हे भारत! मैं तुम्हें विस्मययुक्त श्रद्धा और आश्चर्य के साथ प्रणाम करता हूँ …… कला और दर्शन के क्षेत्र में अति-उच्च स्थान प्राप्त उस भारत को जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ। – पियरे लोती।
विश्व में अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन संस्कृतियां हैं। उन सबमें भारतीय संस्कृति का स्थान सबसे अनुपम एवं सर्वोच्च है। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विगत हजारों साल से अत्यन्त समृद्ध रहा है। अपनी अनेक अप्रतिम विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति अमर है। यह सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज की अमूल्य निधि है।
14वीं शताब्दी के इतिहासकार अब्दुल्ला वासफ ने अपने ग्रंथ ताजियत उल अम्सार में लिखा है- ‘समस्त लेखकों की एकमत से यह राय है कि पृथ्वी पर रहने के लिए भारत सबसे अधिक रमणीय स्थल है और विश्व का सबसे आनन्ददायक प्रदेश है…… यदि यह कहा जाए कि स्वर्ग भारत में है तो आश्चर्य मत करना क्योंकि स्वर्ग स्वयं ही भारत से तुलना योग्य नहीं है।’
अंग्रेजी विद्वान मुरे ने लिखा है- ‘पाश्चात्य जगत् की कल्पनाओं में यह भारत हमेशा ही अत्युत्तम और अलंकृत, स्वर्ण और रत्नों से जगमगाता तथा मनमोहक गंधों से सुरभित रहा……..।’ एक अन्य विद्वान थार्नटन ने लिखा है- ‘भारत की प्राचीन स्थिति निश्चित रूप से अतिविशिष्ट भव्यता की रही होगी।’ काण्डट ब्जोन्सर्टजेरना ने लिखा है- ‘भारत में हर वस्तु विशिष्ट, भव्य और रूमानी है……।’
श्रीमती मैनिंग ने लिखा है– ‘मनुष्य के मस्तिष्क का जितना भी विस्तार सम्भव है, हिन्दुओं के पास उसका सर्वाधिक विस्तार था।’
प्रो. मैक्समूलर ने लिखा है- ‘मानव मस्तिष्क के अध्ययन के इतिहास में स्वयं के अध्ययन में तथा हमारे वास्तविक अस्तित्त्व के अध्ययन में भारत का स्थान समस्त देशों में प्रथम है। अपने विशेष अध्ययन के लिए आप मानव मस्तिष्क के किसी भी क्षेत्र को चुनें, भले ही वह भाषा हो या धर्म, या पौराणिक कथाएँ, या दर्शन या फिर चाहे विधि या प्रथाएं या प्रारम्भिक कला या प्रारम्भिक विज्ञान, हर स्थिति में चाहने या न चाहने पर भी आपको भारत जाना ही होगा क्योंकि मानव के इतिहास की सबसे अधिक मूल्यवान और शिक्षाप्रद सामग्री का कोष भारत में और केवल भारत में ही है।’
भारतीय संस्कृति की पावन धारा का प्रवाह, कब आरम्भ हुआ, इसका ठीक-ठीक काल निर्धारण नहीं हो सकता किंतु यह निर्विवाद है कि यह विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है तथा इस समय यह धरती पर विश्व की प्राचीनतम जीवित संस्कृति है क्योंकि भारतीय संस्कृति के साथ जन्म लेने वाली अन्य वैश्विक संस्कृतियां आज काल के गाल में समा गई हैं।
मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और रवाल्दी प्रभूति, मिस्र, ईरान, यूनान और रोम की प्राचीन संस्कृतियां काल के गाल में समा चुकी हैं। उनके ध्वंसावशेष ही अब उनकी गाथा कहते हैं। केवल चीन की ही संस्कृति ऐसी है जो प्राचीनता के मामले में भारतीय संस्कृति के समकक्ष ठहरती है।
विश्व की अन्य प्राचीन संस्कृतियों की भांति भारतीय संस्कृति ने भी विगत कई हजार वर्षों में काल के क्रूर थपेड़े सहन किए हैं। विश्व भर की प्राचीन संस्कृतियां इन थपेड़ों के कारण अपना अस्तित्त्व खो बठीं किंतु भारतीय संस्कृति आज भी पूरे उल्लास के साथ जीवित है। हालांकि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय संस्कृति की भौगोलिक सीमाओं में निरंतर संकुचन हुआ है और यह संकुचन आज भी जारी है।
एक समय था जब भारत देश का नामकरण ‘भारत’ के रूप में नहीं हुआ था किंतु तब भी भारतीय संस्कृति अत्यंत विकसित अवस्था में विद्यमान थी और इसकी सीमा पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से आरम्भ होकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी एवं उसके आगे के सैंकड़ों द्वीपों तक विस्तृत थी।
उष्णकटिबन्धीय द्वीपों में भारतीय संस्कृति का विस्तार
आज जिन देशों को दीपान्तर अथवा पार-महाद्वीपीय देश कहा जाता है, उनमें भी भारतीय संस्कृति ही व्यवहृत होती थी। दक्षिण-पूर्व एशिया और ओशिनिया (उष्णकटिबन्धीय प्रशान्त महासागर के द्वीप) क्षेत्रों में स्थित इण्डोनेशिया, विएतनाम, मलेशिया, कम्बोडिया आदि देशों में भी भारतीय संस्कृति ही प्रसारित थी तथा उसके दर्शन आज भी इन देशों में किए जा सकते हैं। भारतीय पुराणों में उष्णकटिबन्धीय प्रशान्त महासागर के एक विशाल द्वीप समूह को ‘द्वीपान्तर भारत’ अर्थात् समुद्र-पार-भारत कहा गया है।
जब यूरोपवासियों ने भारत को ‘इण्डिया’ कहा तब उन्होंने पारद्वीपीय द्वीपों के एक बड़े समूह की भारतीय संस्कृति से साम्यता के आधार पर उसे ‘इण्डोनेशिया’ कहा। जो ‘इण्डिया इन एशिया’ की ध्वनि देता है। डचों द्वारा शासित औपनिवेशिक काल में इस द्वीप समूह को ईस्ट-इण्डीज कहा जाता था।
भूगोलविदों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों एवं प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार ईस्ट-इण्डीज द्वीप, किसी समय एशिया से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक जुड़े हुए थे। बाद में भूगर्भीय हलचलों के कारण टूट-टूट कर अर्द्धचंद्राकार आकृति में बिखर गए। इनमें से जावा, सुमात्रा, बाली तथा बोर्नियो बड़े द्वीप हैं। भारतीय पौराणिक साहित्य तथा चीनी साहित्य थाइलैण्ड, कम्बोडिया, विएतनाम, मलेशिया तथा इण्डोनेशियाई द्वीपों से भारत के सांस्कृतिक सम्बन्ध रामकथा के काल से भी पहले ले जाते हैं।
उस काल में भारत की भौगोलिक सीमाएं जम्बूद्वीप (भारत) से लेकर सिंहल द्वीप (श्रीलंका), स्याम (थाइलैण्ड), यवद्वीप (जावा), स्वर्णद्वीप (सुमात्रा), मलय द्वीप (मलेशिया), शंखद्वीप (बोर्नियो), बाली तथा आंध्रालय (ऑस्ट्रेलिया) तक थीं। मलय द्वीप अथवा मलाया को अब मलेशिया कहते हैं, काम्बोज, कम्बोडिया (कम्पूचिया) के नाम से अलग देश है। उस काल के चम्पा राज्य के द्वीप वर्तमान में विएतनाम और कम्बोडिया (कम्पूचिया) में बंट गए हैं। यहाँ आज भी संस्कृत भाषा व्यवहार में लाई जाती है।
उस काल में भारत के राजा दूर-दूर के समुद्री द्वीपों पर अधिकार कर लेते थे। इनमें कुशद्वीप (अफ्रीका) तथा वाराहद्वीप (मेडागास्कर) प्रमुख हैं। रामकथा से पहले से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी में इस्लाम का उदय होने तक इनमें से अधिकांश द्वीप भारत का हिस्सा थे तथा यहाँ की प्रजा हिन्दू थी। मेडागास्कर अब अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व में समुद्र के बीच स्थित एक विशाल द्वीप है तथा अलग राष्ट्र है। दक्षिण एशियाई द्वीपों में स्थित बोर्नियो नामक द्वीप पर ब्रुनेई नामक देश की राजधानी का नाम आज भी ‘बंडर सिरी बगवान’ है जो ‘बंदर श्री भगवान’ अर्थात् हनुमानजी की ओर संकेत करता है।
वाल्मीकि रामायण में सप्तद्वीपों का उल्लेख
वाल्मीकि रामायण में लिखा है- ‘यत्रवन्तो यवद्वीपः सप्तराज्योपशोभितः।।’ अर्थात् यवद्वीप में सात राज्य हैं। निश्चित रूप से उस काल में यवद्वीप (जावा), भारत की मुख्य भूमि के पर्याप्त निकट रहा होगा। इसके निकटवर्ती समुद्री क्षेत्र में अन्य द्वीप होंगे जिनमें से छः-सात द्वीप मानव-बस्तियों की उपस्थिति की दृष्टि से प्रमुख रहे होंगे।
वायुपुराण के छः द्वीपों की आर्य बस्तियां
वायुपुराण के एक श्लोक में कहा गया है- ‘अंगद्वीपं, यवद्वीपं, मलयद्वीपं, शंखद्वीपं, कुशद्वीपं वराहद्वीपमेव च।। एवं षडेषे कथिता अनुद्वीपाः समन्त्तः। भारतं द्वीपदेशो वै दक्षिणे बहुविस्तरः।।’
अर्थात्- अंग द्वीप, यव द्वीप, मलय द्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप तथा वराह द्वीप आदि, भारतवर्ष के अनुद्वीप हैं जो दक्षिण की ओर दूर तक फैले हुए हैं।
इस काल में बाली द्वीप भी इन्हीं द्वीपों की शृंखला में गिना जाता था जहाँ भारतीय आर्यों की बस्तियां थीं और जहाँ मनुस्मृति के आधार पर सामाजिक एवं न्याय व्यवस्था स्थापित थी।
लंका के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध
लंका को आजकल सीलोन कहा जाता है जो कि सिंहल का अपभ्रंश है। पौराणिक काल में लंका को सिंहल द्वीप भी कहा जाता था। पौराणिक काल में लंका का आशय जिस द्वीप से होता था, उसमें मलय एवं सुमात्रा की भूमि भी सम्मिलित थी। ब्रह्माण्ड पुराण कहता है- ‘तथैव मलयद्वीपमेवमेव सुसंवृतम्। नित्यप्रमुदिता स्फीता लंकानाम महापुरी।’
इस श्लोक से ज्ञात होता है कि ब्रह्माण्ड पुराण के रचना काल में मलयद्वीप लंका के ठीक निकट उसी प्रकार स्थित रहा होगा जिस प्रकार आज लंका, भारत के निकट है। सुमात्रा द्वीप पर आज भी सोनी-लंका नामक एक स्थान है जो सुमात्रा के उत्तर-पूर्व वाले पर्वत के निकट समुद्र तट पर स्थित है। इस स्थान पर अत्यधिक मात्रा में सुवर्ण उपलब्ध था। इस स्वर्ण की प्राप्ति पहले यक्षों ने और बाद में राक्षसों द्वारा की गई।
नारद खण्ड में लिखा है- ‘भविष्यन्ति काले कालि दरिद्राः नृपमानवः तेऽत्र स्वर्णस्य लोभेन देवतादर्शनाय च।। नित्यं चैवागमिष्यन्ति त्यक्त्वा रक्षः कृत भयम्।’
अर्थात् कलियुग में राजा-प्रजा दरिद्री हो जाएंगे, इसलिए यहाँ लोभ के कारण नित्य ही आया करेंगे।
लंका के राजा रावण का नाना सुमाली, अपने राक्षसों को भगवान विष्णु के संहार से बचाने के लिए, लंका छोड़़कर पाताल में जाकर रहने लगा। यह पाताल जावा-सुमात्रा-बाली आदि द्वीप समूह का कोई द्वीप होना अनुमानित किया जाता है।
इस घटना के सही समय के बारे में यद्यपि अलग-अलग मान्यताएं हैं तथापि भारतीय वांगमय मानता है कि यह घटना आज से लगभग सात हजार साल पहले हुई। इन द्वीपों पर रामकथा के प्रसंगों वाली हजारों साल पुरानी प्रतिमाएं मिलती हैं। पश्चिम के वैज्ञानिक भी भगवान राम का अवतरण-काल आज से सात हजार साल पुराना मानते हैं। रामसेतु की कार्बन डेटिंग भी इस कालखण्ड की पुष्टि करती है।
सुमात्रा द्वीप को भारतीय पौराणिक साहित्य में सुवर्ण द्वीप तथा अंगद्वीप कहा गया है जहाँ स्वर्ण के विशाल भण्डार उपलब्ध थे। यक्ष जाति के लोगों ने अपना स्वर्ण, स्वर्णद्वीप (इसे अंगद्वीप भी कहते थे) से लाकर सिंहल द्वीप (लंका) में रखा था। यक्षों का राजा कुबेर इस धन की रक्षा करता था।
राक्षसों के राजा रावण का बचपन (आन्ध्रालय) ऑस्टेलिया में व्यतीत हुआ था। रावण ने आन्ध्रालय से आकर लंका पर चढ़ाई की तथा लंका के राजा कुबेर को परास्त करके सोने की लंका पर अधिकार कर लिया तथा उसका पुष्पक विमान भी छीन लिया।
इसके बाद राक्षस पुनः लंका में रहने लगे। कुबेर और रावण, दोनों ही विश्रवा के पुत्र थे। बाली एवं जावा द्वीपों पर आज भी राक्षसों की तरह दिखाई देने वाली मूर्तियाँ यत्र-तत्र दिखाई देती हैं। बाली द्वीप पर राक्षस जैसी दिखने वाली विशालाकाय मूर्तियों का बड़ा संग्रहालय है। इन मूर्तियों की उपस्थिति भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राक्षसों के इन द्वीपों से सम्बन्ध की पुष्टि करती हैं।
उष्णकटिबन्धीय द्वीपों का समुद्र में बिखराव
जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण, भारत भूमि के निकट स्थित द्वीप, समुद्र में दूर-दूर तक छितराते चले गए। आज इनमें से दूरस्थ द्वीप ऑस्ट्रेलिया एवं मेडागास्कर के नाम से जाने जाते हैं। इन द्वीपों के दूर चले जाने के कारण भारत देश की परिकल्पना भी संकुचित होती चली गई।
आर्यावर्त
प्राचीन काल में भारत के लिए ‘आर्यावर्त‘ नाम प्रचलित हुआ। मनु स्मृति (संभावित रचना काल ई.पू. दूसरी शताब्दी से दूसरी शताब्दी ईस्वी) में लिखा है कि जो सरस्वती तथा दृषद्वती नदियों के मध्य में देव-निर्मित देश है, वह ‘ब्रह्मावर्त’ कहलाता है। उस देश का परम्परागत आचरण ही भिन्न-भिन्न शाखाओं सहित वर्णों के लिए सदाचार है। कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल, शूरसेन आदि से मिलकर ‘ब्रह्मर्षि देश’ बना है। यह ब्रह्मावर्त के पश्चात् है।
इस देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से पृथ्वी के समस्त जन को अपना चरित्र सीखना चाहिए। हिमालय तथा विन्ध्याचल के मध्य में विनशन के पूर्व तथा प्रयाग के पश्चिम में स्थित देश ‘मध्यदेश’ कहलाता है। पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक; एवं हिमालय से विन्ध्य पर्वतों के मध्य जो देश है, वह विद्वानों द्वारा ‘आर्यावर्त’ के रूप में जाना जाता है। अर्थात् ब्रह्मवर्त, ब्रह्मर्षि देश एवं मध्यदेश से मिलकर आर्यावर्त बनता था।
उत्तरापथ
आर्य जन, लम्बे समय तक आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षि देश एवं मध्यदेश में निवास करते रहे। बिहार तथा बंगाल का दक्षिण-पूर्वी भाग आर्यों के प्रभाव से बहुत समय तक मुक्त रहा परन्तु अन्त में आर्यों ने इस भू-भाग पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। आर्यों ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को ‘उत्तरापथ’ कहा।
दक्षिणा-पथ
विन्ध्य पर्वत तथा घने वनों के कारण दक्षिण भारत में बहुत दिनों तक आर्यों का प्रवेश न हो सका। इन गहन वनों तथा पर्वतमालाओं को पार करने का साहस सर्वप्रथम ऋषि-मुनियों ने किया। सबसे पहले अगस्त्य ऋषि दक्षिण-भारत में गए। इस प्रकार आर्यों की दक्षिण विजय केवल सांस्कृतिक विजय थी। वह राजनीतिक विजय नहीं थी। धीरे-धीरे आर्य सम्पूर्ण दक्षिण भारत में पहुँच गए और उसके कोने-कोने में आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया। आर्यों ने दक्षिण-भारत को ‘दक्षिणा-पथ’ नाम दिया।
भारत देश की भौगोलिक सीमाओं का संकुचन
विष्णु-पुराण के लिखे जाते समय (अनुमानतः ई.300 से 600 के बीच) भारत की भौगोलिक सीमाएं हिमालय पर्वत से हिन्दमहासागर तक विस्तृत थीं क्योंकि विष्णु-पुराण में भारत भूमि का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-
उत्तरं यत्समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नामा, भारती यत्र संतति।
भारत वर्ष के नौ विभाग
राजशेखर (ई.873-920) ने अपने ग्रंथ ‘काव्यमीमांसा’ में प्राचीन भारत के विभिन्न विभागों का वर्णन किया है- यह भगवान् मेरु प्रथम वर्ष पर्वत है। उसके चारों ओर ‘इलावृत्त वर्ष’ है। उसके उत्तर में श्वेत, नील तथा शृंगवान नामक तीन वर्ष हैं। उनके देश रम्यक, हिरण्यमय, उत्तर-कुरु आदि हैं।
दक्षिण में भी निषध, हेमकूट तथा हिमवान् नामक तीन पर्वत हैं। इनके भी हरिवर्ष, किम्पुरुष, भारत आदि तीन देश हैं। उनमें यह भारतवर्ष है और इसके नौ भेद (विभाग) हैं यथा- इन्द्रद्वीप, कसेरुमान्, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वरुण तथा कुमारी। हिमालय तथा विन्ध्याचल एवं पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र के मध्य आर्यावर्त है। वहीं पर चतुराश्रम तथा चार वर्ण पाए जाते हैं। वहीं सदाचार की जड़ भी है।
भारत वर्ष का बिखराव
इतिहास के प्रत्येक कालखण्ड में पश्चिम की ओर से होने वाले क्रूर सैन्य आक्रमणों ने भारतवासियों को राजनैतिक रूप से एक नहीं रहने दिया किंतु भारतीय संस्कृति ने एक ऐसी सुदृढ़़ रज्जु का काम किया जिसने आसेतु हिमालय, भारत वासियों को सदैव एक होने का अनुभव कराया किंतु जब सातवीं शताब्दी ईस्वी में इस्लाम का उदय होने के बाद भारतीयों की सांस्कृतिक एकता की रज्जु टूटने लगी तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि नाम से अलग-अलग देश बन गए।
बाद में अंग्रेजों के दीर्घ शासन काल में नेपाल, भूटान तथा बर्मा भी भारत से अलग कर दिए गए। इस बिखराव के पश्चात् भी ‘भारत’ के नाम से जो देश वर्तमान समय में अस्तित्त्व में है, वह भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से विश्व में सातवां स्थान रखता है तथा संसार की कुल जनसंख्या का छठा हिस्सा भारत में निवास करता है। इस दृष्टि से यह विश्व का दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा देश है।
भारतीय संस्कृति के अध्ययन की आवश्यकता
भारतीय संस्कृति का अध्ययन पिछले सौ वर्षों से अधिक समय से हो रहा है। प्रत्येक भारतीय को अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की विशेषताओं से परिचित होना चाहिए ताकि देश की वर्तमान समस्याओं का हल ढूँढने के लिए हम राष्ट्र के पूर्वगामी अनुभवों, परम्पराओं और प्रयासों के प्रकाश में अपना मार्ग खोज सकें। इसके अध्ययन से हमें न केवल इसके गुण-दोष ही ज्ञात होंगे अपितु यह भी ज्ञात होगा कि किन कारणों से संस्कृति का उत्कर्ष और अपकर्ष होता है।
निःसन्देह भारतीय संस्कृति का अतीत अत्यन्त उज्जवल था तथा इस संस्कृति में कुछ ऐसी महान् बातें हैं जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में नहीं पाई जातीं। फिर भी भारतीय संस्कृति के अनेक पुरातन तत्त्वों को आज का समाज स्वीकार नहीं कर सकता। अतः भारतीय संस्कृति के अध्ययन से ही उन विशेषताओं एवं त्याज्य पुरातन तत्त्वों को चिह्नित किया जा सकता है।
भारतीय संस्कृति का उद्भव एवं निर्माण
भारतीय संस्कृति का उद्भव, धरती भर की सभ्यताओं में घटने वाली सबसे अद्भुत घटना थी। आज भारत में विविध प्रकार की संस्कृतियां रहती हैं जिनमें अलग-अलग तरह के आचार-विचार एवं रीति-रिवाज हैं। बहुत से विद्वानों का मत है कि भारतीय संस्कृति को प्राचीन आर्यों ने जन्म दिया किंतु बहुत से अन्य विद्वान इस मत को स्वीकार नहीं करते।
पश्चिमी विद्वान हेरास और भारतीय विद्वान चटर्जी की मान्यता है कि भारतीय संस्कृति के निर्माण का श्रेय द्रविड़़ों को है। फेयर सर्विस का विश्वास है कि यह हिन्दी-ईरानी क्षेत्र की अपनी उपज है। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता व्हीलर की मान्यता है कि भारतीय संस्कृति का उद्भव और विकास पश्चिमी एशिया की सुमेरियन संस्कृति के प्रभाव से हुआ। हमारी राय में इन समस्त विद्वानों के मत अपूर्ण हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय संस्कृति की आत्मा में आर्य-संस्कृति है जिसे द्रविड़़ों की संस्कृति ने स्पर्श करके और अधिक परिष्कृत, सुकोमल एवं मानवीय बना दिया है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार ‘भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियां हुई हैं।
पहली क्रांति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आए अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से सम्पर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए हैं और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है।
दूसरी क्रांति तब हुई तब महावीर और गौतम बुद्ध ने, स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिंतनधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए।
तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लाम, विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुँचा और इस देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ और चौथी क्रांति तब हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके सम्पर्क में आकर हिन्दुत्व एवं इस्लाम दोनों ने नवजीवन का अनुभव किया। भारतीय संस्कृति नूतन अवदानों को ग्रहण करने के बाद भी अपना मौलिक रूप हमेशा कायम रखती आई है।
यदि दिनकर के मत को स्वीकार कर लिया जाए तो इसका अर्थ यह है कि केवल आर्यों ने इस देश की संस्कृति का निर्माण नहीं किया, वे भारत में बाहर से आए उनके भारत में आने से पूर्व ही कोई संस्कृति यहाँ फल-फूल रही थी। जबकि आधुनिक भारतीय विद्वान इस बात को स्वीकार नहीं करते कि आर्य कहीं और से चलकर भारत आए। उनकी दृष्टि में आर्य जाति इसी देश की मूल निवासी है।
डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने लिखा है- ‘अब आर्यों के आक्रमण और भारत के मूल निवासियों के साथ उनके संघर्ष की प्राक्कल्पना को धीरे-धीरे त्याग दिया जा रहा है।’ अविनाश चन्द्र दास के विचार में ‘सप्त-सिन्धु ही आर्यों का आदि देश था।’
कुछ अन्य विद्वानों के विचार में काश्मीर तथा गंगा का मैदान आर्र्यों का आदि-देश था। भारतीय सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि आर्य-ग्रन्थों में आर्यों के कहीं बाहर से आने की चर्चा नहीं है और न अनुश्रुतियों में कहीं बाहर से आने के संकेत मिलते हैं। इन विद्वानों का यह भी कहना है कि वैदिक-साहित्य आर्यों का आदि साहित्य है।
यदि आर्य सप्त-सिन्धु में कहीं बाहर से आए तो इनका साहित्य अन्यत्र क्यों नहीं मिलता। ऋग्वेद की भौगोलिक स्थिति से भी यही प्रकट होता है कि ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना करने वालों का मूल स्थान पंजाब तथा उसके समीप का देश ही था। आर्य-साहित्य से हमें ज्ञात होता है गेहूँ तथा जौ प्राचीन आर्यों के प्रमुख खाद्यान्न थे। पंजाब में इन दोनों अन्नों का ही बाहुल्य है। अतः यही आर्यों का आदि-देश रहा होगा।
सप्तसिंधु क्षेत्र को आर्यों का आदि देश मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की सभ्यता, आर्य-सभ्यता से भिन्न तथा अधिक प्राचीन है। जब सिन्धु-प्रदेश की प्राचीनतम सभ्यता अनार्य थी तब सप्त-सिन्धु कैसे आर्यों का आदि-देश हो सकता है!
इस समस्या का निवारण इस तथ्य से हो जाता है कि सिंधु सभ्यता का विस्तार सिंधु नदी घाटी में था तथा आर्य बस्तियों का प्रसार उनके पड़ौस में पंजाब तथा काश्मीर की तरफ था क्योंकि सिंधु नदी घाटी सभ्यता क्षेत्र से उसी काल की आर्य बस्तियां नहीं मिली हैं अपितु वे थोड़ी हटकर स्थित थीं।
पश्चिमी विद्वानों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि भारत में कम से कम 1000 साल की अवधि तक सैन्धव बस्तियां एवं आर्य बस्तियां उत्तर भारत में एक साथ विद्यमान रहीं। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य अर्थात् ऋग्वेद 2500 ई.पू. से मिलने लगता है जबकि सैन्धव सभ्यता 3500 ई.पू. से 1500 ई.पू. तक अस्तित्त्व में थी।