अकबर की शासन व्यवस्था त्रिस्तरीय थी जिसमें सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रीय शासन, मध्यम स्तर पर प्रांतीय शासन तथा निम्नतम स्तर पर स्थानीय शासन था।
अकबर की शासन व्यवस्था
केन्द्रीय शासन
अकबर का केन्द्रीय शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश राजतंत्र पद्धति पर आधारित था। इस केन्द्रीय शासन का कार्य न केवल राजधानी में रहने वाली प्रजा पर नियंत्रण रखना था अपितु प्रांतों अथवा सूबों एवं उससे भी नीचे गांवों में रहने वाली प्रजा पर भी नियंत्रण रखने हेतु शासन तंत्र का निर्माण करना था।
केन्द्रीय शासन के अंग
(1.) बादशाह
बादशाह शासन का सर्वोच्च प्रधान था। उसकी सर्वोच्चता चुनौती रहित थी। राज्य की समस्त शक्तियाँ उसमें निहित थीं। वही नियमों का निर्माण करता था तथा उनका पालन करवाता था। वह नियम भंग करने वालों को दण्ड देता था। बादशाह ही समस्त सेनाओं का सर्वोच्च प्रधान था।
वह सेनापतियों को नियुक्त करता था तथा उन्हें युद्ध अभियानों पर भेजता था। वह समस्त अधिकारों तथा नियमों का स्रोत था। वह स्वयं को दैवी शक्ति से सम्पन्न समझता था और अपनी प्रजा के कल्याणार्थ प्रतिदिन झरोखे से दर्शन देता था। यद्यपि अकबर का शासन विशुद्ध स्वेच्छाचारी शासन था।
उस पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं था परन्तु लोक मंगलकारी होने के कारण उसे उदार एवं निरंकुश शासन कह सकते हैं। अकबर अपनी प्रजा के कल्याण को सर्वोपरि समझता था और उसे सुखी बनाने का प्रयास करता था।
(2.) विभागीय व्यवस्था
अकबर का शासन पूर्णरूप से केन्द्रीभूत नौकरशाही पर आधारित था जिसका वह स्वयं प्रधान था। शासन की सुविधा के लिए उसने अलग-अलग विभागों की स्थापना की। राज्य के विभिन्न कार्यों को उसने विभिन्न विभागों में विभक्त किया और प्रत्येक विभाग के कार्य की देखभाल के लिए अलग-अलग योग्य अधिकारी नियुक्त किये। प्रत्येक विभाग का अलग अध्यक्ष था जो उसके कार्यों को ढंग से चलाने के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी था। समस्त उच्च अधिकारियों की नियुक्त बादशाह करता था और वे सीधे बादशाह के प्रति उत्तरदायी होते थे।
स्मिथ के शब्दों में- ‘उसके मंत्री उसके शिष्य थे, उसके गुरु नहीं थे।’
(3.) केन्द्रीय पदाधिकारी
अकबर के केन्द्रीय पदाधिकारी उसके शासन की रीढ़ थे। वे विभागीय व्यवस्था के भी अध्यक्ष थे जो अगल-अलग विभाग का कार्य देखते थे।
वकील
साम्राज्य में बादशाह के बाद सबसे ऊँचा पद वकील का होता था जो प्रधानमंत्री की तरह कार्य करता था। वकील किसी विभाग विशेष का प्रधान नहीं होता था किंतु वह शासन के प्रत्येक अंग में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में काम करता था और समस्त विभागों के काम-काज की देखभाल करता था। प्रान्तीय सरकारें सीधे उसी के नियन्त्रण में काम करती थीं।
दीवान
वकील के नीचे दीवान होता था। वह राजकोष विभाग का अध्यक्ष होता था। वह साम्राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखता था और राजकोष की सुदृढ़ता के लिये उत्तरदायी होता था।
खान-ए-समान
राजपरिवार के व्यय का हिसाब रखने के लिए नियुक्त अधिकारी ‘खान-ए-समान’ कहलाता था। वह शाही गोदाम का प्रबन्धक होता था और राजपरिवार की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता था।
बख्शी
सैन्य विभाग का अध्यक्ष बख्शी कहलाता था। बख्शी अरबी भाषा के ‘बख्शीदन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बाँटना। चूँकि इस अधिकारी का प्रधान कार्य सैनिकों को वेतन बाँटना होता था इसलिये वह बख्शी कहलाता था। सैनिकों का वेतन निश्चित करना तथा उन्हें अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित करना भी उसका कर्त्तव्य था।
सद्र-ए-सुदूर
दान विभाग का अध्यक्ष सद्र-ए-सुदूर कहलाता था। सुदूर सद्र का बहुवचन है। जो पदाधिकारी सद्रों का प्रधान होता था वह सद्र-ए-सुदूर कहलाता था। बादशाह, शहजादे तथा राज-परिवार के अन्य लोग बहुत-सा धन तथा भूमि दान दिया करते थे। इन सबका प्रबन्ध ‘सद्र-ए-सुदूर’ करता था।
मुह्तसिब
मुहत्सिब उस पदाधिकारी को कहते थे जो प्रजा के आचरण तथा आचार व्यवहार का ध्यान रखता था। इस विभाग के माध्यम से अकबर ने प्रजा के नैतिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया।
मीर-आतिश
तोपेखाने के विभाग का अध्यक्ष मीर-आतिश होता था। मीर का अर्थ होता है प्रधान और आतिश का अर्थ होता है आग। चूँकि तोपों से आग की वर्षा की जाती थी इसलिये तोपखाने के अध्यक्ष को मीर-आतिश कहते थे। उसे तोपखाने की सम्पूर्ण व्यवस्था करनी पड़ती थी।
काजी-उल-कुजात
न्याय-विभाग का अध्यक्ष काजी-उल-कुजात कहलाता था जिसका अर्थ होता है काजियों का काजी। कुजात काजी का बहुवचन है जिसका अर्थ होता है न्यायाधीश। काजी-उल-कुजात का प्रधान कर्त्तव्य न्याय की समुचित व्यवस्था करना था। स्थानीय काजियों की नियुक्त भी वही करता था।
दारोगा-ए-डाक चौकी
डाक विभाग का अध्यक्ष दारोगा-ए-डाक चौकी कहलाता था। उसका प्रधान कार्य डाक भेजना तथा प्राप्त करना होता था। वह साम्राज्य के विभिन्न भागों में होने वाली घटनाओं की सूचना रखता था।
अन्य अधिकारी
राज्य की टकसालों तथा विभिन्न प्रकार के कारखानों की देखभाल के लिए भी अलग-अलग दारोगा होते थे।
प्रान्तीय शासन
केन्द्रीय राजधानी आगरा तथा फतहपुर सीकरी से अकबर के विशाल साम्राज्य का संचालन सम्भव नहीं था। इसलिये अकबर ने अपने साम्राज्य को 18 सूबों में विभक्त किया- (1.) काबुल, (2.) मुल्तान, (3.) लाहौर, (4.) दिल्ली, (5.) आगरा, (6.) इलाहाबाद, (7.) अवध, (8.) बिहार, (9.) बंगाल, (10.) अजमेर, (11.) मालवा, (12.) गुजरात, (13.) खानदेश, (14.) बरार, (15.) अहमदनगर, (16.) उड़ीसा, (17.) काश्मीर तथा (18.) सिन्ध। कुछ इतिहास लेखकों ने केवल 15 सूबों का उल्लेख किया है। प्रान्तीय शासन केन्द्रीय शासन का लघु प्रतिरूप था।
प्रांतीय शासन के अंग
(1.) सूबेदार
प्रान्तीय शासन का प्रधान सूबेदार या सिपहसालार कहलाता था। वह प्रान्त में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था। उसकी नियुक्त बादशाह करता था और वही उसे हटाता अथवा बदलता भी था। सूबेदार को बादशाह के आदेशों के अनुसार काम करना पड़ता था। बादशाह प्रत्येक सूबेदार पर कड़ा नियन्त्रण रखता था।
सूबेदार सूबे में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी था। इसलिये सूबेदार प्रांतीय सेना का सेनापति होता था। सूबेदार किसी विदेशी राजा अथवा राजकुमार के साथ सन्धि अथवा विग्रह नहीं कर सकता था। वह प्रांतीय क्षेत्र में न्यायाधीश का कार्य करता था परन्तु वह किसी को प्राणदण्ड नहीं दे सकता था।
(2.) दीवान
प्रान्त का दूसरा प्रधान अधिकारी दीवान था। वह सूबेदार के समकक्ष होता था। उसकी भी नियुक्त भी बादशाह करता था। वह सूबेदार से बिल्कुल स्वतंत्र रहकर सीधे बादशाह के नियन्त्रण में काम करता था। वास्तव में सूबेदार तथा दीवान एक दूसरे के कामों पर दृष्टि रखते थे जिससे विद्रोह की सम्भावना कम रहती थी।
दीवान का प्रधान कार्य प्रान्त के आय-व्यय का हिसाब रखना और अर्थ सम्बन्धी समस्त विषयों का निरीक्षण करना एवं नियन्त्रण रखना था। भूमि तथा लगान सम्बन्धी विवादों का फैसला दीवान ही करता था। वह कृषि में वृद्धि का प्रयत्न करता था।
(3.) सुद्र
‘सुद्र’ की नियुक्त केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती थी। सुद्र का प्रधान कार्य दान विभाग का प्रबन्ध करना होता था। विद्वानों, सन्तों, फकीरों, दीन दुखियों, असहायों आदि की सहायता के लिए राज्य की ओर से भूमि तथा धन दान में दिया जाता था। इसकी व्यवस्था सुद्र करता था। इस पद पर उच्चकोटि के विद्वान तथा पवित्र आचरण के लोग नियुक्त किये जाते थे।
(4.) आमिल
आमिल का अर्थ होता है अमल में लाने वाला। उसका प्रधान कार्य मालगुजारी वसूल करना होता था। इसलिये उसे कारकून, मुकद्दम तथा पटवारी के कागजों का निरीक्षण करना पड़ता था। प्रान्त में शान्ति तथा सुव्यवस्था करने में भी उसे सहयोग देना पड़ता था। आमिल अन्य कई प्रकार के कार्य करता था।
(5.) वितिक्ची
वितिक्ची आमिल का समकक्षी था। हिसाब-किताब में निपुण तथा लेखन कला में प्रवीण व्यक्ति इस पद पर नियुक्त होते थे। वितिक्ची प्रत्येक ऋतु की लगान का हिसाब रखता था और केन्द्रीय सरकार को वार्षिक लगान का हिसाब भेजता था।
(6.) पोतदार
पोत का अर्थ होता है लगान और दार का अर्थ होता है वाला। अतः पोतदार उस अधिकारी को कहते थे जो किसानों से लगान प्राप्त करता और सरकारी कोष को सुरक्षित रखता था।
(7.) फौजदार
सूबेदार के नीचे प्रान्त का सबसे बड़ा सैनिक अफसर फौजदार कहलाता था। उसकी नियुक्त सूबेदार करता था। प्रत्येक प्र्रान्त में कई फौजदार होते थे। इनका मुख्य कार्य प्रान्त में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखना होता था। फौजदार, सूबेदार को प्रत्येक कार्य में सहायता देता था।
(8.) कोतवाल
प्रान्तीय नगरों में कोतवाल लोग शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए नियुक्त किये जाते थे। कोतवाल नगर का सबसे बड़ा पुलिस अफसर होता था। चोरी तथा डाके को रोकना, अपराधों का पता लगाना और बाजार में नाप-तौल का निरीक्षण करना उसके मुख्य कार्य थे।
(9.) सूचना तंत्र
राजकीय सूचनाएँ लाने-ले जाने के लिए सूचना वाहक नियुक्त किये जाते थे। वे चार भागों में विभक्त थे- (1.) वाक-ए-नवीस, (2.) सवानह-निगार, (3.) खुफिया नवीस तथा (4.) हरकारह।
नवीस का अर्थ होता है लिखनेवाला। वाक-ए-नवीस प्रान्त की समस्त बातों की सूचना रखता था और उसे केन्द्रीय सरकार के पास भेज देता था। सवानह-निगार का अर्थ होता है वाकयात या घटनाएँ और निगार का अर्थ होता है लेखक। सवानह-निगार का कर्त्तव्य सच्ची बातों का पता लगाकर वाक-ए-नवीस के पास भेजना होता था।
खुफिया नवीस प्रान्त का गुप्तचर होता था और वह गुप्त रूप से बातों का पता लगाता था। हरकारह एक स्थान से दूसरे स्थान की सूचनाएँ ले जाता था। ये चारों प्रकार के सूचना वाहक एक दरोगा के नियन्त्रण में काम करते थे।
(10.) लगान वसूलने वाले कर्मचारी
लगान वसूल करने के लिए कई कर्मचारी होते थे। करोड़ी लगान वसूल करके पोतदार के पास भेजता था। अमीन लगान निश्चित करता था। अमीन का अर्थ होता है अमानत अर्थात् धरोहर रखने वाला। यह विश्वसनीय कर्मचारी होता था। कानूनगो परगना अफसर होता था। गो का अर्थ होता है कहने वाला। कानूनगो भूमि सम्बन्धी कानूनों तथा नियमों को जानता था। वह भूमि तथा लगान के ब्यौरे का रजिस्टर रखता था। गाँवों में पटवारी तथा मुकद्दम होते थे। मुकद्दम कदम शब्द से बना है जिसका अर्थ है आगे चलने वाला या मुखिया।
