Wednesday, April 17, 2024
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97. पटेल को राजाओं का धन नहीं, उनके राज्य चाहिये थे!

सदार पटेल ने भारत के 554 राजाओं के राज्य, भारत में मिलाये थे। जब राजाओं को उनके राज्य जाते दिखे तो उन्होंने अपने महलों, कोषागारों एवं राजकीय भवनों में रखी धन-सम्पत्ति को छिपाना आरम्भ कर दिया। अनेक राजाओं ने राजकीय सम्पत्ति को भी हड़प लिया। हैदराबाद तथा भोपाल तथा पटियाला आदि रियासतों के राजाओं ने अपने महलों, कारों, बग्घियों एवं पालकियों पर लगे सोने-चांदी के पतरे उखाड़ लिये।

सोने-चांदी के बरतन गलाकर उन्हें धातुओं में बदल दिया। महलों की छतों पर लगे हीरे-जवाहरात गायब कर दिये। खजानों में रखे कीमती पत्थर, मोतियों की मालायें और रत्नाभूषण महलों से निकालकर अन्यत्र पहुंचा दिये। कुछ राजाओं ने स्वयं को काश्तकार घोषित करके खेती की जमीनों पर कब्जा कर लिया। राज्य की कीमती जमीनें अपने दास-दासियों एवं कुत्ते-बिल्लियों के नाम कर दी गई।

राजाओं की इन कार्यवाहियों से कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं में बेचैनी व्याप्त हो गई तथा भारत भर के राजाओं के विरुद्ध तरह-तरह की शिकायतें सरदार पटेल के पास पहुंचने लगीं। पटेल को मानव मन की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि यह अस्वाभाविक नहीं है। भविष्य की आशंका से ग्रस्त कौन मानव ऐसा नहीं करेगा! इसलिये पटेल ने राजाओं को आश्वस्त करते हुए यह वक्तव्य दिया कि मुझे राजाओं के राज्य चाहिये, उनका धन नहीं।

पटेल ने उदार भाव से राजाओं के महल, बग्घियां, कारें, सोने-चांदी और रत्नों के भण्डार उनके पास रहने दिये। इस पर भी कुछ राजाओं की भूख शांत नहीं हुई। वे तरह-तरह की समस्याएं उठाने लगे। फिर भी सरदार पटेल ने अत्यंत उदारता से राजाओं की समस्याओं का निराकरण किया।

बांसवाड़ा के महारावल ने राज्य के जंगलों पर, निजी सम्पत्ति होने का दावा किया तथा भारत सरकार से शिकायत की कि आदिवासी, राजाओं की निजी सम्पत्ति में आने वाले जंगलों को भी काट रहे हैं, जंगलों में स्थित भवनों में तोड़-फोड़ कर रहे हैं एवं कृषि क्षेत्र को हानि पहुंचा रहे हैं। महाराजा जयपुर ने मांग की कि उनके दिल्ली स्थित जयपुर भवन में स्थित साजोसामान, पशुधन एवं आदमियों का खर्चा सरकार द्वारा वहन किया जाये। जयपुर भवन महाराजा की निजी सम्पत्ति मान लिया गया था इसलिये सरकार ने इस व्यय को उठाने से मना कर दिया।

झालावाड़ के महाराजराणा ने अपने महलों के बिजली व्यय के पुनर्भरण की मांग की तो रियासती विभाग ने महाराजराणा को लिखा कि जिन महलों एवं भवनों को राजाओं की व्यक्तिगत सम्पत्ति घोषित कर दिया गया है, उनके विद्युत व्यय एवं विद्युत संस्थापन आदि का व्यय राजाओं के प्रिवीपर्स में से किया जाये न कि राज्य व्यय से। टोंक तथा किशनगढ़ आदि कुछ रियासतों ने राजस्थान में विलय से ठीक पहले ही राजमाताओं (शासक की माता, विधवा बुआ अथवा दादी) को जागीरें प्रदान कीं ताकि राजमाताओं को अधिक से अधिक भत्ते प्राप्त हो सकें। रियासती विभाग ने इन प्रकरणों की जांच करवाने के आदेश दिये।

सरदार पटेल की अध्यक्षता वाले रियासती विभाग ने समस्त प्रांतों के मुख्य सचिवों को निर्देशित किया कि कई पूर्व रियासतों की राजमाताओं से शिकायतें प्राप्त हो रही हैं कि उन्हें भत्तों का भुगतान समय पर नहीं हो रहा है। अतः शासकों तथा राजमाताओं को इस सम्बन्ध में सूचना भिजवायी जाये कि इस विषय पर क्या कार्यवाही की जा रही है। विभिन्न संघ इकाइयों में सम्मिलित पूर्व रियासतों के शासकों ने रियासती विभाग को सूचित किया कि जिन राजमाताओं को पूर्व में राज्यकोष से भत्ते मिलते रहे थे, उनके बंद हो जाने के कारण शासकों द्वारा अपने प्रिवीपर्स में से भुगतान किया जा रहा है।

राजपरिवारों के सदस्यों, विशेषतः राजमाताओं को भत्तों का भुगतान अलग से किया जाये। रियासती विभाग ने निर्णय दिया कि जिन सदस्यों को पहले से ही अलग से भत्ते मिल रहे थे, उन्हें राज्य के राजस्व से भत्तों का भुगतान किया जाना चाहिये न कि शासकों के प्रिवीपर्स से। शासक के प्रिवीपर्स में शासक के बच्चे एवं पत्नियां ही सम्मिलित की गयी हैं। ये भत्ते जीवन भर के लिये दिये जाने चाहिये।

जयपुर महाराजा ने राजस्थान के एकीकरण के पश्चात् कुछ स्वर्ण पर अपना दावा किया जिसका मूल्य एक करोड़ रुपये था। मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री ने उसे राज्य का बताते हुए देने से मना कर दिया। बात सरदार पटेल तक गयी। सरदार पटेल ने मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री से पूछा कि सोना किसका है? इस पर शास्त्री ने जवाब दिया कि सोना पहले तो राजा का ही रहा होगा, पर बाद में राज्य के बजट में दर्ज हो गया।

अतः अब राज्य का मानना पड़ेगा। सरदार ने पूछा कि आपकी राय क्या है? शास्त्री ने कहा कि मेरी राय में सोना महाराजा को दे देना चाहिये। सरदार बोले क्यों? शास्त्री ने कहा इतना बड़ा राज्य किसी का आपने ले लिया है। इतना सा सोना दे देने में क्यों संकोच करना चाहिये। सरदार ने सोना महाराजा को देने की अनुमति दे दी।

जैसलमेर महारावल ने वर्ष 1927-28 में अपने निजी धन से एक पुस्तकालय भवन बनाने के लिये राजकोष में राशि जमा करवाई थी। जैसलमेर रियासत के विलय के बाद महारावल ने मांग की कि पुस्तकालय भवन का उपयोग महकमा खास के कार्यालयों के लिये हो रहा है इसलिये महारावल द्वारा इस भवन को बनाने के लिये दी गयी राशि, ब्याज सहित महाराजा को लौटाई जाये। सरकार ने निर्णय दिया कि यदि इस तरह के दावों को स्वीकार किया गया तो रियासती विभाग में शासकों की ओर से धन राशि की मांग के दावों की बाढ़ आ जायेगी।

अतः महाराजा का यह दावा निरस्त करने योग्य है। झालावाड़ के शासक ने दावा किया कि महल परिसर में स्थित बिजलीघर शासक की स्वयं की निजी सम्पत्ति है। साथ ही राजस्थान सरकार द्वारा इस महल के बिजलीघर में स्थित पुरानी मशीनों की नीलामी भी नहीं की जा सकती क्योंकि यह महाराजा की निजी सम्पत्ति में आती हैं। भारत सरकार ने राजस्थान सरकार को सूचित किया कि इस प्रकरण पर तब तक कोई कार्यवाही न की जाये जब तक कि स्वयं वी. पी. मेनन इस प्रकरण का निस्तारण न कर दें।

टोंक कलक्टर ने पूर्व टोंक रियासत की कुछ सम्पत्ति जिसमें घोड़े, बग्घियां, कार, अस्तबल आदि सम्मिलित थे, को सरकारी सम्पत्ति मानकर नीलाम करने का निर्णय लिया। इस पर टोंक नवाब ने सरकार से अनुरोध किया कि जब तक टोंक नवाब की निजी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अंतिम निर्णय न हो जाये तब तक उक्त नीलामी रोकी जाये। डूंगरपुर महारावल के अधिकार में माही नदी के बीच में स्थित एक टापू पर स्थित भूमि बेंका (सोहन बीड) कहलाती थी।

यह एक विशाल भूमि थी जिसमें सिंचाई के लिये माही नदी का जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। महारावल ने रियासती विभाग को पत्र लिखकर यह भूमि महारावल को ही काश्त के लिये दिये जाने की मांग की। रियासती विभाग ने राजस्थान के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर सिफारिश की कि उक्त भूमि समुचित आकलन के आधार पर महारावल को काश्त के लिये दे दी जाये। इस प्रकार सरदार पटेल ने राजाओं की अधिकांश मांगों पर सहानुभूति पूर्वक निर्णय लिये।

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