अठ्ठारहवीं शताब्दी में मराठे भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गए। उन्होंने मुगल साम्राज्य को नष्ट प्राय कर दिया तथा राजपूताना राज्यों की बड़ी दुर्दशा बनाई। इस कारण उत्तर भारत में मराठों का आतंक छा गया।
ईस्वी 1734 के आते-आते मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा धूल में मिलने लगी थी। मराठों ने अपने परम्परागत क्षेत्रों से आगे बढ़कर बड़ौदा, धार, इन्दौर तथा ग्वालियर में चार नए राज्य स्थापित कर लिए थे। ग्वालियर से आगरा अधिक दूर नहीं था। मराठों ने राजपूताना रियासतों पर बार-बार हमले करने और चौथ वसूलने की नीति अपना ली थी। इस कारण मराठों का आतंक पूरे उत्तर भारत में छा गया।
मालवा, गुजरात और बुन्देलखण्ड में मराठों की प्रगति को रोकने में मुगल बादशाह की असफलता तथा बूंदी के मामले में मराठों के हस्तक्षेप ने राजस्थान के राजाओं में बेचैनी उत्पन्न कर दी। उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्होंने संगठित होकर मराठों को रोकने का प्रयास नहीं किया तो उनके राज्यों की भी वही दशा हो जायेगी जो मालवा और गुजरात की हुई है।
अतः आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह ने ईस्वी 1734 में राजपूत राजाओं को मेवाड़ राज्य के हुरड़ा नामक स्थान पर एकत्रित होने के लिये आमंत्रित किया। इसे इतिहास में हुरड़ा सम्मेलन कहा जाता है। राजपूताना के राज्यों में मराठों का आतंक इतना अधिक था कि जो राजा कभी एक साथ नहीं बैठते थे, उन्हें एक साथ बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा।
16 जुलाई 1734 को हुरड़ा सम्मेलन आरम्भ हुआ। मेवाड़ के नये महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह, जोधपुर नरेश अभयसिंह, नागौर का राव बख्तसिंह, बीकानेर महाराजा जोरावरसिंह, कोटा का महाराव दुर्जनसाल, बूंदी का महाराव दलेलसिंह, करौली का महाराजा गोपालदास, किशनगढ़ का महाराजा राजसिंह आदि कई प्रमुख राजपूत शासक सम्मिलित हुए।
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स्पष्ट देखा जा सकता था कि मराठों का आतंक एक काले साए की तरह हुरड़ा सम्मेलन पर व्याप्त था। दीर्घ विचार-विमर्श के बाद 17 जुलाई 1734 को राजाओं ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।
इस समझौते में समस्त राजाओं ने भविष्य में एकता बनाये रखने, एक दूसरे की प्रतिष्ठा का सम्मान करने, एक राज्य के विद्रोही को दूसरे राज्य द्वारा शरण न देने और वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही करने का संकल्प व्यक्त किया। राजपूत शासकों ने मराठों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही करने हेतु अपनी सेनाओं सहित वर्षा ऋतु के बाद रामपुरा में एकत्रित होने का निर्णय लिया।
हुरडा सम्मेलन में राजपूत राजाओं द्वारा एक स्थान पर बैठकर विचार करना तथा मराठों के विरुद्ध संयुक्त रूप से सामना करने का निर्णय लेना, एक महत्त्वपूर्ण बात थी परन्तु दुर्भाग्वश किसी भी निर्णय को कार्यान्वित करने के लिये किसी भी राजा की ओर से कुछ भी नहीं किया गया। कोई भी शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने को तैयार नही था। मराठों का आतंक समस्त राजाओं को त्रस्त किए हुए था किंतु वे अपने अहंकार को त्यागकर एक-दूसरे क नेतृत्व में संघर्ष करने को तैयार नहीं थे।
सवाई जयसिंह, महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) और जोधपुर नरेश अभयसिंह, इन तीन प्रमुख राजाओं में भी एक दूसरे के प्रति सद्भावना का अभाव था। अतः ईस्वी 1734 की वर्षा ऋतु के बाद राजपूत राजाओं ने रामपुरा में एकत्रित होने की बजाय मुगल बादशाह द्वारा मराठों के विरुद्ध आयोजित अभियान में सम्मिलित होना अधिक श्रेयस्कर समझा। मराठों के ग्वालियर तक चढ़ आने से मुगलों द्वारा यह अनुभव किया जा रहा था कि यदि मराठों के विरुद्ध मुगलों की ओर से अब भी कोई बड़ी कार्यवाही नहीं की गई तो मराठे, निश्चित रूप से कुछ ही समय में आगरा एवं दिल्ली में आ धमकेंगे।
इसलिये नवम्बर 1734 में मीरबख्शी खाने दौरां के नेतृत्व में एक विशाल सेना मालवा की ओर भेजी गई। सभी मित्र राजपूतों से बादशाह की तरफ से अपील की गई कि वे संकट की इस घड़ी में बादशाह की सहायता के लिए आगे आएं। आम्बेर नरेश जयसिंह, जोधपुर नरेश अभयसिंह, कोटा नरेश राजा दुर्जनसाल सहित कई राजपूत राजा भी अपनी सेनाएं लेकर खाने दौरां की सेना से आ मिले।
इस कारण मुगल सेना अत्यंत विशाल दिखाई देने लगी। इस सेना में हाथियों के काफिले, घुडसवारों के जत्थे, पैदल सैनिकों के समूहों के साथ-साथ गोला-बारूद, रसद-पानी एवं तम्बू आदि विविध प्रकार की सामग्री की असंख्य गाड़ियां चल रही थीं। मुगल सैनिकों की आवश्यकता का सामान बेचने वाले बंजारों के समूह भी इस सेना के चारों ओर चल रहे थे।
कोटा राज्य का इतिहास के लेखक डॉ. मथुरालाल शर्मा ने लिखा है कि ई.1734 में राजपूताने में शाही लश्कर की कूंच मुगलों के वैभव की अन्तिम झलक थी। इस लश्कर में जो राजपूत नरेश सम्मिलित हुए थे, वह भी हिन्दू राजाओं द्वारा की जा रही मुगलों की अधीनता का अंतिम दृश्य था।
जब यह लश्कर कोटा राज्य का मुकुंदरा दर्रा पार करके रामपुरा क्षेत्र में पहुंचा तो फरवरी 1735 के आरम्भ में उसका सामना होल्कर और सिंधिया की सेनाओं से हुआ। खानेदौरां अनुभवहीन, कायर और अयोग्य सेनापति था तथा शाही सेना पूरी तरह असंगठित थी। राजपूत राजाओं की सेनाएं एक-दूसरे के साथ चलते हुए भी एक दूसरे से सहयोग नहीं कर रही थीं।
मराठों ने इस स्थिति को पहचान लिया। उन्हें ज्ञात था कि कोटा, बूंदी, जयपुर और जोधपुर राज्यों की लगभग समस्त सेनाएं इस समय खानेदौरां के साथ हैं तथा उनके अपने राज्य असुरक्षित हैं। इसलिये मराठों की कुछ सेनाएं इन राज्यों के लिये रवाना कर दी गईं।
अप्रैल 1734 में मल्हारराव होल्कर और राणोजी सिन्धिया ने बूंदी पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया तथा बूंदी नरेश बुद्धसिंह के पुत्र उम्मेदसिंह को बंूदी की गद्दी पर बैठा दिया। इस अवसर पर बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी ने मल्हारराव होल्कर को राखी बांधी जो कि आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह की सौतेली बहिन थी।
बूंदी के साथ-साथ मराठे तेजी से कोटा, जयपुर और जोधपुर राज्यों में जा घुसे जिनकी सुरक्षा का इस समय कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था। 18 फरवरी 1735 को सांभर में भारी लूट हुई। सांभर में मुगलों की ओर से फौजदार नियुक्त था। मराठों ने उसकी अतुल सम्पत्ति लूट कर उसे खाली हाथ कर दिया।
सांभर का काजी अपनी औरतों का कत्ल करके, मराठों से लड़ने के लिये आया और घायल होकर धरती पर गिर पड़ा। मराठों की इस चाल से सभी राजपूत शासक खानेदौरां का साथ छोड़कर, अपने राज्यों को लौट गये।
अब मल्हार राव होल्कर तथा राणोजी सिंधिया के छापामार घुड़सवारों ने रामपुरा में खानेदौरां को घेर लिया। इस प्रकार मराठों ने सैनिक बल की बजाय बुद्धि चातुर्य से काम लेकर ही मुगलों एवं राजपूतों को हरा दिया। आठ दिन तक खानेदौरां मराठों की घेराबंदी में रहा। इस बीच मराठों द्वारा मुगलों की रसद पंक्ति तोड़कर लूट ली गई।
अन्त में सवाई जयसिंह की मध्यस्थता से खानेदौरां और मराठों में समझौता हुआ जिसके अनुसार खानेदौरां ने बादशाह की ओर से मालवा की चौथ के रूप में 22 लाख रुपये मराठों को देने स्वीकार कर लिए।
मराठों के विरुद्ध इतना विशाल अभियान बुरी तरह विफल हो जाने तथा मराठों को 22 लाख की चौथ निर्धारित हो जाने पर दिल्ली दरबार में सवाई जयसिंह के विरुद्ध षड़यंत्र रचा गया। अवध के नवाब सआदत खाँ ने सवाई जयसिंह तथा खानेदौरां पर आरोप लगाया कि उन्होंने मराठों से सांठ-गांठ कर ली है। सरबुलंद खाँ ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई।
इस पर बादशाह मुहम्मदशाह ने अगस्त 1735 में सवाई जयसिंह को मालवा की सूबेदारी से हटा दिया तथा वे दो प्रांत जो पूर्व में सवाई जयसिंह को लिखित आदेश द्वारा जीवन भर के लिये दिए गए थे, वे भी छीन लिये।
ई.1735 में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर लिया तो पेशवा बाजीराव राजपूताने के राज्यों से भी चौथ मांगने लगा क्योंकि राजपूताना के राज्य मुगल सल्तनत के अधीन थे। इस काल में राजपूताना के राज्य इस स्थिति में नहीं थे कि वे मराठों से अपनी रक्षा कर सकते।
प्रसिद्ध इतिहासकार आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि ई.1736 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह ने मराठों को कर देना स्वीकार कर लिया। ई.1737 में कोटा मराठों से परास्त हुआ और उसने मराठों को चौथ देना स्वीकार किया। उसी वर्ष कोटा में मराठों का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ जो कोटा और बूंदी से कर वसूलता था। आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह ने भी पेशवा बाजीराव से संधि कर ली और उसे कर देना स्वीकार कर लिया।
सिंधिया, होल्कर और पेशवा की सेनाओं ने मेवाड़ को जी भर कर लूटा। कर्नल टॉड ने लिखा है कि मेवाड़ नरेश जगतसिंह (ई.1734-51) से लेकर मेवाड़ नरेश अरिसिंह के समय (ई.1761-73) तक मराठों ने मेवाड़ से 181 लाख रुपये नगद तथा 28.5 लाख रुपये की वार्षिक आय के परगने छीन लिए। कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि मराठों की रानी अहिल्याबाई होलकर ने केवल चिट्ठी से धमकाकर मेवाड़ से नींबाहेड़ा का परगना छीन लिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता