Thursday, March 28, 2024
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अध्याय – 2 – भारतीय संस्कृति के प्रधान तत्त्व एवं विशेषताएँ (ब)

भरत में आर्य संस्कृति का प्रसार

सप्त-सिन्धु प्रदेश में निवास: भारतीय आर्य चाहे भारत के मूल-निवासी रहे हों और चाहे मध्य एशिया से भारत में आए हों परन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में वे सप्त-सिन्धु प्रदेश में रहते थे, यहीं से वे शेष भारत में फैले। सप्त-सिन्धु वही प्रदेश था जिसे वर्तमान में पंजाब कहा जाता है। पंजाब, का संधि विग्रह होता है- पंच+अम्बु, अर्थात् पाँच जलों अथवा नदियों का देश। सप्त-सिन्धु का भी अर्थ है, सात नदियों का देश। उन दिनों इस प्रदेश में सात नदियाँ पाई जाती थीं।

उनमें से पाँच-शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी (रावी), चिनाब (असिक्नी) तथा झेलम (वितस्ता) तो अब भी विद्यमान हैं और दो नदियाँ- सरस्वती तथा दृशद्वती, विलुप्त हो गई हैं। प्राचीन आर्यों ने अपने ग्रन्थों में इसी सप्त-सिन्धु का गुणगान किया है। इसी जगह उन्होंने वेदों की रचना की और यहीं पर उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का सृजन हुआ। यहीं से भारतीय आर्य शेष भारत में फैले।

ब्रह्मावर्त में प्रवेश: सप्त सिन्धु क्षेत्र से आर्य पूर्व की ओर बढ़े। सप्त-सिन्धु से प्रस्थान करने के इनके दो प्रधान कारण हो सकते हैं। प्रथम तो यह कि इनकी जनसंख्या में वृद्धि हो गई, जिससे इन्हें नए स्थान को खोजने की आवश्यकता पड़ी और दूसरा कारण यह हो सकता है कि अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार करने के लिए ये लोग आगे बढ़े। सप्त-सिन्धु से प्रस्थान करने का जो भी कारण रहा हो, इतना तो निश्चित है कि वे बड़ी मन्द-गति से आगे बढ़े क्योंकि अनार्यों के साथ उन्हें भीषण संघर्ष करना पड़ा।

अनार्यों से अधिक बलिष्ठ, वीर, साहसी तथा रण-कुशल होने के कारण आर्यों ने उन पर विजय प्राप्त कर ली और उन्होंने कुरुक्षेत्र के निकट के प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस प्रदेश को उन्होंने ब्रह्मावर्त के नाम से पुकारा।

ब्रह्मर्षि-देश में प्रवेश: ब्रह्मावर्त क्षेत्र के शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद आर्यों ने अपनी युद्ध-यात्रा जारी रखी। अब उन्होंने आगे बढ़कर पूर्वी राजस्थान, गंगा तथा यमुना के दो-आब और उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस सम्पूर्ण प्रदेश को उन्होंने ब्रह्मर्षि-देश कहा।

मध्य-देश में प्रवेश: ब्रह्मर्षि-देश पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद आर्य और आगे बढ़े तथा हिमालय एवं विन्ध्य-पर्वत के मध्य की भूमि पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। आर्यों ने इस प्रदेश का नाम मध्य-देश रखा।

सुदूर-पूर्व में प्रवेश: बिहार तथा बंगाल के दक्षिण-पूर्व का भाग आर्यों के प्रभाव से बहुत दिनों तक मुक्त रहा परन्तु अन्त में उन्होंने इस भू-भाग पर अधिकार कर लिया। आर्यों ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को आर्यावर्त एवं उत्तरापथ कहा।

दक्षिणा-पथ में प्रवेश: विन्ध्य पर्वत तथा घने वनों के कारण दक्षिण भारत में बहुत दिनों तक आर्यों का प्रवेश नहीं हो सका। इन गहन वनों तथा पर्वतमालाओं को पार करने का साहस सर्वप्रथम ऋषि-मुनियों ने किया। सबसे पहले अगस्त्य ऋषि दक्षिण-भारत में गए।

इस प्रकार आर्यों की दक्षिण विजय केवल सांस्कृतिक विजय थी। धीरे-धीरे आर्य सम्पूर्ण दक्षिण भारत में पहुँच गए और उसके कोने-कोने में आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया। आर्यों ने दक्षिण-भारत को ‘दक्षिणा-पथ’ कहा।

भारतीय संस्कृति के विभिन्न सोपान

पूर्व वैदिक-काल से लेकर उत्तरवैदिक-काल तक भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों का निर्माण हो चुका था। इस दीर्घ काल में भारतीय समाज में बौद्धिक चिंतन का महाविस्फोट हुआ तथा समाज के लिए निश्चित परम्पराएं, रीति-रिवाज एवं धार्मिक विश्वास स्थापित हुए। आर्य ऋषियों एवं राजाओं ने समाज के लिए आदर्श संस्कृति के निर्माण के भागीरथ प्रयत्न किए।

उत्तरवैदिक-काल में भारतीय संस्कृति सिंधु संस्कृति के सम्पर्क में आने लगी। सिंधु संस्कृति के प्रभाव से भारतीय आर्यों में लिंगपूजा, नदियों की पूजा, पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों की पूजा आदि नवीन परम्पराओं एवं नवीन विचारों का प्रसार हुआ। भारतीय आर्य छोटे-छोटे ‘जन’ में रहा करते थे जिनकी तुलना पुरातन कबीलों अथवा गांवों से की जा सकती है किंतु सिंधु संस्कृति के प्रभाव से उनमें भी नगरीय सभ्यता का विकास हुआ जिन्हें वे ‘पुर’ कहा करते थे। आर्य राजाओं ने इसी दौरान अपने राज्यों का विस्तार करके महाजनपदों की स्थापना की।

मौर्यकाल में बौद्धों के प्रभाव से भारतीय संस्कृति में बड़ी क्रांति हुई। इस काल में भारतीय समाज 16 बड़े महाजनपदों में विभक्त था। इस काल में यज्ञों में दी जाने वाली पशु-बलियों पर रोक लगी। देश भर में बौद्ध मठ एवं विहार स्थापित हो गए। लोग बड़ी संख्या में बौद्ध-भिक्षु बनकर इन मठों एवं विहारों में प्रवेश करने लगे ताकि उन्हें राजकीय संरक्षण में चल रहे इन मठों में बिना कोई काम किए भोजन, कपड़ा एवं आश्रय मिल सके तथा उन्हें युद्धों में भाग नहीं लेना पड़े।

ईसा की पहली एवं दूसरी शताब्दी ईस्वी में पश्चिमी की ओर से आए शकों द्वारा पश्चिमी भारत में शासन स्थापित किए जाने के बाद भारतीय संस्कृति में बड़ा परिवर्तन होता हुआ दिखाई देता है। उनके प्रभाव से सम्पूर्ण उत्तर भारत में यक्षपूजन की परम्परा आरम्भ हुई। इस काल में यक्ष-यक्षियों एवं रुद्र तथा उनकी पत्नी शक्ति की मिट्टी की मूर्तियाँ बहुत बड़ी संख्या में बनने लगीं। इस काल के आदर्श, अपने पूर्ववर्ती एवं पश्चवर्ती भारतीय समाज के आदर्शों से बिल्कुल भिन्न हैं।

गुप्तकाल में भारतीय संस्कृति ने एक बार पुनः बड़ी करवट ली एवं भारतीय संस्कृति में युगांतकारी परिवर्तन आया। वैष्णव धर्म अपने चरम पर पहुँच गया। विष्णु एवं उनके अवतारों को समर्पित करके मंदिरों, मूर्तियों एवं चित्रों का निर्माण हुआ। समाज में व्यापक स्तर पर मनाए जाने वाले धार्मिक समारोह, दान, तप-व्रत एवं तीर्थों का महत्त्व स्थापित हुआ।

ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्थाएं नए सिरे से समाज द्वारा स्वीकार कर ली गईं। भारतीय समाज में नवीन आदर्शों, मानव मूल्यों एवं सदाचार के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना का प्रसार हुआ। यही कारण है कि गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल कहा जाता है। यह शांति और समृद्धि का युग था। इस काल में घरों में ताले लगने तक बंद हो गए। इसी काल में पुराणों की रचना हुई तथा षड्दर्शन का विकास हुआ।

गुप्त काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। गुप्त सम्राटों ने इसे पल्लवित एवं पुष्पित करने में महान् योगदान दिया। उनके प्रयासों से भारतीय संस्कृति को दृढ़ता प्राप्त हुई। उसी सांस्कृतिक दृढ़ता का परिणाम था कि परवर्ती गुप्तकाल में भारत पर हुए विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृतियां, भारतीय संस्कृति के आधार पर चोट नहीं कर सकीं। अपितु हूणों, खिजरों एवं पह्लवों के साथ आईं विदेशी संस्कृतियाँ स्वयं ही भारतीय संस्कृति में विलोपित हो गईं।

भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताएँ

भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो विश्व की किसी अन्य संस्कृति में नहीं पाई जातीं। आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा धरती की पंचमहाभूतों के रूप में कल्पना किसी अन्य संस्कृति में साकार नहीं हुई है। अग्नि देवता, वायु देवता, वरुण देवता तथा धरती देवी जैसे देवी-देवताओं की पूजा केवल इसी संस्कृति में होती है।

प्राकृतिक शक्तियों की देवी-देवताओं के रूप में पूजा भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त केवल प्राचीन यूनान में ही पाई जाती थी। देवी-देवताओं के वाहनों के रूप में गरुड़, मोर, मूषक, नाग, श्वान, सिंह, बैल आदि की कल्पना भी भारतीय संस्कृति में ही हुई है।

