अठ्ठारह सौ सत्तावन के विद्रोह में बागियों का नेतृत्व करने के लिए अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर पर मुकदमा चलाने का निश्चय किया किंतु चूंकि बादशाह रानी विक्टोरिया की प्रजा नहीं था, इसलिए अंग्रेजी मिलिट्री की अदालत में बादशाह का कोर्ट मार्शल किया गया।
27 जनवरी 1858 को लाल किले के दीवाने खास में बादशाह का कोर्ट मार्शल आरम्भ हुआ। शहजादा जवांबख्त और एक नौकर बादशाह को एक पालकी में बैठाकर दीवाने खास में लाए। इसी दीवाने खास में जहांगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के युग में कम्पनी सरकार के अधिकारी कांपती हुई टांगों से आकर खड़े होते थे और आज कम्पनी सरकार के अधिकारी उन्हीं के वारिस को पकड़कर एक ऐसे अपराध के आरोप में मुकदमा चला रहे थे, जो बहादुरशाह जफर ने किया ही नहीं था।
सर्दियों के कारण बहादुरशाह जफर बहुत बीमार और कमजोर दिखाई दे रहा था, वह थोड़ी-थोड़ी देर में खांसता और पीतल के कटोरे में उल्टियां करने लगता। जब शहजादा जवांबख्त और नौकर बादशाह को पालकी से निकाल कर खड़ा करने लगे तो बादशाह की टांगों में इतना दम नहीं था कि वह खड़ा हो सके। इसलिए लेफ्टिनेंट एडवर्ड ओमैनी ने भी बादशाह को सहारा दिया।
बादशाह को कुछ तकियों के सहारे उस स्थान पर बैठा दिया गया जहाँ किसी बंदी को खड़े रहना होता था। शहजादा जवांबख्त बादशाह के पीछे खड़ा हुआ ताकि वह बादशाह को संभाल सके और उसे बता सके कि कौन व्यक्ति बादशाह से क्या कह रहा है! डकैत की तरह दिखने वाला एक मजबूत अंग्रेज सिपाही एक राइफल लेकर खड़ा हुआ ताकि कम्पनी सरकार का बंदी कहीं भाग न जाए!
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कम्पनी सरकार से बगावत करके बादशाह अब मुजरिम हो गया था, यह जताने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने बादशाह को न तो मोरछल की अनुमति दी और न हुक्के की। कनिष्ठ स्तर के पांच सैनिक अधिकारियों को इस मुकदमे का जज नियुक्त किया गया। केवल कोर्ट मार्शल का अध्यक्ष ब्रिगेडियर शॉवर ही इस बात को जानता था कि किसी भी मुकदमे को कैसे चलाया जाता है! शेष चारों सदस्य नितांत नौसीखिए थे।
दिल्ली का नवनियुक्त कमिश्नर चार्ल्स साण्डर्स, उसकी पत्नी मैटिल्डा साण्डर्स, एडवर्ट वाईबर्ट, दिल्ली गजट का सब-एडीटर जॉर्ज वैगनट्राइबर तथा हैरियट टाइटलर दर्शक दीर्घा में बैठे। कोर्ट मार्शल का अध्यक्ष ब्रिगेडियर शॉवर मुकदमा आरम्भ होने के निर्धारित समय से काफी विलम्ब से आया और उसने सूचित किया कि उसे आगरा जाकर कमाण्ड संभालने का आदेश मिला है, इसलिए कर्नल डॉज कोर्ट मार्शल के अध्यक्ष होंगे। इस तरह के विचित्र वातावरण में बादशाह का कोर्ट मार्शल आरम्भ हुआ।
जब कर्नल डॉज ने बादशाह से पूछा कि क्या वे अपना अपराध स्वीकार करते हैं तो बादशाह को कुछ समझ में ही नहीं आया कि किसी अपराध की बात की जा रही है। बहादुरशाह जफर की ओर से गुलाम अब्बास नामक एक वकील नियुक्त किया गया था। उसने बादशाह को समझाया कि वह ‘हाँ’ न करे। इस पर बादशाह ने इन्कार में मना कर दिया। इसके बाद बादशाह को एक के बाद एक करके ढेरों कागज दिखाए गए और बादशाह से पूछा गया कि क्या ये उसके दस्तखत हैं? इस पर बादशाह ने मना कर दिया। इसके बाद वे कागज बादशाह को पढ़कर सुनाए जाने लगे। बादशाह उनमें से कुछ कागजों को सुनता और बीच-बीच में ऊंघने लगता। बादशाह को कई गवाहों के बयान सुनाए गए।
बादशाह ने उन सारे गवाहों को झूठा बताया और तकिए पर सिर टिकाकर आराम से बैठ गया। कागजों को दिखाए जाने और पढ़कर सुनाए जाने की लम्बी प्रक्रिया कई दिनों तक चलती रही। शहजादा जवांबख्त भी इन कागजों को सुनने में कोई रुचि नहीं दिखाता था, इसलिए वह प्रायः बादशाह के साथ खड़े नौकर से हंसी-मजाक करने लगता। इस पर एक दिन लेफ्टिनेंट ओमेनी ने जवांबख्त के कोर्ट में आने पर पाबंदी लगा दी।
ओमनी के अनुसार शहजादा जवांबख्त बहुत ही अशिष्ट, अभद्र और असभ्य था। यहाँ बादशाह का कोर्ट मार्शल चल रहा था न कि शाही हरम में होने वाला मुजरा!
जब बहुत दिनों बाद बादशाह का कोर्ट मार्शल पूरा हुआ तो बादशाह ने कोर्ट मार्शल के समक्ष अपनी ओर से उर्दू में एक लिखित शपथपत्र प्रस्तुत किया-
‘मेरा बगावत से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस पूरी अवधि में मेरी स्थिति विद्रोही सिपाहियों के हाथों विवश बंदी जैसी थी। मैंने उनसे कई बार प्रार्थना की कि वे यहाँ से चले जाएं किंतु वे नहीं माने। मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने मिस्टर फ्रेजर या किसी भी यूरोपियन की हत्या करने के आदेश कभी नहीं दिए।
जो आदेश मेरे हस्ताक्षरों और मेरी मुहर के साथ दिखाए जा रहे हैं, वे विद्रोही सैनिकों ने लिखे थे और उन पर बलपूर्वक मुझसे हस्ताक्षर करवाए थे और बलपूर्वक मुझसे खाली लिफाफों पर मुहर लगवाई थी। मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं होता था कि उन लिफाफों में क्या होता था और वे किसे भेजे जा रहे थे।
जब मैं उनकी बात मानने से मना करता तो वे कहते कि वे आपको तख्त से उतारकर मिर्जा मुगल को बादशाह बना देंगे। मैं उनके कब्जे में था और वे जो चाहते थे, मुझसे करवाते थे। यदि मैं उनका कहना नहीं मानता तो वे मुझे तुरंत ही मार डालते। उन्होंने न तो कभी मुझे सलाम किया, न ही कभी मुझे इज्जत दी।
वे दीवाने खास और तस्बीह खाने में जूते पहनकर घुस आते थे। उन सिपाहियों पर भरोसा कैसे कर सकता था जिन्होंने अपने मालिकों को ही मार डाला था। उन बागी सिपाहियों ने जिस प्रकार अपने अंग्रेज मालिकों को मारा, उसी प्रकार मुझे भी कैद कर लिया।
मैं अपनी जिंदगी से इतना तंग आ गया कि मैंने बादशाह का लिबास छोड़कर सूफियों का जोगिया लिबास पहन लिया। मेरे पास न तो काई फौज थी और न कोई खजाना, मैं अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कैसे कर सकता था। केवल अल्लाह ही मेरा गवाह है और वह जानता है कि जो मैंने लिखा है, केवल वही सच है।’
जे. एफ. हैरियट का कहना था कि- ‘बहादुरशाह जफर निर्दोष नहीं है अपितु कुस्तुंतुनिया से लेकर मक्का, ईरान और लाल किले की दीवारों तक फैले हुए अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी षड़यंत्र का सरगना है तथा वह इस गदर की तैयारी पिछले साढ़े तीन साल से कर रहा था।’
लेफ्टिनेंट ओमेनी सहित लगभग सभी अंग्रेज अधिकारी जानते थे कि हैरियट जो कुछ भी कह रहा है, वह केवल बकवास है। सारे अंग्रेज जानते थे कि बगवात शुरु होने में बहादुरशाह का कोई हाथ नहीं था। वे यह भी जानते थे कि बहादुरशाह ने दिल्ली के अंग्रेजों की जान बचाने की कोशिश की थी और कानपुर के बीबीघर में हुए अंग्रेजों के नरसंहार की खुलकर निंदा की थी। फिर भी वे सब चाहते थे कि बादशाह को फांसी हो!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता