Friday, October 4, 2024
spot_img

प्रस्तावना

अब्दुर्रहीम खानखाना की पहचान आज के भारत में एक ‘संत-कवि’ की है। इसीलिये हिन्दू उन्हें रहीमदासजी कहते हैं। विगत चार सौ वर्षों से वे करोड़ों हिन्दी भाषी भारतीयों के लिये श्रद्धा के पात्र हैं। वे दर्शन और नीति के प्रकाण्ड पण्डित माने जाते हैं। यद्यपि उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, फारसी और डिंगल आदि भाषाओं में उस युग की प्रचलित पद्धतियों में सब तरह के काव्य की रचना की है किंतु उनकी विलक्षण प्रतिभा उनके दोहों में देखने को मिलती है। उनके दोहे आम भारतीय के मन में नैतिकता और उत्साह भरने का काम करते हैं तथा जीवन जीने की कला सिखाते हैं।

अब्दुर्रहीम खानखाना का उल्लेख कहीं-कहीं अपने समय के महान दानवीर पुरुष के रूप में, कहीं-कहीं अकबर के सेनापति के रूप में तथा कहीं-कहीं गोस्वामी तुलसीदासजी के मित्र के रूप में भी होता है किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि आज जिस रहीम को केवल कवि के रूप में पहचाना जा रहा है, उसका अतीत किसी और रूप में भी अपनी स्वर्णिम पहचान रखता है। रहीम का यह अतीत इतिहास के पन्नों में उसी तरह दब कर रह गया है जैसे राख की ढेरी में रक्त-तप्त अंगारा दब जाता है। वह दिखाई तो नहीं देता किंतु उसमें आँच बनी रहती है।

चार सौ साल की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद यदि आज इतिहास के पन्नों को टटोल कर देखें तो उनमें रहीम चमकीले हीरे की तरह अलग से दिखाई देता है। एक ऐसा हीरा जो अपनी ही आभा से जगमग करता है, एक ऐसा हीरा जिसने खुद अपने आप को तराश कर चमकने योग्य बनाया है, एक ऐसा हीरा जिसका सही मोल आज तक न तो इतिहासकार लगा पाये और न हिन्दी साहित्य के समालोचक। संभवतः इसलिये कि उस युग में एक सिपाही का कवि हो जाना कितनी बड़ी बात थी इसका अनुमान लगा पाना आज की परिस्थितियों में संभव नहीं है। कारण कुछ भी हो सकते हैं किंतु यह सत्य है कि रहीम के लिये उनकी अपनी ही वाणी कितनी सच हुई- ‘रहिमन हीरा कब कहै लाख हमारो मोल!’

आज कितने लोग यह जानते हैं कि जिस मुगलिया सल्तनत के किस्सों से भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं, भारत में उस मुगलिया सल्तनत का भवन अब्दुर्रहीम खानखाना के पिता खानखाना बैरामखाँ और स्वयं अब्दुर्रहीम ने खड़ा किया था। आज कितने लोग जानते हैं कि अब्दुर्रहीम खानखाना ने अपनी ‘करुण कोमल कवियोचित वाणी’ के बल पर कठोर मुगल शासकों के हृदयों में सुकोमल मानवीय भावों को जगाने का प्रयास किया! जिससे निरंकुश मुगलिया शासन के बोझ तले सिसकती हुई त्रस्त हिन्दू जनता को मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से राहत मिली! इसका प्रमाण यह है कि अकबर, जहाँगीर और फिर शाहजहाँ रहीम के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहे। इन शासकों के काल में हिन्दुओं पर उतने अत्याचार नहीं हुए जितने कि उनसे पूर्ववर्ती बाबर तथा पश्चवर्ती औरंगजेब के शासन काल में हुए।

इस बात पर विवाद हो सकता है कि रहीम द्वारा पहुँचायी गयी राहत कितनी थी किंतु यह जितनी भी थी, थी तो सही! रेगिस्तान में खड़ी एक हरी झाड़ी ही समस्त जीवों का ध्यान खींचती है। वह विषमतम परिस्थितियों के बीच जीवन की उपस्थिति की घोषणा तो करती ही है! फिर रहीम तो स्वयं अपने आप में एक पूरा का पूरा उद्यान थे जिसमें बैठकर कुछ दिन ही सही, हिन्दू जाति ने प्रेम की मीठी बयार का अनुभव तो किया! रहीम के दोहों ने लाखों हिन्दुओं को अपनी दुरावस्था पर सोचने और जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिये प्रेरित किया। यहाँ तक कि हिन्दुओं के सूर्य कहे जाने वाले मेवाड़ी महाराणाओं को भी उन्होंने कर्तव्य पथ दिखाया। भले ही इसके बदले में रहीमदासजी को मुगल बादशाहों के कोप का भाजन बनना पड़ा।