इन विशेषताओं के कारण ही भारतीय संस्कृति में नदियों, पहाड़ों, वृक्षों तथा पशु-पक्षियों की पूजा होती है जो संसार भर की किसी अन्य संस्कृति में नहीं मिलती। भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में ये परम्पराएं भारतीय संस्कृति अर्थात् प्राचीन आर्य संस्कृति के प्रभाव से मिलती हैं।

गंगा-यमुना आदि नदियों की पूजा; गायों, बछड़ों, नागों, गरुड़ आदि पशु-पक्षियों की पूजा; तुलसी, पीपल, बड़ एवं खेजड़ी आदि वृक्षों की पूजा केवल भारतीय संस्कृति में ही पाई जाती हैं। विभिन्न पर्वों एवं तिथियों पर नदियों में स्नान करना, श्राद्ध करना, षोडश संस्कार करना, शव को विधि विधान एवं मंत्रोच्चार के साथ अग्नि को समर्पित करने जैसी परम्पराएं केवल भारतीय संस्कृति में मिलती हैं।

भारत की प्राचीन संस्कृति का गुणगान करते हुए यूरोपीय लेखकों ने लिखा है-

‘प्राचीन हिन्दू कवित्वपूर्ण लोग थे। वह निश्चित रूप से एक संगीतमय जाति थी और वे लोग वाणिज्य-व्यापार की क्षमता वाले लोग थे। वह दार्शनिकों का देश था। विज्ञान में भी वे सदा ही दक्ष और परिश्रमी थे। कला ने तो मानो भारत में ही स्वयं को निःशेष कर दिया था। संसार में साहित्य, धर्मशास्त्र और अध्यात्म-विद्या के जनक हिन्दू थे। उनकी भाषा विश्व में सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और सबसे सुंदर है। सत्यवादिता, शूरता और वैयक्तिक चरित्र, प्रतिष्ठा में प्राचीन हिन्दुओं का राष्ट्रीय चरित्र अनुपमेय था। उनके उपनिवेशों ने विश्व को ज्ञान से भर दिया। उनके राजा आज भी समुद्र के देवताओं की भांति पूजे जाते हैं। उनकी सभ्यता आज भी सभ्य संसार के हर कोने में ओत-प्रोत है और हमारे जीवन के हर दिन हमारे चारों और फैली है।’

अष्टांग योग, ध्यान, धारणा, समाधि, प्राणायाम एवं देव-पूजन; देवनागरी लिपि एवं उसकी विशिष्ट प्रकार की ध्वनियां; नृत्य, संगीत एवं गायन की अनुपम शैलियां; चित्रकला सहित विविधि प्रकार की ललित कलाओं की शैलियां; पितृपक्ष में श्राद्ध, तर्पण, तिलांजलि आदि आचार-विचार किसी अन्य संस्कृति में देखने को नहीं मिलते हैं।

सिन्धु संस्कृति के उत्खनन से प्राप्त विभिन्न प्रकार की सामाग्री से एक विशिष्ट प्रकार की मानव सभ्यता एवं संस्कृति संसार के सामने आई है जो एक विशेष प्रकार के रहन-सहन को प्रकट करती है और जिसकी तुलना संसार की माया सभ्यता जैसी प्राचीनतम संस्कृतियों में भी नहीं मिलती। भारतीय संस्कृति को संसार की किसी अन्य संस्कृति से जोड़ने के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए हैं।

भारतीय संस्कृति की उदार, सहिष्णु एवं समन्वयात्मक प्रवृत्ति निःसन्देह आदर्श मानव-समाज की रचना के लिए ठोस आधार प्रस्तुत करती है। सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से विश्व भर की कोई भी संस्कृति, भारतीय संस्कृति की समता नहीं कर सकतीं।

यूरोप तथा अमरीका जैसे देशों में राष्ट्रवाद, अपने पड़ौसी देश के लिए भयोत्पादक एवं मानव संहारी तत्त्व के रूप में प्रकट हुआ जबकि भारतीय राष्ट्रवाद का स्वरूप देश की संस्कृति के अलोक में ही उद्भासित होता है जो अत्यंत उदार है और प्राणी मात्र को अभयदान देने वाला है। भारतीय संस्कृति का शान्ति, अहिंसा और विश्व-बन्धुत्व का सन्देश परमाणु युद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता के लिए विश्व-शांति की आशा संजोए हुए है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(1.) प्राचीनता

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इसका दीर्घकालीन स्थायित्व आज भी देखा जा सकता है। प्राचीन विश्व की अनेक सभ्यताएँ इस समय नष्ट हो चुकी है। मिस्र, असीरिया, बेबीलोनिया, क्रीट, यूनानी आदि संस्कृतियाँ, अपने वैभव के चरम पर पहुँचकर समाप्त हो गईं। आज प्राचीन यूनानी एवं रोमन धर्मों का एक भी अनुयाई धरती पर नहीं बचा है।

