Wednesday, October 29, 2025
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अकबर का प्रारम्भिक जीवन

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने ई. 1556 से1605 तक शासन किया। अकबर का प्रारम्भिक जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ था। उसे अपने ही परिवार के षड़यंत्रों का शिकार होना पड़ा।

अकबर का प्रारम्भिक जीवन

अकबर का जन्म

अकबर का पूरा नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था। उसके पिता का नाम हुमायूँ और माता का नाम हमीदा बानू बेगम था। जिस समय हुमायूँ शेरशाह से परास्त होकर अपने भाई हिन्दाल के साथ सिन्ध में निवास कर रहा था उसी समय हुमायूँ ने  21 अगस्त 1541 को हिन्दाल के शिक्षक की पुत्री हमीदा बानू बेगम से विवाह किया।

हिन्दाल इस विवाह से सहमत नहीं था इसलिये वह हुमायूँ का साथ छोड़कर कन्दहार चला गया। हुमायूं हमीदा बानू बेगम के साथ 22 अगस्त 1542 को अमरकोट पहुँचा। यहीं पर राणा वीरसाल के राजप्रासाद में 15 अक्टूबर 1542 को हमीदा बानू बेगम के गर्भ से अकबर का जन्म हुआ।

हुमायूँ को पुत्र के पैदा होने की सूचना मिलने पर बड़ी प्रसन्नता हुई परन्तु उस समय हुमायूँ के पास अपने मित्रों को भेंट देने के लिए कुछ नहीं था। हुमायूँ ने एक कस्तूरी को तोड़ कर अपने मित्रों में बांट दिया और अल्लाह से प्रार्थना की कि कस्तूरी की सुगन्ध की तरह उसके पुत्र का यश भी चारों दिशाओं में फैल जाये।

अकबर का बचपन

जब हुमायूँ ने फारस के शाह के यहाँ जाने का निश्चय किया तब उसने अकबर को अपने कुछ शुभचिन्तकों के संरक्षण में कन्दहार में छोड़ दिया और स्वयं हमीदा बानू बेगम के साथ फारस चला गया। इस समय अकबर केवल एक वर्ष का था। इस प्रकार अकबर शैशवकाल में माता के वात्सल्य से वंचित हो गया।

इस समय मिर्जा अस्करी कन्दहार में था। वह अकबर को अपने महल ले गया। उसकी पत्नी सुल्ताना बेगम के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उसने बड़े स्नेह से अकबर को पाला। 1545 ई. की शीत ऋतु में अकबर कन्दहार से काबुल भेज दिया गया जहाँ कामरान शासन कर रहा था। उन दिनों बाबर की बहिन खानजादा बेगम काबुल में थी।

उसने बड़े लाड़-प्यार के साथ अकबर का पालन किया। इस प्रकार माता-पिता के बिना ही अकबर के जीवन के प्रथम तीन वर्ष व्यतीत हुए। नवम्बर 1545 में हुमायूँ ने काबुल पर अधिकार किया तब अकबर को अपने माता-पिता को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मार्च 1546 में अकबर का खतना किया गया तथा तथा उसका नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा गया।

1546 ई. की वसन्त ऋतु में हुमायूं ने बदख्शाँ के लिए प्रस्थान किया। इस बीच, कामरान ने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया। अकबर एक बार फिर अपने निर्दयी चाचा के हाथ लग गया। जब हुमायूं बदख्शाँ से वापस लौटा और उसने काबुल के दुर्ग का घेरा डालकर उस पर गोले बरसाना आरम्भ किया तब कामरान ने हुमायूँ तथा उसके आदमियों की स्त्रियों तथा बच्चों पर बड़ा अत्याचार किया।

