Friday, March 29, 2024
spot_img

अध्याय – 11 (अ) : तुगलक वंश का चरमोत्कर्ष एवं मुहम्मद बिन तुगलक

मुहम्मद बिन तुगलक का प्रारंभिक जीवन

मुहम्मद बिन तुगलक के बचपन का नाम फखरुद्दीन मुहम्मद जूना खाँ था। वह अपने चार भाइयों में सबसे बड़ा, सर्वाधिक महत्वाकांक्षी एवं सबसे प्रतिभावान था। उसका पालन-पोषण एक सैनिक की भांति हुआ था। पिता गाजी तुगलक ने उसकी शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया। सुल्तान खुसरोशाह ने उसे कुछ घोड़ों का अध्यक्ष नियुक्त किया। खुसरोशाह के विरुद्ध जूना खाँ ने ही षड़यंत्र रचना आरम्भ किया था जिसमें उसका पिता गाजी तुगलक भी शामिल हो गया। जब यह षड़यंत्र सफल हो गया तो गाजी खाँ को सुल्तान बनाया गया तथा जूना खाँ को उसका उत्तराधिकारी घोषित किया गया। कुछ दिन बाद सुल्तान ने उसे उलूग खाँ की उपाधि दी। अपने पिता के अधीन काम करते हुए उसने वारंगल विजय करके तथा जाजनगर विजय करके अच्छी ख्याति अर्जित कर ली।

दिल्ली के तख्त की प्राप्ति

जूना खाँ प्रारम्भ से ही महत्वाकांक्षी था। खुसरोशाह के विरुद्ध किये गये विद्रोह के सफल रहने के बाद वह युवराज पद से संतुष्ट नहीं था। उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। इसलिये वह पिता की मृत्यु का संदेह होते ही वारंगल से घेरा उठाकर दिल्ली लौट आया था किंतु पिता को जीवित देखकर वह बड़ा निराश हुआ। 1325 ई.में जब सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक बंगाल विजय के लिये गया तब जूना खाँ ने उसके विरुद्ध षड़यंत्र रचना आरम्भ किया तथा सुल्तान के दिल्ली में प्रवेश करने से पहले ही उसकी हत्या करवा दी। उसकी मृत्यु के तीन दिन बाद ही जूना खाँ, मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया तथा चालीस दिन तक काले वस्त्र पहनकर अफगानपुरी में शोक मनाता रहा। जब गयासुद्दीन के समस्त अन्तिम संस्कार सम्पन्न हो गये तब उसने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। दिल्ली पहुँचने के बाद फरवरी अथवा मार्च 1325 में भव्य समारोह के साथ मुहम्मद बिन तुगलक का राज्याभिषेक हुआ।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

सुल्तान बनते समय सल्तनत की स्थिति

मुहम्मद बिन तुगलक को अपने पिता से अत्यन्त सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था। मेहदी हुसैन के अनुसार इतना विशाल साम्राज्य आज तक किसी तुर्क सुल्तान को अपने पिता से नहीं मिला था। उसके पिता का राजकोष भी धन तथा रत्नों से परिपूर्ण था। इब्नबतूता लिखता है कि गयासुद्दीन तुगलक ने तुगलकाबाद में एक प्रासाद बनवाया जिसकी ईंटें स्वर्ण से आवरित की गईं। इस महल के भीतर उसने बहुमूल्य वस्तुओं को संग्रहीत किया और एक सरोवर बनवाया जिसमें स्वर्ण को पिघलाकर भरा गया था। अतः स्पष्ट है कि मुहम्मद बिन तुगलक को सुल्तान बनते समय किसी भी प्रकार का आर्थिक संकट नहीं था। तख्त पर बैठते समय उसके तीन भाई जीवित थे किंतु किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। इस प्रकार उसे न बाह्य आक्रमणों का भय था और न आन्तरिक विद्रोह का।

सुल्तान के पद को सुदृढ़ता प्रदान करने का कार्य

दिल्ली का सुल्तान बनते समय मुहम्मद बिन तुगलक के समक्ष केवल एक समस्या थी कि लोग उसे पितृहन्ता न समझें। इससे साम्राज्य में उसके विरुद्ध वातावरण बनता तथा सुल्तान को हटाने के षड़यंत्र आरम्भ हो जाते। इसलिये मुहम्मद बिन तुगलक ने लोकप्रियता अर्जित करने तथा सुल्तान के पद को सुदृढ़ता प्रदान करने के उद्देश्य से कई उपाय किये-

(1) समारोह के साथ राजधानी में प्रवेश: बरनी ने लिखा है कि मुहम्मद बिन तुगलक के नगर प्रवेश से पूर्व दिल्ली को बहुत सुंदर ढंग से सजाया गया। गुम्बजें निर्मित की गईं तथा मार्गों को सुंदर वस्त्रों से अलंकृत किया गया। सुल्तान बनने के उपलक्ष में राजधानी में ढोल बजाये गये। सुल्तान ने जनता में सोने चांदी की बिखेर की।’ इस समारोह का जन-साधारण पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। सुल्तान ने सड़कों पर स्वर्ण तथा रजत मुद्राओं की वर्षा करके जनता को मुग्ध कर लिया और लोग उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

(2) पदों तथा पदवियों का वितरण: अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए सुल्तान ने पदों तथा पदवियों का नये सिरे से वितरण किया। उसने विद्वानों, कवियों तथा दीन-दुखियों को वार्षिक पेन्शनें, जागीरें तथा इनाम दिये। इस प्रकार धन, पद तथा पदवियों का वितरण करके सुल्तान ने ऐसी लोकप्रियता अर्जित की कि लोगों को उसे पितृहन्ता कहने का साहस नहीं हुआ। इस प्रकार अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना कर उसने शासन का कार्य आरम्भ किया।

(3) निजामुद्दीन औलिया का आशीर्वाद: उन दिनों दिल्ली में शेख निजामुद्दीन औलिया का बड़ा प्रभाव था। मुहम्मद बिन तुगलक ने औलिया को उसी समय अपने पक्ष में कर लिया था जिस समय गयासुद्दीन तुगलक बंगाल अभियान पर था। औलिया को मुहम्मद बिन तुगलक के पक्ष में देखकर जनसामान्य ने भी नये सुल्तान का विरोध नहीं किया।

(4) खलीफा से सुल्तान पद की स्वीकृति: भारत के प्रारंभिक तुर्की सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद खलीफा से सुल्तान पद की स्वीकृति प्राप्त करके मुस्लिम जगत में अपनी धाक जमाते थे। परवर्ती तुर्की शासकों ने इस परम्परा को तोड़ दिया था। मुहम्मद बिन तुगलक ने मिस्र के अब्बासी खलीफाओं से स्वयं को भारत के सुल्तान पद की स्वीकृति दिलवाई। उसने अपने सिक्कों एवं खुतबों पर खलीफाओं का नाम अंकित करवाया।

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएँ

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1.) योजनाओं का काल- 1324 ई. से 1335 ई. तक के काल में सुल्तान ने कई योजनाएं बनाकर लागू कीं जिनमें सुल्तान को आंशिक सफलता तथा आंशिक विफलता प्राप्त हुई। (2.) विद्रोहों का काल- 1335 ई. से 1351 ई. तक का काल जिसमें साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह हुए और सुल्तान का जीवन इन विद्रोहों का दमन करने में ही समाप्त हो गया।

(1.) राजस्व शासन में सुधार 

तख्त पर बैठते ही मुहम्मद बिन तुगलक ने राजस्व सुधार के लिये कई कानून बनाये। उसने सूबों की आय-व्यय का हिसाब रखने के लिये एक रजिस्टर तैयार करवाया। उसने समस्त सूबेदारों को अपने-अपने सूबों के हिसाब भेजने के आदेश दिये। इसके पीछे उसका उद्देश्य यह था कि सल्तनत के समस्त सूबों में समान लगान-व्यवस्था लागू की जाये और कोई भी गांव लगान देने से मुक्त न रहे।

(2.) कृषि की उन्नति का प्रयास

गयासुद्दीन तुगलक की तरह मुहम्मद बिन तुगलक ने भी कृषि की उन्नति के लिये प्रयास किये। उसने अलग से कृषि विभाग की स्थापना की। उस विभाग का नाम दीवाने कोही था। इस कार्य के लिये साठ वर्ग मील का एक भूभाग चुनकर उसमें विभिन्न फसलें बोई गई। तीन वर्ष में 70 लाख टका (रुपया) व्यय किया गया किंतु सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता तथा समय की कमी के कारण यह योजना असफल रही और बंद कर दी गई।

(3.) दोआब पर कर में वृद्धि

तख्त पर बैठने के थोड़े ही दिन बाद सुल्तान ने दोआब पर कर में वृद्धि की। बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों पर भूमि कर के अतिरिक्त घरी, अर्थात गृहकर तथा चरही अर्थात् चरागाह कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। दुर्भाग्य से इन्हीं दिनों अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिये। इस पर लोग जंगलों में भाग गये। शाही सेना ने जंगलों से लोगों को पकड़कर उन्हें यातनाएं दीं। यद्यपि सुल्तान ने बाद में प्रजा की सहायता के लिए कई व्यवस्थाएँ कीं परन्तु वे उस समय की गयीं जब प्रजा का सर्वनाश हो चुका था। इस कारण प्रजा सुल्तान की उदारता से कोई लाभ नहीं उठा सकी।

 कर वृद्धि के कारण: इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा दो आब में की गई कर वृद्धि के अलग-अलग कारण बताये हैं-

(1.) बदायूनीं का कहना है कि यह अतिरिक्त कर दोआब की विद्रोही प्रजा को दण्ड देने तथा उस पर नियन्त्रण रखने के लिए लगाया गया था। सर हेग ने भी इस मत का अनुमोदन किया है।

(2.) कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सुल्तान ने अपने रिक्त कोष की पूर्ति के लिए दोआब पर अतिरिक्त कर लगाया था।

(3.) गार्डनर ब्राउन का कहना है कि दोआब साम्राज्य का सबसे अधिक धनी तथा समृद्धिशाली भाग था। इसलिये इस भाग से साधारण दर से अधिक कर वसूला जा सकता था।

(4.) अधिकांश विद्वानों का मानना है कि दोआब का कर, शासन-प्रबन्ध को सुधारने के विचार से बढ़ाया गया था।

कर नीति की असफलता: सुल्तान की यह योजना सफल नहीं हुई। इसके दो प्रमुख कारण थे- (1.) प्रजा बढ़े हुए कर को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि कोई भी अधिक कर देना पसन्द नहीं करता। (2.) इन्हीं दिनों दोआब में अकाल पड़ गया था, जनता बढ़े हुए कर को चुका नहीं सकती थी।

कर नीति की समीक्षा: बरनी ने मुहम्मद बिन तुगलक की कर नीति की कटु आलोचना की है। कुछ इतिहासकारों ने बरनी की आलोचना पर आक्षेप लगाये हैं कि बरनी की आलोचना में अतिरंजना है। बरनी की इस कटु आलोचना का कारण यह था कि बरनी उलेमा वर्ग का था जिसके साथ सुल्तान की बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं थी। इसलिये सुल्तान की निन्दा करना बरनी के लिए स्वाभाविक ही था। इसके अतिरिक्त बरनी बरान का रहने वाला था और बरान को भी दोआब के कर का शिकार बनना पड़ा था। इसलिये उसमें मात्भूमि के प्रेम का आवेश था परन्तु बरनी द्वारा की गई कटु आलोचना बिल्कुल निर्मूल भी नहीं कही जा सकती।

गार्डन ब्राउन ने सुल्तान को बिल्कुल निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और प्रजा की हालत खराब होने का सारा दोष अकाल पर डाला है परन्तु यदि ऐसा था तो सुल्तान को अकाल आरम्भ होते ही अतिरिक्त कर हटा देना चाहिए था और प्रजा की सहायता की व्यवस्था करनी चाहिए थी। उसे शाही कर्मचारियों पर भी पूरा नियन्त्रण रखना चाहिए था। जबकि सुल्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया इसलिये सुल्तान को उसके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता।

(4.) राजधानी का परिवर्तन

सुल्तान की चौथी योजना राजधानी का स्थान परिवर्तन करने की थी। उसने दिल्ली के स्थान पर दक्षिण भारत में स्थित देवगिरि को अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया और उसका नाम दौलताबाद रखा।

राजधानी परिवर्तन के कारण: सुल्तान द्वारा राजधानी परिवर्तन का निर्णय लेने के पीछे कई कारण बताये जाते हैं-

(1.) दिल्ली मुहम्मद बिन तुगलक की सल्तनत के उत्तरी भाग में स्थित थी जबकि  देवगिरि साम्राज्य के केन्द्र में स्थित थी जहाँ से साम्राज्य के विभिन्न भागों पर यथोचित नियन्त्रण रखा जा सकता था।

(2.) यद्यपि दक्षिण भारत को दिल्ली के सुल्तानों ने विजय कर लिया था परन्तु वहाँ पर उनकी सत्ता स्थायी रूप से नहीं रह पाती थी। इसलिये मुहम्मद बिन तुगलक दक्षिण में अपनी राजधानी बनाकर वहाँ भी अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना सकता था।

(3.) याहया का कहना है कि दोआब में कर-वृद्धि तथा अकाल के कारण दिल्ली में बड़ा असन्तोष तथा अशान्ति फैल गई। इसलिये यहाँ की हिन्दू जनता को दण्ड देने के लिए सुल्तान ने समस्त दिल्ली वासियों को देवगिरि जाने की आज्ञा दी।

(4.) इब्नबतूता के अनुसार कुछ लोग सुल्तान की नीति से असन्तुष्ट थे। ये लोग पत्रों में गालियाँ लिख कर और उन्हें तीरों में बाँध कर रात्रि के समय सुल्तान के महल में फेंका करते थे। चंूकि तीर फेंकने वालों का पता लगाना कठिन था इसलिये सम्पूर्ण दिल्ली निवासियों को उन्मूलित करने के लिए सुल्तान ने राजधानी के परिवर्तन करने की योजना बनाई।

(5.) बरनी के अनुसार सुल्तान ने मध्यम श्रेणी तथा उच्च-वर्ग के लोगों का विनाश करने के लिए राजधानी परिवर्तन की योजना तैयार की थी।

(6.) कुछ विद्वानों की धारणा है कि मंगोल आक्रमणों से राजधानी को सुरक्षित रखने के लिए सुल्तान ने देवगिरि को राजधानी बनाने की योजना बनाई।

विभिन्न इतिहासकारों द्वारा बताये गये उपरोक्त कारणों में से याहया, इब्नबतूता तथा बरनी द्वारा बताये गये मत निराधार हैं। मंगोलों के आक्रमणों से राजधानी को सुरक्षित बनाने के लिये उसे दूर ले जाने का तर्क भी अमान्य है क्योंकि राजधानी दिल्ली में रहते हुए ही अलाउद्दीन खिलजी तथा बलबन अपनी सीमा की सुरक्षा तथा समुचित व्यवस्था करने में सफल सिद्ध हुए थे। अतः निश्चित रूप से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि शासन की सुविधा तथा दक्षिण भारत में अपनी सत्ता सुदृढ़ करने के लिए सुल्तान ने राजधानी परिवर्तन की योजना बनाई थी।

राजधानी परिवर्तन का स्वरूप: इतिहासकारों का अनुमान है कि साम्राज्य की सुव्यवस्था के लिए सुल्तान ने दो राजधानियाँ रखने का निश्चय किया। उत्तरी साम्राज्य की राजधानी दिल्ली और दक्षिण की देवगिरि होनी थी। देवगिरि के महत्व को बढ़ाने के लिए सुल्तान ने राजवंश के लोगों, बड़े-बड़े अमीरों, विद्वानों, सन्त महात्माओं आदि को वहाँ पर बसाने का निश्चय किया। इन लोगों के बसने पर ही देवगिरि मुस्लिम सभ्यता के प्रसार का केन्द्र बन सकती थी। दक्षिण में मुस्लिम जनसंख्या के बढ़ जाने पर ही दक्षिण पर पूर्ण सत्ता स्थापित रह सकती थी। अतः सुल्तान ने अपनी माता मखदूम-जहाँ को देवगिरि भेज दिया। उसके साथ दरबार के अमीरों, विद्वानों, घोड़ों, हाथियों, राजकीय भण्डारों आदि को भी भेजा। इन लोगों की सुविधा के लिए सुल्तान ने अनेक प्रकार का प्रबन्ध किया। दिल्ली से दौलताबाद जाने वाली सड़क की मरम्मत कराई गई और उसके किनारे आवश्यक वस्तुओं के विक्रय की व्यवस्था की गई। लोगों के लिए सवारियों का भी प्रबन्ध किया गया। यात्रियों को कई प्रकार की सुविधायें दी गईं। दौलताबाद में भव्य भवनों का निर्माण कराया गया और समस्त प्रकार की सुविधाओं को देने का प्रयत्न किया गया।

राजधानी परिवर्तन के परिणाम: राजधानी परिवर्तन के निम्नलिखित परिणाम निकले-

(1.) जो लोग दिल्ली से दौलताबाद गये थे, वे इस परिवर्तन से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्हें दिल्ली की स्मृतियाँ सम्भवतः वेदना पहुँचाया करती थीं। उन्हें यह स्थानान्तरण दण्ड के समान प्रतीत हुआ। इसलिये वे सुल्तान की निंदा करने लगे।

(2.) जब सुल्तान को लोगों के असन्तोष की जानकारी हुई तब उसने असन्तुष्ट लोगों को फिर दिल्ली लौटने की आज्ञा दे दी। बरनी के अनुसार दौलताबाद जाने वाले लोगों में से बहुत कम लोग वापस दिल्ली जीवित लौट सके।

(3.) इस योजना को कार्यान्वित करने में सुल्तान को बड़ा धन व्यय करना पड़ा। जिससे राजकोष को धक्का पहुँचा।

(4.) प्रजा में बड़ा असन्तोष फैला जिससे सुल्तान की लोकप्रियता को बहुत बड़ा धक्का लगा और उसे अपना पुराना गौरव नहीं मिल सका।

(5.) दिल्ली से दौलताबाद जाने तथा वापस दिल्ली आने में अनेक लोगों को अपने प्राण खो देने पड़े तथा सहस्रों परिवारों की समृद्धि समाप्त हो गई।

(6.) दक्षिण भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने में सुल्तान को बड़ी सुविधा हुई।

(7.) देवगिरि की गौरव-गरिमा में वृद्धि हो गई।

(8.) यद्यपि दौलताबाद के सुदृढ़ दुर्ग तथा वहाँ के राजकोष के परिपूर्ण हो जाने से आरम्भ में दक्षिण के विद्रोहियों का दमन करने में बड़ी सुविधा हुई परन्तु अन्त में जब दक्षिण में विद्रोहों का विस्फोट हुआ तब दुर्ग तथा कोष का यही बल साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ क्योंकि इसका प्रयोग सुल्तान के विरुद्ध होने लगा।

राजधानी परिवर्तन के निर्णय की समीक्षा: मुहम्मद बिन तुगलक की इस योजना की विद्वानोें ने तीव्र आलोचना की है और सुल्तान को क्रूर, अदूरदर्शी तथा प्रजापीड़क बताया है। कुछ इतिहासकारों ने उसे पागल तक कहा है परन्तु वास्तव में राजधानी का परिवर्तन कोई पागलपन भरी योजना नहीं थी। इसके पहले भी हिन्दू राजाओं ने अपनी राजधानियों का परिवर्तन किया था। आधुनिक काल में भी राजधानियों का परिवर्तन होता रहता है। सुल्तान की यह आलोचना तर्क तथा उपयोगिता पर आधारित थी। फिर भी वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। इसका कारण यह था कि आयोजना के कार्यान्वित करने का ढंग ठीक नहीं था। उसे यह कार्य धीरे-धीरे करना चाहिए था। पहले केवल सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी कर्मचारियों को ले जाना चाहिए था। फिर कुछ समय के प्रयोग तथा अभ्यास के उपरान्त अन्य लोगों को वहाँ भेजा जाना चाहिये था।

(5.) मंगोलों को धन देने की योजना

दोआब में कर बढ़ा देने तथा राजधानी के परिवर्तन से जो गड़बड़ी पैदा हो गई थी, उससे प्रोत्साहित होकर मंगोलों ने 1328 ई. में तरमाशिरीन के नेतृत्व मंें भारत पर आक्रमण कर दिया। मंगोल सिंध नदी को पार करके दिल्ली के निकट आ गये। मुहम्मद बिन तुगलक ने मंगोलों से युद्ध करने के स्थान पर उन्हें बहुत-सा धन देकर उनसे अपना पीछा छुड़ाया।

मंगोलों को धन देने की नीति की समीक्षा: मुहम्मद तुगलक की मंगोलों को धन देने की नीति की तीव्र आलोचना की गई है। इससे मंगोलों को सुल्तान की दुर्बलता का पता लग गया और उनका भारत पर आक्रमण करने का प्रलोभन बढ़ गया परन्तु वास्तविकता यह है कि सुल्तान उन दिनों ऐसी परिस्थिति में नहीं था कि मंगोलों का सामना कर सके। सुल्तान के पास सल्तनत को नष्ट-भ्रष्ट होने तथा पराजय से बचाने का कोई दूसरा उपाय ही न था। मुहम्मद बिन तुगलक से धन स्वीकार करने के बाद तरमाशिरीन ने दिल्ली के सुल्तान के साथ सदैव मैत्री-भाव रखा। यदि कायरता अथवा दुर्बलता के कारण सुल्तान ने धन दिया होता तो तरमाशिरीन उससे मैत्री-भाव रखने के स्थान पर उस पर पुनः आक्रमण करता।

(6.) संकेत मुद्रा चलाने की योजना

मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा प्रबन्ध को सुधारने के लिये अनेक योजनाएँ बनाईं। उसने भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्राएँ ढलवाईं जो कला की दृष्टि से बड़ी सुन्दर थीं। उसने दीनार नामक स्वर्ण मुद्रा चलाई तथा अदली नामक रजत-मुद्रा का पुनरुद्धार किया। मुद्रा सुधार के सम्बन्ध में सुल्तान की सबसे बड़ी योजना संकेत मुद्रा चलाने की थी। यह योजना राजधानी परिवर्तन के विफल हो जाने के उपरान्त लागू की गई थी। सुल्तान ने सोने-चांदी की मुद्राओं के स्थान पर ताँबे की संकेत मुद्राएँ चलाईं।

संकेत-मुद्रा चलाने का कारण: संकेत मुद्रा चलाने के कई कारण थे-

(1.) संकेत-मुद्रा चलाने का प्रथम कारण राज्य में चाँदी का अभाव होना बताया जाता है। उन दिनों न केवल भारतवर्ष में, अपितु सम्पूर्ण विश्व में चाँदी की कमी अनुभव की जा रही थी।

(2.) चाँदी की मुद्रा के अभाव के कारण लोगों को व्यापार तथा लेन-देन में बड़ी असुविधा हो रही थी। इस असुविधा को दूर करने के लिए ही मुहम्मद तुगलक ने ताँबे की मुद्रा चलाने की योजना बनाई थी।

(3.) मुहम्मद तुगलक को नई योजनाएँ बनाने का व्यसन था। वह सदैव नई-नई योजनाओं की कल्पना किया करता था।

(3.) मुहम्मद तुगलक सांकेतिक मुद्रा चलाकर ख्याति प्राप्त करना चाहता था। वह अपने नवीन कृत्यों द्वारा अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देना चाहता था तथा वह इतिहास में अपना नाम अमर बनाना चाहता था।

(4.) मुहम्मद तुगलक ने अपने रिक्त कोष को भरने के लिये यह योजना बनाई। विद्रोहों को दबाने, अकाल-पीड़ितों की सहायता करने, नई योजनाओं को कार्यान्वित करने, नवीन भवनों का निर्माण कराने तथा मुक्त-हस्त से पुरस्कार देने से राजकोष रिक्त हो गया था और सुल्तान बड़े आर्थिक संकट में पड़ गया था। इस आर्थिक संकट को दूर करने के लिए ही सुल्तान ने संकेत मुद्रा के चलाने की योजना बनाई।

(5.) मुहम्मद तुगलक अस्थिर विचारों का व्यक्ति था। जब उसने देखा कि चीन, फारस आदि देशों में संकेत मुद्रा का प्रचलन है, तब उसने भी अपने राज्य में संकेत मुद्रा चलाने की आज्ञा दी।

(6.) मुहम्मद तुगलक विश्व-विजय की कामना से प्रेरित था और इस ध्येय की पूर्ति के लिये उसे एक विशाल सेना की आवश्यकता थी जिसके व्यय के लिए धन आवश्यक था। अतः सुल्तान ने संकेत मुद्रा की योजना बनाई।

योजना का क्रियात्मक स्वरूप तथा परिणाम: प्रारम्भ में लोगों को संकेत मुद्रा से बड़ी सुविधा हुई परन्तु बाद में लोगों को आशंका हुई कि सरकार ने चाँदी की मुद्राओं का अपहरण करने के लिये यह योजना चलाई है। सरकार जनता से चाँदी की मुद्राएँ लेकर अपने राजकोष में भर लेगी और इनके स्थान पर ताँबे की मुद्राएँ प्रयुक्त होंगी। इस आशंका का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने चाँदी तथा सोने की मुद्राओं को छिपा दिया तथा केवल ताँबे की मुद्राओं को व्यवहार में लाने लगे। स्वर्णकारों ने अपने घरों में टकसालें बना लीं और ताँबे की मुद्राएं ढालने लगे। बरनी के अनुसार प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया।

इसका परिणाम यह हुआ कि ताम्बे की मुद्राओं में अत्यन्त दु्रतगति से वृद्धि होने लगी। लोगों की ऐसी मनोवृत्ति हो गई कि देने के समय वे ताँबे की मुद्रा देना चाहते थे और लेने के समय चाँदी अथवा सोेने की मुद्राओं को प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। इस मनोवृत्ति का व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ा। व्यापारियों ने तांबे की मुद्राओं के बदले सामान देना बन्द कर दिया। ऐसी स्थिति में सरकार का हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया। फलतः सुल्तान ने यह आदेश निकाल दिया कि संकेत मुद्रा का प्रयोग बन्द कर दिया जाय और जिसके पास ताँबें की मुद्राएँ हो, उनके बदले में वे सोने-चाँदी की मुद्राएँ ले लें। इस घोषणा का परिणाम यह हुआ कि सरकारी खजाने में ताँबे की मुद्राओं के ढेर लग गये तथा राजकोष सोने-चांदी से रिक्त हो गया।

संकेत-मुद्रा योजना की समीक्षा: इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा चलाई गई संकेत मुद्रा की तीव्र आलोचना की है और उस पर पागल होने का आरोप लगाया है परन्तु वास्तव में यह योजना मुहम्मद तुगलक के पागलपन की नहीं, वरन् उसकी बुद्धिमता की परिचायक है। चीन तथा फारस में पहले से ही संकेत मुद्रा चल रही थी। आधुनिक काल में भी पूरे विश्व में संकेत मुद्रा का प्रचलन है। चौदहवीं शताब्दी में संकेत मुद्रा का असफल हो जाना अवश्यम्भावी था क्योंकि साधारण जनता के लिए चांदी और ताँबे में बहुत अंतर था। वह संकेत मुद्रा विनिमय के महत्व को नहीं समझ सकी। यह योजना इसलिये भी असफल हो गई क्योंकि सरकार ने सुनारों को ताम्बे की मुद्रा ढालने से नहीं रोका। सुल्तान को चाहिए था कि वह टकसाल पर राज्य का एकाधिकार रखता और ऐसी व्यवस्था करता जिससे लोग अपने घरों में संकेत मुद्रा को नहीं ढाल पाते। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सुल्तान की योजना गलत नहीं थी अपितु उसके कार्यान्वयन का ढंग गलत था।

(7.) खुरासान विजय की योजना

मुहम्मद बिन तुगलक ने न केवल शासन सम्बन्धी, वरन् युद्ध अभियान सम्बन्धी भी अनेक योजनाएँ बनाईं। उसकी सर्वप्रथम योजना खुरासान पर विजय प्राप्त करने की थी।

योजना के कारण: इस योजना का सबसे बड़ा कारण मुहम्मद बिन तुगलक की महत्वाकांक्षा थी। भारत में सुल्तान ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली थी। अपने शासन के प्रथम तीन वर्षों में उसने अपनी सत्ता तथा धाक उत्तर तथा दक्षिण में स्थित प्रान्तों में जमा ली थी। अब वह विदेश विजय का गौरव प्राप्त करना चाहता था। खुरासान पर आक्रमण करने की योजना बनाने का दूसरा कारण खुरासान की तत्कालीन स्थिति थी। सुल्तान के दरबार में उन दिनों बहुत से खुरासानी अमीर थे जिन्होंने सुल्तान को खुरासान की शोचनीय दशा के बारे में जानकारी देकर खुरासान पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। इन दिनों फारस में अबू सईद शासन कर रहा था। वह अल्पवयस्क तथा दुराचारी था। अमीर लोग उससे असन्तुष्ट होकर षड्यन्त्र रच रहे थे। उसका संरक्षक अमीर चौगन राज्य को छीनने का प्रयास कर रहा था। अबू सईद ने चौगन की हत्या करवा दी। इससे फारस में बड़ी गड़बड़ी फैल गई और चौगन के पुत्र अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का अवसर ढूँढने लगे। खुरासान के विभिन्न प्रान्तों में भी गड़बड़ी फैली हुई थी। इन परिस्थितियों में सुल्तान के लिए खुरासान पर विजय की योजना बनाना अस्वाभाविक नहीं था।

योजना का क्रियात्मक स्वरूप: मुहमद बिन तुगलक ने अपनी इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक विशाल सेेना तैयार की। इन सैनिकों को एक वर्ष का वेतन पहले से ही दे दिया परन्तु परिस्थितियाँ बदल जाने से सुल्तान को खुरासान योजना त्याग देनी पड़ी।योजना को त्यागने का पहला कारण यह था कि मिस्र के राजा ने खुरासान के सुल्तान अबू सईद से मैत्री कर ली और मुहमद बिन तुगलक की सहायता करने से इन्कार कर दिया। दूसरा कारण यह था कि इन्हीं दिनों चगताई अमीरों ने विद्रोह करके तरमाशिरीन को तख्त से उतार दिया जिससे अबू सईद को अपने राज्य की पूर्वी सीमा की ओर आक्रमण की आंशका नहीं रह गई। तीसरा कारण यह था कि ऐसे दूरस्थ प्रदेश में हिन्दूकुश पर्वत के उस पार सेना तथा रसद भेजना और अपने सहधर्मियों से युद्ध करके विजय प्राप्त करना सरल कार्य नहीं था।

खुरासान योजना की समीक्षा: इतिहासकारों द्वारा मुहमद बिन तुगलक की इस योजना की तीव्र आलोचना की गई है। आलोचकों का कहना है कि मार्ग की कठिनाइयों को ध्यान में नहीं रखते हुए ऐसे सुदूरस्थ देश की विजय की योजना बनाना पागलपन था परन्तु मुहमद बिन तुगलक के समर्थकों का कहना है कि यदि फारस से भारत पर आक्रमण करना सम्भव है, तब भारत से फारस पर आक्रमण करना क्यों सम्भव नहीं है। आलोचकों के अनुसार दोआब के अकाल, राजधानी के परिवर्तन तथा संकेत मुद्रा की योजना विफल हो जाने से राज्य भयानक आर्थिक संकट में था, तब इस प्रकार की योजना बनाना मूर्खता ही थी परन्तु ऐसी कामनाएँ, अलाउद्दीन खिलजी भी कर चुका था। वास्तव में सुल्तान की योजना तर्कहीन नहीं थी। सम्भवतः परिस्थितियों के कारण ही सुल्तान ने इस योजना को त्याग दिया था।

(8.) नगरकोट पर आक्रमण की योजना

1337 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक ने नगरकोट पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया, जो हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में स्थित है। नगरकोट का दुर्ग एक पहाड़ी पर स्थित था और अभेद्य समझा जाता था। सुल्तान ने एक लाख सैनिकों के साथ किले पर आक्रमण कर दिया और उस पर विजय प्राप्त कर ली परन्तु सुल्तान ने फिर से वह किला वहाँ के राय को लौटा दिया और दिल्ली चला आया।

(9) कराजल विजय की योजना

फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने चीन तथा हिमाचल पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई। हिमाचल विजय की योजना चीन अभियान को सरल बनाने के लिए की गई थी। बरनी का कहना है कि सुल्तान ने कराजल के पर्वतीय प्रदेश पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई जो चीन तथा हिन्द के मार्ग में स्थित है।

कराजल विजय की योजना के कारण: बरनी का कहना कि मुहमद बिन तुगलक ने कराजल योजना को इस उद्देश्य से बनाया था जिससे वह खुरासान पर सरलता से विजय प्राप्त कर सके परन्तु चंूकि कराजल खुरासान के मार्ग में नहीं पड़ता, अतः बरनी का मत अमान्य है। हजीउद्दबीर का कहना है चूंकि कराजल की स्त्रियाँ अपने रूप तथा अन्य गुणों के लिए प्रसिद्ध थीं, इसलिये मुहमद बिन तुगलक उनसे विवाह करके उन्हें अपने रनिवास में लाना चाहता था। इसी ध्येय से उसने कराजल पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी। हजीउद्दीबीर का मत भी अमान्य है क्योंकि मुहमद बिन तुगलक का आचरण बड़ा पवित्र था। अधिकांश इतिहासकारों की धारणा है कि मुहमद बिन तुगलक ने हिमाचल प्रदेश के कुछ विद्रोही सरदारों को दिल्ली सल्तनत के अधीन करने के लिए यह योजना बनाई थी। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने चीन के धन को लूटने के लिए यह योजना बनाई थी। यह मत भी इतिहासकारों द्वारा अमान्य कर दिया गया है। अनुमान होता है कि मुहमद बिन तुगलक ने तराई के प्रदेश के किसी सरदार को दबाने के लिये ही हिमाचल पर आक्रमण किया था।

योजना के परिणाम: हिमाचल अभियान के आरम्भ में मुहमद बिन तुगलक की सेना को अच्छी सफलता मिली परन्तु जब वर्षा ऋतु आरम्भ हुई तब उसका पतन आरम्भ हो गया। वर्षा के कारण रसद का पहुँचना कठिन हो गया। इस भयानक परिस्थिति में शत्रु ने मुहमद बिन तुगलक की सेना पर आक्रमण कर दिया और उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। कहा जाता है कि केवल दस सैनिक इस दुःखद घटना को सुनाने के लिए लौट सके। इतनी क्षति होने पर भी मुहमद बिन तुगलक को अपने ध्येय में सफलता प्राप्त हो गई। चूंकि उस पहाड़ी सरदार के लिए पहाड़ के निचले प्रदेश में सुल्तान से विरोध करके बने रहना संभव नहीं था इसलिये उसने मुहमद बिन तुगलक की अधीनता स्वीकार कर ली।

कराजल योजना की आलोचना: कुछ इतिहासकारों ने मुहमद बिन तुगलक की इस योजना की भी बड़ी आलोचना की है और उसे पागल कहा है परन्तु इसमें पागलपन की कोई बात नहीं थी। ऐसे पर्वतीय प्रदेश में धन तथा जन की क्षति होना स्वाभाविक था। अंग्रेजों को भी नेपाल विजय करने में बड़ी क्षति उठानी पड़ी थी।

मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध विद्रोहों का काल

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम 16 वर्ष आपत्ति भरे थे। इस अवधि में सल्तनत के विभिन्न भागों में विद्रोह उठ खड़े हुए। ये विद्रोह अत्यन्त व्यापक क्षेत्र में विस्तृत थे। यदि एक विद्रोह उत्तर में होता तो दूसरा दक्षिण में और यदि एक विद्रोह पश्चिम में होता तो दूसरा सुदूर पूर्व में। इससे सेना के संचालन में बड़ी कठिनाई होती थी। मुहम्मद बिन तुगलक के समय में चौंतीस विद्रोह हुए जिनमें से 27 विद्रोह दक्षिण भारत में हुए थे। इन विद्रोहों के फलस्वरूप सल्तनत बिखरने लगी और कई स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना हो गयी।

(1.) वहाबुद्दीन गुर्शस्प का विद्रोह: पहला विद्रोह 1327 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई वहाबुद्दीन गुर्शस्प ने किया जो गुलबर्गा के निकट सागर का सूबेदार था। शाही सेना ने इस विद्रोह को दबा दिया। मुहम्मद बिन तुगलक ने गुर्शस्प की खाल में भूसा भरवाकर उसे भारत के कई शहरों में प्रदर्शित करवाया और उसके शरीर के मांस को चावल के साथ पकाकर उसकी बीवी-बच्चों के पास खाने के लिये भेजा।

(2.) किश्लू खाँ का विद्रोह: दूसरा विद्रोह ई.1328 में मुल्तान के सूबेदार बहराम आईबा उर्फ किश्लू खाँ ने किया। स्वयं मुहम्मद बिन तुगलक ने इस विद्रोह का दमन किया। बहराम आईबा का वध कर दिया गया।

(3.) हुलाजू का विद्रोह: लाहौर का सूबेदार अमीर हुलाजू एक शक्तिशाली अमीर था। उसने भी मुहमद बिन तुगलक के विरुद्ध विद्रोह किया तथा शाही सेना द्वारा मारा गया।

(4.) जलालुद्दीन का विद्रोह: तीसरा विद्रोह 1335 ई. में मदुरा के गवर्नर जलालुद्दीन एहसान शाह ने किया। इस समय दोआब में अकाल था और प्रजा में असन्तोष फैला हुआ था। इससे लाभ उठाकर जलालुद्दीन ने विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने अपने प्रधानमन्त्री ख्वाजाजहाँ को इस विद्रोह का दमन करने के लिये भेजा परन्तु वह धार से वापस लौट आया। अब मुहमद बिन तुगलक ने स्वयं दक्षिण के लिये प्रस्थान किया। जब सुल्तान तेलंगाना पहुँचा, तब वहाँ बड़े जोरों का हैजा फैल गया और मुहमद बिन तुगलक के बहुत से सैनिक मर गये। फलतः सुल्तान ने दिल्ली लौटने का निश्चय किया और एहसान शाह स्वतन्त्र हो गया।

(5.) मलिक हुशंग का विद्रोह: एहसान शाह के विद्रोह का प्रभाव साम्राज्य के अन्य भागों पर भी पड़ा। उत्तर तथा दक्षिण भारत में यह खबर फैल गई कि सुल्तान की मृत्यु हो गई है। फलतः 1335 ई. में दौलताबाद के सूबेदार मलिक हुशंग ने विद्रोह कर दिया। सुल्तान की उस पर विशेष कृपा रहती थी परन्तु वह बड़ा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। अतः अवसर पाकर उसने विद्रोह कर दिया। अन्त में उसे भाग कर हिन्दू सरदारों के यहाँ शरण लेनी पड़ी। मुहमद बिन तुगलक ने उसे क्षमा कर दिया।

(6) सैयद इब्राहीम का विद्रोह: मुहमद बिन तुगलक की मृत्यु की सूचना पाकर उत्तर में एहसान शाह के पुत्र सैयद इब्राहिम ने भी विद्रोह कर दिया। इब्राहिम, सुल्तान का बड़ा विश्वासपात्र था। अन्त में उसने आत्म समर्पण कर दिया। फिर भी उसकी हत्या करवा दी गई।

(7.) बहराम खाँ का विद्रोह: इन दिनों पूर्वी बंगाल में बहराम खाँ शासन कर रहा था। उसके अंगरक्षक फखरूद्दीन ने 1337 ई. में उसकी हत्या कर दी और स्वयं पूर्वी बंगाल का शासक बन गया। दिल्ली साम्राज्य की दशा को देखकर उसने स्वयं को बंगाल का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और अपने नाम की मुद्राएँ चलाने लगा। मुहमद बिन तुगलक की असमर्थता के कारण बंगाल स्वतंत्र हो गया।

(8.) निजाम भाई का विद्रोह: बंगाल के विद्रोह की सफलता देखकर कड़ा के सूबेदार निजाम भाई ने भी विद्रोह कर दिया। 1338 ई. में उसकी जीवित खाल खिंचवा ली गई।

