पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत में जिस हिंसक राजनीति का आविष्कार किया था, जिन्ना के उत्तराधिकारी उसी लकीर पर आगे बढ़े। इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ भी नहीं था। जिन्ना के उत्तराधिकारी वस्तुतः न केवल उसकी राजनीतिक विरासत के अधकारी थी अपितु उसके विचारों के भी उत्तराधिकारी थे।
पाकिस्तानी नेताओं का इस्लाम खतरे में !
पाकिस्तान के नेताओं के पास पाकिस्तान की जनता को एक रखने और मुस्लिम लीग के नियंत्रण में बनाए रखने के लिए किसी उत्तेजक एवं सनसनीखेज मुद्दे की आवश्यकता थी जो पाकिस्तान के मुसलमानों के लिए योजक सामग्री का काम कर सके। इसलिए पाकिस्तान के मुस्लिम लीगी नेता, पाकिस्तान की जनता को भारत का नाम लेकर डराने लगे।
भारत उनका पानी रोक रहा है, भारत उनका गोला-बारूद रोक रहा है, भारत उनका रुपया रोक रहा है, भारत ने उनका काश्मीर छीन लिया है, भारत ने हैदराबाद, भोपाल और जूनागढ़ पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया है, भारत किसी भी समय पाकिस्तान पर आक्रमण कर सकता है, जैसी बातें पाकिस्तानी नेताओं के भाषणों, प्रेस-सम्बोधनों एवं व्यक्तिगत वार्तालापों में छाई रहतीं।
इससे पाकिस्तान की जनता में भारत के प्रति एक विशेष प्रकार का फोबिया उत्पन्न हो गया। पाकिस्तानी नेताओं के भाषणों में यह बात अनिवार्य रूप से होती थी कि जब तक भारत का अस्तित्व है तब तक पाकिस्तान का इस्लाम खतरे में है। यह ठीक ऐसा ही था जैसे भारत में माताएं रोते हुए बच्चों को चुप करने के लिए किसी अनजाने भूत या बाबा का नाम लेकर डराती हैं। भय और आतंक का एक अनजाना साया पाकिस्तानियों के मानस-पटल पर छाता जा रहा था।
आजादी के सात माह के भीतर ही बंगाली नेता हुसैन सुहरावर्दी ने पाकिस्तान की संसद को चेताया- ‘मुल्क एक खतरनाक रास्ते पर निकल चुका है। तुम लोग सिर्फ मुस्लिमों की भावनाओं को भड़काने और उनको एकजुट रखने के लिए पाकिस्तान के खतरे में होने का रोना रो रहे हो, ताकि तुम खुद सत्ता में बने रह सको। …… पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क बन रहा है जिसकी बुनियाद सिर्फ जज्बात रहेंगे, इस्लाम के खतरे में होने के जज्बात या फिर पाकिस्तान के जज्बे के खतरे में होने के।’
सुहरावर्दी ने भांप लिया था कि मुस्लिम लीग के नेता पाकिस्तान को एक ऐसा राज्य बना रहे हैं जिसे सिर्फ हमले का भूत दिखाकर कब्जे में रखा जा सकेगा और जिसे एक-जुट रखने के लिए पाकिस्तान और भारत के बीच लगातार संघर्ष को भड़काए रखना होगा। ऐसा देश खतरों और शंकाओं से भरा होगा। पाकिस्तान अब भी भारत के खिलाफ गुस्से की राष्ट्रीय अवधारणा को बढ़ावा देता है। जिन्ना के उत्तराधिकारी निरंकुशता एवं धर्मांधता के मामले में जिन्ना से भी आगे निकलने वाले थे। पाकिस्तानी लेखक एवं सुप्रसिद्ध पत्रकार तारेक फतेह ने लिखा है-
‘जिन्ना के निधन के बाद इस्लामवादी पूरे हमलावर मूड में आ गए। ऐसे लोग जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का विरोध किया था अब उसके अभिभावक बन गए। आधुनिक संविधान बनाने की सभी आशाएं बिखर गईं, जब पूरी दुनिया के इस्लामवादी पाकिस्तान में इकट्ठा होकर खिलाफत के तहत एक और मुल्क बनाने के सपने देखने लगे।
मिस्र के इस्लामपंथी सैद रामादान पाकिस्तान के इस्लामीकरण के लिए कराची आए और पौलेंड के धर्मांतरित मुसलमान मोहम्मद असद ने देश के वजूद से जुड़े प्रमुख सिद्धांतों को लिखने का काम हाथ में लिया।
….. पाकिस्तान की देशी भाषाओं को किनारे लगा दिया गया और एक प्रस्ताव तैयार किया गया जिसके मुताबिक अरबी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा को बनाने की बात थी …… एक ऐसी भाषा जिसे पाकिस्तानी नहीं बोलते।’
1948 में जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान का अधिनायकवादी मॉडल लगातार मजबूत होता चला गया। मई 1949 में जब पूर्वी पाकिस्तान के तंगेल के उपचुनावों में मुस्लिम लीग का प्रत्याशी एक नई उभरती हुई पार्टी से हार गया तो प्रधानमंत्री लियाकत अली ने इस परिणाम को अस्वीकार करते हुए संविधान सभा के नवनिर्वाचित सदस्य को कई अन्य विपक्षी कार्यकर्ताओं के साथ जेल भेज दिया। इनमें प्रसिद्ध कम्यूनिस्ट नेता मोनी सिंह भी था जो 22 साल जेल में अथवा भूमिगत रहा। उसे दुबारा स्वतंत्रता तभी मिली जब 1971 में पाकिस्तान टूट गया।
पाकिस्तान के हुक्मरानों की कोशशि यही है कि किस तरह अवाम को भारत के खिलाफ भड़काया जाए। उनका ध्यान हुकूमत की अंधेरगर्दी से हटाकर भारत की तरफ उलझाया जाए। जब भी अपनी हुकूमत खतरे में पाते हैं, ‘काश्मीर पाकिस्तान का’ नारा लगाते हैं,। यही अयूब खाँ ने किया यही याह्या खाँ ने और शायद हर शासक ऐसा ही करता चला जाएगा……. नफरत को मरने नहीं दिया जाता, उसे और बढ़ाया जाता है।
‘हिन्दुस्तान का भेड़िया आया, भेड़िया आया’ की गुहारें मचाकर वहां का हर डिक्टेटर और हर मुल्ला जनता को बेवकूफ बनाता है और खुद मलाई-मक्खन उड़ाता है। यही कारण है कि वहाँ के शासक राष्ट्रनिर्माण की बातें कम और इस्लाम के पुनर्जागरण की बातें ज्यादा बोलते हैं। खुद इक्कीसवीं सदी में रहकर जनता को सोलहवीं सदी से आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। ये वास्तव में जिन्ना के उत्तराधिकारी हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता