Sunday, May 19, 2024
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अध्याय – 45 : अठारह सौ सत्तावन क्रांति के कारण

 1848 ई. से 1856 ई. तक लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल रहा। उसने ताबड़तोड़ गति से भारतीय राज्यों को समाप्त करना और हड़पना आरम्भ किया। इसके परिणाम स्वरूप रानी विक्टोरिया का भारतीय उपनिवेश उत्तर में हिमालय पर्वतमाला से लेकर दक्षिण में समुद्र तट तक तथा पश्चिम में सिंध नदी से लेकर पूर्व में इरावती नदी तक विस्तृत हो गया। औरंगजेब के जीवन काल में जो भारत बिखर कर अलग-अलग राज्यों में बंट गया था वह फिर से एक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत बंध गया। यह एकीकरण पहले की ही तरह बहुत दुःखदायी था। भारत की आत्मा फिर से परतंत्रता की बेड़ियों में बंधकर सिसक उठी। भारतवासी अपने ही देश में गुलाम हो गये। भारत वासियों ने कई आंदोलनों के माध्यम से इन बेड़ियों को काटना चाहा किंतु आंग्ल-शक्ति के समक्ष भारतीयों के समस्त प्रयास बौने सिद्ध हुए।

1857 से पूर्व के सैनिक विद्रोह

भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध 1857 ई. से पहले भी छुट-पुट सैनिक विद्रोह हुए। 10 जुलाई 1806 को वेलोर स्थित कम्पनी की सेना के देशी सैनिकों ने विद्रोह किया। 30 अक्टूबर 1824 को कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में नियुक्त भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को बर्मा में लड़ने के लिये जाने के आदेश दिये गये। भारतीय सैनिकों ने विदेश जाने से मना कर दिया। इस पर उन सैनिकों को विद्रोही बताकर उन्हें तोपों से उड़ा दिया गया। बहुत से सैनिकों को फांसी दी गई। पूरी रेजीमेंट ही भंग कर दी गई। 1831-33 ई. में कील में विद्रोह हुआ। 1842 ई. में हैदराबाद, 1843 ई. में सिंध में सैनिक विद्रोह हुए। फरवरी 1844 में फिरोजपुर की 64वीं रेजीमेंट में विद्रोह हुआ। 1848 ई. में कांगड़ा, जसवार और दातापुर के राजाओं ने विद्रोह किया। कम्पनी सरकार ने इन समस्त विद्रोहों का सफलतापूर्वक दमन किया। लॉर्ड डलहौजी ने अपनी एक रपट में चार्ल्स नेपियर की चेतावनी का उल्लेख किया है जिसमें उसने भारतीय सेना में बढ़ते हुए क्षोभ का संकेत किया था।

लॉर्ड केनिंग की आशंका

डलहौजी के बाद लॉर्ड केनिंग (1856-1858 ई.) भारत के गवर्नर जनरल बनकर आये।  उनके भारत आागमन पर बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स ने एक स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें लॉर्ड केनिंग ने भाषण देते हुए कहा- ‘एक धन-धान्यपूर्ण देश में 15 करोड़ लोग शांति और संतोष के साथ विदेशियों की सरकार के समक्ष घुटने टिकाये हुए हैं……..मैं नहीं जानता कि घटनाएं किस ओर जायेंगी। मैं आशा करता हूँ कि हम युद्ध से बच जायेंगे।…… मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शांतिपूर्ण हो। …….. हमें नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय आकाश यद्यपि इस समय बिल्कुल शांत है किंतु एक छोटा सा बादल जो एक मुट्ठी से बड़ा न हो, उठ सकता है, जो बढ़कर हमारा सर्वनाश कर सकता है …….. यदि सब-कुछ करने पर भी अंत में यह आवश्यक हो जाये कि हम शस्त्र उठाएं तो हम साफ दिल से प्रहार करेंगे। ऐसा करने से युद्ध जल्दी समाप्त हो जायेगा और सफलता निश्चित होगी।’

इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि अँग्रेजी सरकार को यह जानकारी थी कि भारतीयों में उसके विरुद्ध जबर्दस्त असंतोष व्याप्त है जो कभी भी विद्रोह का रूप ले सकता है।

भारतीय इतिहास की गौरवमयी घटना

1857 की क्रांति भारतीय इतिहास की गौरवमयी घटना है। इसका क्षेत्र सम्पूर्ण भारत में विस्तृत था। यह घटना भारत में कम्पनी शासन आरम्भ होने के ठीक एक सौ साल बाद हुई थी। इसलिये इस क्रांति के पीछे भारतीयों की, अँग्रेजों के प्रति एक सौ साल में बनी यह धारणा काम कर रही थी कि अँग्रेज शोषक हैं, उत्पीड़क हैं, सर्वहरण करने वाले हैं, उनके शासन से देश को मुक्ति मिलनी चाहिये। डलहौजी ने कम्पनी राज्य का विस्तार करने के लिये भारतीय सेनाओं का तेजी से विस्तार किया था किंतु भारतीय सैनिकों के लिये इतनी खराब व्यवस्था की गई कि वे गौरांग महाप्रभुओं के विरुद्ध मरने-मारने पर उतारू हो गये। अधिकांश इतिहासकार इस क्रांति को सैनिक क्रांति मानते हैं तो कुछ इतिहासकार इसे अपदस्थ राजाओं एवं जागीरदारों का विद्रोह मानते हैं। बहुत कम लोग इसमें जन साधारण की भूमिका को स्वीकार करते हैं। यह सही है कि एक ओर तो बहुत बड़ी संख्या में जन-साधारण इस क्रांति से दूर रहा तथा दूसरी ओर भारत की लगभग समस्त बड़ी शक्तियों ने इस क्रांति को कुचलने में अँग्रेजों का सहयोग किया। इस क्रांति के समय तथा उसके बाद कई लाख लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। अवध में एक लाख लोग मारे गये। दिल्ली में कई हजार लोगों का कत्ले-आम किया गया, देश के अन्य भागों में भी कत्ले आम हुए।

1857 की क्रांति के कारण

1857 की क्रांति के पीछे भारत-व्यापी विविध कारण मौजूद थे जिन्होंने इसे राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया-

(1.) डॉक्टराइन ऑफ लैप्स से उत्पन्न असंतोष

डलहौजी की डॉक्टराइन आफ लैप्स के कारण भारतीय रजवाड़ों में अँग्रेजी शासन के विरुद्ध असंतोष की ज्वाला धधक उठी। इस असंतोष में वे रजवाड़े अधिक मुखर थे जिनके राज्य ब्रिटिश क्षेत्रों में मिला लिये गये थे तथा जिनकी पेशंनें जब्त कर ली गई थीं। अवध अँग्रेजों का सर्वाधिक पुराना और घनिष्ठ मित्र राज्य था किन्तु 1856 ई. में उसका भी अपहरण कर लिया गया। इससे भारतीय नरेश तो नाराज हुए ही, साथ ही अँग्रेजों के अनन्य मित्र भी अपने अस्तित्व के प्रति सन्देह प्रकट करने लगे। कर्नाटक एवं तंजोर के शासकों की उपाधियाँ व पेंशन बन्द करके अँग्रेजों ने भारतीय शासकों को विद्रोह करने पर विवश कर दिया। नाना साहब की पेंशन बंद करने तथा झाँसी का राज्य अपहृत कर लेने से, अँग्रेजी साम्राज्यवादी लिप्सा पूरी तरह प्रकट हो गई थी। भारतीय नरेशों एवं राजवंशों की समाप्ति का प्रभाव उन पर आश्रित विभिन्न वर्गों पर भी पड़ा और वे विद्रोह करने पर उतारू हो गये।

(2.) बड़े जागीरदारों में अंसतोष

देश में छोटे-बड़े 550-600 देशी राज्य थे। इन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षण प्राप्त था। इन राज्यों के जागीदार एवं सामंत अँग्रेजी शासन से असंतुष्ट थे क्योंकि कम्पनी सरकार ने देशी राजाओं को संरक्षण देकर सामंतों की उच्छृंखलता एवं मनमानी पर लगाम कस दी थी। अँग्रेज सरकार ने विद्रोही जागीरदारों पर अंकुश करने के लिये उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाहियां भी की थीं। ब्रिटिश विरोधी सामंतों ने उपद्रव मचाने वाले डाकुओं को शरण देकर समस्या को और बढ़ा दिया था।

(3.) कुलीनों की सम्पत्ति एवं जमीनों के अपहरण से उत्पन्न असंतोष

अँग्रेजों ने कुलीन वर्ग की सम्पत्ति और जागीरें छीनकर उनकी सामाजिक मर्यादा को ठेस पहुंचाई। बहुत से जमींदारों के पट्टों की जांच करके उनकी जमीनें छीन लीं। बम्बई के इमाम कमीशन ने लगभग 20 हजार जागीर भूमियों का अपहरण कर लिया। बैंटिक ने बहुत से लोगों से माफी की भूमियां छीन लीं। इस प्रकार कुलीन वर्ग को अपनी सम्पत्ति व आमदनी से हाथ धोना पड़ा। इससे कुलीन वर्ग क्रुद्ध हो गया।

(4.) मुसलमानों में असंतोष

कम्पनी सरकार द्वारा मुगल बादशाह बहादुरशाह (द्वितीय) के साथ किये गये व्यवहार से अधिकांश मुस्लिम जनता नाराज हो गई। लॉर्ड एलनबरो (1842-44 ई.) ने बादशाह को भेंट देनी बंद कर दी तथा सिक्कों से उसका नाम हटा दिया। डलहौजी (1848-56 ई.) ने बहादुरशाह को लाल किला खाली करके दिल्ली के बाहर महरौली में जाकर रहने के लिये कहा। केनिंग (1856-58 ई.) ने घोषणा की कि बहादुरशाह के बाद उसका उत्तराधिकारी केवल राजकुमार के रूप में जाना जायेगा। उसे बादशाह की उपाधि नहीं दी जायेगी। अँग्रेजों ने बादशाह एवं उसकी बेगम की इच्छा के विरुद्ध, बादशाह के आठ जीवित पुत्रों में सबसे निकम्मे मिर्जा कोयास को उत्तराधिकारी घोषित किया। मिर्जा कोयास से संधि की गई कि वह दिल्ली का लाल किला खाली कर देगा, स्वयं को बादशाह नहीं कहेगा तथा एक लाख रुपये के स्थान पर 15 हजार रुपये मासिक पेंशन स्वीकार करेगा। इन सब बातों से मुसलमानों में अँग्रेजों के विरुद्ध असन्तोष उत्पन्न हो गया।

(5.) अफगानिस्तान के मोर्चे पर अँग्रेजों की पराजय

प्रथम अफगान युद्ध में अँग्रेजों की पराजय से भारतीयों को लगा कि यदि अफगान अँग्रेजों को परास्त कर सकते हैं तो भारतीय क्यों नहीं! उन्हीं दिनों यह अफवाह फैली कि रूस, क्रीमिया युद्ध की पराजय का बदला लेने के लिये भारत पर आक्रमण करेगा। इससे भारतीय अधिक उत्साहित हुए, क्योंकि उनका विचार था कि जब अँग्रेज, रूस के साथ युद्ध में उलझे हुए होंगे तब उनके विरुद्ध लड़ाई छेड़ देने पर सफलता मिल सकती है। उन्हीं दिनों एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि भारत में अँग्रेजों का राज्य सौ वर्ष बाद समाप्त हो जायेगा। 1757 ई. में प्लासी के युद्ध के बाद अँग्रेजी राज्य की स्थापना हुई थी और अब 1857 ई. में सौ वर्ष पूरे हो चुके थे। इससे भविष्यवाणी पर विश्वास करके लोग क्रान्ति करने के लिये उत्सुक हो गये।

(6.) प्रशासन में भारतीयों के विरुद्ध भेदभाव से उत्पन्न असंतोष

अँग्रेजों ने आरम्भ से ही प्रशासन में भेदभावपूर्ण नीति अपनाई। लार्ड कार्नवालिस ने भारतीयों को उच्च पदों से वंचित कर दिया। 1833 ई. के चार्टर एक्ट में जाति एवं रंगभेद समाप्त करके भारतीयों को कम्पनी की सेवा में लेने की घोषणा की गई थी किन्तु एक्ट की यह धारा कभी कार्यान्वित नहीं की गई। भारतीय प्रशासन में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग उत्पन्न हो गया था जो स्वयं को भारतीय कर्मचारियों से पूरी तरह अलग रखता था और उन्हें बात-बात पर अपमानित करता था। भारतीय कर्मचारियों के साथ उनका व्यवहार मूक पशुओं के साथ होने वाले व्यवहार जैसा था। वे अँग्रेजों को भारतीयों से मिलने-जुलने नहीं देते थे। अँग्रेजों द्वारा किये जा रहे इस भेदभाव से भारतीयों के मन में उनके प्रति उत्पन्न क्रोध होना स्वाभाविक था।

(7.) न्यायिक प्रणाली की जटिलता से उत्पन्न असंतोष

न्यायिक प्रशासन में अँग्रेजों को भारतीयों से श्रेष्ठ स्थान दिया गया था। भारतीय जजों की अदालतों में अँग्रेजों के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं हो सकता था। अँग्रेजों ने जो विधि प्रणाली लागू की, वह भारतीयों के लिए बिल्कुल नई थी। इस कारण भारतीय लोग इसे ठीक से समझ नहीं पाते थे। इसमें अत्यधिक धन व समय नष्ट होता था और अनिश्चितता बनी रहती थी।

(8.) व्यक्तिवादी शिक्षा का प्रभाव

पाश्चात्य शिक्षा से भारतीयों के स्वभाव एवं जीवन दर्शन में भी व्यक्तिवाद का उदय हुआ। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की वे विशेषताएँ समाप्त हो गयीं जिनके कारण अँग्रेजों को भारत में अपने पैर जमाने में सफलता मिली थी। अत्यंत प्राचीन काल से भारतीय नागरिकों में दूसरों के प्रति आभार-प्रदर्शन, विनम्रता, उदारता, कर्त्तव्य परायणता तथा पारस्परिक सहयोग की भावना थी। स्वामी पर हथियार नहीं उठाना, आम भारतीय के स्वभाव में था किन्तु पाश्चात्य शिक्षा ने उसके इस स्वभाव को नष्ट कर दिया। भारतीयों के खान-पान, पहनावे तथा आचार-विचार में पाश्चात्य शुष्कता आ गई। अब वे व्यक्तिवादी हो गये और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपने स्वामी से विद्रोह करने को तैयार थे। 

(9.) सामाजिक अपमान के कारण उत्पन्न असंतोष

भारतीयों के प्रति अँग्रेजों का सामान्य व्यवहार अत्यंत अपमानजनक था।  भारतीय, रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे। अँग्रेजों द्वारा संचालित होटलों व क्लबों की तख्तियों पर लिखा होता था- ‘कुत्तों और भारतीयों के लिये प्रवेश वर्जित।’ आगरा के एक मजिस्ट्रेट द्वारा एक आदेश के माध्यम से, अँग्रेजों के प्र्रति भारतीयों द्वारा सम्मान प्रदर्शन के तरीकों का एक कोड निर्धारित करने का प्रयास किया गया- ‘किसी भी कोटि के भारतीय के लिए कठोर सजाओं की व्यवस्था करके उसे विवश किया जाना चाहिये कि वह सड़क पर चलने वाले प्रत्येक अँग्रेज का अभिवादन करे। यदि कोई भारतीय घोड़े पर सवार हो या किसी गाड़ी में बैठा हो तो उसे नीचे उतर कर आदर प्रदर्शित करते हुए उस समय तक खड़े रहना चाहिये, जब तक अँग्रेज वहाँ से चला नहीं जाये।’

इस प्रकार के सैंकड़ों उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि अँग्रेज, भारतीयों का सामाजिक रूप से अपमान कर रहे थे। उन्होंने सुधारों के नाम पर अपनी सभ्यता और संस्कृति का प्रचार किया तथा यूरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रोत्साहन दिया जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान से बिल्कुल अलग था। विद्यालय, चिकित्सालय, राजकीय कार्यालय और सेना, पाश्चात्य सभ्यता के प्रचार के केन्द्र थे। इससे भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की दुर्दशा हुई। तथा भारतीयों के मन में अँग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। इसी घृणा ने 1857 ई. में विद्रोह का रूप धारण कर लिया। अँग्रेजों द्वारा सती प्रथा निषेध जैसे कानून बनाये जाने से भी भारतीयों को लगा कि अँग्रेज भारतीयों की सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करके हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट करना चाहता है।

(10.) धर्मान्तरण के कारण उत्पन्न असंतोष

लंदन की संसद द्वारा 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म-प्रचार की स्वतन्त्रता दी गई। 1850 ई. में धर्म बदलने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति जब्त नहीं करने का कानून बनाया गया। 1857 ई. में ब्रिटिश संसद में सम्पूर्ण भारत को ईसाई बनाने के लिये वक्तव्य दिये गये।  भारत सरकार द्वारा भारत में ईसाई प्रचारकों को अनेक सुविधाएं दी गईं। ईसाई धर्म-प्रचारक बड़े उद्दण्ड थे। वे प्रकट रूप से हिन्दुओं के अवतारों को गालियाँ देते थे और उन्हें कुकर्मी कहकर उनकी निन्दा करते थे। भारतीय सैनिकों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए पादरी लेफिटनेण्ट तथा मिशनरी कर्नल नियुक्त किये गये। उनका काम भारतीय सैनिकों को ईसाई बनाना था। जो भारतीय सैनिक, ईसाई बन जाते थे, उन्हें पदोन्नति दी जाती थी। सरकारी स्कूलों में बाइबिल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। मिशनरी स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाने लगी। मिशनरी स्कूलों में पढ़े हुए भारतीय विद्यार्थी, हिन्दू धर्म की कटु आलोचना करते थे। इससे भारतीयों को लगा कि मिशनरी स्कूल भारतीयों को ईसाई बनाने के साधन हैं। बेरोजगारों, अकाल पीड़ितों, बंदियों, विधवाओं तथा अनाथ बच्चों को बलात् ईसाई बनाया जाता था। अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर ईसाई बनाने का प्रयास किया जाता था। लॉर्ड बैण्टिक ने कानून बनाया कि धर्म परिवर्तन करने पर पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा। इससे बहुत से लोग ईसाई बनने लगे।  लार्ड केनिंग ने ईसाई धर्म के प्रचार पर लाखों रुपये व्यय किये। जिन भारतीयों को कारावास में डाला जाता था, वे कारावास में पानी पीने के लिये एक पात्र ले जाते थे, क्योंकि वे किसी के छुए जल को अपवित्र समझते थे। सरकार ने इन पात्रों को जेल में ले जाने पर रोक लगा दी। इससे हिन्दुओं को विश्वास हो गया कि अँग्रेज उन्हें अपना छुआ हुआ पानी पिला कर ईसाई बना रहे हैं। इसी सन्देह के वातावरण में चरबी वाले कारतूस की घटना हुई, जिससे सैनिक विद्रोह फूट पड़ा। रेल, तार, बिजली आदि वैज्ञानिक उपलब्धियों को भी अशिक्षित भारतीय जनता ने अपने धर्म पर प्रहार समझा।

(11.) कुटीर उद्योगों की बर्बादी के कारण उत्पन्न असंतोष

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने के लिये भारतीय काश्तकारों, दस्तकारों एवं कुटीर उद्योगों की कमर तोड़ दी। 1765 ई. में बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय कारीगरों पर भयानक जुल्म किये। जब 1813 ई. में ब्रिटिश संसद ने चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटेन के निजी व्यापारियों को भारत में व्यापार करने की अनुमति दी तो भारत में शोषण का नया चक्र आरम्भ हुआ। भारत का कच्चा माल इंग्लैण्ड जाने लगा और इंग्लैण्ड में बना माल भारत के बाजारों में आने लगा। इस कारण भारतीय उद्योग नष्ट-प्रायः हो गये। भारत की सम्पदा तेजी से इंग्लैण्ड जाने लगी और भारतीयों में निर्धनता बढ़ने लगी। उदाहरण के लिये 1800 ई. में कपास की 506 गांठें और सूती वस्त्र की 2638 गांठें निर्यात हुईं जबकि 1826 ई. में कपास की 15,100 तथा सूती वस्त्रों की 541 गांठें निर्यात हुईं। निर्यात के इस उलट फेर में भारतीय जुलाहे पूरी तरह बर्बाद हो गये।

(12.) किसानों की बर्बादी के कारण उत्पन्न असंतोष

भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार के नाम पर भारत में आरम्भ की गई जमींदारी बन्दोबस्त, रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त तथा महलवाड़ी बंदोबस्त में राजस्व की दरें इतनी ऊँची रखी गईं कि किसानों को लगान चुकाने के लिये साहूकारों से ऋण लेना पड़ता था। इस कारण वे जमींदारों और साहूकारों के चंगुल में फंसते चले गये। उनकी जमीनें या तो जमींदारों ने हड़प लीं या फिर साहूकारों ने। वे अपनी ही जमीन पर किरायेदार बना दिये गये। उद्योग और व्यापार नष्ट होने से लाखों कारीगर बेकार होकर खेती करने का प्रयास करने लगे। देशी राज्यों का अँग्रेजी राज्यों में विलय कर देने से लाखों सैनिक बेकार हो गये। इस प्रकार पूरे देश में बेरोजगारी फैल गई तथा लाखों लोगों को आजीविका से हाथ धोना पड़ा। इस कारण जनता उन डाकुओं की प्रशंसक हो गयी जो ब्रिटिश छावनियों को लूटते थे और लूटे गये धन को गरीबों में बांटते थे। डूंगजी और जवाहरजी उन्हीं दिनों के डाकू हैं जिन्हें जनता में इतना आदर मिला कि उन्हें लोक गीतों में स्थान दिया गया।

(13.) भारत की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के शोषण से उत्पन्न असंतोष

कम्पनी के शासन काल में भारत के धन को विभिन्न प्रकार से इंग्लैण्ड ले जाया गया। मेजर विनगेट ने लिखा है- ‘भारतीय साम्राज्य की सैनिक रक्षा के लिये ब्रिटेन के खजाने से एक भी शिलिंग खर्च नहीं होता। लूट, रिश्वत, उपहार, समय-समय पर होने वाले युद्धों में लगी अपार सम्पत्ति, ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन और भत्ते, सार्वजनिक ऋण, इन सब ने भारत की अर्थव्यवस्था को पंगु बना दिया था।’

इन सब बातों के कारण आम भारतीय अँग्रेजों से घृणा करता था। इस घृणा ने देश में चारों ओर अँग्रेजी शासन के विरुद्ध वातावरण बना दिया जिसकी परिणति 1857 के विद्रोह के रूप में हुई।

(14.) अकालों की भयावहता से उत्पन्न असंतोष

1857 के विद्रोह में भारत में पड़े अकालों से उत्पन्न असंतोष ने बड़ी भूमिका निभाई। 1770 ई. एवं 1837 ई. के अकाल भयंकरतम थे। 1837 ई. के अकाल में आठ लाख लोग मारे गये थे। लॉर्ड जॉन लॉरेंस ने लिखा है- ‘मेरे जीवन में ऐसे दृश्य कभी दिखाई नहीं दिये जैसे होडल तथा पलवल आदि परगनों में देखे। कानपुर में सैनिक टुकड़ियां लाशों को हटाने जाती थीं। हजारों लाशें गांवों और कस्बों में तब तक पड़ी रहती थीं जब तक कि जंगली जानवरों द्वारा खा नहीं ली जाती थीं।’

अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये कम्पनी शासन ने कोई प्रयत्न नहीं किया। इससे स्थान-स्थान पर उपद्रव हुए। सेना ने इन उपद्रवों का दमन किया। इन अकालों के कारण उत्तर भारत की आत्मा कराह उठी। लोग फिरंगियों के राज्य का नाश करने के लिये संकल्पबद्ध होने लगे।

(15.) भारतीय सैनिकों में कम वेतन के कारण असंतोष

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को सेवा में रखा था। वेलेजली की सहायक संधि की प्रथा से कम्पनी की सेना में भारतीय सैनिकों की असाधारण वृद्धि हुई। 1856 ई. में डलहौजी के भारत से वापस जाने के समय कम्पनी की सेना में 2,38,000 देशी और 45,322 अँग्रेजी सैनिक थे। अँग्रेज सैनिक अत्यंत कम संख्या में थे इसलिये अनेक क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ केवल देशी सैनिक ही थे। अनेक स्थानों पर उनकी संख्या नगण्य-प्रायः थी। अधिकांश अँग्रेज अधिकारियों को सीमान्त प्रदेशों एवं नये राज्यों में, जो हाल ही में ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये गये थे, प्रशासनिक एवं सैनिक पदों पर भेज दिया गया था। भारतीय सैनिक, कम्पनी की इस दुर्बलता से परिचित थे। सेना में वेतन, भत्ते एवं पदोन्नति के सम्बन्ध में भारतीय सैनिकों के साथ भेदभावपूर्ण नीति रखी गई थी। एक साधारण भारतीय सैनिक का वेतन सात या आठ रुपये मासिक होता था। इस वेतन में से रसद एवं वर्दी के व्यय की कटौती होती थी। इसीलिए वेतन के दिन उन्हें एक या डेढ़ रुपया नगद मिलता था। भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि अँग्रेज सूबेदार को 195 रुपये मिलते थे। यद्यपि कम्पनी की सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक थी किन्तु सैनिक खर्च का आधे से अधिक भाग अँग्रेज सैनिकों पर खर्च किया जाता था। भारतीय सैनिकों के लिए पदोन्नति के अवसर नहीं के बराबर थे। यदि वरिष्ठता के आधार पर भारतीय सैनिक की पदोन्नति का अवसर आता था तो उसे इनाम देकर सेना से अलग कर दिया जाता था। इस अंतर से दुखी होकर 1806 से 1855 ई. के बीच भारतीय सैनिकों ने कई बार विद्रोह किये। विद्रोही सैनिकों को भीषण यातनाएँ दी गयीं, उन्हें गोली से उड़ा दिया गया तथा उनकी कम्पनियां भंग कर दी गईं।

(16.) सैनिकों को विदेशों में भेजे जाने से उत्पन्न असंतोष

कम्पनी सेना में अधिकांश भारतीय सैनिक उच्च जाति के ब्राह्मण, राजपूत, जाट व पठान आदि थे। वे कट्टर रूढ़िवादी थे। अँग्रेजों ने सेना में पाश्चात्य नियम लागू करते हुए सैनिकों को माला पहनने व तिलक लगाने की मनाही कर दी। मुसलमान सैनिक दाढ़ी नहीं रख सकते थे। हिन्दुओं को विदेशी मोर्चों पर भेजा जाने लगा। हिन्दुओं में विदेश जाना धर्म विरुद्ध माना जाता था। इसलिये हिन्दू सैनिकों ने विदेश जाने से इन्कार कर दिया। इस पर लॉर्ड केनिंग ने सामान्य सेना भर्ती अधिनियम पारित करके भारतीय सैनिकों को सेवा के लिए कहीं भी भेजे जा सकने का नियम बना दिया। एक अन्य आदेश के अनुसार, विदेशों में सेवा के लिए अयोग्य समझे गये सैनिकों को सेवानिवृत्ति प्राप्त करने पर पेंशन से वंचित कर दिया गया। इससे भारतीय सैनिकों में यह भावना दृढ़ हो गई कि अँग्रेज उनके धर्म को नष्ट करके उन्हें ईसाई बना रहे हैं। ऐसे वातावरण में चर्बी-युक्त कारतूसों ने आग में घी का काम किया।

(17.) तात्कालिक कारण

ब्रिटेन में एनफील्ड नामक रायफल का आविष्कार हुआ जिसमें प्रयुक्त कारतूस को चिकना करने हेतु गाय व सूअर की चर्बी का प्रयोग होता था।  इस कारतूस को रायफल में डालने से पूर्व उसकी टोपी को मुँह से काटना पड़ता था। इस रायफल का प्रयोग 1853 ई. से भारत में भी आरम्भ किया गया किंतु कारतूस में चर्बी लगी होने की बात भारतीयों को ज्ञात नहीं थी। 1857 ई. में दमदम शस्त्रागार में एक दिन निम्न समझी जाने वाली जाति के एक खलासी ने एक ब्राह्मण सैनिक के लोटे से पानी पीना चाहा किन्तु उस ब्राह्मण ने इसे अपने धर्म के विरुद्ध मानकर उसे रोका। इस पर खलासी ने व्यंग्य किया कि उसका धर्म तो नये कारतूसों के प्रयोग से समाप्त हो जायेगा, क्योंकि उस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई है। खलासी के व्यंग्य से सत्य खुल गया और सैनिकों में असंतोष फैल गया।

इस प्रकार 1857 ई. में सम्पूर्ण भारत में कम्पनी के शासन के विरुद्ध वातावरण बन गया। इस वातावरण में एक छोटी सी चिन्गारी बड़ा विस्फोट करने के लिये पर्याप्त थी।

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