Thursday, March 28, 2024
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32. रानी माद्री ने देवताओं से दो पुत्रों को प्राप्त किया!

पिछली कथा में हमने महारानी कुंती द्वारा देवताओं का आह्वान करके तीन पुत्र प्राप्त करने की चर्चा की थी। इस कथा में हम रानी माद्री द्वारा दो पुत्र उत्पन्न किए जाने की कथा की चर्चा करेंगे।

जब महारानी कुंती को दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए दिव्य मंत्र की सहायता सेे तीन देवताओं के माध्यम से तीन पुत्र प्राप्त हो गए, तब एक दिन महाराज पाण्डु ने महारानी कुंती से पुनः अनुरोध किया कि वह प्रजा की प्रसन्नता के लिए एक कठिन कार्य और करे जिससे तुम्हारा यश होगा। वह कार्य यह है कि तुम माद्री के गर्भ से संतान उत्पन्न करके ने लिए अपने मंत्र का उपयोग करो।

इस पर महारानी कुंती ने रानी माद्री से कहा कि बहिन तुम केवल एक बार किसी देवताआ का चिंतन करो। उससे तुम्हें उसी देवता के अनुरूप पुत्र की प्राप्ति होगी। इस पर माद्री ने अश्विनी कुमारों का ध्यान किया। अश्विनी कुमारों ने उसी समय प्रकट होकर माद्री को नकुल एवं सहदेव के रूप में जुड़वा पुत्र प्रदान किए। ये दोनों बालक अत्यंत सुंदर था विनयशील थे।

उसी समय एक आकाशवाणी हुई कि ये दोनों बालक बल, रूप एवं गुणों में अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर होंगे। ये अपने रूप, द्रव्य, सम्पत्ति और शक्ति से सम्पूर्ण जगत् में प्रकाशित होंगे।

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जब शतशृंग पर्वत पर निवास करने वाले सिद्धों, चारणों, ऋषियों एवं तपस्वियों ने इस भविष्यवाणी को सुना तो वे सब राजा पाण्डु को बधाई देने के लिए आए। सबसे बड़े राजपुत्र युधिष्ठिर का नामकरण तो आकशवाणी के माध्यम से पूर्व में ही किया जा चुका था, अब ऋषियों ने शेष पुत्रों के नामकरण किए तथा उन्हें भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव नाम दिए। ये सभी राजपुत्र एक-एक वर्ष के अंतराल से उत्पन्न हुए थे किंतु नकुल और सहदेव जुड़वां थे। इस प्रकार राजा पाण्डु का पितृ-ऋण भी चुक गया। वे अपनी रानियों सहित शतशृंग पर्वत पर रहते हुए अपनी तपस्या करते रहे। पांचों बालक भी ऋषि-पुत्रों के साथ खेलते हुए बड़े होने लगे।

 बहुत से लोग विशेषकर कुतर्की, नास्तिक, आर्यसमाजी एवं विधर्मी लोग इस बात को लेकर सनातन हिन्दू धर्मग्रंथों पर कटाक्ष करते हैं कि यह तो मर्यादाहीन आचरण है किंतु हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि वेदों, पुराणों एवं अन्य धर्मग्रंथों में वर्णित देवता कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, वे अतीन्द्रिय हैं तथा दिव्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। दिव्य होने के कारण ही उन्हें देवता कहा गया है।

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अतः सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि महारानी कुंती ने महर्षि दुर्वासा से प्राप्त दिव्य मंत्र के माध्यम से तीन देवताओं का आह्वान करके जिन तीन पुत्रों को प्राप्त किया, उनके जन्म की प्रक्रिया मनुष्यों की प्रजनन प्रक्रिया से नितांत अलग रही होगी। जिस प्रकार आज भी परग्रही जीवों के बारे में यह अनुमान है कि वे अपनी मानसिक शक्ति अर्थात् इच्छा मात्र से ही धरती की किसी स्त्री को गर्भवती कर सकते हैं, वे किसी भी मनुष्य की स्मरण-शक्ति नष्ट कर सकते हैं, वे मनुष्यों में जैविक बदलाव कर सकते हैं, उसी प्रकार उस काल के देवता भी अपनी संकल्प शक्ति से किसी स्त्री को गर्भवती कर सकते थे। कुंती एवं माद्री के पुत्र उन्हीं दिव्य देवताओं की संतान थे। अतः वे देवताओं के संकल्प-मात्र से उत्पन्न हुए थे।

यदि कुंती एवं माद्री द्वारा उत्पन्न पांचों पुत्रों के जन्म में किसी प्रकार का अनैतिक आचरण होता, परिवार रूपी संस्था का अनादर होता अथवा पर-पुरुष सेवन का भाव होता तो महाराज पाण्डु महारानी कुंती एवं माद्री को इस प्रकार संतानोत्पत्ति की कभी भी आज्ञा नहीं देते। यदि ये पांचों पुत्र किसी पर-पुरुष की संतान होते तो महाराज पाण्डु उन्हें अपने पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं करते। न ही कौरव राजकुल इस बात को स्वीकार करता। अतः कुतर्कियों एवं विधर्मियों के आक्षेप गलत हैं।

जब महाराज पाण्डु तथा उनके परिवार को शतशृंग पर्वत पर निवास करते हुए कुछ समय बीत गया तब काल ने महाराज पाण्डु पर मृत्युपाश फैंकने का निर्णय लिया। वसंत ऋषि में एक दिन महाराज पाण्डु छोटी रानी माद्री के साथ सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे तब अचानक ही महाराज पाण्डु ने कामग्रस्त होकर रानी माद्री को पकड़ लिया। वे काम-वासना में इतने अंधे हो गए कि माद्री के बार-बार स्मरण दिलाने पर भी उन्हें ऋषि द्वारा दिया गया श्राप याद नहीं आया और उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो गए। कुंती ने माद्री से अनुरोध किया कि वह पाण्डुपुत्रों को लेकर हस्तिनापुर चली जाए ताकि मैं महाराज के साथ सती हो सकूं किंतु माद्री ने स्वयं सती होने का हठ पकड़ लिया। इस प्रकार रानी माद्री सती हो गई और महारानी कुंती पाण्डुपुत्रों को लेकर हस्तिनापुर लौट आई।

जब सत्यवती के पुत्र महर्षि वेदव्यास को ज्ञात हुआ कि महारानी कुंती पाण्डुपुत्रों को लेकर हस्तिनापुर लौट आई है तो वदेव्यास ने हस्तिनापुर आकर माता सत्यवती से कहा- ‘अब आपका हस्तिनापुर में रहना उचित नहीं है। अतः आप अम्बिका तथा अम्बालिका को लेकर वन में चली जाएं तथा वहाँ योगिनी बनकर योग करें। अब इस महल में कुल-नाश के षड़यंत्र रचे जाएंगे। उन्हें आप न ही देखें तो अच्छा है।’

इस पर माता सत्यवती अपनी दोनों बहुओं रानी अम्बिका एवं अम्बालिका के साथ हस्तिनापुर के महलों से निकल गई ओर जंगलों में जाकर तप करने लगी। कुछ समय बाद राजमाताओं ने अपनी देह त्याग दी। पाण्डुपुत्रों के हस्तिनापुर आगमन के साथ चंद्रवंशी राजाओं की पुरानी परम्परा समाप्त होती है तथा चंद्रवंश की परम्परा एक नवीन युग में प्रवेश करती है। इस नई परम्परा के आरम्भ होने की चर्चा हम अगली कथा में किंचित् विस्तार से करेंगे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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