उसने बच्चों को दुर्ग की दीवारों से लटकाकर तोप के गोलों से उड़ाने के आदेश दिये। इन्हीं बच्चों में अकबर भी था। उसे भी दीवार से लटका दिया गया। सौभाग्य से हुमायूं के आदमियों ने अकबर को पहचान लिया और ऐन वक्त पर तोपों का मुँह फेरकर अकबर की जान बचाई। यह घटना अप्रेल 1547 की है। इसके बाद अकबर सदैव अपने पिता हुमायूँ के साथ रहा।

अकबर का विवाह तथा पिता के संरक्षण में युद्ध

1551 ई. में हिन्दाल की मृत्यु होने पर अकबर को गजनी का सूबेदार बनाया गया तथा हिन्दाल की पुत्री रजिया सुल्ताना से अकबर का विवाह कर दिया गया। जब हुमायूँ ने भारत की पुनर्विजय आरम्भ की तब अकबर उसके साथ था।

1555 ई. में जब हुमायूं ने लाहौर पर अधिकार किया तब उसने 22 जनवरी 1555 को सरहिंद नामक स्थान पर अकबर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इसी वर्ष हुमायूँ ने दिल्ली विजय के बाद अकबर को पंजाब का गवर्नर बनाया और बैरमखाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया। उस समय अकबर की आयु 13 वर्ष थी।

अकबर का राज्यारोहण

सरहिन्द के युद्ध में अकबर ने अपने पिता हुमायूँ के साथ अफगानों से युद्ध किया। सरहिन्द की विजय के उपरान्त जब सिकन्दर लोदी शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग गया तब हुमायूँ ने अकबर तथा बैरमखाँ को उसका दमन करने के लिए पंजाब भेजा और स्वयं दिल्ली चला गया परन्तु 26 जनवरी 1556 को हुमायूँ की अकाल मृत्यु हो गई।

बादशाह की मृत्यु की सूचना तुरन्त अकबर तथा बैरमखाँ को भेजी गई। अकबर इस समय पंजाब के गुरदासपुर जिले में कालानूर नामक स्थान पर था। बैरमखाँ ने उसी दिन 14 फरवरी 1556 को वहीं पर ईंटों के एक चबूतरे को तख्त बनाकर अकबर को बादशाह घोषित कर दिया और वहाँ पर उपस्थित अधिकारियों तथा अमीरों से उसका अभिनन्दन कराया। चूँकि उस समय अकबर की आयु तेरह वर्ष चार माह थी, इसलिये बैरमखाँ अकबर की तरफ से शासन चलाने लगा।

अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ

अकबर की प्रारंभिक कठिनाइयां भयानक थीं। उसे एक ऐसा राज्य मिला था जिसकी पुनर्स्थापना अभी ढंग से नहीं हुई थी और राज्य का संस्थापक चल बसा था। स्मिथ ने लिखा है- ‘जब कालानूर में समारोह किया गया तब यह नहीं कहा जा सकता था कि अकबर के पास कोई साम्राज्य था।’

बैरमखाँ के सेनापतित्त्व में जो छोटी सी सेना थी उसका पंजाब के कुछ जिलों पर अधिकार था। उस सेना पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता था। आगरा तथा दिल्ली भी मुगल प्रांतपतियों के अधिकार में थे। अकबर की प्रारंभिक कठिनाइयां इस प्रकार से थीं-

(1.) अल्पायु की समस्या

इस समय अकबर केवल 13 साल 4 महीने का था। उसे किसी भी प्रकार का सैनिक तथा प्रशासकीय अनुभव नहीं था। न वह स्वयं अपने प्रबल शत्रुओं से लोहा ले सकता था और न अपने राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर सकता था। उसे एक विश्वस्त मार्ग दर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता थी जो इन कठिन परिस्थितियों में मुगलों की हिचकोले लेती नाव को मजबूती के साथ खे सके। सौभाग्य से अकबर को बैरमखाँ की सेवाएँ प्राप्त हो गईं।

(2.) मुगल अमीरों को नियंत्रण में रखने की समस्या

बैरम खाँ मूलतः फारस का शिया मुसलमान था। मुगल दरबार के बहुत से अमीर अकबर तथा उसके संरक्षक बैरमखाँ से अधिक वयोवृद्ध थे, जो सुन्नी सम्प्रदाय से थे और अपने को शुद्ध तुर्की रक्त का मानते थे। इन सुन्नी वयोवृद्ध अमीरों को नियन्त्रण में रखना अकबर तथा बैरमखाँ के लिए सरल काम नहीं था।

(3.) शाह अबुल माअली की समस्या

शाह अबुल माअली रूपवान् तथा गुणवान् नवयुवक था। वह सैयद वंश में उत्पन्न हुआ था तथा हुमायूँ का बड़ा प्रिय था। मुगल दरबार में उसका बड़ा सम्मान तथा प्रभाव था। शिया लोगों से उसे घोर घृणा थी और बैरमखाँ का उत्थान उसकी आँखों में खटक रहा था। अबुल माअली अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए विद्रोह का बिगुल बजा सकता था।

(4.) साधनों का अभाव

यद्यपि कालानूर में अकबर का राज्याभिषेक कर दिया गया था परन्तु वास्तव में न तो उसके पास कोई तख्त था और न साम्राज्य। अकबर के पास एक छोटी सी सेना थी जिसके बल पर मुगलों का तख्त प्राप्त करना कठिन था। अकबर के पास कोई खजाना भी नहीं था। इन दिनों दिल्ली तथा आगरा में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। चूँकि पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अकबर का अधिकार नहीं था, इसलिये उस ओर से भी सैनिकों का मिलना कठिन था।

(5.) सरदारों में मतभेद

राज्य की पुनर्प्राप्ति की रणनीति के सम्बन्ध में अकबर के सरदारों में बड़ा मतभेद था। कुछ सरदारों की राय थी कि पहले अकबर को काबुल ले जाया जाये और वहाँ पर एक सेना का संगठन करके तब अफगानों का सामना किया जाये। अन्य सरदारों की राय थी कि सीधे दिल्ली की ओर प्रस्थान किया जाये और अफगानों का सामना किया जाये।

(6.) काबुल की समस्या

अकबर को तख्त पर बैठे तीन-चार दिन ही हुए थे कि उसे सूचना मिली कि बदख्शाँ के शासक सुलेमान मिर्जा ने एक बड़ी सेना के साथ काबुल का घेरा डाल दिया है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि काबुल की रक्षा के लिए एक सेना तुरन्त भेजी जाये, अन्यथा उसका हाथ से निकल जाना निश्चित था परन्तु मुगल सेना इतनी बड़ी नहीं थी कि उसका कुछ भी भाग काबुल की रक्षा के लिए भेजा जाता, क्योंकि ऐसा करने से भारत का जो भाग अकबर के अधिकार में था, वह भी खतरे में पड़ जाता।

(7.) मुहम्मद शाह आदिल की समस्या

काबुल की समस्या के समाधान पर विचार चल ही रहा था कि दिल्ली के गवर्नर तार्दी बेग से सूचना प्राप्त हुई कि मुहम्मदशाह आदिल के सेनापति हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया है और दिल्ली की ओर बढ़ता चला आ रहा है। यदि समय रहते पर्याप्त सेना दिल्ली नहीं पहुँच सकी तो दिल्ली का हाथ से निकलना निश्चित है।

(8.) सिकंदरशाह सूरी की समस्या

सिकन्दरशाह सूरी अकबर की गतिविधियों पर ताक लगाये हुए था। यह निश्चित था कि यदि अकबर अपनी सेना के प्रधान अंग को दिल्ली या काबुल भेज दे तो सिकन्दरशाह सूरी शिवालिक की पहाड़ियों से निकल कर पंजाब को रौंदना आरम्भ कर देगा।

(9.) साम्राज्य विस्तार की समस्या

इस समय सिंध, मुल्तान, कश्मीर, बंगाल, बिहार, गुजरात, मालवा, राजपूताना तथा समूचा दक्षिण भारत मुगल साम्राज्य से बाहर थे। इन क्षेत्रों को अधिकार में लिये बिना साम्राज्य का निर्माण संभव नहीं था।

(10.) संरक्षक से संघर्ष

राज्य को एक दिशा देने के लिये एक ही व्यक्ति का निर्देशन चल सकता था। अकबर तथा बैरमखाँ दोनों ही प्रतिभाशाली थे। दोनों में राज्य को दिशा देने की क्षमता थी। अतः जैसे ही अकबर वयस्क हुआ, उसके लिये बैरमखाँ का स्वतंत्र व्यवहार बहुत बड़ी समस्या बन गया। ऐसी स्थिति में अकबर तथा बैरामखाँ के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया।

अकबर की कठिनाइयों का निवारण

अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ भयानक थीं। राज्य विशृंखलित था, चारों ओर से विद्रोह फूट पड़े थे किंतु नियति ने अकबर को इन कठिनाइयों से बाहर निकालने के साधन जुटा दिये।

बैरम खाँ की सेवाएँ

अकबर के सौभाग्य से उसे योग्य तथा अनुभवी सेनापति बैरम खाँ की सेवाएँ प्राप्त हो गईं। वह 16 वर्ष की आयु से हुमायूँ की सेवा में था। संकट के समय वह हुमायूँ के साथ छाया की तरह रहा। उसमें कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता थी। उसमें अपने पद के उपयुक्त योग्यताएँ भी विद्यमान थीं। वह अनुभवी तथा कुशल सेनानायक था। उसे शासन करने का व्यापक अनुभव था।

वह विद्वान, व्यवहार कुशल तथा नीति निपुण था। अल्पायु के कारण अकबर में अनुभव का जो अभाव था, उसकी पूर्ति बैरमखाँ ने कर दी। अकबर ने अपने राज्यारोहण के बाद बैरमखाँ को खान-ए-खाना की उपाधि दी तथा उसे राज्य का वकील-ए-सल्तनत नियुक्त किया। उसने प्रारम्भ से ही सावधानी के साथ काम करना आरम्भ किया तथा सबसे पहले अपने प्रतिद्वन्द्वियों को समाप्त करने का निश्चय किया।

शाही शिविर में अनुशासन की स्थापना

बैरमखाँ को राज्य एवं अमीरों पर नियंत्रण स्थापित करने में सबसे बड़ा खतरा शाह अबुल माअली की ओर से था। बैरमखाँ जानता था कि यह व्यक्ति बादशाह तथा तख्त दोनों के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिये उसने माअली को समाप्त करने का निश्चय किया।

एक दिन अकबर के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में एक प्रीतिभोज दिया गया। वहीं पर बैरमखाँ ने माअली को कैद करके उसे लाहौर भेज दिया। इससे अमीरों में बैरमखाँ का भय व्याप्त हो गया तथा शाही शिविर में बादशाह तथा उसके संरक्षक के विरुद्ध विद्रोह की संभावना कम हो गई।

काबुल की समस्या का समाधान

हुमायूँ की मृत्यु के बाद सुलेमान मिर्जा ने काबुल पर आक्रमण किया था। वह कई महीने तक काबुल का घेरा डाले रहा परन्तु उसे ले न सका। इसी बीच में उसे सूचना मिली कि उजबेग लोग मध्य-एशिया से चल पड़े हैं और मुगल सेनाएँ दिल्ली से काबुल की रक्षा के लिए आ रही हैं। इसलिये सुलेमान मिर्जा ने काबुल का घेरा उठा लिया और बदख्शाँ चला गया। इस प्रकार काबुल मुगलों के पास ही बना रहा परन्तु कन्दहार अकबर के हाथ से निकल गया। उस पर फारस के शाह ने अधिकार कर लिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल आलेख – मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापनाजलालुद्दीन मुहम्मद अकबर

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