ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा कांग्रेस का विरोध
यद्यपि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा की गई थी तथापि कुछ वर्षों की अवधि में कांग्रेस की भाषा बदल गई इस कारण ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा कांग्रेस का विरोध किया जाने लगा।
कांग्रेस की स्थापना वायसराय लॉर्ड डफरिन की स्वीकृति से हुई थी तथा इसकी स्थापना के पीछे सरकार का उद्देश्य राष्ट्रीय आन्दोलन के हिंसक मार्ग को संवैधानिक मार्ग की तरफ मोड़ना था। सरकार को विश्वास था कि कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे सम्पन्न एवं आराम-पसन्द भारतीयों के हाथों में रहेगा जो न तो हिंसक मार्ग अपनायेंगे और न सरकार की कटु आलोचना करेंगे।
इस प्रकार कांग्रेस, सरकार द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलती रहेगी। यही कारण है कि कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों के अवसर पर सरकार की ओर से कांग्रेस के प्रतिनिधियों को चाय-पार्टियाँ दी गईं।
उदारवादी नेता बहुत ही विनम्र भाषा का प्रयोग कर रहे थे तथा अंग्रेजी राज्य के भीतर स्वशासन की मांग कर रहे थे तब भी ई.1988 में ह्यूम और डफरिन के सम्बन्ध बिगड़ गये। इस कारण सरकारी नीति में परिवर्तन आ गया। अँग्रेज शासक, भारतीयों के समानता के दावे को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। 30 नवम्बर 1888 को लॉर्ड डफरिन ने अपने भाषण में कांग्रेस द्वारा की गई संसदीय सरकार की मांग की खिल्ली उड़ायी और कांग्रेस को एक सीमित वर्ग की संस्था कहा।
डफरिन ने सख्त शब्दों में कहा- ‘भारत के कुछ सुशिक्षित व मनीषी यह चाहते हैं कि सरकार लोकतांत्रिक हो, नौकरशाही उसके अधीन हो और उन्हें राष्ट्र के खजाने पर अधिकार मिल जाए और शनैः शनैः ब्रिटिश पदाधिकारी उनके सामने करबद्ध खड़े हों।’
डफरिन द्वारा इस प्रकार के विचार प्रकट किये जाने के बाद ब्रिटिश शासक कांग्रेस के विरोधी बन गये और उसके समाप्त होने की कामना करने लगे। सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया। चौथा अधिवेशन ई.1888 में दिसम्बर के अंतिम दिनों में इलाहाबाद में होना था।
वहाँ के गवर्नर ऑकलैण्ड कोलविन ने प्रयास किया कि उसके प्रांत में अधिवेशन के लिए पैसा एकत्र न हो, अधिवेशन के लिए कांग्रेस का प्रचार न होने पाए और अधिवेशन के लिए कांग्रेस को इलाहाबाद में कोई जगह न मिले। यदि महाराजा दरभंगा ने सहायता न की होती तो कांग्रेस को कोई स्थान नहीं मिल पाता।
महाराजा ने लोथर कैसल नामक भवन खरीद कर कांग्रेस को दे दिया। सरकारी अधिकारियों ने लोगों पर दबाव डालना आरम्भ किया कि वे कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित न हों। मुसलमानों, देशी राजाओं तथा जमींदारों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयास किया गया। सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने पर रोक लगा दी।
भारत सचिव हेमिल्टन ने कांग्रेस को धन देने वालों पर निगरानी रखने का आदेश जारी कर दिया। कुछ प्रान्तों के गवर्नरों ने तो यह सुझाव भी दिया कि कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों पर रोक लगा दी जाये किन्तु यह सुझाव स्वीकार नहीं हुआ। ई.1895 के बाद कांग्रेस के प्रति सरकार का दृष्टिकोण दिनों-दिन कठोर होता गया। मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद ने आरम्भ से ही कांग्रेस का विरोध किया था। जब सरकार ने प्रारम्भ में कांग्रेस की सहायता की तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि- ‘यह सहायता बन्द की जाये। सरकार को हिन्दू कांग्रेस की तरफ नहीं झुकना चाहिए।’
जब सरकार ने कांग्रेस विरोधी नीति पर चलना आरम्भ किया तो सर सैयद अहमद को अत्यधिक प्रसन्न्ता हुई और वे कांग्रेस की निन्दा तथा सरकार की प्रशंसा करने लगे।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है- ‘नौकरशाही ने आरम्भ में तो कांग्रेस आन्दोलन का मजाक उड़ाया, फिर गाली-गलौच पर उतर आई और अन्त में सशक्त होकर इसके विरुद्ध दमन की नीति अपनाई।’
रैम्जे मेकडोनल्ड ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति काफी सीमा तक सरकार की नीति पर निर्भर करती थी, जो आरम्भ में मैत्रीपूर्ण रही किन्तु बाद में घोर विरोध की हो गई।’
अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए ब्रिटिश अधिकारी अपने वफादार चाकरों और खैरख्वाहों को लेकर उस पर टूट पड़े। एक तरफ वायसराय डफरिन और पश्चिमोत्तर प्रदेश के गवर्नर कोलविन ने, दूसरी तरफ बनारस के राजा और हैदराबाद के नवाब ने, तीसरी तरफ सर सैयद अहमद और राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने, चौथी तरफ ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने तथा पांचवी तरफ सर दिनशा मानकजी पेटिट और अन्य धनी पारसियों ने आक्रमण किये। ब्रिटिश नौकरशाही ने मुसलमानों और पारसियों को, हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से को, जमींदारों और धनी-मानी व्यक्तियों को कांग्रेस से अलग कर देने और उसका दुश्मन बना देने की कोशिश की।’
उदारवादी नेता सरकार को नाराज नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकार की नाराजगी को चुपचाप सहन कर लिया और अविचलित भाव से काम करते रहे।
कहा जा सकता है कि उदारवादियों ने याचक रहते हुए भी भारतीयों के लिये प्रतिनिधि संस्थाओं में अधिकाधिक प्रतिनिधित्व देने, विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने, प्रेस को स्वतन्त्रता देने तथा उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों को भी समान रूप से नियुक्ति देने के लिये सरकार पर दबाव बनाया।
उदारवादी नेताओं ने आर्थिक विकास के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कराधान की एक न्यायसंगत पद्धति अपनाने की वकालत की जिसके अन्तर्गत जनता भुगतान कर सकने में समर्थ हो सके। उन्होंने औद्योगीकरण पर बल दिया, जिससे राष्ट्रीय आय के साधनों में वृद्धि हो सके और बेरोजगारों को काम मिल सके। उनकी सफलताएँ सरहानीय थीं और देश की आजादी की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुईं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता