सिक्ख गुरुओं की हत्या मुगलों के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। लाल किले की सत्ता ने गुरु अर्जुन देव और गुरु तेग बहादुर की तो हत्या की ही, बाद में बंदा बैरागी को भी यातनाएं देकर मार डाला!
बाबर ने लोदियों से, हुमायूँ ने सिकन्दरशाह सूरी से और अकबर ने हेमचंद्र विक्रमादित्य से दिल्ली छीनकर तीन बार भारत में मुगल सल्तनत की स्थापना की थी। इसके बाद अकबर के समय में मुगल सल्तनत के विस्तार का कार्य आरम्भ हुआ। इसके लिए मुगलों को राजपूतों, जाटों, सिक्खों, मराठों, बुंदेलों तथा दक्षिण के शिया राजपूतों आदि शक्तियों से दीर्घकालीन संघर्ष करना पड़ा।
अकबर ने सबसे पहले राजपूतों को छल-बल और प्रेम के जाल में फंसा कर अपने अधीन किया तथा उनसे ही मुगल सल्तनत का विस्तार करवाया। राजपूतों के सम्बन्ध में यह नीति जहांगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में भी बनी रही। जाटों के दमन का काम शाहजहाँ के काल में आरम्भ हुआ जिसे औरंगजेब ने चरम पर पहुंचा दिया।
मराठों से मुगलों की शत्रुता औरंगजेब के समय उत्पन्न हुई किंतु सिक्खों से मुगलों की दुश्मनी जहांगीर के काल में ही पैदा हो गई थी। इस दुश्मनी के कारण मुगलों ने सिक्ख गुरुओं की हत्या करने में भी संकोच नहीं किया।
यह दुश्मनी सिक्खों द्वारा जहांगीर के बड़े पुत्र खुसरो को शरण देने के कारण उत्पन्न हुई थी। जहांगीर की बुरी आदतों से तंग आकर अकबर अपने बाद जहांगीर के पुत्र खुसरो को बादशाह बनाना चाहता था किंतु जब जहांगीर ने अंतिम सांसें गिन रहे अकबर के कमरे में जाकर हुमायूँ की तलवार और अकबर की पगड़ी उठा ली तो अकबर ने जहांगीर को ही बादशाह बना दिया। इस पर जहाँगीर का पुत्र खुसरो डर गया और फतहपुर सीकरी से भाग कर सिक्खों के पांचवे गुरु अर्जुनदेव की शरण में चला गया।
गुरु अर्जुनदेव ने खुसरो को पांच हजार रुपए दिए ताकि वह अपने लिए एक सेना खड़ी कर सके। जहाँगीर को इस बात का पता लगा तो उसने गुरु अर्जुनदेव को लाहौर बुलवाया। जहांगीर, गुरु अर्जुनेदेव के उपदेशों को पसन्द नहीं करता था तथा उनके उपदेशों को कुफ्र समझता था। इसलिए जहांगीर ने गुरु पर दो लाख रुपयों का जुर्माना लगाया तथा उन्हें आज्ञा दी कि आदि ग्रंथ में से वे समस्त पंक्तियाँ निकाल दें जिनसे इस्लाम के सिद्धांतों का थोड़ा भी विरोध होता है। अब इस ग्रंथ को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाता है।
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गुरु अर्जुनदेव ने बादशाह की इन दोनों आज्ञाओं को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर जहाँगीर ने गुरु अर्जुनदेव पर आमानुषिक अत्याचार करवाए। उन पर जलती हुई रेत डाली गई, उन्हें जलती हुई लाल कड़ाही में बैठाया गया और उन्हें उबलते हुए गर्म जल से नहलाया गया। इससे गुरु अर्जुनदेव के शरीर की चमड़ी बुरी तरह जल गई। गुरु ने समस्त उत्पीड़न सहन कर लिया तथा इस दौरान वे परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते रहे- ‘तेरा कीआ मीठा लागे, हरि नामु पदारथ नानक मांगे।’
