तुगलक कौन थे?
तुगलकों के सम्बन्ध में प्रारंभिक जानकारी फरिश्ता तथा इब्नबतूता के विवरणों से मिलती है। उन दोनों के अनुसार तुगलक, तुर्क थे। फरिश्ता के अनुसार तुगलक भारत में बलबन के समय आये थे और इब्नबतूता के अनुसार तुगलक भारत में अलाउद्दीन खिलजी के समय सिंध से आये थे। भारत आने से पहले तुगलक, सिन्ध तथा तुर्किस्तान के बीच में निवास करते थे।
‘तारीखे रशीदी’ के रचियता मिर्जा हैदर के कथनानुसार तुगलक मंगोल थे परन्तु उसकी बात सही नहीं है क्योंकि-
(1.) भारत में तुगलक वंश की स्थापना करने वाले
गाजी मलिक को 29 बार मंगोलों से युद्ध करना पड़ा। यदि वह मंगोल होता तो मंगोलों से इतने युद्ध नहीं करता।
(2.) गाजी तुगलक का पिता मलिक तुगलक, बलबन का गुलाम था। उस समय तक मंगोल, तुर्कों के गुलाम नहीं होते थे।
(3.) तुगलकों की आकृति तुर्कों से मिलती थी न कि मंगोलों से।
(4.) तुर्की अमीरों के रहते यह संभव नहीं था कि गाजी तुगलक मंगोल होते हुए भी, तुर्क सुल्तान की हत्या करके स्वयं सुल्तान बन जाता।
(5.) यदि तुगलक मंगोल होते तो बलबन और अलाउद्दीन खिलजी उन्हें अपनी सेवा में नहीं रखते क्योंकि वे दोनों मंगोलों के बड़े शत्रु थे।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह माना जाना ही उचित है कि तुगलक तुर्क थे।
गयासुद्दीन का प्रारम्भिक जीवन
गयासुद्दीन का बचपन का नाम गाजी तुगलक था। इब्नबतूता के कथनानुसार गाजी तुगलक का पिता मलिक तुगलक, सुल्तान बलबन का गुलाम था और उसकी माता एक जाट स्त्री थी परन्तु अन्य इतिहासकारों का कहना है कि गाजी तुगलक अपने दो भाइयों रजब तुगलक तथा अबूबकर तुगलक के साथ खुरासान से भारत आया। उसने अलाउद्दीन खिलजी के यहाँ नौकरी कर ली। वह युद्ध में कुशल सैनिक था। धीरे-धीरे वह सुल्तान का कृपापात्र बन गया और दिपालपुर का गवर्नर बना दिया गया। अलाउद्दीन खिलजी के अंतिम दिनों में गाजी तुगलक की गिनती दिल्ली के प्रमुख अमीरों में होती थी। सुल्तान मुबारक खिलजी की हत्या होने के बाद खुसरोशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा। खुसरोशाह के अत्याचारों से तंग आकर गाजी तुगलक ने विद्रोह का झंडा उठाया। दिल्ली के कई तुर्की अमीर उसके साथ हो गये। गाजी तुगलक अपनी सेना लेकर दिल्ली आया। दिल्ली के निकट इन्द्रप्रस्थ में उसने खुसरोशाह को परास्त करके उसका वध कर दिया। इसके बाद दिल्ली के अमीरों ने एक स्वर से गाजी तुगलक को अपना सुल्तान निर्वाचित किया। इस प्रकार सितम्बर 1320 में वह दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। उसने गयासुद्दीन तुगलक शाह गाजी की उपाधि धारण की। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश के नाम से एक नये शासक वंश की स्थापना की।
गयासुद्दीन की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
गयासुद्दीन जिस समय दिल्ली के तख्त पर बैठा, उस समया सल्तनत की दशा बड़ी शोचनीय थी। इस कारण नये सुल्तान के समक्ष कई कठिनाइयां मुँह बाये खड़ी थीं। उसकी दो प्रमुख कठिनाइयां थीं-
(1.) साम्राज्य की विश्ंृखलता: इस समय केन्द्रीय सरकार के शक्तिहीन हो जाने के कारण अलाउद्दीन का विशाल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था। प्रांतीय गवर्नर तथा हिन्दू राजा स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र करने का प्रयास कर रहे थे। पंजाब में जो नव-मुस्लिम बस गये थे, वे सदैव षड्यन्त्र रचा करते थे और विद्रोह करने के लिए उद्यत रहा करते थे। पंजाब के खोखर लोग अब भी विद्रोह करते थे। सिन्ध में भी गड़बड़ी फैली हुई थी। दक्षिण-सिन्ध लगभग स्वतन्त्र हो गया था। गुजरात में भी अशान्ति फैली थी और वहाँ के गवर्नर स्वतन्त्र होने का प्रयत्न कर रहे थे। बंगाल का प्रान्त दिल्ली से दूर होने के कारण स्वतंत्र होने का प्रयत्न करता रहता था। राजपूताना के वीर राजपूत भी अपने खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे। दक्षिण के राज्य भी धीरे-धीरे स्वतन्त्र हो रहे थे।
(2.) साम्राज्य की आर्थिक दुर्दशा: गयासुद्दीन की दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई सल्तनत की आर्थिक विपन्नता थी। मुबारक खिलजी तथा खुसरोशाह ने राजकोश का सारा धन सेना तथा अयोग्य व्यक्तियों को बाँट दिया था। इससे राजकोष बिल्कुल रिक्त हो गया था। अलाउद्दीन के कठोर नियमों के कारण बहुत से किसान खेत छोड़कर भाग गये थे इसलिये कृषि की दशा भी अच्छी नहीं थी।
गयासुद्दीन के सुधार
गयासुद्दीन ने अपना शासन जमाने के लिये कई कार्य किये तथा नई सुधार योजनाएं आरम्भ कीं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-
(1.) आर्थिक सुधार: सबसे पहले गयासुद्दीन ने आर्थिक सुधारों की ओर ध्यान दिया। जिन लोगों ने राज्य का धन हड़प लिया था, विशेषकर जिन लोगों ने खुसरो से रिश्वत ली थी, उन्हें सारा धन राजकोष में वापस जमा करवाने के लिये बाध्य किया गया।
(2.) राजवंश की महिलाओं का उद्धार: जिन लोगों ने खिलजी राजवंश की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया था, उन्हें दण्ड दिया गया। खिलजी राजवंश की महिलाओं में से जो विवाह के योग्य थीं, उनके लिए उचित वर ढूँढ़ कर उनका विवाह कर दिया गया। अन्य महिलाओं को पेंशन देने की व्यवस्था की गई।
(3.) पदों तथा पदवियों का वितरण: जिन लोगों ने खुसरो के विरुद्ध गयासुद्दीन की सहायता की थी, उन्हें पदों तथा जागीरों से पुरस्कृत किया गया। उसने अपने सम्बन्धियों को भी अनुग्रहीत किया। इस प्रकार गयासुद्दीन ने अमीरों तथा अपने सम्बन्धियों को सन्तुष्ट कर बड़ी सतर्कता के साथ शासन का कार्य आरम्भ किया।
(4.) कृषि का सुधार: राजधानी में व्यवस्था स्थापित करने के बाद गयासुद्दीन तुगलक ने कृषि सुधारों की ओर ध्यान दिया। उसने अलाउद्दीन की कठोर नीति को त्याग दिया और किसानों के साथ उदारता का व्यवहार किया। राज्य की ओर से भूमि का निरीक्षण करवा कर भूमि-कर निश्चित कर दिया। उपज का सातवाँ अथवा दसवाँ भाग राज्य द्वारा लेना तय किया गया। किसानों को अनेक प्रकार की सुविधायें दी गईं। उन्हें हल-बीज के लिये राज्य की ओर से धन दिया गया और सिंचाई के लिए कुएँ तथा नहरें खुदवाई गईं। गयासुद्दीन तुगलक के आर्थिक सुधार दो सिद्धांतों पर अधारित थे- (1.) कोई अमीर अधिक अमीर न हो और (2.) कोई भी व्यक्ति इतना दरिद्र न हो कि उसका भरण पोषण भी कठिन हो जाये।
(5.) न्याय सम्बन्धी सुधार: गयासुद्दीन ने न्याय विभाग में भी सुधार किया। उसने प्राचीन निर्णयों तथा कुरान के सिद्धान्तों के आधार पर एक न्याय विधान बनवाया और तदनुसार न्याय करने की आज्ञा दी। इस प्रकार गयासुद्दीन तुगलक, दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने न्याय विधान बनवाया।
(6.) डाक की व्यवस्था: गयासुद्दीन ने सल्तनत के विभिन्न भागों में डाक पहुँचाने की सुन्दर व्यवस्था की। डाक वितरण के लिये घुड़सवार तथा पैदल सिपाही लगाये गये जो डाक लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते थे। प्रत्येक मार्ग पर निश्चित दूरी पर चौकियाँ बनाई गई। जहाँ पर पत्र-वाहक सदैव उपस्थित रहते थे। ये पत्र-वाहक एक हाथ में थैला और दूसरे हाथ में लाठी लिए रहते थे। उनके सिरों पर घन्टियाँ लगी रहती थीं। पत्र-वाहक दौड़ता हुआ जाता था। घन्टी की आवाज से अगली चौकी के पत्र-वाहक को पता लग जाता था कि डाक आ रही है।
(7.) दान व्यवस्था: गयासुद्दीन उदार तथा दानशील शासक था। उसने परिश्रमशील तथा अध्यवसायी व्यक्तियों को प्रोत्साहन दिया। गरीबों के लिये उसने एक दानशाला की व्यवस्था की। जहाँ फकीरों, भिखारियों तथा जरूरतमंद विद्वानों की आर्थिक सहायता की जाती थी।
(8.) सैन्य सुधार: गयासुद्दीन ने सेना में भी कई सुधार किये। उसने सैनिकों के साथ उदारता का व्यवहार किया। सेना का वेतन वह अपने सामने बँटवाता था जिससे धन का अपव्यय न हो। उसने अपनी सेना में, योग्य सेनापतियों की अधीनता में हजारों नये घुड़सवारों को भर्ती किया। घोड़ों का अच्छी तरह निरीक्षण किया जाता था और उन्हें दागा जाता था।
(9.) शासन की सुव्यवस्था: गयासुद्दीन के समय की शासन व्यवस्था, न्याय तथा समानता के सिद्धान्त पर आधारित थी। वह प्रजा के हित का सदैव ध्यान रखता था। वह अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन देता था। परिश्रमी तथा ईमानदार व्यक्तियों को ऊँचे पदों पर नियुक्त करता था तथा योग्य व्यक्तियों को समुचित पुरस्कार देता था। उसने सूबेदारों से राजस्व वसूलने के अधिकार छीन लिये। पुलिस विभाग में भी उसने कुछ परिवर्तन किये।
(10) धार्मिक व्यवस्था: गयासुुद्दीन तुगलक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार उदार नहीं था। अलाउद्दीन खिलजी ने हिन्दुओं पर जो कर लगाये थे वे ज्यों के त्यों जारी रहे। उसने हिन्दुओं के नाम यह फरमान जारी किया कि वे पूंजी का संग्रह न करें। हिन्दुओं को लूटना, उनको जबरन मुसलमान बनाना तथा उनके देवालयों को धराशायी करना उसके शासन में भी पूर्ववत् बना रहा। युद्ध के समय में वह हिन्दुओं के मन्दिरों तथा मूर्तियों को विध्वंस करने में लेश-मात्र भी संकोच नहीं करता था। गयासुद्दीन ने मुसलमान जनता के नैतिक जीवन को ऊँचा उठाने के लिये भी कई प्रयास किये।
गयासुद्दीन के सैनिक अभियान
गयासुद्दीन ने अपने शासन काल में निम्नलिखित सैनिक अभियान किये-
(1.) वारंगल पर आक्रमण (1321 ई.): इन दिनों तेलंगाना में काकतीय वंश का राजा प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) शासन कर रहा था। वह अलाउद्दीन खिलजी के समय से दिल्ली को खिराज दे रहा था। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद उसने दिल्ली को खिराज देना बन्द कर दिया और स्वतन्त्र होने का प्रयास करने लगा। गयासुद्दीन तुगलक ने अपने पुत्र जूना खाँ को एक विशाल सेना देकर वारंगल पर आक्रमण करने भेजा। जूना खाँ ने वारंगल पर घेरा डाल दिया। छः माह तक घेरा चलने पर भी दिल्ली की सेना को विजय प्राप्त नहीं हुई। इसी बीच शहजादे जूना खाँ को सुल्तान के मरने की आशंका हुई और वह घेरा उठाकर दिल्ली की ओर रवाना हो गया। दिल्ली पहुँच कर उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। वह सुल्तान से क्षमा याचना करके 1323 ई. में पुनः वारंगल के लिये रवाना हो गया। राजा प्रताप रुद्रदेव की पराजय हुई और वह सपरिवार बन्दी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। तेलंगाना का राज्य, दिल्ली में मिला लिया गया और वहाँ पर एक मुसलमान शासक नियुक्त कर दिया गया। इस विजय से जूना खाँ ने सुल्तान का विश्वास अर्जित कर लिया।
(2.) जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण (1323 ई.): जाजनगर के राजा भानुदेव (द्वितीय) ने प्रताप रुद्रदेव की सहायता की थी, अतः जूना खाँ ने वारंगल विजय के बाद जाजनगर पर आक्रमण कर दिया। इस अभियान में शाहजादे को सामरिक विजय के साथ-साथ लूट कर बहुत सा माल तथा 50 हाथी मिले। जूना खाँ लूट का माल लेकर दिल्ली लौट आया। उड़ीसा को दिल्ली सल्तनत में नहीं मिलाया गया।
(3.) मंगोल आक्रमण (1324 ई.): मंगोल 1307 ई. के बाद से भारत से दूर थे। 1324 ई. में सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल में मंगोलों ने एक बार फिर भारत की ओर रुख किया तथा समाना पर आक्रमण किया। इस समय शहजादा जूना खाँ वारंगल आक्रमण में व्यस्त था। इसलिये गयासुद्दीन तुगलक ने समाना के हाकिम अलाउद्दीन की सहायता के लिए दिल्ली से एक सेना भेजी। इस सेना ने पहली बार शिवालिक पहाड़ी के पास तथा दूसरी बार व्यास नदी के किनारे मंगोलों को परास्त किया। प्रमुख मंगोल योद्धा बंदी बना लिये गये तथा शेष मंगोालों को दिल्ली सल्तनत की सीमा से बाहर निकाल दिया गया।
(4.) लखनौती पर आक्रमण (1324 ई.): राजधानी दिल्ली से दूर होने के कारण बंगाल के प्रान्तपति अवसर पाते ही स्वतंत्र होने की चेष्टा करते थे। इन दिनों बंगाल में शमसुद्दीन के तीन पुत्रों- शिहाबुद्दीन, गयासुद्दीन बहादुर तथा नासिरूद्दीन में उत्तराधिकार का युद्ध चल रहा था। इस झगड़े में गयासुद्दीन बहादुर को सफलता प्राप्त हुई। उसने अपने भाइयों शिहाबुद्दीन तथा नासिरूद्दीन को लखनौती से मार भगाया और स्वयं को बंगाल का सुल्तान घोषित कर दिया। शिहाबुद्दीन तथा नासिरूद्दीन ने सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। गयासुद्दीन ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया तथा राजधानी दिल्ली का प्रबन्ध अपने पुत्र जूना खाँ को सौंप कर, स्वयं एक सेना लेकर बंगाल के लिए चल दिया। बंगाल के सुल्तान गयासुद्दीन बहादुर ने दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक का सामना किया परन्तु परास्त हो गया और कैद कर लिया गया। गयासुद्दीन तुगलक ने नासिरूद्दीन को लखनौती का शासक बना दिया। इस प्रकार बंगाल पर फिर से दिल्ली सल्तनत का अधिकार स्थापित हो गया।
(5.) तिरहुत के शासक से संघर्ष (1324 ई.): जब सुल्तान लखनौती से दिल्ली को लौट रहा था तब उसने मार्ग में तिरहुत पर आक्रमण किया। इन दिनों राजा हरिसिंहदेव मिथिला पर शासन कर रहा था। हरिसिंह पराजित होकर जंगलों में भाग गया। तिरहुत दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया। अहमद खाँ को वहाँ का गवर्नर बनाया गया।
गयासुद्दीन की हत्या (1325 ई.)
तिरहुत पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त सुल्तान ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। इब्नबतूता के अनुसार सुल्तान ने जूना खाँ के पास आज्ञा भेजी कि राजधानी से कुछ दूरी पर एक महल बनाया जाये जिससे सुल्तान उसमें रात्रि व्यतीत कर दूसरे दिन समारोह के साथ राजधानी में प्रवेश कर सके। इस पर शाहजादे ने मीर-इमारत अहमद अयाज को लकड़ी का एक महल बनाने की आज्ञा दी। जब सुल्तान वापस आया तब शाहजादे ने तुगलकाबाद में बड़े समारोह के साथ उसका स्वागत किया। तुगलकाबाद से तीन-चार मील दूर अफगानपुर में सुल्तान को प्रीतिभोज देने के लिए एक शामियाना लगवाया गया। जब भोजन समाप्त हो गया तब समस्त आमन्त्रित व्यक्ति शामियाने के बाहर निकल आये। केवल सुल्तान तथा उसका एक छोटा पुत्र, जिसमें सुल्तान की विशेष अनुरक्ति थी, शामियाने के भीतर रह गये। इसी समय शाहजादे जूना खाँ ने सुल्तान से कहा कि जो हाथी बंगाल से लाये गये हैं, उनका संचालन हो। सुल्तान सहमत हो गया। जब हाथियों का संचालन हो रहा था तब अचानक शामियाना गिर पड़ा और सुल्तान तथा उसके अल्पवयस्क पुत्र महमूद खाँ की मृत्यु हो गई। उसी रात को सुल्तान का शरीर तुगलकाबाद के मकबरे में दफन कर दिया गया। इब्नबतूता ने सुल्तान की मृत्यु का सारा दोष जूना खाँ पर डाला है।
गयासुद्दीन का चरित्र
गयासुद्दीन तुगलक अनुभवी सेनापति तथा सुलझा हुआ शासक था। उसने खिलजियों के शासनकाल में सीमा रक्षक के रूप में अच्छी ख्याति अर्जित की थी। वह परिस्थतियों को समझने तथा उनका लाभ उठाने की शक्ति रखता था। इसीलिये वह एक साधारण सैनिक से सुल्तान बन गया। वह अलाउद्दीन खिलजी के बाद से दिल्ली सल्तनत में चल रही अराजकता की स्थिति को समाप्त करने में सफल रहा। सुल्तान के रूप में भी वह सफल रहा। उसने दिल्ली सल्तनत में शांति स्थापित की और कानून का राज्य स्थापित किया। उसने दक्षिण में वारंगल तथा पश्चिमोत्तर में मंगोलों से सफल युद्ध किये। उसने किसानों की हालत सुधारने का प्रयास किया जिससे सल्तनत को मजबूती दी जा सके। वह न्याय प्रिय शासक था इसलिये दिन में दो बार दरबार लगाकर लोगों के झगड़े निबटाता था। उसने दिल्ली सल्तनत के गौरव को बढ़ाया। उसके दुर्भाग्य से उसका पुत्र जूना खाँ अत्यंत महत्वाकांक्षी था जो जल्दी से जल्दी दिल्ली का सुल्तान बनना चाहता था इसलिये जूना खाँ ने छल से सुल्तान की हत्या कर दी।