स्थानीय शासन
सबसे निचले अर्थात् तीसरे स्तर पर स्थानीय शासन होता था। इसमें जिला प्रशासन से लेकर परगना प्रशासन तथा ग्राम प्रशासन की इकाइयाँ होती थीं। इन तीनों इकाइयों के विभिन्न अंग होते थे-
(1.) सरकार या जिला
शासन की सुविधा के लिए प्रत्येक सूबे को कई ‘सरकारों’ या जिलों में विभक्त किया गया था। सरकार का सबसे बड़ा हाकिम फौजदार होता था। कोतवाल, वितिक्ची तथा पोतदार जिले के अन्य पदाधिकारी होते थे।
(2.) महाल या परगना
प्रत्येक सरकार या जिला कई महाल या परगनों में विभक्त रहता था। परगने का प्रबन्ध शिकदार, आमिल तथा कानूनगो के हाथ में रहता था।
(3.) गाँव
प्रत्येक महाल या परगने में कई गाँव होते थे। गाँव, शासन की सबसे छोटी इकाई थे। गाँव का प्रधान अधिकारी मुकद्दम कहलाता था। यह गाँव का प्रधान या मुखिया होता था और लगान वसूल करने तथा शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखनें में सरकारी कर्मचारियों की सहायता करता था। गाँव का दूसरा मुख्य कर्मचारी पटवारी था जो भूमि एवं लगान आदि का रजिस्टर रखता था।
करों में कमी
अकबर ने प्रजा पर से अनेक करों को समाप्त कर दिया। उसने हिन्दू प्रजा पर से जजिया, जकात तथा तीर्थयात्रा करों को समाप्त कर दिया। आम प्रजा से वृक्ष-कर, बाजार-कर, गृह-कर तथा ऐसे ही अनेक अन्य करों को भी समाप्त कर दिया। बादशाह ने कोतवालों तथा अमल-गुजारों को आदेश दिया कि वे नियमों का ठीक से पालन करायें और भ्रष्ट कर्मचारियों को कठोर दण्ड दें।
अकाल अथवा अन्य दैवी प्रकोप होने पर किसानों के लगान में कमी की जाती थी। निर्धन किसानों की धन से भी सहायता की जाती थी जिससे वे बीज, पशु तथा औजार आदि खरीद कर सकेें। इन सुधारों से किसानों की दशा में सुधार हुआ।
मोरलैण्ड ने लिखा है- ‘यदि उस समय के स्तर से मूल्यांकन किया जाय तो आर्थिक दृष्टिकोण से अकबर का शासन श्लाघनीय था क्योंकि उसके कोष में सदैव वृद्धि होती गई और जब उसने पंचत्व प्र्राप्त किया तब वह संसार का सर्वाधिक समृद्ध शासक था।’
अकबर के न्याय सुधार
अकबर की न्याय व्यवस्था में बादशाह सबसे बड़ा न्यायाधीश था। मुकदमों की अन्तिम अपीलें उसी के पास जाती थीं। उसके नीचे काजी-उल-कुजात अर्थात् प्रधान काजी होता था। काजी-उल-कुजात के नीचे अनेक काजी होते थे। प्रत्येक न्यायालय में तीन पदाधिकारी होते थे- काजी, मुफ्ती तथा मीर अदल।
काजी मामले की जाँच करता था, मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था और मीर अदल फैसला सुनाता था। न्याया का कोई निश्चित विधान नहीं था। मुसलमानों के विवादों का निर्णय कुरान के नियमों के अनुसार होता था। हिन्दुओं के मामलों में उनके रीति-रिवाजों का ध्यान रखा जाता था। दण्ड-विधान बड़ा कठोर था। राजद्रोह तथा हत्या करने वालों को प्राण-दण्ड दिया जाता था। अंग-भंग करने का भी प्रावधान था। छोटे-छोटे अपराधों के लिये भी बड़े जुर्माने किये जाते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अकबर की शासन व्यवस्था पर्याप्त सुदढ़ थी।
मूल आलेख – मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना – जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर
अकबर के शासन सम्बन्धी उद्देश्य
अकबर की शासन व्यवस्था