आज संसार की प्राचीनतम संस्कुतियों में से केवल चीन और भारत की संस्कृतियां ही जीवित बची हैं। बहुसंख्य भारतीय आज भी हजारों साल पुराने वैदिक धर्म का पालन करते हैं। इस देश के पुरोहित एवं ब्राह्मण आज भी वेद मन्त्रों द्वारा यज्ञ कुण्ड में आहुति देकर देवी-देवताओं को प्रसन्न करते हैं। उपनिषदों और श्रीमद्भगवद् गीता ने भारत की धरती पर ज्ञान की जो धारा प्रवाहित की थी, वह आज भी इस देश में बह रही है।

हजारों साल पहले लिखी गई रामायण और महाभारत आज भी भारतीय स्त्रियां को सीता, अनुसुइया, सती, सावित्री और पार्वती के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। राम और कृष्ण आज भी साधारण से साधारण और विशिष्ट से विशिष्ट व्यक्ति के लिए उच्च-आदर्शों की पराकाष्ठा है। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने साधारण मनुष्य के लिए सादाजीवन और सदाचरण का जो पथ प्रशस्त किया था वह आज भी इस देश की अनुपम धरोहर है।

प्रसिद्ध अमरीकी विद्वान विल ड्यूरेण्ट ने भारतीय संस्कृति की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए लिखा है- ‘यहाँ ईसा से 2900 साल पहले या इससे भी पहले मोहनजोदड़ो से लेकर महात्मा गांधी, रमण और टैगोर तक उन्नति और सभ्यता का शानदार सिलसिला जारी है। यहाँ ईसा से आठ शताब्दी पहले उपनिषदों से आरम्भ होकर ईसा के आठ सौ साल बाद शंकर तक ईश्वरवाद के हजारों रूप प्रतिपादित करने वाले दार्शनिक हुए हैं। यहाँ के वैज्ञानिकों ने तीन हजार साल पहले ज्योतिष का आविष्कार किया और इस जमाने में भी कई नोबल पुरुस्कार जीते हैं। कोई भी लेखक मिस्र, बेबीलोनिया और असीरिया के इतिहास की भाँति भारत के इतिहास को समाप्त नहीं कर सकता, क्योंकि भारत में अभी तक इतिहास का निर्माण हो रहा है, उसकी सभ्यता अब भी क्रियाशील है।’

ड्यूरेण्ट भले ही भारतीय संस्कृति को ईसा से 2900 साल पहले या सिंधु घाटी सभ्यता के काल तक ले जाते हैं किंतु वास्तव में यह संस्कृति उससे भी कही अधिक पुरानी है।

काउण्ट ब्जोर्न्स्टजेरना के अनुसार ‘पृथ्वी पर कोई राष्ट्र अपनी सभ्यता और प्राचीनता के सम्बन्ध में भारत की प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। …… बैली की गणना के अनुसार यदि यह सत्य है कि ईसा से 3000 साल पहले हिन्दुओं ने खगोल विज्ञान और रेखागणित के ज्ञान में इतनी उच्च दक्षता प्राप्त कर ली थी, तो भला कितनी सदियों पूर्व उनकी संस्कृति का उदय हुआ होगा। क्योंकि मानव मस्तिष्क विज्ञान के मार्ग पर कदम-कदम ही चलता है।’

हिन्दुओं के चार युगों का विवेचन करके के प्रश्चात् डॉ. हैलेहेद लिखते हैं- ‘हिन्दुओं की इतनी प्राचीनता के सम्मुख मूसा का काल तो कल का सा ही लगता है और मॅथ्यूसेलाह का जीवन अल्पावधि से अधिक कुछ नहीं।’

अमेरिका के येल कॉलेज के अध्यक्ष डॉ. स्टाईल हिन्दू लेखों की आश्चर्यजनक प्राचीनता से इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने सर वी जोन्स को पत्र लिखकर प्रार्थना की कि वे हिन्दुओं के प्राचीन ग्रंथों की खोज करें।

कार्बन डेटिंग पद्धति के आधार पर पश्चिमी वैज्ञानिक मानते हैं कि अयोध्या के राजा रामचंद्र आज से लगभग 7000 साल पहले अर्थात् ईसा से लगभग 5000 साल पहले हुए। भारतीय संस्कृति तो इससे भी प्राचीन है क्योंकि राजा रामचंद्र के पहले भी ईक्ष्वाकु वंश के राजाओं की एक सुदीर्घ परम्परा मौजूद थी।

प्रो. मैक्स डंकर के अनुसार एक प्राचीन भारतीय राजा स्पेटेम्बस अर्थात् डायोनिसियस का शासनकाल ईसा से लगभग 6,717 वर्ष पहले निर्धारित होता है। मिस्र के टिनाईट थेबाईन राजवंश के प्रमुख ‘मैनथे’ की तालिकाओं में सबसे प्राचीन राजा का शासनकाल ईसा से 5,867 वर्ष पूर्व निर्धारित होता है तथा गीजा के पिरामिड के संस्थापक सौफी का शासनकाल ईसा से 2,000 वर्ष पूर्व निर्धारित होता है। इस प्रकार भारत के प्राचीनतम राजाओं में से एक स्पेटेम्बस अर्थात् डायोनिसियस का शासनकाल मिस्र के प्राचीनतम राजा से लगभग 1000 वर्ष पहले का है। 

(2.) धार्मिकता, आध्यात्मिकता एवं दार्शनिकता

किसी भी देश की संस्कृति उस देश के नागरिकों के दार्शनिक विचारों, आध्यात्मिक चिंतन, धार्मिक आचरण, कविता, साहित्य और कला के विविध रूपों में अभिव्यक्त होती है। भारतीय संस्कृति ने स्वयं को जिस रूप में सर्वाधिक सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया, वह है- धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन। ‘मनु’ ने अपने ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ में धर्म के दस लक्षण बताए हैं-

धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम।।

अर्थात्- धृति (धैर्य), क्षमा, दम (मन पर संयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, धी (बुद्धि विवेक), विद्या, सत्य और क्रोध न करना। वैष्णव धर्म से लेकर जैन धर्म, बौद्ध धर्म, शैव मत, शाक्त मत आदि समस्त धर्मों और मतों की आत्मा में धर्म के यही दस लक्षण विद्यमान हैं।

भारत में यह विचार सदा से चला आ रहा है कि, आँखों से दिखाई देने वाले इस स्थूल संसार से परे भी कोई सत्ता है, जिससे जीवन एवं शक्ति प्राप्त करके यह प्रकृति फल-फूल रही है। भारत में हजारों साल से ‘कण-कण में भगवान’ की चिंतन धारा फल-फूल रही है। साथ ही ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में स्वयं को तथा स्वयं में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समाए हुए देखने की प्रवृत्ति रही है।

भारतीय अध्यात्म विगत हजारों वर्षों से भारतीयों को भौतिक प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रेरित करता आया है। षडदर्शन में वर्णित समस्त दार्शिनिक विचार भी मनुष्य को ‘ब्रह्म’ अथवा ‘मोक्ष’ की प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं। जैन-धर्म ‘नमो अरिहंताणम्….’ के ‘पंचमकार मंत्र’ के माध्यम से और बौद्ध धर्म ‘अप्प दीपो भव’ के घोष के माध्यम से मनुष्य मात्र के ‘आत्मकल्याण’ की ही युक्ति सुझाते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय को ‘ब्रह्म की प्राप्ति’ अथवा ‘मोक्ष की प्राप्ति’ अथवा ‘आत्मकल्याण’ ही मानव-जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि प्रतीत होती है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ , ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ तथा ‘सियाराम मय सब जग जानी’ का उद्घोष केवल भारतीय संस्कृति ही कर सकी है।

(3.) सहिष्णुता

विभिन्न संस्कृतियों, मान्यताओं, चिंतन धाराओं एवं सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का भाव भारतीय संस्कृति का प्रधान तत्त्व है। आर्य संस्कृति पर द्रविड़़ संस्कृति का जो व्यापक प्रभाव दिखाई देता है, वही इसी प्रवृत्ति का द्योतक है।

सम्राट अशोक ने आज से लगभग 2200 साल पहले पहले, प्रजा को दिए गए संदेशों में लिखा है- ‘लोग केवल अपने ही सम्प्रदाय का आदर और बिना कारण दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा न करें। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह अपने सम्प्रदाय को भी क्षति पहुंचाता है और दूसरे सम्प्रदाय का भी अपकार करता है। लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान से सुनें और उनकी सेवा करें क्योंकि समस्त सम्प्रदाय में बहुत से विद्वान हैं तथा वे मानव कल्याण का कार्य करते हैं।’

अशोक द्वारा प्रतिपादित यह भावना आज भी भारतीयों में विद्यमान है। यदि आज जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म, कबीरपंथी, राधास्वामी आदि विभिन्न मत-मतांतर, भारतीय अध्यात्म की मूल धारा अर्थत् हिन्दू-धर्म की विभिन्न शाखाओं के रूप में देखे जाते हैं तो उसका कारण हिन्दू-धर्म में सबको अपनाने और साथ लेकर चलने की भावना ही है। सहिष्णुता की भावना के बल पर भारतीय समाज ने यवन, शक, कुषाण, हूण, पह्लव आदि जातियों को अपने भीतर आत्मसात् कर लिया।

यदि अपवाद स्वरूप मिलने वाले कुछ उदाहरणों को छोड़़ दिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजाओं ने विभिन्न धर्मों को मानने वाली प्रजा पर धार्मिक अत्याचार नहीं किए और न ही दो राजाओं के बीच साम्प्रदायिक युद्ध ही हुए। जबकि यूरोप में न केवल एक धर्म ने दूसरे धर्म पर, परन्तु अपने ही धर्म में विभिन्न मत रखने वालों पर जो भीषण अत्याचार किए, उनसे यूरोपीय इतिहास के अनेक पृष्ठ रक्तरंजित हैं।

प्राचीन काल में भारत ही एकमात्र ऐसा देश था, जहाँ हिंसा और धर्मान्धता का प्राधान्य नहीं रहा। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘विभिन्न देवताओं की श्रद्धापूर्वक उपासना करने वाले भी मेरा ही भजन करते हैं।’

भारतीय विचारकों ने इस्लाम के साथ भी ताल-मेल बैठाने का भरपूर प्रयास किया। इसी समन्वयकारी भावना के कारण ‘अल्लोपनिषद्’ की रचना हुई तथा भजनों में ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ जैसी पंक्तियां जोड़ी गईं। मुसलमानों को प्रेम का संदेश देने के लिए भारतीय संस्कृति को ‘गंगा-जमनी तहजीब’ कहा गया।

हिन्दुओं ने सूफियों को भारत के अध्यात्म, योग-साधना और रहस्यवाद का मुस्लिम संस्करण मानकर उसे प्रेम तथा प्रतिष्ठा प्रदान की। इस प्रकार के और भी कई प्रयास हुए किंतु ‘इस्लाम’ अपनी संस्कृति एवं सिद्धांतों के साथ किसी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हुआ। इस कारण भारतीय संस्कृति का इस्लाम पर प्रभाव लगभग शून्य रहा।

भारत ने विदेशों से धार्मिक अत्याचारों द्वारा पीड़ित होकर आने वाले पारसियों, यहूदियों और सीरियन ईसाइयों को अपने यहाँ उदारतापूर्वक शरण दी। भारतीयों का यह अटूट विश्वास है कि भगवान एक अचिन्तय, अव्यक्त, सर्वशक्तिमान सत्ता है, विविध प्रकार की उपासनाएँ उस तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे– ‘ईश्वर एक है किंतु उसके विभिन्न स्वरूप हैं। जैसे एक घर का मालिक, एक के लिए पिता, दूसरे के लिए भाई और तीसरे के लिए पति है और विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों एवं देशों में भिन्न-भिन्न नामों एवं भावों से पूजा जाता है। इसीलिए धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।’

(4.) आनुकूल्यता

आनुकूल्य का अभिप्राय है- स्वयं को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल बनाते रहना। प्रकृति में वही प्राणी दीर्घजीवी होता है जो स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढालता रहे। पृथ्वी पर किसी समय हाथियों से भी कई गुना बडे़ ‘डायनोसोर’ नामक प्राणी रहते थे, उनके द्वारा किए जाने वाले अत्यधिक भोजन, उनकी जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि एवं उनके परस्पर झगड़ों के चलते, उन्होंने स्वयं अपने लिए ऐसी खतरनाक परिस्थितियां उत्पन्न कर लीं कि वे उन्हीं परिस्थितियों में फंस कर नष्ट हो गए। संस्कृतियों के सम्बन्ध में भी यह नियम लागू होता है।

मिस्र, मैक्सिको और ईरान की प्राचीन संस्कृतियाँ, विदेशी संस्कृतियों के आक्रमणों में स्वयं भी कमजोर हो गईं तथा उन्होंने दूसरी संस्कृतियों को भी गंभीर आघात पहुँचाए। इस कारण वे संस्कृतियां नष्ट हो गईं। ईसा से लगभग 5000 वर्ष पहले भारत में विकसित हुई सिंधु संस्कृति भी स्वयं को प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार नहीं कर सकी तो वह भी आज से लगभग 1700 वर्ष पहले समाप्त हो गई जबकि आर्य संस्कृति आनुकूल्यता के गुण से सम्पन्न होने के कारण विभिन्न प्रकार की विपरीत परिस्थितियों का सामना करती हुई और विदेशी संस्कृतियों को स्वयं में आत्मसात करती हुई आज तक जीवित है।

आनुकूल्यता की इस प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति ने विदेशी संस्कृतियों की विशेषताओं एवं विकृतियों को भी आत्मसात किया। यही कारण है कि वैदिक संस्कृति में उद्भव से लेकर वर्तमान समय तक आमूल-चूल परिवर्तन हो जाने के बाद भी इस संस्कृति की मूल आत्मा आज भी पूर्ण उत्साह के साथ जीवित है। वैदिक युगीन यज्ञ-प्रधान हिन्दू-धर्म ने वेदान्ती युग, कर्मकाण्डी युग तथा बौद्ध युग में निरंतर परिवर्तित होते हुए, मध्य-काल में इस्लाम के भीषण प्रहार सहे तथा उनके बचने के लिए स्वयं को भक्ति प्रधान बना लिया।

इस प्रकार उसने हर काल में नवीन रूप एवं नवीन उत्साह धारण किया। इसी प्रकार मुस्लिम एवं ब्रिटिश शासनकाल में शिक्षित भारतीयों द्वारा विदेशी रहन-सहन, विदेशी भाषाओं और विदेशी वेश-भूषाओं को अपनाकर आनुकूल्यता के सिद्धांत का सहारा लिया और अपने परम्परागत धर्म और सामाजिक आदर्शों का परित्याग नहीं किया।

(5.) ग्रहणशीलता

 संस्कृति की उदार सोच एवं उसका लचीलापन ही उसकी ग्रहणशीलता का निर्माण करती है। ग्रहणशीलता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि दूसरी संस्कृतियों की विकृतियों को ग्रहण करने की प्रक्रिया में कोई संस्कृति अपनी मौलिकता को खो बैठे अपिुत ग्रहणशीलता का अर्थ यह होता है कि दूसरी संस्कृति से आई बुराई का परिमार्जन करके उसकी अच्छाइयों को आत्मसात कर ले। भारतीय संस्कृति के सम्पर्क में जो भी नवीन तत्त्व आते गए, भारतीय संस्कृति उन्हें विवेकपूर्ण चिंतन के साथ आत्मसात् करती गई।

बाह्य दृष्टि से भारतीय संस्कृति निषेधात्मक और पृथकत्व-प्रिय दिखाई देती है परन्तु यदि इसमें ग्रहणशीलता नहीं होती तो वह संभवतः बहुत पहले ही, अन्य संस्कृतियों की तरह विलुप्त हो गई होती। विभिन्न काल खण्डों में चीन, मंगोलिया, ईरान, यूनान, अरब, फ्रांस, हॉलैण्ड, पुर्तगाल तथा इंग्लैण्ड आदि देशों से सैनिक आक्रांता, धर्म प्रचारक तथा व्यापारी अपनी-अपनी संस्कृतियों को लेकर भारत में आए और उन्होंने जन-धन, शस्त्र एवं शास्त्र के बल पर भारतीय समाज एवं संस्कृति को बदलने का भरपूर प्रयास किया किंतु वे भारतीय संस्कृति को नष्ट नहीं कर सके। शक, कुषाण तथा हूण आदि तो भारतीय संस्कृति में ही समा गए।

तुर्क और मंगोल अपनी विकसित संस्कृति लेकर आए। उन्होंने हमारी भाषा, धर्म तथा नीति-विधान को अत्यधिक प्रभावित किया जिसे भारतीय संस्कृति ने स्वीकार कर लिया किंतु तुर्क एवं मंगोल भी भारतीय संस्कृति को नष्ट नहीं कर सके। भारतीय ज्योतिष विज्ञान, खगोल विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान, यूनानी, इस्लामी और ईसाई प्रभाव से समृद्ध हुआ है। भारतीय भाषाओं के शब्दकोषों पर भी विदेशी भाषाओं का बहुत प्रभाव है।

भारत में आज संसार की बहुत सी संस्कृतियों के धार्मिक विश्वास और रहन-सहन के ढंग मिलते हैं तथा विभिन्न प्रकार की पूजा-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। प्राचीनकाल के वेद, कपिल मुनि के सांख्य और चार्वाक के निरीश्वरवाद से लेकर आधुनिक युग के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तक की विभिन्न विचारधाराएँ और दर्शन भारत के विभिन्न समुदायों में प्रचलित हैं। विवाह सात जन्मों के बंधन में बांधने वाला पवित्र संस्कार भी है तो इच्छा मात्र से तोड़ा जाने वाला भौतिक सम्बन्ध भी।

(6.) व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से समष्टि का विकास

भारतीय संस्कृति का आधारभूत विचार ‘व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से समष्टि का विकास’ करना है। सर्वांगीण विकास का लक्ष्य ‘दैहिक, दैविक और भौतिक’ उन्नति करना है। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष बताए गए हैं। इनकी प्राप्ति के लिए आश्रम व्यवस्था की स्थापना की गई। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम पहले तीन पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिए थे जबकि वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम में मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता था।

इस प्रकार भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों तत्त्वों पर समान रूप से बल दिया गया है। मनुष्य को चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति का प्रयत्न समान रूप से करना चाहिए। धर्म का अनुसरण करके ‘अर्थ’ की उपलब्धि करने, धर्मानुसार ‘काम’ का सेवन करने और ‘मोक्ष’ को अन्तिम लक्ष्य बनाकर कर्म करने से मनुष्य अपना सर्वांगीण  विकास कर सकता है।

यह तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास हो। ‘नहीं दरिद्र सम दुःख जग मांहि…..। लोक लाह परलोक निबाहू……..। पराधीन, सपनेहुं सुख नांहि…..। दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज नहीं काहुहि व्यापा।। रामराज बैठे त्रैलोका, हर्षित भए गए सब सोका।। नहीं दरिद्र कोई दुःखी न दीना…. आदि संदेश देने वाला भारतीय साहित्य मनुष्य मात्र को यह संदेश देता है कि वह अपना सर्वांगीण विकास करे। वह सद्कर्मों के माध्यम से इस लोक में भी उपलब्धियां अर्जित करे तथा मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाले परलोक को भी सुधारे।

इस प्रकार सम्पूर्ण भारतीय साहित्य इस विचार पर खड़ा है कि मनुष्य मात्र के सर्वांगीण विकास से ही सम्पूर्ण समाज का विकास संभव है। इसी को व्यक्ति से समष्टि का विकास कहा जाता है।

(7.) जीवन शैली का सहज प्रवाह

भारतीय संस्कृति किसी विशेष धर्म, विशेष पुस्तक, विशेष वेशभूषा या विशेष धार्मिक नेता द्वारा बताए गए सिद्धांतों की कठोर कारा में कैद नहीं है। यद्यपि हिन्दू-धर्म भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग है तथापि हिंदू धर्म का दायरा बहुत विस्तृत होने से भारतीय संस्कृति किसी विशेष प्रकार की पूजा-पद्धति तक ही सीमित नहीं है। हिन्दू-धर्म बहुव्यापी, उदार एवं मानव मन में सहज प्रवाहित होने वाली जीवन शैली के रूप में प्रकट हुआ है तथा इसकी यह उदारता एवं व्यापकता आज भी बनी हुई है।

प्राचीनतम वैदिक धर्म से लेकर पश्चवर्ती पौराणिक धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत् धर्म, वैष्णव सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, शाक्त सम्प्रदाय, कबीर पंथी, दादू पंथी, सतनामी, सिक्ख धर्म आदि ना-ना प्रकार के मत-मतांतर इसी धर्म की विभिन्न शाखाएं हैं। इनमें से जो भी मत या मतांतर स्वयं को हिन्दू-धर्म के भीतर माने या बाहर, उसे ऐसा करने की पूरी स्वतंत्रता है। इसलिए कहा जाता है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है, जीवन पद्धति है।

हिन्दू-धर्म के लोग मंदिर से लेकर बौद्ध मठ, जैन उपाश्रय, सिक्खों के गुरुद्वारे, कबीर पंथियों के आश्रम, दादू पंथियों के दादूद्वारे तक में बड़ी सहजता से आता-जाता है। हिन्दू मंदिरों में भी किसी भी मत-मतांतर के व्यक्ति को सहज रूप से आने-जाने की छूट है।

हिन्दू-धर्म के भीतर वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, रामचरित मानस, विविध पुराण, सत्यार्थ प्रकाश, भगवद्गीता आदि किसी भी ग्रंथ को धार्मिक पुस्तक के रूप में पढ़ने की छूट है। जनेऊ पहनने या नहीं पहनने; मुण्डन करवाने या नहीं करवाने; गंगाजी नहाने या नहीं नहाने, मूर्ति-पूजा करने या नहीं करने, मंदिर में जाने या नहीं करने, रातिजगा करने या नहीं करने, व्रत करने या नहीं करने, यज्ञ करने या नहीं करने, श्राद्ध करने या नहीं करने तथा विभिन्न कर्मकाण्डों को करने या नहीं करने की पूरी छूट है। आदमी को जो अच्छा लगे उसकी इच्छा पर निर्भर है किसी पर भी धर्म की ओर से कोई पाबंदी नहीं है।

(7.) विश्वकल्याण की भावना

विश्वभर की मानव संस्कृतियों में विश्वकल्याण की भावना का प्राकट्य सबसे पहले भारतीय संस्कृति में ही देखा जा सकता है। वेदों में ऐसी अनेक उक्तियां आई हैं जिनमें विश्वमंगल एवं प्राणी मात्र के कल्याण की कामना की गई है।

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखाभाग्भवेत्।।

अर्थात् समस्त मनुष्य सुखी होवें, समस्त रोगमुक्त रहें, समस्त मनुष्य मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी भी मनुष्य को दुःख का भागी न बनना पड़े।

अयं निः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

अर्थात् यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी गणनावृत्ति संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।

अर्थात् जब सारा विश्व ही आत्मीय है तब कोई भी अपने लिए अनुचित माना जाने वाला आचरण दूसरों के प्रति क्यों करे?

भारतीयों में व्याप्त विश्वमंगल की इसी कामना के कारण आज तक भारतवासियों ने किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया। अपितु भारतीय ऋषि-मुनि एवं भिक्षु विश्व-शांति एवं प्राणी मात्र को सुखी बनाने का संदेश लेकर विश्व के अन्य देशों एवं दूरस्थ द्वीपों में गए। यही कारण है कि यदि भारत भूमि पर उत्पन्न धर्मों अर्थात् हिन्दू-धर्म, बौद्ध धर्म, जैन-धर्म एवं सिक्ख धर्म के अनुयाइयों की संख्या पर विचार किया जाए तो आज विश्व भर में निवास कर रहे मानवों की लगभग आधी संख्या इन्हीं धर्मों के भीतर स्थित है।

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