बुरी तरह जलाए जाने के बाद अर्जुनदेव को एक कोठरी में डाल दिया गया। अगली सुबह उन्होंने मुगल अधिकारियों से कहा कि वे रावी नदी में स्नान करना चाहते हैं। जिस आदमी के शरीर की चमड़ी पूरी तरह जल जाती है, वह ठण्डे जल का स्पर्श नहीं कर सकता। इसलिए मुगल सैनिकों ने इसे भी उत्पीड़न का एक तरीका माना और वे गुरु अर्जुनदेव को रावी नदी के तट पर ले गए। शरीर की अदम्य पीड़ा के साथ गुरु अर्जुनदेव नदी में उतरे और नदी के तल में जाकर उन्होंने समाधि ले ली। वे नदी से जीवित बाहर नहीं निकाले जा सके। अपने अंतिम समय में भी उन्होंने हरि स्मरण जारी रखा।
इस प्रकार ई.1606 में गुरु अर्जुनदेव की हत्या हो जाने के बाद सिक्खों का इतिहास पूरी तरह से बदल गया। अब वे भजन-कीर्तन करने वाले शांत लोग नहीं रहे, अपितु अपने सिद्धांतों के लिए लड़-मरने वाले समूहों में संगठित होने लगे। वे अवसर मिलते ही मुगलों को क्षति पहुंचाने का प्रयास करते थे। गुरु अर्जुनदेव के बाद छठे गुरु हरगोविन्द हुए। गुरु अर्जुनदेव के साथ जो अमानुषिक अत्याचार हुए, उससे सिक्खों में नई जागृति उत्पन्न हुई। वे समझ गए कि केवल जप और माला से धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती। इसके लिए तलवार भी धारण करनी चाहिए और उसके पीछे राज्य-बल भी होना चाहिए। इसलिए गुरु हरगोविन्द ने अपनी सेली अर्थात् चोला फाड़कर गुरुद्वारे में डाल दिया और शरीर पर राजा और योद्धा के परिधान धारण कर लिए।
यहीं से सिक्ख-पंथ की प्रेम और भक्ति की परम्परा ने सैनिक चोला पहना। गुरु हरगोविन्द ने माला और कण्ठी के बजाय दो तलवारें रखनी शुरू कीं, एक आध्यात्मिक शक्ति की प्रतीक के रूप में और दूसरी लौकिक प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में।
उन्होंने समस्त ‘मज्झियों’ के ‘मसण्डों’ अर्थात् धर्म प्रचारकों को आदेश दिया कि अब भक्तजन, गुरुद्वारे में चढ़ाने के लिए द्रव्य नहीं भेजें अपितु अश्व और अस्त्र-शस्त्र भेजें। उन्होंने पाँच सौ सिक्खों की एक फौज तैयार की और उन्हें सौ-सौ सिपाहियों के दस्तों में संगठित किया। उन्होंने अमृतसर में लोहागढ़ का किला बनवाया तथा लौकिक कार्यों की देख-रेख के लिए हर मन्दिर के सामने अकाल तख्त स्थापित किया।
गुरु हरगोविन्द के समय सिक्खों और मुगलों में तीन बड़ी लड़ाइयाँ हुई और हर लड़ाई में मुगलों को मुँह की खानी पड़ी। इससे सिक्खों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और समस्त हिन्दू एवं सिक्ख समाज उन्हें धर्म और संस्कृति के रक्षक के रूप में देखने लगा। सिक्खों की संख्या बढ़ाने को प्रायः यह परम्परा चल पड़ी कि हर हिन्दू परिवार अपने ज्येष्ठ पुत्र को गुरु की शरण में समर्पित कर दे। आज भी पंजाब में ऐसे हिन्दू परिवार हैं जिनका एक सदस्य अनिवार्य रूप से सिक्ख होता है।
शाहजहाँ के समय में सिक्खों और मुगलों की दुश्मनी ने नए चरण में प्रवेश किया। ई.1628 में शाहजहाँ, अमृतसर के निकट आखेट खेल रहा था। उसका एक बाज गुरु हरगोविन्द के डेरे में चला गया। जब बादशाह के सिपाहियों ने सिक्खों से बाज लौटाने की मांग की तो सिक्खों ने शरण में आए हुए बाज को लौटाने से मना कर दिया। इस पर बादशाह की सेना ने सिक्खों पर आक्रमण कर दिया परन्तु गुरु हरगोविन्द के नेतृत्व में सिक्खों ने मुगल सेना को मार भगाया। इस पर मुगल सेनापति वजीर खाँ तथा गुरु के अन्य शुभचिंतकों ने बादशाह के क्रोध को शान्त किया।
