Saturday, July 27, 2024
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69. कविता का व्याकरण

शहजादे का अतालीक मुकर्रर किये जाने से अब्दुर्रहीम के रुतबे और ख्याति में एकाएक ही बहुत वृद्धि हुई। अब्दुर्रहीम की विद्वता की ख्याति सुनकर उसके दरबार में दुनिया भर के लोग जुटने लगे जिनमें कवियों की संख्या सर्वाधिक थी। हिन्दुस्थान, ईरान, तूरान तथा ख्वारिज्म के लगभग तीन सौ कवि निरंतर उसके दरबार में उपस्थित रहते। अब्दुर्रहीम स्वयं भी तुर्की, फारसी, अरबी, हिन्दी, संस्कृत अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं का जानकार था। उसने ग्यारह वर्ष की आयु में बिना गुरु की सहायता से पहली काव्य रचना की थी तब से उसकी कविता में निखार आता ही गया था। अकबर ने फ्रांस और यूरोपीय देशों से पत्राचार करने का जिम्मा रहीम पर ही छोड़ रखा था जिससे उन देशों के लोग भी जब रहीम से मिलने आते तो रहीम को खुश करने के लिये अपने देश के कवियों की कवितायें सुनाया करते।

वास्तव में उन दिनों अकबर के दरबार तक पहुँचने का मार्ग अब्दुर्रहीम के दरबार से होकर गुजरता था। उस काल में शासक वर्ग के पास बज्म[1]  और रज्म[2]  को छोड़कर और कोई काम न था। इसलिये कविगण भी अधिकतर अपने आकाओं को खुश करने वाली, स्त्रियों के अंग लास्य का वर्णनातीत वर्णन करने वाली तथा हर तरह से अपने स्वामियों का मनोरंजन करने वाली कवितायें ही अधिक कहते थे। दर्शन और नीति से रहित उन कविताओं में चाटुकारिता का ही भाव अधिक होता था।

इन बेस्वाद कविताओं का व्याकरण रहीम के मन को किंचित् भी रास नहीं आता था और कभी-कभी तो उसका मन दरबारी व्याकरण वाली कविताओं से पूरी तरह से उचाट हो जाता था फिर भी यदि रहीम को कवियों के बीच बैठना सुहाता था तो केवल इसलिये कि रहीम को पूरा विश्वास था कि यदि धरती से खून-खराबे का दौर कभी समाप्त होगा तो इन्हीं कवियों के दम पर। उन दिनों बहादुरी दिखाने वाले और दान देने वाले तो फिर भी मिल जाते थे किंतु कवियों और कविताओं का सम्मान करने वालों का पूरी तरह अभाव था।

चाटुकार कवियों के साथ-साथ गंग, केशवदास[3]  मंडन तथा चामुंडराय जैसे कविता के वास्तविक मर्म को जानने वाले कवि भी रहीम के दरबार में आने लगे थे। इन कवियों की कृपा से रहीम के पुस्तकालय में पूरी दुनिया के कवियों की कविताओं का संग्रह होने लगा था जिनकी नकलें उतारने और संभाल कर धरने के लिये तीन सौ से अधिक आदमी रहीम के पुस्तकालय में लगे रहते थे। रहीम का पुस्तकालय उस समय हिन्दुस्थान का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। कवियों के साथ चित्रकारों, गवैयों और संगीतकारों का भी अच्छा जमावड़ा होने लगा था।

वस्तुतः इन सब उपायों से रहीम ने अपने समय की मुख्य धारा को ही बदल दिया। वह समय धरती का सबसे बड़ा तोपखाना खड़ा करने, हाथियों की सबसे बड़ी फौज संगठित करने, राज्य सीमाओं का विस्तार करने और निर्दोषों का खून बहाने की मिसालें कायम करने का था किंतु रहीम ने भारत का सबसे बड़ा कवि दरबार जोड़कर, सबसे बड़ा पुस्तकालय स्थापित कर और गवैयों तथा चित्रकारों को प्रश्रय देकर अपने बाप दादों का पुराना ढर्रा ही बदल दिया था। इस तरह वह स्वयं एक आदमी न रहकर सांस्कृतिक प्रतिष्ठान बन गया था।

इन सबसे अलग और बड़ी बात तो यह थी कि वह अपने दरबार के समस्त कवियों से अलग था और उसने अपना सुर उस समय की कवि परम्पराओं से न मिलाकर धूल, गरीबी और मुसीबतों में लिपटे गाँवों की गलियों में भटकने वाले कवियों और गवैयों से मिलाया। उसकी कविता में गरीब के आँसू थे जिनका व्याकरण अभावों और मुसीबतों में गढ़ा गया था।


[1]  आमोद-प्रमोद।

[2]  युद्ध।

[3] ये महाकवि बिहारी के पिता थे।

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