(9.) अलीशाह का विद्रोह: अलीशाह दिल्ली सल्तनत का एक उच्च अधिकारी था। उसे मुहमद बिन तुगलक ने दक्षिण में मालगुजारी वसूल करने के लिए गुलबर्गा भेजा परन्तु उसने गुलबर्गा के हाकिम की हत्या करके शाही खजाने पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने बीदर पर भी अधिकार कर लिया। कुतलुग खाँ ने उसे परास्त करके बन्दी बना लिया। कुछ दिनों बाद उसका वध कर दिया गया।

(10.) आईन-उल-मुल्क का विद्रोह: आइन-उल-मुल्क अवध तथा जफराबाद का गवर्नर था। उसने दिल्ली सल्तनत की बड़ी सेवाएँ की थी। एक बार मुहमद बिन तुगलक दक्षिण के गवर्नर कुतलुग खाँ ख्वाजा के काम से असन्तुष्ट हो गया। इसलिये उसने ख्वाजा को वापस बुला लिया और उसके स्थान पर आइन-उल-मुल्क को नियुक्त कर दिया तथा उसे अपने बाल-बच्चों के साथ दक्षिण जाने की आज्ञा दी। यद्यपि आइन-उल-मुल्क के लिये यह बड़े गौरव की बात थी परन्तु उसे लगा कि सुल्तान ने उसे अवध से हटाने के लिए ऐसा किया है। इसलिये उसने विद्रोह कर दिया। उसका विद्रोह सबसे भयानक था। फिर भी शाही सेना ने उसे परास्त करके बंदी बना लिया। जब वह सुल्तान के सामने लाया गया तो सुल्तान ने उसकी सेवाओं तथा उसकी विद्वता को देखते हुए उसे क्षमा कर दिया।

(11.) शाहू अफगान का विद्रोह: मुहमद बिन तुगलक को विपत्ति में देखकर शाहू अफगान लोदी ने मुल्तान के सूबेदार को कैद करके स्वयं को मुल्तान का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। विद्रोह की सूचना पाते ही मुहमद बिन तुगलक ने दिल्ली से मुल्तान के लिये प्रस्थान किया। इसकी सूचना पाते ही शाहू अफगान मुल्तान छोड़कर पहाड़ों में भाग गया और सुल्तान के पास एक प्रार्थना पत्र भेज कर क्षमादान की याचना की। फलतः मुहमद बिन तुगलक दिपालपुर से ही दिल्ली लौट आया।

(12.) विजय नगर की स्थापना (1336 ई.): सल्तनत में स्थान-स्थान पर हो रहे विद्रोहों को देखकर हिन्दू राजाओं ने भी स्वतन्त्र होने का प्रयास किया। 1336 ई. में हरिहर तथा बुक्का ने विजय नगर राज्य की स्थापना की। हरिहर तथा बुक्का, राजा प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) के सम्बन्धी थे और दिल्ली में बन्दी बना कर रखे गये थे। 1335 ई. में तेलंगाना के हिन्दुओं ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। इस गम्भीर स्थिति में सुल्तान ने हरिहर तथा बुक्का की सहायता से वहाँ पर शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। उसने हरिहर को उस क्षेत्र का शासक और बुक्का को उसका मन्त्री बनाकर भेज दिया। वहाँ पहुँचने पर धीरे-धीरे हरिहर ने अपनी शक्ति संगठित कर ली और विजय नगर के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली।

(13.) कृष्ण नायक का स्वतन्त्रता संग्राम: कृष्ण नायक काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) का पुत्र था। दक्षिण के विद्रोहों से उसे बड़ा प्रोत्साहन मिला। 1343 ई. में उसने मुसलमानों के विरुद्ध एक संघ बनाया। ये लोग वारंगल, द्वारसमुद्र तथा कोरोमण्ड तट के समस्त प्रदेश को दिल्ली सल्तनत से स्वतन्त्र करने में सफल हुए। दक्षिण में केवल देवगिरि तथा गुजरात, दिल्ली सल्तनत के अधिकार में रह गये।

(14.) सुनम तथा समाना के जाटों और भट्टियों का विद्रोह: सुनम तथा समाना के जाटों तथा भट्टी राजपूतोंएवं पहाड़ी सामंतों ने विद्रोह किये। मुहमद बिन तुगलक ने इन विद्रोहों में कड़ा रुख अपनाया तथा विद्रोहियों के नेताओं को पकड़ कर बलपूर्वक मुसलमान बनाया।

(15.) शताधिकारियों के विद्रोह: शताधिकारी विदेशी अमीरों को कहते थे। ये लोग प्रायः एक शत सैनिकों के नायक हुआ करते थे और प्रायः एक शत गाँवों में शान्ति रखने तथा कर वसूलने का उत्तरदायित्व निभाते थे। सुल्तान के प्रति इनकी कोई विशेष श्रद्धा नहीं थी और वेे सदैव अपनी स्वार्थ सिद्धि में संलग्न रहते थे। जब मुहमद बिन तुगलक ने उन्हें अनुशासित बनाने का प्रयत्न किया, तब उन लोगों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दमन करने, मुहमद बिन तुगलक को स्वयं दक्षिण जाना पड़ा। उसने विद्रोहियों को परास्त कर उन्हें तितर-बितर कर दिया। हसन नाम का एक अमीर कुछ विद्रोहियों के साथ गुलबर्गा भाग गया और उसने वहाँ पर 1347 ई. में बहमनी राज्य की नींव डाली। इस समय मुहमद बिन तुगलक को गुजरात में तगी के विद्रोह की सूचना मिली। सुल्तान ने गुजरात के लिए प्रस्थान किया। तगी सिन्ध की ओर भाग गया। मुहम्मद बिन तुगलक उसका पीछा करते हुए थट्टा पहुँचा।  20 मार्च 1351 को मुहम्मद बिन तुगलक की अचानक मृत्यु हो गई। बदायूनी ने लिखा है- ‘सुल्तान को उसकी प्रजा से तथा प्रजा को सुल्तान से मुक्ति मिल गई।’

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source