कुछ समय बाद गुरु हरगोविंद ने पंजाब में व्यास नदी के किनारे एक नए नगर का निर्माण आरम्भ किया जो आगे चल कर श्री हरगोविन्दपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पंजाब के मध्य में इस नगर का निर्माण मुगल सल्तनत के लिए हितकर नहीं समझा गया। इसलिए बादशाह ने गुरु को आदेश दिया कि वे नगर का निर्माण नहीं करें किंतु सिक्खों ने इस आदेश की उपेक्षा करके नगर का निर्माण पूर्ववत् जारी रखा। सिक्खों के विरुद्ध पुनः एक सेना भेजी गई जिसे गुरु हरगोविंद के सिक्खों ने मार भगाया। इस बार पुनः मामला किसी तरह शांत किया गया।
गुरु हरगोविंद का मुगलों के साथ तीसरा संघर्ष एक चोरी के कारण हुआ। बिधीचन्द्र नामक एक कुख्यात डाकू गुरु हरगोविंद का परम भक्त था। उसने शाही अस्तबल से दो घोड़े चुराकर गुरु को भेंट कर दिए। गुरु ने अनजाने में वे घोड़े स्वीकार कर लिए। इसलिए ई.1631 में एक प्रबल मुगल सेना गुरु हरगोविंद के विरुद्ध भेजी गई परन्तु गुरु की सेना ने उसे भी खदेड़ दिया। इसके बाद सिक्खों ने पंजाब में सात मस्जिदों पर अधिकार जमा लिया तथा उन्हें अपने काम में लेने लगे। शाहजहाँ ने सेना भेजकर उन्हें मस्जिदों से बाहर निकाला।
जिस समय औरंगजेब मुगलों के तख्त पर बैठा उस समय सातवें गुरु हरराय सिक्खों का नेतृत्व कर रहे थे। गुरु हरराय की भी औरंगजेब से नहीं बनी किंतु उनके समय में मुगलों से कोई लड़ाई नहीं हुई और सिक्ख धर्म के संगठन का काम जारी रहा। आठवें गुरु हरकिशन के समय भी सिक्ख धर्म के संगठन का कार्य निरंतर चलता रहा।
गुरु हरकिशन के बाद ई.1664 में गुरु तेग बहादुर सिक्ख धर्म के नौवें गुरु बने। उस समय औरंगजेब का दमन-चक्र जोरों पर था। हिन्दुओं से बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया जा रहा था। औरंगजेब ने हिन्दुओं के मन्दिरों की भाँति सिक्खों के गुरुद्वारों को भी तुड़वाना आरम्भ कर दिया। इस पर गुरु तेगबहादुर ने विद्रोह का झण्डा बुलंद किया। जब कश्मीर के कुछ पण्डितों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए मजबूर किया गया तो कुछ कश्मीरी पण्डित आनन्दपुर आकर गुरु तेग बहादुर से मिले।
गुरु ने कहा- ‘किसी महापुरुष के बलिदान के बिना धर्म की रक्षा असम्भव है।’
उस समय उनके पुत्र गोविन्दसिंह पास ही खड़े थे। उन्होंने कहा- ‘पिताजी, आपसे बढ़कर दूसरा महापुरुष कौन होगा?’
गुरु तेगबहादुर को यह परामर्श उचित लगा। उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि औरंगजेब को समाचार भेज दो कि यदि तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर ले तो समस्त हिन्दू खुशी-खुशी मुसलमान बन जाएंगे। औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर को अपने दरबार में बुलवाया। जब गुरु तेगबहादुर औरंगजेब से मिलने गए तो औरंगजेब ने उनसे कहा कि वे इस्लाम स्वीकार करें।
गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर 11 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में काज़ी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार से गुरु तेग बहादुर का शीश धड़ से अलग कर दिया। गुरु तेगबहादुर के बलिदान से सिक्खों की क्रोधाग्नि और अधिक भड़क उठी।
सिक्ख गुरुओं की हत्या से केवल सिक्ख जाति ही मुसलमानों की शत्रु नहीं बनी अपितु पूरा हिन्दू समाज और भारत माता इन महान गुरुओं के बलिदान से दुखी और विक्षुब्ध हुआ। सिक्ख गुरुओं की हत्या भी उन कारणों में शामिल थी जिनके कारण मुगलों का राज्य तेजी से पतन की ओर चला गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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