सत्य के लिये सर्वस्व का त्याग करने वाले और उसकी कीमत अपने पुत्रों और पौत्रों के मस्तकों से चुकाने वाले इस इतिहास पुरुष का चरित्र तो पठन-पाठन के योग्य है ही, साथ ही उनके पिता बैरामखाँ का विपरीत जीवन चरित्र भी सुधि पाठकों के लिये पठनीय और मननीय हो सकता है जो उस काल की परिस्थितियों और परम्पराओं की जीती जागती कहानी कहता है। यहाँ यह विचार करने योग्य है कि जहाँ  बैरामखाँ अपने समय में हिन्दुओं का सबसे बड़ा शत्रु था वहीं उसका पुत्र रहीम हिन्दू जाति का रक्षक बना और चार सौ साल बीत जाने पर भी हिन्दू जाति की श्रद्धा का पात्र बना हुआ है।

इस उपन्यास की कथा इन्हीं पिता-पुत्र के चारों ओर घूमती है। इन दोनों के चरित्र में पर्याप्त अंतर है। जहाँ बैरामखाँ अपने स्वामी के लिये बिना अच्छे-बुरे का विचार किये निर्दोष प्रजा को विधर्मी मानकर अत्याचार पर अत्याचार करता चला जाता है, शत्रु राजाओं की हत्या करता चला जाता है, वहीं अब्दुर्रहीम मुगल बादशाहों का खानखाना होते हुए भी अपनी स्वतंत्र चेता बुद्धि से शुचि और अशुचि का पर्याप्त विचार करता है।

अकबर के समस्त शत्रुओं के विरुद्ध अभियानों में भी वह शत्रु-अशत्रु में भेद करता है। अकबर के जिन शत्रुओं को रहीम गलत नहीं मानता, उनके विरुद्ध वह अपने मन में दया का भाव रखता है। इस अंतर का परिणाम इन्हीं दोनों के जीवन में देखा जा सकता है। जहाँ रहीम के प्राणों की रक्षा उसके शत्रु भी अपने प्राण देकर करते हैं, वहीं दूसरी ओर बैरामखाँ के मित्र भी बैरामखाँ के प्राण लेने के लिये उद्धत रहते हैं। इन पिता पुत्र के जीवन चरित्र को देखकर एक उक्ति का स्मरण होता है-

भले बुरेन के होत हैं, बदल जात हैं बंस।

हिरनाकुस के हरिभजन उग्रसेन के कंस।।

बैरामखाँ अंत तक विदेशी बना रहता है जबकि उसका पुत्र रहीम पूरी तरह भारतीयता के रंग में रंग जाता है। यही कारण है कि अपने ऊपर विपत्ति आने पर बैरामखाँ मक्का के लिये प्रस्थान करता है तो दूसरी ओर अब्दुर्रहीम विपत्ति आने पर चित्रकूट में प्रवास करता है। संभवतः इसीलिये भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने रहीमदासजी और उनके जैसे मुस्लिम भक्तों की सेवाओं का मूल्यांकन इन शब्दों में किया-

”इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन्ह हिन्दू वारिये।”

 रहीमदासजी से मेरा परिचय मेरे पिताजी ने करवाया था जब मैं केवल पांच-छः वर्ष का बालक ही था। तभी से रहीमदास मेरे मन के आंगन में श्रद्धा के पीपल बन कर खड़े हैं। इस हिसाब से मैं विगत पैंतीस वर्षों से रहीमदासजी के साथ जिया हूँ। जबकि बैरामखाँ से मेरा परिचय इतिहास की पुस्तकों ने करवाया है। मेरा मन रहीमदासजी को लिखने में जितना रमा है, वैसी अनुभूति बैरामखाँ को लिखते समय नहीं हुई फिर भी बैरामखाँ इतिहास का ऐसा पात्र है जो परस्पर विपरीत चारित्रिक गुण-दोषों की मौजूदगी के कारण स्वयं मुखरित है।

भारतीय इतिहास में रहीम रूपी अमूल्य हीरा किस खान से प्रकट हुआ? और कब यह ‘मुसलमान हरिजन’ शताब्दियों की सीमायें लांघकर कोटि-कोटि भारतवासियों की श्रद्धा का पात्र बन गया? यह उपन्यास इन्हीं प्रश्नों का जवाब ढूंढने की चेष्टा है।

रहीम रूपी हीरे की वास्तविक खान की खोज करते हुए हमें मध्य एशिया के इतिहास में तो प्रवेश करना ही पड़ता है, साथ ही प्राचीन पश्चिमोत्तर चीन में बसने वाली हूण और यू-ची जातियों के इतिहास में भी झांकना पड़ता है। इतना ही नहीं घनघोर आश्चर्य तो तब होता है जब हम इतिहास की गहराई में पर्याप्त उतर चुकने के बाद स्वयं को भारत के पौराणिक खजाने में खड़ा पाते हैं। यही कारण है कि एक ओर तो उपन्यास के आरंभ में राजा ययाति के आख्यान को स्थान मिला है तो दूसरी ओर मध्य एशियाई आक्रांता- चंगेजखाँ और तैमूरलंग भी मौजूद हैं। ताकि पाठक उस घनघोर अंधेरे से भी भली भांति परिचित हो सकें जिसे चीर कर रहीम रूपी दिव्य नक्षत्र उदित हुआ था।

ऐतिहासिक उपन्यास के लेखन में जैसी दुविधा हुआ करती है, उसका सामना मुझे भी करना पड़ा है। यद्यपि मैंने कथा के प्रवाह में औपन्यासिकता और ऐतिहासिकता दोनों की सुगंध को बचाये रखने का प्रयास किया है फिर भी यदि किसी प्रसंग में दोनों में से किसी एक को चुनने की आवश्यकता अनुभव हुई है तो वहाँ मैंने औपन्यासिक चमत्कारिता का अवलम्बन त्याग कर इतिहास के मूल तथ्यों को बचाया है। मेरे इसी आग्रह के कारण इतिहास ने स्वयं आगे बढ़कर उपन्यास की रक्षा की है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो इतिहास और उपन्यास एक दूसरे का अनुपूरक बन गये हैं।

उस युग के सामाजिक एवं अध्यात्मिक वातावरण को उपन्यास में यथाशक्ति उकेरने का प्रयास किया गया है। इस कारण मीरां बाई, गोस्वामी तुलसीदास, रामदास, भक्त सूरदास, कुंभनदास आदि संतों के उन प्रसंगों को भी उपन्यास में स्थान मिला है जो बैरामखाँ तथा अब्दुर्रहीम के काल से सम्बंध रखते हैं तथा उस युग की वास्तविक तस्वीर प्रदर्शित करते हैं।

मेरे पिता श्री गिरिराज प्रसादजी गुप्ता ने इस उपन्यास के विषय में मुझे पग-पग पर अत्यंत बहुमूल्य परामर्श देकर मेरा बहुत हित साधा है, उनके प्रति विपुल कृतज्ञता अर्पित करता हूँ। मुझे लगता है कि जैसे यह उपन्यास उन्हीं की परिकल्पना थी जिसका बीज उन्होंने मेरे मन में मेरी पाँच वर्ष की आयु में बोया था, वही बीज सुपल्लवित और सुपोषित होकर उपन्यास के रूप में पुष्पित हो गया है। मैंने लेखकीय धर्म का निर्वहन बिना किसी पूर्वाग्रह के किया है किंतु वास्तविक निर्णय तो सुधि पाठक ही करेंगे कि मैं इस कार्य में कितना सफल रहा! पाठकों से अपेक्षा रहेगी कि वे इस बात का निर्णय चार सौ वर्ष पुरानी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करेंगे। सुधि पाठक इस उपन्यास का आनंद उठायेंगे और उपन्यास में रह गयी कमियों के लिये मुझे क्षमा करेंगे, ऐसी आशा है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

63, सरदार क्लब योजना, वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर, www.rajasthanhistory.com, mlguptapro@gmail.com, Cell : +91 94140 76061

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source