी साहित्य
मुगलों के अभ्युदय के बाद साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास तेजी से हुआ। इस कारण मुगलकाल हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग बन गया। 1532 ई. के आस-पास मंझन ने मधुमालती की रचना की, जो अपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी हिन्दी की श्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। 1540 ई. के आस-पास मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नामक महाकाव्य की रचना की, जो रूपक शैली में लिखा गया है। इसमें मेवाड़ की रानी पद्मिनी की कथा है। यद्यपि इन विद्वानों को राज्याश्रय प्राप्त नहीं था, फिर भी उन्होंने हिन्दी साहित्य जगत को अमूल्य रत्न प्रदान किये। अकबर के समय में धार्मिक सहिष्णुता होने के कारण हिन्दी साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ।
देशी भाषाओं का साहित्य
मुगल काल में देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाने वाली विविध देशी भाषाओं एवं बोलियों का भी अच्छा विकास हुआ। राजस्थान के चारण कवियों ने डिंगल भाषा को समृद्ध बनाया। वैष्णव सम्प्रदाय ने तो अनेक देशी भाषाओं को समृद्ध बनाया। इस काल में रचा गया पिंगल अर्थात् ब्रज भाषा का साहित्य आज तक किसी भी भाषा में रचा गया सर्वोत्कृष्ट साहित्य है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुगल काल में, विशेषकर अकबर से लेकर शाहजहाँ के काल में, भारत में कला, स्थापत्य एवं साहित्य का यथेष्ट विकास हुआ। मुगल शासकों की उदार नीतियों के कारण विविध प्रकार की कलाओं एवं साहित्य को पर्याप्त संरक्षण मिला, जिससे भारतीय कला और साहित्य ने नई ऊँचाइयां अर्जित कीं।